प्रतिमा की कविताएँ ( कहाँ हो विधाता ! और अन्य)

प्रतिमा

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित. संपर्क :
rjpratima@gmail.com

सेनाएँ
कभी नहीं जाती
सेनाएँ हड़ताल पर
बेमौत मरने के खिलाफ
नहीं उठाती आवाज़ कभी
न जाने क्यों ?
बुद्ध की असंख्य मूर्तियाँ
नहीं बिछा देती रणभूमि में
नहीं लिखती कविताएँ
मृत्यु के खिलाफ
न जाने क्यों ?
हर देश में कश्मीर होना जरुरी है
जहाँ चलता रहे मौत का प्रशिक्षण अनवरत
जहाँ की उर्वर मिट्टी में
मिला दिए जाते खाद की जगह बारूद
और खिलंदड़ करते युवाओं को
बना दिया जाता सेनाओं का जत्था
प्रेमिकाओं के ख्वाब में डूबे रहनेवाले
कोमल कच्चे मन को
तोपों और बमों के बीच
सिखाया जाता खूनी खेल
बनाया जाता खूंखार
और बाँटा जाता है मौत का तगमा
न जाने क्यों ?

सेनाएँ खामोश खड़ी है
हाथों में लिए बन्दूक
क्यों नहीं सवाल करती
क्यों नहीं हड़ताल करती
क्यों नहीं बन्दूक की नलियों में भर देती स्याही
क्यों नहीं उठाती कूची
और बना देती नवजात शिशु का चित्र
सरहदों के काँटेदार तारों पर
नहीं सुखाती खून से सनी हुई अपनी कमीजें
न जाने क्यों  ?


 जाने क्यों  नहीं टूटती आस !

जाने क्यों ?
लगी रहती है आँखें सड़क के मोड़ पर
टकटकी लगाए करती है इन्तजार
कि अनायास कभी
काका, मौसी, बुआ, मामा…
आ जाएँगे लेने बिटिया का हाल
कि ले आएँगे पोटली में बाँधकर
तिलौड़ी, फुलौड़ी के साथ अथाह दुलार
माया में सिमटकर करेंगे ढ़ेरों इधर-उधर की बातें
ढ़ूँढ़ेंगे घर के कोने में पड़ी मेरी हँसी
उदासी का सबब ढ़ूढ़ेंगे
और मुझसे नजरें बचाकर
नाप लेंगे घर का सन्नाटा
टटोलेंगे किसी रैख पर पड़ी सुख-दु:ख की थैली
टूटी हुई चप्पल को देखकर
लगा लेगें तंगी का हिसाब
तलाशेंगे मेरे रतजगे का कारण
और हिलसकर फेरेंगे मेरे सिर पर
अपना स्नेहमय हाथ
कि माँ-पिता के बाद भी
माँ के घर नहीं सूखा है अभी
तुम्हारे हिस्से का पोखर
आ जाओ जब जी करे
डूब लो उसमें, और भिगा लो अपना मन !

कहाँ हो विधाता !

घनघोर अन्हरिया है विधाता
हाथो-हाथ नहीं सूझ रहा
कौन जलाएगा डिबिया
चित्त उचट गया है, उसके जाने के बाद से
क्यों नहीं सोचा वो जहर खाने से पहले
कि कैसे होगी कटनी, बैल का पैसा कौन भरेगा
कौन चुकाएगा बैंक का कर्ज, और बनिया कैसे मानेगा
मतारी छाती कूट रही है दिन-रात

सबके खेत में हँसिया लहरा रही है
बोझा बन रहा है कतार से
सीस चुन रह हैं बच्चे दौड़ दौड़कर
मेरा खेत उदाम पड़ा है
किसको फुरसत है हाथ बटाने की
कौन सुनेगा मुझ अभागन को
बचे हुए धान का कैसे होगा हिसाब
कितना बटैया मिलेगा
और क्या भेजूँगी बबनी के ससुराल
भोरे भोर महाजन आएगा
नहीं काटने देगा फसल
बैल भी खोलकर ले जाएगा
करेगा मुझे तार-तार
बच्चे देखेंगे टुकुर टुकुर
अधीर हो जाएँगे बिना बाप के
कहाँ से बाँधू धीरज
जाने कहाँ हो विधाता !

 मुंबई मेरी जान 

मुंबई में हाई अलर्ट था
लोग काम में मशगूल थे
माँ बिस्तर पर लेटी हुई थी
बाहर खेल रहा बच्चा
भागा हुआ माँ के पास आया
और सटकर खड़ा हो गया
बताने लगा अपने दोस्तों के बारे में
माँ की नीची झुकी हुई नज़रें उसे देख रही थी
उसकी ठोढ़ी पर हाथ फेरी

वो माँ से और सट गया

मुँह में मुँह सटाकर
अपने दोस्तों की शिकायत करने लगा
झगड़ा के बारे में बताने लगा
माँ के गर्दन में पड़े माला से खेलने लगा
माँ ने कहा ‘बहार जाकर खेलो’
पर उसे अपना दूध याद आया
वो माँ की छाती का कपड़ा खीचकर अन्दर झाँका
और पेट पर चढ़कर बैठ गया
माँ ने कहा ‘बहार जाकर खेलो’
वो छाती से चिपककर लेट गया
माँ थपकियाँ देने लगी और वो सो गया
उसकी बाहें माँ की गर्दन से लटक रही थी
वो सपने में दूध पी रहा था
माँ बाल सहला रही थी
और विस्फोटकों का जखीरा
सही सलामत मुंबई पहुँचा दिया गया

 मुक्त करो इस मानव को

कौन है वो क्रूर मेरे भीतर
जो करता है ममता को शर्मसार
और देता है चुनौती
कि एक संतान को चुनो
या चुनो दूसरे को
ऐसा मुमकिन नहीं कि
एक ही गोद में दोनों का सिर रखकर
साथ में दो थपकियाँ,
एक ही आँचल से पोछो
दोनों के माथे पर छलका पसीना,
और न ही ये संभव है कि
एक ही थाली में सानकर भात
भर दो हम दोनों का पेट

अब तुम्हें चुनना होगा
दोनों में से किसी एक को
किसका भरना चाहोगी पेट
किसे पुचकारोगी प्रेम से
किसकी तकलीफ में
छटपटाओगी रात भर
और अधीर होकर
किसे समेटोगी बार बार सीने में

भले हम एक ही कोख में पले
एक ही छाती से तुमने दूध पिलाई हो भले
पर अब तुम्हे चुनना होगा
किसी एक का सुख-दु:ख
एक का हँसना-गाना
कोख में उलटने-पलटने की यादें
और बचपन की मासूम हरकतें

भले तुम उसी के साथ चली जाओ
जो करती नहीं परवाह उस समाज की
जो देता है मेरे हाथों में
परिवार का बागडोर
जिम्मेदारियों को निभाने की शक्ति
संस्कृति को समझने का नजरिया
दिखाता है सत्ता का रंग
लुभाता है
बताता है पुरुष होने का महत्व
करवाता है खतरनाक काम
और
बदले में ले लेता है
माँ, पिता, भाई, बहन
मेरा सारा बचपन
सारी दुआएँ
सारी लोरियाँ
सारी थपकियाँ

बचपन से ही मेरे पाँव में
बान्धता है कई जँजीरें
तुम्हारी आँचल की छाँव से दूर
फेकता है जलती अलाव पर
बना देता है मुझे क्रूर
जो तय कर सके ममता की आयु
रख सके प्रेम का हिसाब
और देते रहे ब्यौरा
कि किसका करना है बहिष्कार
और किसे स्वीकृति देनी है

मैं करता रहा, मैं करता रहा
मैं मरता रहा, मैं मरता रहा
मैं लड़ता रहा ,मैं लड़ता रहा
सारे मानवी मूल्यों को
‘मनु’ के साँचे में ढ़ालता रहा
सवालों का सिर मरोड़ता रहा
गिरता रहा, सम्भलता रहा
तड़पता रहा, धधकता रहा
तलाशता रहा तेरी आँचल का छोर
जिसे फाड़कर
पाँव की बेड़ियों में तब लपेट लिया था
जब रिवाजों को ढ़ोते हुए
कमजोर पड़ा था मैं

अकेले चलते चलते
अब थक गया हूँ माँ !
लोग आगे निकल गए हैं
मैं छूट गया हूँ बहुत दूर
पीछे जलती धूप है और
आगे है अलाव
आकर सम्भालो मुझे
मुझसे बचा लो मुझे
लोरी सुना दो मुझे
नींद अब आती नहीं
छटपटाती रातों में
बिस्तर के सिलवटों पर
ढूँढ़ता हूँ तुम्हारा स्पर्श
सिरहाने आकर खड़ी होती हो तुम
मुझे पहचानती नहीं
मुझे पुचकारती नहीं
गुनगुनाती नहीं कोई लोरी
नहीं देती हल्की-सी थपकियाँ
मैं सदियों से जाग रहा हूँ
पर अब मुझको सोना है
करो तुम दोनों हाथ उठाकर
एक बार फिर से मेरे लिए प्रार्थना
हाय समाज ! ओ रे समाज !
अब मुक्त करो इस मानव को !



 सभ्यता 

स्कूल जाते हुए बच्चे
ढ़ो रहे हैं पीठ पर

सभ्यताओं का बोझ
झाड़ रहे हैं
बस्ते पर जमी धूल
पोखर के घाट पर जा
धो आते एड़ियाँ बार बार
फिर भी घर लौटते हुए
लथपथ हो जाते उनके तलवे

  स्त्री आन्दोलन

पूरी दुनियाँ की स्त्री अगर
कर दे आन्दोलन अपने शोषक के खिलाफ
अगर खोया हुआ हक माँगे
माँगे अपना पूरा अधिकार
तो ये समाज ढ़ह जाएगा धड़धड़ाकर
लेखकों की कलमें डूब जाएगी नीमरस में
शायर तड़पेंगे रातों को
चाँद नाले में उतर आएगा
प्रेमिकाओं का चेहरा विभत्स हो जाएगा,
डरावना हो जाएगा

देह नहीं रह जाएगा भूल भुलैया
नख से लेकर शिख तक का सफर
सौन्दर्य का गुफा नहीं रह पाएगा
नहीं बन पाएगी विभत्स ब्लू फिल्में
और हाथों में अपना देह लिए स्त्री
नहीं लुभा पाएगी पुरुषों को
नहीं दिखा पाएगी योनि में कोई तिलिस्म

अगर पूरी दुनियाँ की स्त्री
आन्दोलन कर दे अपने शोषक के खिलाफ
तो ढ़ह जाएगा ये समाज
विद्रूप हो जाएगा इतिहासकारों का चेहरा
रंग उतर जाएगा दुनिया के महान चित्रों से
स्त्री सौन्दर्य की देवी नहीं रह जाएगी
बाप और बेटों द्वारा छली नहीं जाएगी
पतियों द्वारा रौंदी नहीं जाएगी
न ही छुपाई जाएगी
न ही दिखाई जाएगी कपड़ों के अलग-अलग हिस्सों से
टांग दी जाएगी दीवारों पर नंगी
या काट दिए जाएँगे स्तन बेहिसाब
भर दिए जाएँगे योनि में शीशा या पत्थर
पर नहीं लिख पाएगा खोखला इतिहास
नहीं गढ़ पाएगा कोई झूठा साहित्य
नहीं लिखेगा कोई “लंगड़ा स्मृति”
नहीं भरेगा कोई पुरुष होने का स्वांग

पूरी दुनिया की स्त्री
अगर वारिस को पालने से इनकार कर दे
गिरा दे गर्भ बिना किसी से पूछे
या नाले में बहा दे छाती का सारा दूध
सोने की कड़ियाँ उछाल दे आसमान में
तो ये समाज ढ़ह जाएगा धड़धड़ाकर
ढ़ह जाएगा ये ढ़ाँचा
बह जाएगी वो सारी उतकृष्ट रचनाएँ
जो रची गई है स्त्रीदेह के आसपास

अगर पूरी दुनिया की स्त्री माँग ले अपना पूरा अधिकार
तो सबसे पहले कठघरे में होंगे पिता और पुत्र
फिर आएँगे बारी-बारी से हर एक पुरष
राजाओं की गद्दियाँ गिर जाएगी
गिर जाएगा पूरा समाज

अगर पूरी दुनिया की स्त्री
अपनी लाश बिछाने से कर दे इनकार
माँगे इन्सान होने का पूरा हक़
तो सबसे पहले मरेंगे देवता
फिर मरेगी सत्ता
मर जाएगी पुरुष की बनाई ये दुनिया
फिर मरेगा सारा झूठ
और सबसे अन्त में मर जाएगा पुरूष
और खत्म हो जाएगा स्त्री आन्दोलन

 भरोसा नहीं 

भरोसा नहीं रहा
कि आनेवाले बच्चों को
दे पाएँगे कोई ढब की ज़िंदगी, लेकिन
शिक्षा पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि हो पाएगा अब
किसी के भी साथ न्याय, लेकिन
न्यायपालिका पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि अब न आए
कोई जन-विरोधी नीति, लेकिन
व्यवस्था पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि ये सभ्यता
बर्बरता को कम कर पाए, लेकिन
सभ्यता पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि कोई भी संसद
मनुष्य को संसाधन न समझे, लेकिन
संविधान पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि धूप दे हमेशा गर्माहट
और आसमान से केवल पानी ही बरसे, लेकिन
सरकार पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि राजनितिक खेल का परिणाम

हो हमारे हित में, लकिन
नेताओं पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि हमारा जीना-मरना
अकेले ईश्वर ही तय कर रहे, लेकिन
ईश्वर पर भरोसा है
भरोसा नहीं कि कोई भी स्तम्भ अब
उठाने लायक रहा नई पीढ़ी का भार, लेकिन
लोकतंत्र पर भरोसा है .

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