लोकतंत्र की हत्या हो रही है.. अब एक सिर्फ जुमला नहीं है !

भारती वत्स


निर्भीक पत्रकार गौरी लंकेश की ह्त्या के एक महीने के बाद भी उनके हत्यारों की गिरफ्तारी नहीं हुई है. उनकी ह्त्या पर सामाजिक चुप्पी को भयावह बता रही हैं भारती वत्स 

साथी गौरी लंकेश को एक दुःसाहसी पत्रकार के रूप में जानते है और यही उसका सर्वाधिक ताकतवर पक्ष है भी, पर मेरे लिये गौरी सिर्फ एक पत्रकार, लेखक, कार्यकर्ता नहीं बल्कि एक महिला पत्रकार, महिला लेखक, और महिला कार्यकर्ता है. यहां महिला लगाना इसलिये जरूरी है क्योकि गौरी उन्ही सामाजिक असमानताओं , लैंगिक विभेदों के बीच स्वतंत्र छवि हासिल करती हैं, जिनके चलते औरतों की एक बहुत बड़ी आबादी पराजित-सी, घुटी हुई, छटपटाती हुई या अनुकूलित हो जीवन जी रही है, इसलिये गौरी का संघर्ष दोहरा और दुगना है।

गौरी के जाने के बाद उनका धर्म, जाति, विचार-धारा खोजने और उस पर विशिष्ट ठप्पा लगाने की कवायद तेजी से चल रही है, क्या किसी भी तरह की  जातीय पहचान गोली चलाने की अनुमति दे देती है ??? क्या किसी भी प्रकार का विचार गोली चलाने की अनुमति दे देता है? गौरी को उन लोगों के बीच ढूंढा जा रहा है, उन लोगों द्वारा व्याख्यायित किया जा रहा है जिनसे गौरी का कोई संवाद, विचार का कोई साझापन नहीं था.  जिनके साथ वो काम कर रही थी, जो उसके मन के साथ बहते थे विचार के साथ रहते थे उनसे गौरी को जानने की कोशिश की जानी चाहिये और उससे भी ज्यादा गौरी का लिखा हुआ वो सब कुछ जो इतने वर्ष उसने पूरी संजीदगी और जिम्मेदारी से लिखा। मैं गौरी से मिली नहीं कभी, उनको जाना नही; पर जब से वो गई हैं  मेरे सपनों में, मेरी सांसो में वो बसने लगी है एक पारदर्शी निडर , बेबाक और निश्छल करूणा से भरी स्त्री की तहर। बार-बार सोचती हूॅ, आखिर गौरी क्या कर रही थी ? बस उन बातों को प्रश्नांकित कर रही थी, जो मानव विरोधी है, प्रकृति विरोधी हैं। एक प्यार समानता और भाईचारे की दुनिया को बनाने में लगी थी गौरी, तब क्यों डर गये वे  लोग ? क्या उनके पास घृणा और, क्रोध से भरे शब्द कम पड़ गये ? क्या उनके विचार और मन इतने पंगु हो गये कि उन्हें हत्या के अलावा और कोई तरीका अपनी बात कहने का नहीं मिला ?

इतिहास ऐसे लोगों की हत्यायों से भरा पड़ा है जो मानवता के लिये जीते रहे, परन्तु क्या हुआ ? व्यक्ति गये पर विचार तो नहीं मरे ? हम किस तरह के आजाद देश में रह रहें ? असहमतियों  ओर आलोचना से मुक्त समाज क्या जीवित रह सकता है ? और क्या द्वंदविहीन समाज क्या वाकई में मानव समाज ही कहलायेगा ? दो प्रकार की चुप्पियाँ इन बोलने और लिखने वाले लोगों के साथ सामान्तर चल रही हैं. एक वे सत्ताधीश जो बात-बेबात बोलते हैं पर आज चुप हैं, और दूसरे वो जो जानते हैं सही-गलत पर, चुप्प हैं. ये डरे हुये लोगों की चुप्पी है. कारण कुछ भी हो चुप्पी हमेशा उसी तरफ खड़ी होती है जहां नाइंसाफी होती है इसलिये चुप रहना भी उतना ही बड़ा गुनाह है जितना बड़ा गुनाह गौरी के हत्यारों ने गौरी के साथ किया है। लोगों के पक्ष में खड़े होने वाले और सत्ता के पक्ष में रहे खड़े होने वाले मानस हमेशा से मौजूद थे परन्तु जनपक्ष मे खड़े होने वालों के विरूद्ध दमन की भयावहता आज जिस तरह दिखाई दे रही है वह भयाक्रांत करने वाली राजनीति का कुरूप चेहरा है जो पहले कभी नही दिखा, और देखा जाये तो वो भयभीत करने में सफल हो गये है। दिल्ली प्रेस क्लब मे उपस्थित पत्रकार जनतंत्र के पक्ष में खड़े लोग थे परन्तु वहां वे अपनी निर्भीकिता से ज्यादा भय को व्यक्त कर रहे थे. यही सत्तायें चाहती है इसलिये मैंने कहा कि वे इसमे सफल हो रहे है; सवाव यह है कि साहस निर्भीकता और बेबाकी की दीवार इस कदर कमजोर कैसे और क्यों हो गई ? क्या इस दीवार में सेंध लगा दी गई है ? कौन सी बजहें है इस पर हमें चिन्तन करना पड़ेगा कि हमें क्यों इस कदर डरने लगे है, ब्रेख्त की जिस कविता को तब बोला जाता था, गाया जाता जब शायद वह बहुत मौजूं नहीं थी परन्तु आज हम उसे बोलने में डर रहे हैं।

असहिष्णुता की बात पिछले 2वर्ष से की जा रही थी और जिसके चलते अनेक बुद्धिजीवियों और संस्कृति कर्मियो ने सम्मान वापस किये, फिर भी  सोचिये एक बार भी किसी तरह कि चिन्ता या हलचल सत्ता के गलियारों में महसूस नही हुई, आप हंस  रहे होंगे मेरे भोलेपन मूर्खता पर कि किससे उम्मीद कर रही है ?
दरअसल में उन सत्ताधीशों से उम्मीद नहीं कर रही, मैं  उम्मीद इस आम जनमानस, समाज के उस संवेदन शील वर्ग से कर रही हूॅ, जो इन खबरों को सिर्फ सुनता है। गौरी की हत्या के विरोध में दर-दर छोटे-बड़े शहरों में औसतन 500 से 1000 – दो हजार लोग जुड़े रास्ते पर आते-जाते लोगों ने सुना और चल दिये, तब मैंने सोचा कि मैं किन लोगों से उम्मीद कर रही हूॅ वे लोग जो 10 गुने ज्यादा बिजली के दाम देकर चार गुना दाम पेट्रोल के देकर भी चुप रहते हैं, जो काम न मिलने की लंबी चिन्ता के साथ जीते-जीते भी खौलते नहीं हैं, वे   भला एक कन्नड़ पत्रकार के लिये क्यों एकजुट होंगे ?

सोचिये सोशलमीडिया पर कुछ लोग सीधे-सीधे धमकी, घटिया भाषा में दे रहे है पर उन्हें न कोई कानून रोकता है न कोई संगठन। इन अंधे भक्तों ने आंख खोलकर न कभी नक्सलवाद को जानने की कोशिश की, न आतंकवाद को जानने की कोशिश की, न ही किसी भी माइथोलाॅजी को गहराई से जाना-पढ़ा। आलोचना किसे कहते हैं इन्हें नही मालूम। भाषा इन्हें  आती नहीं परन्तु ये गाली देने और गोली चलाने में महारथी हैं। संवाद कीजिये बाद-विवाद कीजिये भारत की परम्परा शास्त्रार्थ की है, गोली और गाली की नहीं। यह बीमार और विकृत मानस है, जिन्हें इलाज की जरूरत है। अंतर्मन   के इन उलझावों को सुलझाने का कोई रास्ता संभवतः मनोविज्ञान की उन परतों में हो जो बहुत पहले रूक गया है, उन्हीं  को खोलने की अपर्रिहायता आज महसूस हो रही है। लोकतंत्र में कार्यपालिका यानि राज्य हमेशा से दमनकारी भूमिका में रहा है जो लोकतंत्र के पाखंड को बनाये रखता है। ऐसी स्थिति में न्याय पालिका, विधायिका और मीडिया ऐसे स्तंभ हैं जिनसे जनपक्षधरता की, न्याय की, उम्मीद की जाती हैं परन्तु यदि यहीं स्तंभ सत्ता पक्ष में खड़े हो जायें तो स्थिति भयानक हो जाती है, ऐसे हालातों में हमेशा विरोधीपक्ष ’’लोकतंत्र की हत्या हो गयी या की जा रही है जैसे जुमलों का प्रयोग करता रहा है, और सही मायने में ये तब जुमले की तरह ही था, परन्तु आज इसे सिर्फ जुमला कहकर टाला नही जा सकता यह एक सच बन चुका है, जिसका उदाहरण है, लगभग पूरा का पूरा मीडिया जो सत्तापक्ष में खड़ा दिखाई दे रहा है। और फिर चाहे वह मुख्यधारा का मीडिया हो या सोशल मीडिया और सिर्फ खड़ा नहीं है इतने गहरे स्तर पर भ्रमित करने वाली सूचनाओं का संजाल फैलाये हुये है जिसमे एवं सहज-सरल नागरिक असर में आने बाध्य हो जाता है।

अभिव्यक्ति की आजादी व्यक्तिगत नहीं होती, उसका फैलाव सामुदायिक होता है, उसकी जरूरत सामुदायिक होती है, तब उसके लिये लड़ना वैयक्तिक कैसे हो सकता है ? वामपंथ हो या दक्षिण पंथ यदि बोलने, काम करने की आजादी वहाँ नही है और भयाक्रान्त करने की राजनीति हो, वहाँ लोकतंत्र नहीं हो सकता , जनपक्षधरता नहीं हो सकती है। ये गहरे चिन्तन के विषय हैं कि कौन से कारण हैं, कौनसी मानसिकतायें जिनके चलते हम इस कदर भयाक्रान्त हो  गये हैं,  यद्यपि इतिहास इस बात को पुष्ट करता है कि हमेंशा कुछ संवेदनशील, ईमानदार, निर्भीक लोगों के जीवन की शर्त पर ही मानवता के संघर्ष, आजादी के संघर्ष चलते रहे हैं। इसलिये बात सिर्फ गौरी की नहीं है, दुनिया मे हर जगह ये संघर्ष चल रहे हैं।