परमानन्द रमन की कविताएँ

परमानन्द रमन

कला शिक्षक,केंद्रीय विद्यालय टाटानगर ,जमशेदपुर. संपर्क : potter.raman@gmail.com मो.8404804440

गर्भ 
पुरुष
तुम स्त्री नहीं हो सकते
तुम हो सकते हो
एक महान ग्लेशियर
पिघलना तुम्हारी प्रवृति है
तुमने बहना नहीं सिखा
तुम नदी नहीं हो सकते

तुम हो सकते हो
एक विशाल मरुस्थल
फैलना तुम्हारी फितरत है
तुम उगना नहीं जानते
तुम खेत नहीं हो सकते

तुम हो सकते हो
एक जागृत जवालामुखी
उन्माद तुम्हारी संस्कृति है
तुम शीतल होना नही जानते
तुम शैवाल नहीं हो सकते

तुम हो सकते हो ब्रह्माण्ड का
सबसे चमकीला तारा
वैभव तुम्हारा विविरण है
तुम धारण करना नहीं जानते
तुम पृथ्वी नहीं हो सकते

पुरुष
तुम एक साथ
कई रूपाकार होकर
हो सकते हो स्वयं में
उदात्त

तुम हो सकते हो सभ्यता के
प्राचीनतम मंदिर के
गर्भगृह में स्थापित
देव प्रतिमा
अनश्वरता तुम्हारी सत्ता है
किन्तु तुम जन्म देना
नहीं जानते
तुम गर्भ नहीं हो सकते

पुरुष
तुम स्त्री हो ही नहीं सकते


मोसूल की लड़की


एक अस्त-व्यस्त सी लड़की
प्यार करना सीख गई है
और उससे एक अर्से पहले
सीख चुकी है
नाराज़ होना
मोबाईल को फेंककर
डिस्कस की तरह
खिड़कियों के ज़र्द चेहरो पर
परदा पहनाकर
धप्प से धंस जाती है बिस्तर मे
फिर तमतमाते हुए
फेसबुक की स्टेटस लाईन पर
लिखती है
वह प्रतिज्ञा जिसमें द्रौपदी
धोना चाहती है अपने केश
मानव-रक्त से
कुछ नाम और तस्वीरों के चेहरों को
हेयर क्लीप से गोद कर
जला देती है
अपने स्लैम-बुक के कुछ पन्नें
तस्वीरें, चाँकलेट रैपर्स
आई-लाईनर के टुकड़े
धागे और अधजले कार्डस

जैसे धमाकों के बाद
ईराक का कोई सुलगता शहर
वो झुंझलाहट में पोंछ देती है
कायनात के सारे रंग
नेलपेन्ट रिमूवर से
और सो जाती है
तकिए पर सिसकियाँ लिखते-लिखते
फिर उठती है
जब नारंगी फूलों का मौसम आता है
और फिर से सीख लेती है
प्यार करना
तुम अभी तक नाराज़ हो मुझसे
और वो शहर भी ईराक का
अभी तक सुलग रहा है

औरतें उम्र छुपाती है

औरतें उम्र छुपाती है
और फिर उसे ढ़ून्ढतीं रहती हैं
उम्र भर
अचार के मर्तबान
बताशे के डिब्बे
और सिन्दूर-दानी में
बस हड़बड़ाहट में
ढूढँती ही रहती है
दर-असल औरतों को उम्र छुपाना
आता ही नहीं
अगर आता तो बजाए उसे छुपाने के
ले जाकर फेंक आती उम्र
अंतरिक्ष में
मगर औरतें फेंकना भी नहीं जानतीं
उन्हे तो सिखाया जाता है सहेजना
वे उम्र को भी बस सहेजती रहतीं हैं
जबतक वो आ नहीं जाता
किसी उम्रदराज़ की नज़र में
और फिर शुरू हो जाते हैं
उम्र के ताने
तब औरतें उम्र की आड़ मे
छुपाने लग जातीं हैं देह
और फिर से नाकामयाब रहती है
नहीं छुपा पाती है

खुद को देह होने से
ना आँखों के डार्क-सर्कल्स
झाईयाँ,एड़ीयों की दरार
ना प्रेम, सर्मपण और प्रतिकार
चूल्हे के सामने जितनी सहज होती है
इन्सानों में उतनी ही सजग
अपने हैण्डबैग में
दुनियाभर की बेहतरी का
साजो-सामान छुपाए
औरतें
उम्र तो कभी छुपाती ही नहीं
बस जल्दीबाज़ी में
कहीं रख देतीं है
और भूल जातीं हैं

तीसरी स्त्री 

पहली स्त्री
नतमस्तक कर
निज को
पुरूष चरणों में
कहती है
मै दासी हूं

दूसरी स्त्री
पांव रखकर
पुरुष की छाती पर
अठ्ठाहस करती
कहती है
मै शक्ति हूं

तीसरी स्त्री
पग उठाये
लाँघ रही है देहरी
घर-आँगन की
स्वयं से
कह रही है
मैं हूं स्वामिनी
स्वयं की

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