देश के सबसे बड़े अस्पताल (एम्स) में मेडिकल दलाल सक्रिय: कर्मचारियों की मिलीभगत

यह रिपोर्ट एक फैक्ट चेक है एम्स (ऑल इण्डिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल सायसेंज) का स्वास्थ्य मंत्री के उस बयान के बाद कि एम्स के डाक्टर बिहारियों को वापस भेज दें और इस बीच डाक्टरों की एक टीम का उनके खिलाफ सामने आने के बाद. यह रिपोर्ट बताती है कि देश के सबसे बड़े अस्पताल एम्स में मेडिकल दलाल कैसे सक्रिय हैं, अस्पताल के कर्मियों की मिलीभगत से. एम्स प्रशासन स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा मरीजों की मुफ्त जांच के सुझाव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा, उधर दलाल मरीजों को लूट रहे हैं. संजीव चंदन की रिपोर्ट 


वह अपने राज्य के सभी बड़े अस्पतालों का चक्कर काटकर, निराश होकर अंततः देश की राजधानी स्थित सबसे बड़े अस्पताल में पहुंचा जहां उसके शरीर के एक अंग में तेजी से फैलता कैंसर डायग्नोस हुआ. कैंसर के डाक्टरों ने उसे तुरत ऑपरेशन का सुझाव दिया और अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. यहाँ तक तो देश के सबसे बड़े अस्पताल आल इण्डिया मेडिकल इंस्टिट्यूट (एम्स) एक तत्पर और गरीबों के प्रति हमदर्द व्यवस्था वाला अस्पताल दिखता है. लेकिन ज़रा ठहरिये तस्वीर का यह हिस्सा एक पक्ष है. उस गरीब मरीज के साथ आगे होने वाला घटनाक्रम आपकी आँखें खोल देगा.

एम्स मेट्रो स्टेशन पर सोये गरीब मरीजों के तीमारदार और कुछ मरीज

बेतुके बयान वाले स्वस्थ्य मंत्री मरीज के राज्य से ही आते हैं
वह उन्हीं दिनों एम्स में दाखिल  हुआ जब देश के स्वास्थ्य मंत्री (राज्य) अश्विनी चौबे का विवादास्पद और बेतुका बयान आया कि ‘बिहार से लोग छोटी बीमारियों में भी एम्स पहुँच जाते हैं और भीड़ बढाते हैं. वे यहाँ तक कहते हैं डाक्टर बिहार से आये मरीजों को वापस भेज दें. मंत्री बिहार में पैदा हुए और बिहार से ही चुनकर विधानसभा, लोकसभा पहुँचते रहे हैं और मरीज भी बिहार से चलकर एम्स में दाखिल हुआ था, जिसे उन्हीं दिनों बायप्सी रिपोर्ट के बाद डाक्टरों ने कैंसर का जल्दी से जल्दी ऑपरेशन की तारीख दी क्योंकि बीमारी बढ़ रही थी, फ़ैल रही थी. वह बिहार के ओबीसी इसके लिए एम्स से ही जरूरी जांच के लिए कहा गया. 9 अक्टूबर को अश्विनी चौबे ने अपना बयान दिया, जिसका बचाव बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किये जाने के रूप में किया गया. मरीज बिहार के ओबीसी परिवार से आता है. परिवार और वह स्वयं मजदूरी का काम करते हैं.

जांच से इनकार मरीज और उसके तीमारदार परेशान 
एम्स के जिस विभाग से जांच होना था उसने कुछ सामान्य से जांच के मामलों में कहा कि इसकी मशीनें खराब हैं और कैंसर के लिए जरूरी ‘पेट स्कैन’ जांच के लिए डेढ़ महीने बाद की तारीख दे दी और यह सलाह भी कि यदि उसे जल्दबाजी है तो बाहर से जांच कराये. देश की राजधानी में एक कैंसर से पीड़ित एक गरीब मरीज मर रहा है, उसके देखभाल के लिए आये लोग पैसों की कमी से जूझ रहे हैं, जांच के लिए कर्ज ले रहे हैं और स्वास्थ्य मंत्री उस जैसे मरीजों को ज्ञान दे रहे हैं कि बीमारियों का इलाज राज्य में ही कराओ. राज्य की राजधानी में भी कैंसर की जांच की सुविधा है लेकिन वहाँ भी प्राइवेट अस्पतालों के दलालों की खबरें मीडिया में आती रही हैं. गरीब मरीज ने फिर से कैंसर के डाक्टरों को ही सबकुछ बताया. उन्होंने हालत की गंभीरता को देखते हुए जल्द जांच का लिखित अनुरोध किया, लेकिन नतीजा ढाक का तीन पात.

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सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री (राज्य) का पत्र भी बेकार गया. 
परेशान मरीज के लोगों ने भारत सरकार के सामजिक न्याय मंत्री (राज्य), रामदास आठवले, का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने एम्स के डायरेक्टर को फोन मिलाया. वे व्यस्त थे कहीं मीटिंग में. मत्री महोदय ने निदेशक के नाम एक पत्र लिख दिया और किसी इंचार्ज से उनके पीए ने बात की. मरीज को लगा कि देश की राजधानी में कुछ काम होता है. लेकिन फिर निराशा. पत्र देखकर भी जांच वाले विभाग ने कहा कि एक सप्ताह में कर देंगे अभी मशीन खराब है. और फिर लगे हाथ सुझाव जल्दी हो तो बाहर से करा लो. उधर कैंसर के डाक्टर ने ऑपरेशन के लिए दाखिल कर रखा था और जल्दी कह रहे थे.

और भी थे परेशान मरीज जिन्हें जांच के लिए बाहर भेजा जा रहा था
इस रिपोर्टर को कैंसर के मारीज के परेशान परिवार वाले सामाजिक न्याय के मंत्री के यहाँ से लौटते हुए मिल गये. मामले की गंभीरता को देखते हुए साथ लगने पर पता चला कि जांच वाले लोग ऐसे ही कई मरीजों को बाहर भेज रहे थे. यह एक गंभीर मामला था, देश के सबसे बड़े अस्पताल में दलाली का और मरीजों से लूट के नेक्सस का. पूरे माजरे को समझने के लिए अस्पताल प्रशासन के मीडिया विभाग से सम्पर्क किया गया. उन्हें कुछ सवाल भेजे गये. सवाल थे:
1. “ PET स्कैन’ के इक्विपमेंट कब से खराब हैं
2. एम्स में इस जांच की कितनी मशीनें हैं?
3. क्या अस्पताल में मशीनें खराब होने पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है? खासकर तब जब एक्सपर्ट डाक्टर जल्द ऑपरेशन करने की संस्तुति लिख रहे हैं.
4. कृपया इन मशीनों के ठीक कराने संबंधी विभागीय पत्राचार की कॉपी दें
5. और भी कितनी मशीनें किन जांचों के खराब हैं क्योंकि और छोटे जांच के लिए भी मरीज बाहर भेजे जा रहे हैं.

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सरकारी आदेशों की भी अनदेखी 
इस बीच इस खबर पर काम करते हुए यह भी पता चला कि भारत सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय वित्त मंत्रालय के सुझावों के अनुरूप एम्स को कई पत्र भेज चुका है यह निर्देश देते हुए कि वह मरीजों से जांच के लिए लिए जा रहे शुल्क न ले. एम्स गैरयोजना मदों में खर्च के लिए प्रतिवर्ष अतिरिक्त 300 करोड़ की राशि माँगता है, जबकि सरकार उससे यह चाहती रही है कि 500 रूपये से कम शुल्क वाली जांच मुफ्त किये जायें. इस आशय के कई पत्र स्वास्थ्य मंत्रालय ईएमएस को भेज चुका है लेकिन ईएमएस प्रशासन ने एक का भी जवाब नहीं दिया.

मीडिया विभाग की सक्रियता से पहुँची मदद 
 एम्स के  मीडिया प्रोटोकॉल अधिकारी, बी एन आचार्या, ने बताया कि ‘ हमारे यहाँ सारी मशीनें ठीक हैं और किसी को भी एम्स बाहर जांच के लिए नहीं भेजता, न कहता है. हमारे कर्मचारियों की जगह कोई और उन्हें गुमराह कर रहा होगा. हालांकि तथ्य बता रहे हैं कि बहार जांच के लिए एम्स के विभाग प्रेरित कर रहे हैं. बहरहाल, बी एन आचार्या की पहल पर एक मरीज को थोड़ी सहूलियत मिल गयी. हालांकि मेरे सवाल भेजने और आचार्या के सक्रिय होने तक सम्बंधित मरीज का ‘ PET स्कैन’ टेस्ट बाहर से हो गया था, वे घबड़ाये हुए थे. कैंसर विभाग के डाक्टर पहले से ही तत्पर और संवेदनशील थे, आचार्या के सक्रिय होने के बाद उसका ऑपरेशन तुरत हो भी गया.

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लेकिन सवाल 
लेकिन सवाल है कि और मरीजों का क्या ? क्या गरीब मरीजों को एम्स जैसे अस्पताल में दलाल लूट रहे हैं और इसमें उनके कर्मचारियों की भी मिलीभगत है. और सबसे बड़ा सवाल कि स्वास्थ्य मंत्रालय और मंत्री का अपने ही मेडिकल कॉलेज पर बस नहीं चलता लेकिन वे जनता को क्यों विवादास्पद नसीहतें देते रहते हैं? उनसे बेहतर वे डाक्टर हैं जो इस मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में सक्रिय हैं और तत्पर होकर जांच के लिए आगे आते हैं, मंत्री के बयान के बाद भी और इस केस में भी. और आख़िरी सवाल कि आंतरिक और बाह्य दलालों द्वारा मरीजों की लूट का यह खेल कौन बंद करने की पहल करेगा?

तस्वीरें गूगल से साभार 

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