ये न थी हमारी किस्मत

कविता

 चर्चित साहित्यकार,कहानी संग्रह: मेरी नाप के कपड़े, उलटबाँसी, नदी जो अब भी बहती है.उपन्यास : मेरा पता कोई और है प्रकाशित. संपर्क : kavitasonsi@gmail.com

वर्जीनिया वूल्फ की किताब  ‘ A Room of One’s Own’ का प्रकाशन 1929 में हुआ था, उसका केन्द्रीय स्वर है कि एक स्त्री का अपने लेखन के लिए अपना कमरा होना चाहिए, अपने निजी को सुरक्षित रखने के लिए भी अपना कमरा, इसके लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है.


कमरे से भी पहले कहें तो एक स्त्री के सपने में उसका एक घर होता है,  कुछ अपना बिलकुल अपना रचने का अहसास औरत के मन में सबसे पहले एक घर रचता है. घरएक सपना है, औरतों के नींद में बचपन से सुगबुगाता, डग भरता, ढहता,टूट जाता .

कोई घर कहीं नहीं होता एक स्त्री का, बस एक धुंधला सा अहसास होता है घर, जिसे अपने सीने से चिपकाए औरतें यहाँ से वहाँ डोलती हैं, इस घर से उस घर.सबको अपना बनाती हुई याकि फिर मानती हुई…रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसा होता है स्त्री के लिए उसक  अपने कहे जा सकने वाले  घरका सपना .

कमरा तो बहुत बाद की परिकल्पना है, जो लेखन और अन्य क्षेत्र के कामकाजी स्त्रियों में अपने काम, अपनी स्वतंत्रता और अपने वजूद के लिए सजग होने के बाद जगा. किसी ऐसे कोने के तलाश के उपक्रम में वे वहां तक आई , जहाँ वे अपनी तरह रह सकें, डूबकर काम कर सकें और रच सकें, अपने साथ जी सकें कुछ पल को.
हालाँकि यह कल्पना अभी भी बहुत मुश्किल है . अपना कमरा आज भी सपना ही है. नौकरीशुदा और आत्म निर्भर होती स्त्रियों के बहुतायत वाली हमारी आबादी और  तथाकथित वाली आजादी  के बाबजूद… चंद अपवादों को अगर इस बहस के किनारे रखें तो..इसके मूल में स्त्री का अपना स्वभाव भी कम बाधक नहीं…अक्सरहां पति का कमरा उसका पनाहगाह होता है, बाद में बच्चों के साथ वह भी रह लेती है कि बच्चे बगैर उसके कैसे रह सकते हैं ,असंभव-असंभाव्य जैसा कुछ बहुत हद तक …जो सबसे बच जाए वही औरत का अपना हिस्सा है, या फिर ये कि जो सबका है, वही तो उसका है..यही तो उसे घुट्टी में पिलाये गए संस्कार ठहरे. हालाँकि ऐसी स्त्रियों के मन में भी चोर दरवाजे से अपना कोई कमरा और घर झांकता ही झांकता है, चाहे वो लाख ताले जड़े, चाहे लाख  दीवारें-कपाट  बंद करती फिरें …

खुद अपने अनुभवों से भी यह साफ़ साफ़ देख और कह सकती हूँ..लीव इन के उस संघर्षशीलदौर में कुल दो वर्ष एक माह में 13  बदले गए मकानों की कहानियाँ भी इससे कहीं से भी जुदा नहीं…

तब अपनी सीमित आय को देखते हुए हम मित्रों के साथ मिलकर एक साझा मकान लेते…वहां लड़की और कई बार एक मात्र लड़की होने के कारण बहुत कुछ स्वतः मेरे हिस्से आ जाता था, सफाई, खाना आदि आदि घरेलू काम, हालाँकि मित्र समझदार और संवेदनशील थे, हाथ भी बंटाते, फिर भी लम्बे समय तक फ्रीलांस तौर पर काम करने के कारण अधिक समय पर घर पर टिकने वाली अकेली मैं ही होती, स्वतः जिम्मेदारियां भी मेरे ही सर आनीथी .और भरे पूरे परिवार से निकल कर आने के कारण अभी घरेलूपन स्वभाव से निकला नहीं था.बात सिर्फ स्वभाव या मूल में कहें तो संस्कार की थी, वरन घर पर गिने चुने काम  को छोड़ अधिकतर में हाथ नहीं लगाती थी. घर की छोटी बेटी होने से यह छूट थी और शायद पढ़ने लिखने वाली लड़की के नाम पर भी, तो अकेले अपने कमरे के बारे में सोचना यहाँ भीदिवा स्वप्न जैसा ही कुच्छ होता. हालाँकि -वह कमरा अब आकार लेने लगा था, मेरे  मन में बतौर कहानीकार – पत्रकार, मुझे एकांत की हूक खूब खूब होने लगी थी, तोदिन में जब सब निकल जाते या फिर कोई एक दो बचा होता,मैं अपनी सुभीते से कोई एक कमरा बंद करती और लिखने की कोशिश में रम जाती….हालाँकि यह भी रोज संभव नहीं होने वाला था, दिन के नाम अखबारों के दफ्तरों तक लेख पहुँचाने का काम होता था, उर वक्त बचे तो घर के काम .पर सबसे ज्यादा लिखना इसी वक्त और इसी दौर में हुआ., छिटपुट कहानियाँखुदरा कविताएँ और थोक भाव में लेख इसी काल खंड में लिखे गए.

और तब वह घर जो पीछे रह गया था , या कि जिसे बहुत पीछे  छोड़ आई थी बहुत बहुत याद आता ,खासकर उस घर का वह कोनाजहाँ बैठकर घंटों अपने से बतियाती रहतीथी .उस कोने में एक बड़ी सी खिड़की थी.उससे लगा अमरुद का एक छतनार पेड़, जिस पर अल्लसुबह से परिंदों के कलरव की आवाज मुझे दिन को ख़ुशी ख़ुशी जीने का सन्देश देती- माँ हंसकर कहती –तेरा जन्म इसी कमरे में हुआ था, इसी जगह भी, तुझे इसीलिए पसंद है यह जगह इतना’

घर से बाहर निकलते ही सीढ़ियों का वह तीसरा पायदान भी, जहाँ मैं बैठकर डूबते सूरज को निहारा करती.
मेरी दुनिया तब बहुत छोटी हुआ करती थी.देश की राजधानी तो क्या प्रदेश की राजधानी तक को नहीं देखा था . आसपास  के शहर भी मेरे लिए तिलस्म थे.एक ऐसा तिलस्म जिसको जानने की इच्छा भी कहीं भीतर नहीं से नहीं होती थी.बहनें बुलवाती अपने अपने बसेरों याकि ससुराल से…और मैं नहीं जाती….पर उसे इस तरह याद  करते हुए मैं यह अक्सर भूल जाती कि अल्ल बचपन की बातें ठहरीये .  बड़े होने तक स्थितिया बदलने लगी थी, घर का रंग रूप भी बदलने लगा था, रहन्वारों की संख्या बढ़ने लगी थी रिश्ते बढ़ने लगे थे और होते होते वो कमरा जो तब भी केवल मेरा नहीं  था, मेरा बिलकुल नहीं रह गया था, कभी वह तुरत के हुए जमाई और बेटी का होता . कभी वह पैदा हुए नौनिहालों का सौरी गृह और अंततः घर में आई बड़ी बहू का निश्चित वाला  हो गया था.
फिर कुछ दिनों तक रसोई को जो अक्सर अब आँगन और बरामदे में खाना बनने के कारण मात्र सामानों के लिए रखे जाने के काम आकर आ रही थी, को हथियाया. किताबें, बिछावन , अपने सारे अल बल सहित उसमें दाखिला हुई.रसोई बड़ी थी , सो पढने रहने सोने सबकी स्वतंत्रता और आज़ादी मिल गई एकदम से. कि अचानक बहन के घर जाना हुआ, कई महीनों तक रही वहां..लौटी तो वह कमरा रसोई में पुनः तब्दील था, पर सबके नहीं सिर्फ भाभी के रसोई गृह में…कुछ क्षण आंसू बहाने और फिर अपने नए आसरे की तलाश में हम घर के छुटके से भण्डार गृह  तक पहुंचे थे, माँ से पूछा तो उन्हों ना नहीं कहा, बस इतना कहा उनका जांता (चक्की)  वहां से नहीं हटेगा , इसके आगे तुम जो चाहो…मय माँ के जांता मैं भी उस कमरे में स्थानांतरित हो गई थी. जांते के साथ  इतनी सी ही जगह बचती थी किउस घर में किघर का सबसे बड़ा टेबल किसी तरह अंट जाए.(जांते उसके अंदर और कुर्सी थोडा अन्दर घुसा कररखा जा सके वहां ) हाँ  राशन घर होने के कारन रैक ढेर सरे थे उस कमरे में .सो किताबें सारी ठौर ठिकाने लग गई थी, हाँ कपड़ों बिछावन, आदि की जगह नहीं बचती थी बिलकुल ..कोई खिड़की नहीं थी , की बाहर का आसमान या फिर हरियाली ही दिख जाए. पढने में जरा सा तल्लीन हुई नहीं कि पाँव खट से जांते से जा टकराते …फिर भी खुश थे कि कोई अपना कमरा तो था, क्या हुआ कि बंद और छोटा सा था..वह भी इस घर में कितनों के हिस्से था? पर बहुत जल्दी उससे बाहर आना पडा…किस्सा अलग ठहरा उसका …बाद में जब समझ आया कि क्यों हुआ था ऐसा, तो न रो सकी , न हंस सकी ….

उसके बाद कुछ महीने ही बीते होंगे कि आँगन के बीचो बीच एक निर्माणाधीन कमरे में  जिसमें न अभी प्लास्टर हुआ था सो बगैर रंगाई पुताई वाली. न ही खिड़कियाँ लगी थी, बस छत थी एस्बेस्टस की…और खिड़की और दरवाजे की जगह खुली सी बड़ी सी जगहें , मैं इस बार पूरी तैयारी से हूँ और मन से भी…कि इसमें भला कौन रहने आ सकता है मेरे अतिरिक्त ..और वह भी वजह नहीं बचती कि  यह कमरा उस तरह बंद भी नहीं ठहरा, कि मेरे लड़के मित्रों के उसमें जाने से किसी को कोई दिक्कत होकिवहाँ से निक अन्दर क्या चल रहा , कुछ भी बाहर से नहीं दीखता…यह तो इतना खुला था कि सब कहीं से किसी भी छोर से घर के साफ़ साफ़ समझ आ जाये. मैंने यहाँ अखबार बिछाकर अपनी किताबें सजा दी हैं. एक पुरानी साड़ी का पर्दा सिला है, कुर्सी का गद्दा और टेबल क्लाथ भी.. टूटी फूटी ही सही,चाहे पुराने स्टाईल की ही हो पर पापा के शौक से कुर्सी टेबिलों की घर में कमी नहीं रही कभी.मैं घंटों यहाँ बैठकर पढ़ती लिखती रहती हूँ,इस कमरे से निकलने का मेरा मन ही नहीं होता…चाहे गर्मी से कमरा तपने ही क्यूं न लगे , चाहे जाड़े की ठंढी हवा हाड़ही क्यों न कंपाने लगे…मजबूर रात को किसी कमरे में सोने जाती हूँ …

देखते- देखते धीरे-धीरे घर  की सब फालतू और टूटी फूटी चीजें उसी कमरे में डाली जाने लगी हैं.मैं यथा संभव उन्हें भी सहेजकर रखने की कोशिश करती हूँ…
जब बर्दाश्त से बाहर होता है चीख पड़ती हूँ-यह कमरा कूड़ेदान नहीं’
कूड़ेदान नहीं तो ? और क्या है?’
मैं मन ही मन बडबडाती हूँ-हां मैं जो रहती हूँ इस कमरे में…

दूसरी घोषणा और दिल जलाती है-घर के सभी बच्चे इसी कमरे में पढेंगे .मेरी बी.ए की परीक्षा सर पर है यह कोई क्यों नहीं समझ पा रहा?..खींचते खांचते एक दो वर्ष गुजर ही गए थे उस कमरे में …दिल्ली आने तक पना बसेरा वही रहा..

दिल्ली के अनुभव सिखाते रहे-रैनबसेरे घर नहीं होते.यहाँ अपना कमरा खोजने क तो स्वप्न भी न पालूँ. अलग अलग रुचियों, जगहों,वाले लोगों का जमावड़ा घर कैसे हो सकता भला? , आदतें, स्वभाव जब भी टकराते रैनबसेरे से अलग अलग दिशाओं में कई राहें फूटती..औरर मैं एकबारगी सन्न और हतप्रभ…शादी से एक राहत मिली थी, अब यह सबकुछ नहीं …अ यह घर मेरा होगा…और सचमुच मेहमानों से भरे घर में भी एक कमरे का अपने नाम सुरक्षित होना कम भला न लगा था..ससुराल में भी एक कमरा होता था अपने पास , जहाँ थक हारकर बैठ सो सकते थे…ये अनुभव खूबसूरत था पूरी जिन्दगी से गुजरते हुए किसी खूबसूरत दृश्य में आँखें अटक जाने की मानिंद…

बेटी हुई घर घर हुआ …दिन रात उस घर को बसाने रचने में भूल गई बिलकुल-घर हवाएं होती हैं , और हवाएं घर…और उन्हें मुठ्ठी में बाँधने की हमारी हर कोशिश नाकामयाब ….यह याद तब आया जब  एक दिन वह घरभी पीछे छूट गया,…फिर एक बार अकेलापन…और अकेले वाला घर ..वही जिसे हर सर्जन शील व्यक्ति ढूंढता और चाहता है.पर घर और अपना कमरा जैसे शब्द से उस वक्त तक मोह टूटता रहा था…अगर काम पर न जाऊं तो दीवारें काटने दौड़ती थी वहां की…बहुत मुश्किल से अकेले रहना सीखा …धीरे धीरे ये दीवारें बाँधने लगी थी फिर से मोह में…एक कमरे से एक घर में भी दाखिल हुई…और दाखिल होकर ही कहीं यह समझ पाई , कमरे और घर के लिए जद्दोजहद लिखने के लिए हो सकता है, पर लिखने के लिए यह और यही कत्तई जरुरी नहीं, कि सबसे ज्यादा तो उन्हीं दिनों में  लिखा, जब एक कमरे के लिए छतपटाती फिर रही थी.

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