स्लीपिंग पार्टनर

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

शताब्दी अपनी रफ्तार से भागी जा रही थी। मैं सारे रास्ते जाने क्या-क्या सोचता समझता रहा और समीक्षा, सामने सीट पर पैर पसारे ‘कैट स्केनिंग’ करती रही।


 मेरे दिमाग में सालों पीछे छूटा गाँव, घर, खेत, खलिहान और गुरुकुल बसते-उजड़ते रहे, लहंगा-ओढ़नी पहने नानी माँ किस्से-कहानियाँ सुनाती रही और बहुत से नंग-धडंग बच्चे दूर जंगल में भेड़-बकारियाँ चराते रहे।


बीच-बीच में ऐसा लगता जैसे बिना बताए डाकिया, बंद दरवाजे के नीचे से कोना फटा पोस्टकार्ड सरका कर चला गया हो। हर बार कोना फटा पोस्टकार्ड। उस समय ममता, करुणा, स्नेह, प्रेरणा, प्रतिभा और स्मृति के शवों और शवों की स्मृतियों में चौतरफा घिरा मैं,   शमशान सा उदास और अकेला हो जाता। बता नहीं सकता कितना बैचैन…. कितना परेशान।

अनुवाद


समीक्षा-कोई मिथक, कल्पना या सपना नहीं, हाड़-मास की जीती-जागती, हँसती-खेलती और घूमती-फिरती लड़की है। लेकिन पता नहीं क्यों कभी लगता कल्पना या सपना भी हाड़- मांस की जिन्दा लड़की हो सकती हैं और कभी लड़की भी मिथक, कल्पना या सपना सी लगने लगती। ‘मेकअप’ में वह मुझे भी ऐसी जासूस लगती जो मेरी क्या मेरे महाजनक तक की जन्मपत्री बांचे हुए हो और कभी जादुई काहानियों वाली साक्षात् जादूगरनी, चुडैल या डायन जो मौका लगते ही मुझे तोता, बुलबुल, मैना या कबूतर बना कर सोने के पिंजरे में बन्द कर देगी। ऐसे में मुझे उस खतरनाक लड़की से बेहद डर लगता ओर बार-बार मन करता कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं दूर पहाड़ी जंगलों में जा साधु-संन्यासी बन जाऊँ, घोर तपस्या करुँ, और मोक्ष प्राप्त करके जीवन जीवन-मरण के दुष्चक्र से सदा-सदा के लिए छुटृी पाऊं। लेकिन ‘किन्तु-परन्तु’ और ‘अगर-मगर” ने  मुझे पूजा साधना या अराधना में ही उलझाए रखा और कभी कुछ करने ही नहीं दिया।

समीक्षा की भाषा में मैं अपने पिता और वह अपनी मम्मी की कार्बन-कॉपी हैं।  मुझे नहीं मालूम माँ कब, कहाँ, कैसे और क्यूँ मरी या मार दी गयी हैं। हाँ! जब भी कोई पूछता, ‘‘आपका नाम, बाप का नाम?’’ तो मैं बिना सोचे-समझे बता लिखा देता वाही नाम जो मेरे स्कूल सर्टिफिकेट में लिख लिखा दिया गया था। मम्मी-पापा के प्रेत, हर समय हमारे आस-पास मंडराते रहते और पता नहीं हम कभी इनसे मुक्त हो भी पाएंगे या नहीं।
मैं अक्सर कहता-काश! हम मम्मी-पापा होते।


नानी माँ के जाने के बाद कई-कई बार सोचना पड़ता स्थायी अता-पता और सोचते-सोचते आकाश बयां के घोसलों सा लटका नजर आता। उजाड़ और सुनसान। ऐसे समय में सुबह से शाम तक मैं हर कुछ देर बाद माचिस की एक तिल्ली जलाता और रोज यह फैसला करके सोता या सो जाता कि कल पूरी माचिस में ही आग लगा दूँगा, …. आग। लेकिन कह नहीं सकता क्यों?  समीक्षा जब भी चश्मा उतार लाड़ से कहती, ‘‘तुम बिल्कुल पापा जैसे लगते हो।’’ तो मुझे महसूस होता कि या तो उसके पापा ही मेरे पिता होंगे या फिर मेरे पिता उसके भी पापा। मैं अनुमान लगाता- ‘हो सकता है उसकी मम्मी ने मरते समय सच बता दिया हो’ और कान में नानी माँ कहने लगती, ‘‘कोई भी आदमी या औरत, मरते समय झूठ नहीं बोलता।’’ मुझे नहीं मालूम उसकी ‘मेम साहब’ सी मम्मी ने सच बोला या झूठ । मुझमें जब पालतू पिल्ले से पापा नहीं मिलते तो वह अक्सर ‘स्माइल प्लीज’ जैसी हँसी दिखाते हुए कहती, ‘‘ यू सन् ऑफ ए गन’’ और बिलियर्ड खेलने लगती। कई बार जीती जाती तो उसे शक होता  कि मैं उसे जानबूझ कर जीतने देता हूँ। शायद इसलिए उसने एक दिन झल्ला कर कहा भी, ‘‘हाई यू आलवेज गिव ए मिस?’’ मैं सिर्फ ‘‘ ओह नो… मिस…. नो’ कह कर टालने की कोशिश करता रहा।


वह दुधिया रोशनी में दुनिया भर के चमड़ा उघोग के शेयरों के भाव बताते-बताते अचानक अपना पर्स उठाती और यह कह कर ठक…. ठक…. ठक… करती मेरी समझ से बाहर चली जाती- ‘‘यू आर ट्राइंग टू किस ए गनर्ज डॉटर।’’

मैं दुधिया रोशनी में गालियाँ देता, कार्टून बनाता, प्रेम कविताएँ लिखता, इन्द्रजाल फैलता, सफेद कमीज को लाल-काली  करता, और सारा दिन बू…बू… करता प्याज के छिलके उतारता रहता। अपने को “वाईज” और उसे “अदरवाईज” समझता मैं, कभी गिटार बजाता ओर कभी जोर-जोर से गाता‘‘इट… इज ए मैड… मैड मैड वर्ल्ड…..’’



होश आता तो समीक्षा….. समीक्षा प्लीज समीक्षा करने लगता। वह जितना पढ़ाती- समझाती- रिझाती मैं अपने पिताजी की तरह उतना ही उलझता ऐंठता चला जाता। उस समय वह एकदम मम्मी सी लगती। हर बार वह ब्रह्माण्ड सुन्दरी सी हँसती हुई आती मगर जाते-जाते बच्चों की तरह रोने लगती। कई दिनों तक वह मन में गुलाबी मछली सी तैरती रहती और मैं ऑइस बॉकस से बेडरुम में पड़ा-पड़ा ‘शो पीस’ देखता रहता। नींद में चूल्हे पर चाय का पानी रख शान्ति की तलाश में निकल पड़ता। हाथी दांत से बने द्वार तक पहुँचते-पहुँचते ऐसा लगता जैसे धरती से अम्बर तक आग लगी है…. आग लगी है इस कोने से उस कोने तक दुनिया भर में। चारों ओर चंदन वन में विष वृक्षों पर फन फैलाये सांप, टहनियों से लटके लिपे-पुते भयावाह चेहरे और आगे-पीछे टहलते हाथियारबन्द शिकारी नजर आते।


सुबह-सुबह अखबार सी समीक्षा आ दरवाजा खटखटाती तो मैं हड़बड़ा कर उठता। दरवाजा खोलता ओर देखता कि कमरे में धुआँ ही धुँआ भरा है। चौखट पर खड़ी समीक्षा काफी देर तक दमें के मरीज की तरह खांसती रही और मैं ग्रर्भग्रह से बाहर निकल सड़क पर जहर खाकर मरे चूहों की शवयात्रा में शमिल हो कहने लगता- ‘‘ राम नाम सत है, सत बोलो गत है..’’

यस पापा


शवयात्राओं से लौटता तो “घर सूना बिन कामिनी’ के आदेश- उपदेश देते ‘हैंड लैटर्स’ पढते- पढ़ाते मन में मिट्टी के घरौंदे बनाते- तोड़ते बच्चे खेलने लगते और आँखों में सजा शामियाना धूँ… धूँ कर जलने लगता। सामने शीशे में बणी – ठणी सी समीक्षा आ खड़ी होती और मैं जाने- अनजाने नाखून चबाते-चबाते अंगूठा चूसने लगता। दोनों आमने-सामने अड़े टिक…. टिक सुनते रहते और चुपके-चुपके हवाई जहाज बनाते – उड़ाते शाम हो जाती।
‘ड्राईक्लीन’ कर बाहर निकलता और बस स्टॉप पर पहुँचकर घंटों  सोचता- ‘कहाँ चला जाए? घूम-फिर कर क्लब पहुँचाता और रात देर गए टैक्सी पकड़ वापस आ जाता। नशे में कभी-कभी लगता बिस्तर में बेसिर -पैर की समीक्षा सोई पड़ी है- अँधेरे में सिर पैर ढूँढते-ढूँढते बेहद भयभीत और आतांकित हो चीखने की कोशिश करता लेकिन गले से आवाज नहीं निकलती। आँख खुलती तो पता लगता कि फर्श पर रजाई में दुबका पड़ा हूँ। बहुत देर तक समझ ही नहीं आता कि ऐसा कैसे हुआ? फिर सोचता शायद रात कुछ ज्यादा हो ही गई और रजाई उठा पलंग पर सोने की कोशिश करता लेकिन नींद न आती। सिरहाने रखे ‘मार्निंग गिफ्ट’ को बार-बार उलट-पुल्ट कर देखता और फिर से पैक करके रख देता। मैं करवटें बदलता गिनता-गिनाता रहता दिन, महीने, साल और हर साल अपने आपको समझाता- ‘ जो होगा, देखा जाएगा’ पर बार-बार ख्याल आता बचपन में बिछुड़े बसन्त से न जाने कब मिलना होगा?’’ होगा… नहीं होगा’…. शायद हो… शायद नहीं। सोकर उठता तो बहुत देर तक सिर पकड़ कर बैठा रहता। ‘हैंग औवर’में पानी पीते-पीते याद आता- ऐसे ही एक रात वह भी पीकर आई थी। न जाने कहाँ से और कितनी ।  सुबह हुई तो पता चला वह नहा-धोकर कब की चली गई और मैं उल्टियों से गन्धाते बिस्तर में पड़ा सपने देखता रह गया…. सपने।’


उस दिन के बाद सालों मेरे दिमाग में सारी-सारी रात वह भेष बदल-बदल कर फेरे  लगा  रही। कभी सार्थक के साथ ठहका लगा हँसती हुई, कभी वैभव और समर्थ के साथ रोती-पीटती हुई और कभी मोहित या प्रतीक की बाँहो में बेहोश। मैं नशे मैं बड़बडाता । चीखता-चिल्लाता और अमावस की रात में उसका पीछा करता लेकिन वह बहुत तेजी से भूरी- जंगली बिल्ली की तरह छलांग लगाते-लगाते सारी दीवारें तोड़ती, सरहद के उस पार भाग जाती और मैं बरामदे में पड़ी बैसाखियाँ समटेते-समटेते अपने बाल नोचने लगा।



लोग कहते-सुनते रहते। मैं गमले तोड़ता, फूल नोचता, किताबें फैंकता, नंग-धडंग, नाचता, लड़ता-झगड़ता, तितलियाँ पकड़ता, बारुद बिछाता और आग लगाता- लगाता पागलखाने पहुँच जाता। महीनों तक डाक्टर विद्याधर दिमाग ठीक करते मगर ऐसे दौर पड़ते ही रहे। शायद सिर्फ कारण बदलते रहते। कभी कुछ….. कभी कुछ।


समीक्षा पागलपन का पोस्ट…. पोस्ट….पोस्टमार्टम करती रहती और मैं बोर्डरुम में बैठे-बैठे एक भरी-पूरी और खेली खाई औरत का कच्चा चिट्ठा तैयार करते-करते सपनो की परिभाषा में उलझ जाता । मैं अक्सर चाय-कॉफी के साथ सिगरेट, कभी सिगार और और कभी पाइप पीते-पीते विरासत में मिले किसी पुराने प्लॉट पर ‘मल्टी स्टोरी” का नक्शा बनाने लगता। मालूम नहीं कितनी बार हवादार हवेली सा मन्दिर, किले की मजिस्द , शानदार कोठी या चर्च और एयरकंडिशंड बंगले सा गुरुद्वारा बनाता‘- मिटाता रहा या हवेली को किले और कोठी को बंगले में अदलता- बदलता या खरीदता-बेचता रहा।


समीक्षा मिलती तो खेलकूद से लेकर दर्शनशास्त्र तक पर शास्त्रार्थ करने लगती ओर मैं किले सी कोठी के ड्राईंगरुम में सिगरेट सुलगाता और लम्बा कश खींच धुँआ उंडेलते मन ही मन आत्मसर्मप्ण कर सोचता- छोड़ो! अभी बहस में पडूँगा तो सारा मामला और उलझ जाएगा। लेकिन आहत और अपमानित इतना कि ठांय! ठांय !! हवा में बन्दूक दागता रहता।


कभी वह समाजशास्त्र पढ़ाने- समझाने लगती और कभी भ्रूणहत्या से सती तक का इतिहास। बलात्कार हत्या और आत्महत्याओं के आंकड़े बताते-गिनाते उसका मुहँ गुस्से में लाल हो जाता। मैं दो घूँट  ले समझता- पगाल है…. पागल। जब देखो पता नहीं क्या- क्या पढ़ती लिखती बोलती रहती है।


सुलगती सिगरेट को ऐशट्रे में मसलता और उठकर धूमने- घुमाने चला जाता। घंटों गोल गुम्बद के नीचे बैठा-बैठा योजनाएँ बनाता- बिगाड़ता  रहता। समीक्षा किताबों की धूल झाड़ती या फटी- पुरानी धुन लगी पोथियों पर नरम और चिकने चमड़े का ‘कवर’ चढाती रहती। लौटने के बाद मैं  पड़ोस में गीता और मनु के साथ उनके लॉन मैं बैठा शतरंज खेलता- खिलाता रहता।

समीक्षा एक दिन भी नहीं मिलती तो मैं बैचेन हो जाता। वह नहीं आती तो मैं उसके यहाँ जा पहुँचता। जब कभी नहीं मिलती और दरवाजे पर ताला लगा होता तो मैं आशंकित हो अन्दाज लगाता- सार्थक…. समर्थ…. प्रतीक… वैभव … मोहित। सब जगह चक्कर काटकर वापस आता तो वह बाहर सीढियों पर बैठी ‘वॉर अगेंस्ट विमेन’ या भविष्य फल पढ़ रही होती। एक दूजे को देख मेरी सांस में सांस आती और उसके सांवले चेहरे पर मोर नाचने लगते। ताला खोलने के लिए चाबियाँ ढूँढते- ढूँढते ध्यान आता- अरे। आज तो ‘यहाँ’ जाना था… आज तो “वहाँ” जाना था… समीक्षा को देख मन कहता, ‘ नहीं…. आज कहीं नहीं जाना था।’ इसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं रहता या मैं खुद ही जानबूझ कर सब भूल जाता। कभी समीक्षा मुझे ‘ आत्महत्या के विरुद्ध ’ कविता जैसी लगती और कभी हत्या होने से बची कथा – नायिका सी।


कई बार सोचा कह दूँ ‘लेट अस गो टू द वर्ल्ड’ लेकिन कभी अध्यादेश जारी करते पापा सामने आ खड़े होते और कभी डॉलर, पाउंड या दीनार उछालती प्रतीक एण्ड कम्पनी। उस दिन समीक्षा का जन्म दिन था (पता नहीं कौन सा? ) और रात को  चौराहे पर खड़े-खड़े बहुत हिम्मत बटोर मैंने ही कहा था, ‘‘ सभी …. क्षा… आज मेरे साथ चलो ना! ….. क्या हम लाइफ पार्टनर नहीं बन सकते?’ सोचा एक बार ‘हाँ’कह दे, फिर तो मैं देख लूँगा अच्छी तरह।
समीक्षा ने गौर से सुना…. थोड़ा सोचा और शब्दों को तौलते हुए बोली ‘‘ आज से तुम्हारा मतलब? … मैं रोज किसी न किसी….’’
मैं सकपकाया और ‘‘नो प्लीज… नो करता रहा।


कुछ क्षणों के बाद उसने कहा, सॉरी डियर… मैं तुम्हारे साथ चलती … सात जन्म तक चलती…. अगर तुमने ‘आज’ न कहा होता। तुम हमेशा पार्टनरशिप की बात करते हो….. बात। मुझे लगता हैं तुम्हें लाइफ पार्टनर नहीं, ‘स्लीपिंग पार्टनर’ चाहिए…. स्लीपिंग पार्टनर’ चाहिए…. हर जगह स्…लीपि. ग…. पार्ट…. नर,’’ उसने काँपती आवाज और भेदती नजर से मेरी और घूर कर देखा तो मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे लाल-पीली बत्तियाँ उसकी आँखों में जल-बुझ रही थीं। इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह ‘पोनी टेल’ हिलाती हुई सड़क के उस पार जा चुकी थी।


मैंने सोचा ‘ उसका पीछा’ करने या समझाने – बुझाने से कोई फायदा नहीं’ और पंचर हुए पिछले पहिए को उतार ‘स्टेपनी’ बदलने लगा। कहना मुश्किल है कब तक, ‘स्टेपनी’ बदलता रहा… ‘स्टेपनी’। सुबह आँगन से सड़क तक- सिन्दुर, काँच की चूडियाँ, लाल-साड़ी, मंगल सूत्र और ‘मार्निंग गिफ्ट’ बिखरे पड़े थे।
और शताब्दी अपनी रफ्तार से भागी जा रही थी।

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