अरविंद जैन की कहानी कार्बन-कॉपी

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

मिस्टर कानूनवाला सारी उम्र अपने चैम्बर में धुंआ और अदालत में धूल फेंकते रहे और आज सुबह घर से घूमने निकले तो अब तक लौट कर ही नहीं आए। न जाने कहा गायब हो गए? धुएं में… धूल में … या धुंध में…?
‘‘हुंह… क्या है?’’
टाइप करते-करते अंकिता रुकी तो ऐसा लगा कि जैसे किसी ने प्यानो बजाना बंद कर दिया हो। कल तक जिस अंकिता को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उसकी उम्र सोलह तिए अड़तालीस साल होगी, उसी अंकिता के चेहरे पर आज जैसे ग्रहण लग गया था।
बारह-तेरह साल की एक लड़की बगल में पोटली दबाए, दबे पांव, डरती-डरती अंकिता के सामने आ खड़ी हुई थी।
‘‘मैं ग्वालियर से आई हूँ। मेरे पिताजी को जमींदार की हत्या के जुर्म में सुप्रीम कोर्ट ने फांसी का हुक्म दिया था। राष्ट्रपति ने भी माफ नहीं किया। दस साल से जेल में पड़े-पड़े पागल हो गए हैं… बहुत नाम सुना है  कानूनवाला का… बड़ी मुश्किल से किराया जुटा कर आई हूँ। मेरे पिताजी बेकसूर हैं, बहन जी उन्हें फांसी लग गई तो…. ‘‘लड़की फर्श पर बैठ कर जोर-जोर से रोने लगी।
उसे बाहर बैठने को कह अंकिता फिर टाइप पर हाथ चलाने लगी- ‘जाने कहां से चली आई है इंसाफ मांगने?… भाग जा यहां से… भाग जा…।“
चाभियों से हटे हाथ गोद में आ गए। काफी देर तक अंकिता टाइपराइटर पर सिर टिकाए न जाने क्या सोचती रही।

तीन-चार बार… टर्न… टर्न… हुई। अंकिता ने टेलीफोन उठाया, ‘गुड मार्निंग, मिस्टर कानूनवाला चैम्बर, सॉरी, नो एप्वाइंटमेंट।’ अंकिता उठी और बाथरूम में घुस गई। वहां से वह मुंह पोंछती हुई निकली और मेज पर रखे थरमस से एक कप में थोड़ी चाय उड़ेल वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गई। चाय पीते-पीते अंकिता ने टाइपराइटर पर चढ़े कागज पर छपे एक-एक शब्द को गौर से पढ़ा… कई बार पढ़ा और फिर से अंगुलियां टाइपराटर पर थिरकने लगीं।

दलाल स्ट्रीट के कोने पर विरासत में मिली मिस्टर कानूनवाला की कोठी नम्बर दस किसी आनन्द भवन से कम शानदार नहीं। कोठी के दोनों दरवाजों पर पहले जहां चार लठैत खड़े रहते थे, बाद में वहां बंदूकधारी आए और अब तो हरदम स्टेनगनें तनी रहती हैं। पोर्च में एंबेस्डर और फिएट की जगह मर्सडीज और टायटा के हार्न बजने लगे हैं। रंभाती गायों और हिनहिनाते काले अरबी घोड़ों की जगह भौंकते बुलडाग और म्याऊं-म्याऊं करती बिल्लियों ने ली है, गौशाला और घुड़साल में  रिकार्ड रूम और “एयरकंडीशंड गेस्ट हाउस” आबाद हो गए हैं और अखाड़े को मिटा कर इटालियन टाइल्स का स्वीमिंग पूल बनाया गया है। पिछड़वाड़े पहले आम के पेड़ पर कोयल कूकती थी, अब वहां यूक्लिप्टस के झुंडों में सिर्फ हवा सनसनाती है।
केवल कोठी के कोने में लोहे के एक बड़े-से पिंजर में बंद पहाड़ी तोता अब भी पंख फड़फड़ाता रहता है। इसे न जाने किस जुर्म की सजा में उम्र कैद हुई है?
अंकिता ने टाइपराटर पर दूसरा कागज और कार्बन लगाया और फिर उसी स्पीड से टक…टक…टक… अंकिता के देखते-देखते इस कोठी के साथ-साथ आदमियों के भी नक्शे बदल गए थे। पर अभी भी कोठी का हर पत्ता मिस्टर कानूनवाला के मूड के हिसाब से खिलता, हिलता, कांपता, डरता और हंसता है। वो जब तक कोठी के अंदर होते हैं आतंक चारों और चौकन्ना ही घूमता रहता है और जब वे बाहर निकलते हैं तब कोठी की सांस में सांस आती है।
अंकिता टाइप करती रही।



मिस… मिसेज… नहीं नीना… नीना भी नहीं अंकिता… और छोटा भाई कमल जब इस कोठी में पहली बार आए थे तब नीना दस की और कमल आठ साल का था। बीस रुपये रिश्वत लेने के जुर्म में पिता जेल में थे और मिस्टर कानूनवाला के पिताश्री थे जज। पिताश्री को छुड़वाने के लिए नीना अपने साथ पचास रुपये भी लाई थी। और कमल ने आगे बढ़ कर जज साहब से कहा था, “रुपये थोड़े हों तो….” और वह बीच में ही बोल पड़ी थी, “तो में एक दो दिन आपके पास रह सकती हूँ…।” सुनकर जज साहब सुन कर चुपचाप उठ कर चले गए थे मगर उनकी पत्नी मनमोहिनी ने समझाया था कि अब तो जज साहब भी कुछ नहीं कर सकते। तुम दोनों चाहो तो यहीं रह सकते हो।
वह और कमल यहीं रह गए। कमल तो साहब की गाड़ी साफ करते-करते ड्राइवर बन गया। ड्राइवरी छोड़ बाद में चश्मदीद गवाह और अब तो पेशेवर जमानती है। सारा दिन कोर्ट-कचरी और शाम को पीने-खाने से ही फुर्सत नहीं है उसे। जज साहब पांच-छह साल बाद अचानक दिल का दौरा पड़ने से चल बसे और मिस्टर कानूनवाला कोठी के अकेले मालिक बन गए। इस बीच नीना ने, जो अब अंकिता थी, टाइप और शार्टहैंड सीखा। बी.ए. और एल.एल.बी. किया और कुछ साल मिस्टर कानूनवाला की जूनियर भी रही।
अंकिता के टाइप करने और सोचने की स्पीड में शायद कोई अंतर नहीं। जनवरी की ठिठुरती सर्दियों में भी उसके माथे पर पसीना तैर रहा था।

लापता लड़की

मिस्टर कानूनवाला के चैम्बर की तीन दीवारों पर नीचे से ऊपर तक टीकवुड की बनी अलमारियों में चमचमाते शीशों के पीछे संविधान, इंडियन पैनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, एविडेंस, ऑल इंडिया रिपोर्टर, ऑल इंग्लैण्ड लॉ रिपोर्ट्स के अलावा क्रिमिनल और मैडिकल ज्यूरिसप्रयूडंस, फेमस मर्डर केसेस व अन्य हजारों कीमती किताबें करीने से लगी रहती हैं। चौथी दीवार पर बीचो-बीच उनके पिताश्री की सुनहरे फ्रेम में जड़ी फोटो पर संदल की माला लटकी रहती है। और बाकी दीवार पर देश के बड़े-बड़े राजनेताओं, मंत्रियों, अफसरों और तस्करों  के स्वागत पर देश के बड़े-बड़े राजनेताओं, मंत्रियों, अफसरों और तस्करों के स्वागत में हाथ जोड़े खड़े मिस्टर कानूनवाला मुस्कराते दीखते हैं। वॉल टू वॉल पर्शियन लाल कार्पेट पर गद्देदार सोफों के सामने शीशे की टेबल पर कट ग्लास का फूलदान और ऐशट्रे चमकती रहती है। सामने लंबी-चौड़ी मेज पर एक तरफ किताबों का, तो दूसरी तरफ फाइलों का ढेर पड़ा होता है..मेज पर रखा टेलीफोन हर एक मिनट के बाद ट्रिन-ट्रिन करता रहता है। मेज के पीछे रखी रिवाल्विंग चेयर पर बैठते ही मिस्टर कानूनवाला एक हाथ से रिमोट बैल का बटन दबाते और दूसरे से ‘हवाना’ सिगार निकालते हैं। बैल दबाते ही मुंशी जी दौड़े-दौड़े अंदर आते हैं और फिर सिर झुका कर खड़े हो जाते हैं।
ढेर-स धुंआ उड़ेलने के बाद मिस्टर कानूनवाला मुंशी जी से पूछते हैं, ‘‘फीस…’’
मुंशी जी धीरे से कहते हैं, ‘‘आ गई, हुजूर’’ और बंडी से निकाल कर नीले नोटो की गड्डियां उनके सामने रख देते हैं।
मिस्टर कानूनवाला गड्डियां झटके से मेज की ऊपरी दराज में डालने के बाद फिर कहते हैं, ‘‘अच्छा… कॉफी…. और हां…, वो 302 वाले की बीबी को भेज देना।’’

मिस्टर कानूनवाला की रिवाल्विंग चेयर धीरे-धीरे घूमती है और चैम्बर में धुंआ ही धुंआ भर जाता है। दीवार घड़ी जब दस बार टन्न… टन्न… करती है तो मिस्टर कानूनवाला रिवाल्विंग चेयर से उठते हैं। अंकिता उन्हें हैंगर से उतार कर काला कोट पहनाती है और वो कलाई पर ‘रोलक्स’ बांधते, जेब में मोंट ब्लैंक कलम लगाते और सिगार पीते-पीते बाहर निकलते हैं तो सब लोग सावधान की मुद्रा में ‘स्टेच्यू’ बन जाते हैं। मर्सडीज का दरवाजा खुलता है, कार फर्राटे से आगे बढ़ती है और देखते ही देखते आंखों से ओझल हो जाती है।
अंकिता जरा-सी आहट होने पर चौंकी और फिर थोड़ा आश्वस्त हो टक-टक करने लगी।


मिस्टर कानूनवाला कभी चिडि़याघर के सामने और कभी अप्पूघर के सामने वाली अदालत में जाते थे। अप्पू घर के सामने वाली अदालत के अंदर घुसने के दो बड़े गेट थे और एक छोटा गेट था। मिस्टर कानूनवाला अक्सर एक ही गेट से अंदर जाते थे। मगर बाहर निकलने के बहुत से दरवाजे थे। इसलिए कभी पता नहीं चलता था कि मिस्टर कानूनवाला कौन-से दरवाजे से बाहर निकल गए। उनका अधिक समय उस किलेनुमा बिल्डिंग में ही गुजरता था। अदालत की किसी भी दीवार के पास खड़े होकर बात करते हुए मिस्टर कानूनवाला नाखून से दीवार खुरचते रहते और चूने की परतें इक्ट्ठी करते रहते। पत्थरों के ऊंचे-ऊंचे खंबों और दूर तक जाते लम्बे बरामदों वाली बिल्डिंग की गोल गुम्बद पर सुबह से शाम तक झंडा लहराता रहता था। बिल्डिंग के आसपास दूर-दूर से आए मुवक्किल और उनके रिश्तेदार बरामदों, पार्क और दरवाजों के इधर-उधर फैसले के इंतजार में सालों बैठे ऊंघते रहते।

अंकिता टाइप करने के लिए कागज और कार्बन बदल रही थी तभी उसने दो-तीन बार जोर से छींका। शायद सर्दी लग गई थी। छींकने के बाद उसने रुमाल से नाक पोंछी तो खांसी उठ खड़ी हुई। बलगम मेज के नीचे रखी बाल्टी में ही थूक दिया और फिर से टाइपराटर चलाने लगी।

अदालत में छोटे-मोटे सारे काम मुंशी व जूनियर ही निपटाते थे। मिस्टर कानूनवाला अदालत तभी जाते थे जब बहस करनी होती, वरना अपने चैम्बर में बैठे सिगार पीते या किताबें पलटते रहते। कोर्ट में नम्बर आने से पहले मुंशी या मुवक्किल आ कर उन्हें बताते तो वे सिगार पीते-पीते धीरे-धीरे अदालत की ओर चल पड़ते। उनके पहुँचने से पहले ही किताबें और फाइलें लिए जूनियर अदालत में मौजूद होते थे। मिस्टर कानूनवाला सिगार पीते-पीते जब अदालत तक पहुंच जाते तो दरवाजे पर जाकर उन्हें ध्यान आता था कि उनके मुंह में सिगार है। तब सिगार को अदालत के बाहर बरामदे की दीवार पर रखते, अंदर जाते, बहस करते, बाहर निकल कर दीवार पर रखे सिगार को उठाते, फिर से सुलगाते और धुंआ बिखेरते हुए वापस अपने चैम्बर की ओर बढ़ जाते। उनकी इस आदत से मुंशी, जूनियर और मुवक्किल ही नहीं बाकी सारे वकील, पेशकार आदि भी भली-भांति परिचित थे। जब भी किसी को मिस्टर कानूनवाला से कोई काम होता तो पहले वह अदालत के बरामदों में यह ढूंढता  कि मिस्टर कानूनवाला का सिगार कहां रखा है। और जहां सिगार रखा मिल जाता वह जान जाता कि वह सामने वाली अदालत में होंगे। अक्सर लोग मिस्टर कानूनवाला को नहीं बल्कि उनके सिगार को ढूंढते रहते। कभी-कभी तो लोग यह सोच कर कि आखिर आएंगे तो यहीं, घंटों सिगार के पास ही खड़े रहते।

कई बार ऐसा इसलिए भी होता था कि बाहर से आए व्यक्ति मिस्टर कानूनवाला को शक्ल से नहीं पहचानते थे। कुछ तो मिस्टर कानूनवाला को सिगारवाला कहते थे। सिगार मिस्टर कानूनवाला का ‘ट्रेडमार्क’ ही बन गया था और सिगार को लेकर बहुत से किस्से। बुझे हुए सिगार को देखकर मुवक्किलों को निराशा होती मगर जब मिस्टर कानूनवाला बुझे हुए सिगार को दुबारा सुलगाते तो मुवक्किलों के चेहरे पर चमक आ जाती। कुछ तो कहते भी थे कि हमारी जिंदगी का सिगार तो बुझ चुका है, दुबारा और कोई सुलगा सकता है तो वो है मिस्टर कानूनवाला। ऐसा विश्वास था मुवक्किलों का उन पर, फिर भी….
फोन की घंटी बजी तो झल्लाई अंकिता ने कहा, ‘‘गुड ऑफ्टरनून, मिस्टर कानूनवाला चैम्बर।’’
उधर से आवाज आती रही। अंकिता के चेहरे पर कई रंग आए-गए।
आखिर उसने कहा, ‘‘नो सॉरी… ही इज नाट इन टाउन।’’
अंकिता उठी, एक गिलास पानी पिया और फिर एक लम्बी उबासी लेने के बाद वापस अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई। कागज और कार्बन बदला और फिर टक…टक… शुरू…

मिस्टर कानूनवाला के मुवक्किल सुबह से रात तक आते-जाते रहते। कुछ तो कई-कई दिन तक टिके रहते। कोठी के बाहर कोने में पड़ी बैंचों पर बैठे मुवक्किल माली, चपरासी, मुंशी और गार्डो से गप्पें हांकते रहते। पुराने मुवक्किल नए मुवक्किलों को मिस्टर कानूनवाला के मुकदमों की दास्तान सुनाते रहते। बलात्कार, हत्या और डकैती के मुकदमों में कैसे-कैसे मिस्टर कानूनवाला ने बचाया था, कैसी जोरदार बहस की थी, कैसे कानूनी नुक्ते निकाले थे। उनका विवरण सुनाते-सुनाते मुवक्किलों की जबान नहीं थकती थी। मिस्टर कानूनवाला के मुकदमों की कहानियां सुन-सुनकर नए मुवक्किलों के चेहरे खिल उठते थे।
बलात्कार के मुकदमों की कहानियां तो सभी बढ़-चढ़कर सुनाते थे और सुनने वाले भी रस ले-लेकर सुनते थे। बीच-बीच में कोई कहता ‘भई गजब।’ कोई कहता ‘कमाल के वकील हैं भैया’ और कोई-कोई तो यह दावा करता कि ‘कानूनवाला की टक्कर का कोई और वकील है ही नहीं, लाला! मुवक्किल और उनके रिश्तेदार यहां जो किस्से सुन कर जाते, जाकर अपने-अपने शहर या गांव में और लोगों को सुनाते। बहुत से मुवक्किल तो ऐसे ही किस्से सुन-सुन कर मिस्टर कानूनवाला की कोठी तक पहुंचते थे और अक्सर वह यह कहते थे कि भाई मुकदमा तो इन्हीं से लड़वाना है भले ही घर, खेत और सारे जेवर बेचने पड़ जाएं।
अंकिता ने मेज की दराज से ‘डनहिल’ के पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर सुलगाई पर दो-तीन कश के बाद ही सिगरेट ऐश ट्रे में रखकर टाइप करने लगी।

मिस्टर कानूनवाला के पास देश भर कर के अनेक हाईकोर्ट के वकील अपील करने के लिए मुकदमें भेजते या चिट्ठी देकर मुवक्किल जूनियर्स फाइलें पढ़ते, अपील तैयार करते, केस लॉ ढूंढते, मिस्टर कानूनवाला को ब्रीफ करते, अपील टाइप करवाते, मिस्टर कानूनवाला के इफ और बट लगाने के बाद मुंशी कोर्ट में अपील फाइल करते, मुकदमे की सुनवाई के लिए तारीख लगवाते, हाई कोर्ट के वकीलों को धन्यवाद की चिट्ठियां भेजते, चैक व नगद बटोरते, बैंक में जमा करवाते और सारा हिसाब-किताब रखते। जितनी फीस आती उसका एक प्रतिशत दानपुण्य, मंदिरों और चंदों के लिए रखा जाता। जूनियर्स में किसी को एक हजार, किसी को डेढ़ हजार रुपया महीना मिलता। पर ज्यादातर जूनियर्स तो सिर्फ काम सीखने के लिए ही आते थे। पैसे उन्हें नहीं मिलते थे पर कभी-कभार मुवक्किल किसी छोटे-मोटे काम के लिए उन्हें कुछ न कुछ दे ही देते थे। ऐसे जूनियर्स थोड़े दिन के ही मेहमान होते। थोड़ा-बहुत काम सीखते और खुद अपनी वकालत शुरू कर देते। न जाने कितने जूनियर्स आए, कितने गए। कुछ तो ‘कंपिटीशन में बैठे और जज बन गए।
मिस्टर कानूनवाला का गोद लिया बेटा अनुभव अलबत्ता दो साल कंपिटीशन की तैयारी और ‘आर्डर! आर्डर! करने के सपने देखता रहा। लेकिन कहीं नम्बर नहीं आया। मिस्टर कानूनवाला उसे जज बनाने के हक में कभी नहीं थे। वो हमेशा उस वकालत में मन लगाने की सलाह देते रहते। ब्रेकफास्ट पर अक्सर दोनों में बहस होती। मिस्टर कानूनवाला उसे प्रैक्टिकल होने की राय देते मगर अनुभव बड़े-बड़े सिद्धांतों और आदर्शों, सामाजिक और आर्थिक न्याय, आम आदमी को सामनता और सम्मान से जीने के संवैधानिक अधिकारों, उबाऊ और खर्चीली न्याय व्यवस्था और इस पेशे से जुड़े लोगों के नैतिक चरित्र और मूल्यों पर लम्बी-चौड़ी दलीलें देने लगता। मिस्टर कानूनवाला चुपचाप सुनते रहते और ब्रेकफास्ट करके उठते हुए; कहते, ‘‘आई एप्रीशिएट यूअर फीलिंग्स बट…’’ और अपने चैम्बर की ओर बढ़ जाते।
अंकिता ने पेज बीच में ही रोक कर अपने पर्स से एक बच्चे की फोटो निकाली और काफी देर तक उसे गौर से देखती रही। फोटो देखते समय उसके चेहरे पर एक अजीब-सी चमक भी थी और गहरी उदासी भी। कुछ देर बाद ही पर्स वापस रख कर अंकिता टाइप करने लगी।

स्लीपिंग पार्टनर 

मिस्टर कानूनवाला सुबह निक्कर पहन कर घूमने जाते थे और लौट कर अदालत। घर आ कर लंच और थोड़ी देर आराम। शाम को मुंह-हाथ धोने के बाद कपड़े बदल थोड़ी देर चैम्बर में बैठते, फाइलें देखते, डिक्टेशन देते और क्लब चले जाते। हां। कभी-कभी किसी सेमिनार या साहित्य, कला और सांस्कृतिक समारोह में वे अध्यक्षता भी करते थे। कभी किसी फाइव स्टार होटल में पार्टी होती और कभी किसी महिला संस्था द्वारा आयोजित सभा में नारी कानूनी अधिकारों पर भाषण। घर हमेशा रात देर गए ही लौटते। सोने से पहले घंटे दो घंटे पढ़ते जरूर थे मिस्टर कानूनवाला। उनके बैडरूम में हर दीवार पर प्रसिद्ध चित्रकारों द्वारा बनाई बहुत-सी न्यूड पेंटिंग्स, कोने में रखी मेजों पर नग्न मूर्तियां ओर अल्मारियों में सेक्स, साइकोलॉजी, सस्पैंस और स्कैंडल की हजारों दुर्लभ और कीमती किताबें हैं। न जाने कहां-कहां से खरीद कर इकट्ठा किया है यह सब कुछ मिस्टर कानूनवाला ने।

दुनिया भर की ‘बैंड बुक्स’ का भंडार है मिस्टर कानूनवाला का बैडरूम। उसके बैडरूम में हर किसी को जाने की इजाजत नहीं। सिवाय अंकिता के, शायद ही कोई दूसरी बार उनके बैडरूम में गई हो। मिस्टर कानूनवाला किसी भी किताब को दुबारा नहीं पढ़ते थे और अपनी किताब किसी दूसरे को पढ़ने के लिए देते नहीं थे। सुबह अखबार, मैंगजीन आते तो सबसे पहले वही पन्ने पलटते थे। अगर किसी ने भी गलती से अखबार या मैंगजीन खोलकर पढ़ ली तो उसकी खैर नहीं। दरअसल ‘सैकेंड हैंड गुड्स’ इस्तेमाल करने से उन्हें चिढ़ थी। इसीलिए शायद ‘रॉल्स रायस’ खरीदने का प्लान अभी तक पूरा नहीं हो पाया। वह भी हो जाता अगर वह इस तरह न चले जाते।

अंकिता हर पेज टाइप करने के बाद ऐसे नजर आ रही थी जैसे अदालत में बयान देने के बाद गवाह। बत्तीस साल से यही रूटीन देख रही है। शुरू-शुरू में तो उनके पास काम ज्यादा नहीं था इसलिए इतना व्यस्त भी नहीं रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों काम बढ़ता गया, दौलत, शौहरत और व्यस्तता भी बढ़ती गई। पहले मिस्टर एण्ड मिसेज कानूनवाला की गर्मियों की छुट्टियां शिमला, मंसूरी, कुल्लू, मनाली, गुलमर्ग या पहलगांव में बीतती थीं। लेकिन पत्नी के देहान्त के बाद कई सालों से स्विट्जरलैण्ड पेरिस, न्यूयार्क, लंदन या सिडनी में बीतने लगीं। पिछले साल शायद पहली बार वो अकेले मास्को गए थे। लौट कर आए तो बहुत दिनों तक मास्को, मास्को करते रहे। गोर्बाचोव और प्रेमिका की याद में लिखी उनकी कविताएं जब भी एक मैंगजीन में छप कर आई तो उन्होंने पांच सौ प्रतियां खरीदवा कर न जाने कहां-कहां भेजी थी।

हत्या, दहेज-हत्या, बलात्कार और तस्करी के मुकदमों के अलावा मिस्टर कानूनवाला नक्सलवादियों, बंधुआ और दिहाड़ी मजदूरों, बाल अपराधियों वेश्याओं और आदिवासियों के मुकदमों की भी पैरवी करते थे। महिला संस्थाओं और जनकल्याण सोसायटियों के जनहित मुकदमों में हाथ डालते ही मिस्टर कानूनवाला का नाम अदालत से बाहर रिक्शावालों की जुबान तक पहुंच गया था। स्कूलों और कालेजों में उनके ऑटोग्राफ के लिए छात्र-छात्राओं की भीड़ लग जाती और उनका फोटोग्राफ लेने के लिए प्रेस फोटोग्राफरों में धक्का-मुक्की मचती। कुछ महीनों से तो अब उनके साथ दो-दो सिक्योरिटी गार्ड रहने लगे थे। उनका सारा समय भाग-दौड़ में बीतने लगा था और उनसे पांच मिनट बात करने के लिए हफ्ते भर बाद का टाइम मिलता था। अंकिता को भी दफ्तर के अलावा समय न दे पाते थे उन्हें आराम की जरूरत थी। ऐसा मौका मिलना क्या मुश्किल था, मगर…
अंकिता बीते हुए कल को शब्दों में कैद करती जा रही थी। बिना सांस लिए टक…टक…टक…।

मिस्टर कानूनवाला के लिए यह नया साल न जाने क्यों अच्छा नहीं आया। शुरू से ही कुछ न कुछ गड़बड़ होने लगी। एक कांड में अमेरिकन कम्पनी की पैरवी की, अच्छा-भला समझौता भी हो गया लेकिन समझौते के बाद भयंकर आलोचना, जलसे, जुलूस, घेराव, प्रदर्शन दूसरे दाह-कांड में ट्रस्टियों की ओर से पेश हुए तो फिर चारों ओर थू-थू होने लगी। रही-सही कसर बलात्कार वाले मामले में पुलिस पक्ष की ओर से बहस करने के बाद पूरी हो गई। पुलिस वालों की सजा तो कम हो गई लेकिन औरतों, अखबारों और पत्रकारों ने मिस्टर कानूनवाला के खिलाफ इतना उल्टा-सीधा लिख मारा कि कानूनवाला को कई संस्थाओं से इस्तीफा देना पड़ा और सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी थी।

मिस्टर कानूनवाली पहले ही परेशान ये तिस पर पिछले हफ्ते जिस आदमी को अपने एक दोस्त की हत्या करने के अपराध से बरी करवाया था, उसने आत्महत्या कर ली और मिस्टर कानूनवाला और प्रेस वालों के नाम लिख कर एक लम्बी चिट्ठी छोड़ गया। चिट्ठी में लिख गया कि हत्या तो मैंने ही की थी और मैं सच-सच बता कर सजा भुगताने को भी तैयार था लेकिन आपकी सलाह पर ही झूठी कहानी गढ़ी गई कि मेरी पत्नी के मेरे दोस्त के साथ नाजायज़ सम्बन्ध थे। मैंने उन्हें आपत्तिजनक अवस्था में देखा इसलिए गुस्से में  हत्या कर दी। पत्नी की गवाही झूठी थी, सारा मुकदमा झूठा था और अब मैं अपनी ही पत्नी से आंख मिला कर बात तक करने के काबिल नहीं रहा। लानत है ऐसी रिहाई पर। मेरे लिए मुक्ति का एक ही रास्ता है। लेकिन मिस्टर कानूनवाला, अब के बाद फिर किसी और को इस तरह रिहा मत करवाना।
इसके बाद से अनुभव और मिस्टर कानूनवाला में तेज झड़प होने लगी थी। अनुभव बार-बार कहता, ‘‘डैड, यूअर डेज आर गोन नाऊ, यू हेव लॉस्ट यूअर मैजिक। इट इज बैटर टु रिटायर विद ऑनर।’’
मिस्टर कानूनवाला की आंखों में खून उतर आता, हाथ कांपने लगते और जुबान लड़खड़ाने लगती, लेकिन वो किसी तरह अपने पर काबू करते और कड़वाहट भरे लहजे में कहते, ‘‘द किंग एण्ड लॉयर मे डाई, वट दे नेवर रिटायर’ और खाना आधे में ही छोड़, उठ कर चले जाते थे।

अंकिता को भी अनुभव पर बहुत गुस्सा आता था लेकिन चुप रह जाती थी। मन ही मन सोचती कि बेटा होकर बाप से इतनी जुबान लड़ाता है?
फोन फिर बजने लगा। अंकिता ने फोन उठाया, ‘‘गुड इवनिंग, कानूनवालॉज चैम्बर।’’ अंकिता कुछ देर सुनती रही और बीच-बीच में ‘‘नो… नो…. सारी… नॉट पॉसिबल प्लीज…. कांट से वेन ही विल बी बैक … ओ.के. इफ इट इज सो अर्जेट यू केन डिसकस विद हिज सन।’’
अंकिता अचानक रुक गई। ऐशट्रे की ओर देखा तो सिगरेट रखी-रखी पूरी जल चुकी थी। मेज की दराज से डनहिल का पैकेट निकाला ही था कि तभी मुंशी जी आ गए। अंकिता ने बिना सिगरेट निकाले ही पैकेट दराज में वापस रख दिया। अंकिता ने मुंशी जी से पूछा कि क्या हुआ?

‘‘मैं तो सुबह से ही साहब को ढूढ़ रहा था। पार्क, अदालत, चैम्बर, क्लब होटल, पुलिस स्टेशन सब जगह हो आया पर उनका कहीं पता नहीं लगा। वापस आ कर छोटे साहब को बताने गया तो वो चैम्बर में इधर-उधर टहल रहे थे। मेज पर ऐशट्रे के नीचे एक चिट्ठी रखी थी और ऐशट्रे में अधजला सिगार। छोटे साहब ने पहले चिट्ठी उठाकर पढ़ी और फिर चुपचाप अपनी जेब में रख ली। ऐशट्रे से सिगार उठा कर बहुत देर घूरते रहे और न जाने क्या सोचते रहे। मैं कुछ देर तो चुप रहा फिर मैंने कहा कि साहब का कुछ पता नहीं चल सका। कल के मुकदमों में तारीख ले लें? छोटे साहब ने जैसे सुना ही नहीं। लाइटर उठाया और सिगार सुलगाने लगे। दो-तीन बार सुलगाने पर तो सिगार जला। कश खींचने लगे तो खांसी पर खांसी। मन हुआ भी कि उन्हें मना करूं, मैं कुछ दर चुप रहा, लेकिन कब तक रहता? मैंने फिर पूछा कि कल के मुकदमों में तारीख ले लें? मेरा इतना कहना था कि छोटे साहब ने पहले मुझे घूर कर देखा फिर रिवाल्विंग चेयर पकड़ कर जोर से घुमा दी। कुछ देर चेयर चक्कर काटती रही। फिर छोटे साहब ने घूमती चेयर रोकी, झटके से उसी पर बैठे सिगार का लम्बा कश खींच कर धुंआ उगला और बोले, ‘यस’?

मैंने फिर दोहराया कि कल के में तारीख ले लें? तो बोले, क्यों … फाइलें निकलवाइये … आई विल आरग्यू।’
मैंने ‘जी हुजूर’ कहा और बाहर आने लगा तो बोले, ‘सुनो, कॉफी और हां, वो 302 वाले की बेटी को भेज देना…’
मैं तो ‘जी हुजूर’ कहकर बाहर आ गया और वो बैठे सिगार पी रहे होंगें ओफ…. मेरी समझ में नहीं आ रहा कि बारह साल की बच्ची से बात क्या करेंगे छोटे साहब?’’

बड़बड़ाता हुआ मुंशी कॉफी लेने चला गया। गौर से सुनती रही अंकिता और उसके चेहरे पर विषैली मुस्कान की रेखा खिंच गई।

अंकिता ने फिर टाइपराइटर पर नया कागज चढ़ाया और तेजी से टक…टक… करने लगी।

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