डॉ. अंबेडकर का स्त्रीवाद (एक विश्लेषणात्मक पुनरावलोकन )

अमोल निमसडकर

शोधार्थी,टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई . संपर्क : amolnimsadkar@gmail.com,मो.7028385569

स्त्री सशक्तिकरण के प्राचीन दस्तावेजों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि  इसकी शुरुआत महात्मा गौतम बुद्ध की  विरासत  से  हुई और सम्राट अशोक के काल में विकसित रूप धारण किया । आगे चलकर भारत के अलग-अलग कालों के अलग-अलग महापुरुषों ने इस महत्वपूर्ण आंदोलन को जारी रखा, उसमें से इस आंदोलन के डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर आधुनिक भारतीय कालखंड के सबसे महत्वपूर्ण अग्रदूत थे । पर इस आंदोलन के आद्य प्रवर्तक के रूप में महात्मा जोतिबा फुले ने सबसे पहले नीव रखी । उन्हीं  से प्रेरणा लेकर और उन्हीं  को वैचारिक गुरु बनाकर डॉ.अंबेडकर ने इस आंदोलन को लोकतांत्रिक देश में सफल बनाने की कोशिश की । स्वतंत्र भारत का समकालीन स्त्री आंदोलन महिलाओं की उपेक्षा, शोषण, और श्रम में लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करने तथा बराबरी के सिद्धांत का दृढ़तापूर्ण पालन करने की नीति के साथ शुरू हुआ ।

20 वी सदी के पूर्वार्ध में स्त्री के माँ रूप का प्रतीक उभरा नारी शक्ति के अनुसार राष्ट्रमाता के रूप में रक्षा करने वाली उग्र रूपधारिणी महाकाली के रूप में देखा गया । 20 वी सदी की शुरुआत में मैडम कामा तथा सरोजिनी नायडू ने मातृशक्ति का बयान करते हुए चेतावनी दि कि “याद रखो जो हाथ पालना झुलाते हैं वही दुनिया पर राज करते है ।” तथा गांधीवादी विचारधारा के अनुसार स्त्री को कष्ट सहनेवाली सहनशील माँ के रूप में देखा गया । स्त्री के प्रति स्व-स्त्रैण विचारों एवं राजनीति का नारीकरण करने की प्रवृति के कारण उन्हे भारतीय महीला जागृति आंदोलन के जनक के रूप में ख्याति मिली ।  आजाद भारत में महिला सबलीकरण के विमर्श में  महात्मा गांधी कहा करते थे “जब तक आधी मानवता के आँखों में आंसू है, मानवता पूर्ण नहीं कही जा सकती” ।

स्त्री सशक्तिकरण मूलत: एक मानवतावादी विचारधारा का नाम है, इस तथ्य से हम सभी परिचित है यह विचारधारा और आचरणशास्त्र मात्र कोरा आदर्श नहीं । मनुष्यता का इतिहास देखा जाए तो सब शास्त्रों की रचना पुरुषों ने की है स्त्री ने रची हुई रचना हाथ पर गिनी हुई दिखाई देती है । इसलिए हमारे पास मौजूद स्त्री की जो छवि है वह आरोपित है । मगर दोनों के मनोविज्ञान में जमीन आसमान का फर्क है । विश्व की आदि आबादी की रुचि सन्यास या ईश्वर में भी नहीं के बराबर देखने को मिलती है । एक नजर से देखी  जाए तो धर्म भी पुरुष के मस्तिष्क की देन है । पूर्व हो की पश्चिम, वर्ग उच्च हो या निम्न,  जाति  हो या धर्म स्त्री   को प्रजनन की प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ता है । स्त्री  का माँ बने रहने का इतिहास हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है । पर बगैर श्रेष्ठता से क्योंकि पिता ही सर्वोच्च है और उसी का वंश चलता है ।

इन्हीं तथ्यों का गंभीर अध्ययन करके डॉ.अंबेडकर ने मनु को दोषी ठहराया, जिसके क़ानून ने  महिलाओं को बंधन में रखा, उन पर घोर असमानताएँ लादी। उन्होंने मनु को ही भारत में महिलाओं के ह्रास और पतन के लिए जिम्मेदार ठहराया । इसी प्रासंगिक बात को आगे गर्डा लर्नर  अपनी पुस्तक ‘दि क्रिएशन ऑफ पैट्रिआर्की’ में  स्त्री के अनवरत दमन, शोषण का एक कारण स्त्री का इतिहास न होना, उसके अपने नायकों आदि-आदि के रूप में देखती हैं । उससे पहले स्वतंत्रता के पक्षधर  जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक ‘दि राइज़, दि सब्जेक्शन ऑफ वुमन’ में स्त्री के ऐतिहासिक दमन के लिए कानून व्यवस्था को जिम्मेदार माना, तथा कहा कि  मानव जाति की सभ्यता और संस्कृति के विकास का मूल स्त्रोत ‘महिला’ है ।”

डा. अम्बेडकर और स्त्री अधिकार – सुजाता पारमिता

डॉ. अंबेडकर के स्त्री सशक्तिकरण विषयक दृष्टिकोण :

डॉ. अंबेडकर के सम्पूर्ण विचार  में सबसे महत्वपूर्ण मंथन का हिस्सा महिला सशक्तीकरण   था । उन्होंने भारतवर्ष की तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एंव राजनैतिक व्यवस्था के अंदर का सूक्ष्म अध्ययन करके जाना  कि सभी समस्या के समाधान की मूल शर्त सामाजिक न्याय और परिवर्तन की क्रांति से है, न कि अन्य किसी भी बदलाव या क्रांति से है । एक महान फ्रांसीसी लेखक ने एक बार कहा था – “अगर आप मुझसे यह जानना चाहते हैं  कि कोई राष्ट्र कैसा है, या कोई सामाजिक संगठन कैसा है, तो मुझ यह बताइए कि उस राष्ट्र की  महिलाओं की स्थिति कैसी है ……” मतलब यह कि किसी भी देश का चरित्र सबसे आधिक इस बात से तय होता है कि वहाँ महिलाओं की क्या स्थिति है, और उस समाज में महिलाओं का क्या स्थान है ? यही बात डॉ. अंबेडकर ने  कही कि भारतीय समाजव्यवस्था में शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक और अन्य क्षेत्रों पर भी उतनी ही लागू होती है ।


सामाजिक दृष्टिकोण

प्राचीन कालीन भारतीय समाज में वर्ण एंव जाति व्यवस्था आधारित सामाजिक संरचना होने के कारण भारतीय समाज का व्यावहारिक दर्शन महिला के लिए मुक्ति आन्दोलन से दूर  दिखाई पड़ता है । डॉ. अंबेडकर के समग्र अध्ययन और दूरदृष्टि में महिला प्रश्न (शोषण,उत्पीड़न, अज्ञान, अपमान एंव सामाजिक विषमता) का निर्णायक स्वरूप सदियों से  चली आ रही विषम समाज व्यवस्था और दृढ़ निरक्षरता की मौजूदगी के कारण है । संदर्भ के तौर पर उनके जीवन का प्रथम आंदोलन के रूप में महाड़ सत्याग्रह एक महिला सशक्तीकरण की प्रारंभिक शुरुआत हम मान सकते है । हालांकि  यह आंदोलन पीने के पानी के संबंध में था पर महिलाओं के सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य  से वह वहाँ कहते है कि, “तुम्हारी कोख से जन्म लेना गुनाह क्यों माना जाए और ब्राह्मण स्त्रियों की कोख से जन्म  लेना पुण्य क्यों माना जाए ?”  आगे  उन्होंने महिलाओं को सम्यक शील और आत्मसमान का महत्व समझाते हुए कहा कि, “हमे अपने स्वाभिमान की बलि दिए बगैर गरीबी में ही सही तरीके से और इज्जत से जीना सीखना चाहिए । ताकि समग्र शोषित नारी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास कर कैसे अपना और अपने परिवार के उद्धार में सहयोग कर सकेगी ।

किसी भी देश के समग्र विकास के लिए उस देश के संतुलित सुशासन के लिए उस देश दिशा-निर्देश नीति जनकल्याणकारी होना पूर्व शर्त है । पर स्वतंत्रता पूर्व काल में राष्ट्र व्यवस्था में धार्मिक नीति निर्देशों का ही बोलबाल होने के कारण डॉ. अंबेडकर ने महिला सशक्ती करण के रूप में प्राचीन नीति निर्देश विधि मनुस्मृति दहन किया । जो भारतीय स्त्री उत्थान के इतिहास  में एक आविस्मरणीय घटना है । मनुस्मृति का दहन सार्वजनिक रूप से प्रतीकात्मक विरोध था । यह  भारतीय विशाल शोषित वर्ग के मुक्ति का दरवाजा खुलने जैसा था । मनुस्मृति के विरोध के निम्न बिन्दु थे-  सभी स्त्री-पुरुषों को शूद्र कहा था, सभी को  सारे सामाजिक आधिकारों से वंचित कर दिया था, इतना ही नहीं तो इस व्यवस्था ने स्त्रियों में भी भेद निर्माण कर दिया था । इस व्यवस्था को पूर्णतः अमान्य कर उसे तिलांजलि दे दी गई थी । इसलिए मनुस्मृति दहन स्त्री स्वतंत्रता (सशक्तिकरण) की दिशा में एक उज्जवल कदम माना जाता है । इस घटना के बाद स्त्री आंदोलन को एक व्यापक रूप मिला ।
जयभीम वाला दूल्हा चाहिए



डॉ. अंबेडकर के सामाजिक दृष्टिकोण में भारतीय महिलाओं, आंदोलन से जुड़ी हर तबके की महिलाओं की विविध  आंदोलोनों में हिस्सेदारी से स्त्री का  सामाजिक महत्व और उसके मूल आवश्यकता का अहसास  जिंदा हुआ । हाल ही के दिनों में स्टेट्स  ऑफ वीमेन कमिटी ने नारी की स्थिति का जायजा  लेने के लिए सुविधाओं की उपलब्धता को मापदंड बनाया परंतु धर्म और जाति  ने भी नारी की स्थिति को प्रदर्शित किया है । अंतः आर्थिक आधार के साथ-साथ सामाजिक और धार्मिक आधार पर भी नारी की स्थिति का मूल्याकन आवश्यक है ऐसा निष्कर्ष दिया । लिहाजा यह कि मूलतः : डॉ. अंबेडकर के की स्त्रीमुक्ति की दृष्टि  ही निर्णायक निष्कर्ष है । सामाजिक न्याय, सामाजिक पहचान, समान अवसर एंव संवैधानिक स्वतंत्रता के रूप में नारी सशक्तीकरण
के लिए उ नका योगदान हर पीढ़ी हमेशा याद रखेगी ।

सांस्कृतिक दृष्टिकोण :

भारतीय समाज का सांस्कृतिक स्वरूप विश्व के अन्य किसी भी देश के सांस्कृतिक स्वरूप से भिन्न है । एक ही देश में अनेक रीति रिवाज, परंपरा, खानपान, होने के कारण समाज के अंतर्गत सांस्कृतिक भेद  निश्चित दिखाई पड़ता है, जिसका संबंध सीधा देश की जीवन-व्यवस्था  से अटूट जुड़ा है । इस व्यवस्था में स्त्री की हैसियत दोयम है.

डॉ. अंबेडकर के विचार में महिला विषयक विषम सांस्कृतिक वर्चस्व का गंभीर कारण एक तो पितृसत्ताक मनुवादी व्यवस्था है  और दूसरा स्व: महिला ही इस बात से इंकार है । इसलिए महिलाओं  को संबोधित करते हुए  महाड़ सम्मेलन 25 दिसंबर 1927 में वे  सांस्कृतिक सीख देते हुए कहते हैं कि आप को कभी अछूत मत समझो । स्वच्छ जीवन जियो । सवर्ण महिलाओं कि तरह कपड़े पहनों यह मत देखो कि तुम्हारे कपड़ों में जगह-जगह चिंगारिया लगी हैं , बस यह देखो कि वे साफ तो हैं, कपड़े चुनने  और गहनों में धातु के इस्तेमाल की तुम्हारी आजादी पर कोई रोक नहीं लगा सकता । मन को सांस्कृतिक करने और आत्म-सहायता की भावना पर अधिक ध्यान दो ……..।” आगे कहते है – अगर तुम्हारा आदमी और बेटे पियक्कड़ है तो उन्हे किसी भी सूरत में खाने को मत दो । अपने बच्चों को स्कूल भेजो । शिक्षा औरत के लिए उतनी ही जरूरी है, जितनी कि मर्दो के लिए । अगर तुम पढ़ना लिखना सीख जाओ, तो अधिक प्रगति होगी । जैसी तुम होगी वैसे ही तुम्हारे बच्चे होंगे । उसके जीवन को सद्गुणों से भरो, क्योंकि बेटे ऐसे होने चाहिए कि उनपर दुनिया नाज करें …..।

जिस देश में मान कल्याण रहित परंपरा- रूढ़ियाँ, रिवाज ही कानून का स्थान ले चुकी हैं.कानून अगर धैर्य संहिता और आग्रह से चलना हो वहाँ कहीं न कहीं, शोषण एवं उत्पीड़न मौजूद होता ही है ।’ जहां यह उद्घोष हो की ‘रुधिविधेग्रारियासी’ अर्थात रिवाज कानून से भी अधिक शक्तिशाली है । वहाँ महिलाओं  में सांस्कृतिक पहचान एंव गरिमा जिंदा करने का काम डॉ. अंबेडकर ने विरोधी व्यवस्था के खिलाफ चलाया ।

शैक्षणिक दृष्टिकोण :

ग्रीक (यूनान) में सुकरात ने कहा था ‘knowledge is virtue’ अर्थात ज्ञान सबसे बड़ा सद्गुण है, जबकि महान अग्रेंजी दार्शनिक फ़्रांसिस बेकन ने कहा था ‘knowledge is power’ मतलब ज्ञान सबसे बड़ी शक्ति है । इसलिए डॉ. अंबेडकर को आधुनिक भारत का सुकरात और बेकन भी कहना गलत नहीं होगा । क्योंकि भारत में समाज के लिए शिक्षा का महत्व बताने वाले और शील (Virtue) के बगैर शिक्षा  बेकार है इस दर्शन का आग्रह करने वाला इकलोती विभूति डॉ. अंबेडकर थे यह सर्व मान्य है । विलियम्स शेक्सपियर ने ठीक ही कहा है की “ इंसान के जीवन में उतार-चढ़ाव आते है उससे लड़कर  यदि इस बाद को पार कर लिया जाए तो किस्मत बन जाती है और यदि नजरंदाज कर दिया तो उनके जीवन का सफर उथला हो जाता है और कष्टों से घिर जाता है ।” बिल्कुल इसी अंदाज में उनके शुरुआती शिक्षा सफर में रहते हुये शिक्षा का महत्व और आवश्यकता को संबोधित करते हुये 4 अगस्त 1913 को जमादार को न्यूयार्क से पत्र में लिखते हैं  कि, “हमें पूरी तरह भाग्य वाली धारणा को छोड़ देना चाहिए  ।  अभिभावक  बच्चे को ‘जन्म’ देते हैं न कि ‘कर्म’ । वे अपने बच्चों का भाग्य भी बदल सकते हैं और यदि हम  इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हैं,  तब हमे निश्चित रूप से मान लेना चाहिए की हम जल्द ही बेहतर दिन देखेंगे और हमारे समाज का विकास और बढ़ जाएंगा । (गंगू-जमादार की एक लड़की महार समाज की वह पहली लड़की थी जो उस समय में चौथी कक्षा में पढ़ रही थी । ) पुरुष शिक्षा के साथ-साथ महिला शिक्षा भी चलनी चाहिए, उसका फल एंव परिश्रम आपको अपनी पुत्री के शिक्षित होने पर देखने को मिल सकता है ।”

डॉ. अंबेडकर की  सोच में यह स्पष्ट था कि “यदि हम लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाएं तो प्रगति कर सकते हैं ।  शिक्षा किसी खास   वर्ग की बापौती नहीं । उस पर किसी एक ही वर्ग का अधिकार नहीं । समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए  शिक्षा का समान अधिकार है । नारी शिक्षा पुरुष से भी अधिक महत्वपूर्ण है । चूंकि पूरी पारिवारिक व्यवस्था की धूरी भी नारी है, उसे नकारा नही जा सकता है ।”

डॉ. अंबेडकर के प्रसिद्ध मूलमंत्र की शुरुआत ही शिक्षित करो से होती है (‘Educate-Agitate-Organize’), इस मूलमंत्र से आज कितनी महिलाएं शिक्षित और सुशिक्षित होकर अपने पैरों पर जीवन यापन कर रही हैं । हजारों साल  से पीछे रह गया   एस.सी., एस.टी. और ओ.बी.सी. वर्ग आज के सामान्य वर्ग के साथ बराबरी से खड़ा है । आज दलित महिला मुख्यमंत्री (मायावती) पद तक पहुँच चुकी है । इस संदर्भ में डॉ. अंबेडकर का महिला शिक्षा आंदोलन एंव योगदान वर्तमान राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरणा स्त्रोत सिद्ध होता है ।

राजनैतिक दृष्टिकोण

जब तक किसी राष्ट्र में सामाजिक,आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षणिक क्रांति नहीं होती तब तक राजनैतिक क्रांति पैदा नहीं हो सकती । यह डॉ. अंबेडकर के राजनैतिक दर्शन का सार था । इस दर्शन के सार में आधी आबादी की मुक्ति  का निर्धारण भी मुख्य रूप से शामिल है । सन 1932 का पुना करार, हिंदू कोड बिल आदि इस दर्शन शाखाओं के प्रतिकात्मक दस्तावेज़ हैं । किसी भी प्रकार का आंदोलन एक राजनितिक हितसंबंध से संबंधित होता  है । क्योंकि कानून के रूप में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनैतिक आकार ही सारी समस्याओं के ताले खोल सकती है ।

इसके गहन अध्ययन के बाद डॉ. अंबेडकर ने सर्वांगीण भारतीय समाज व्यवस्था का आधा हिस्सा महिला वर्ग के सशक्तीकरण के लिए हिंदू कोड बिल नामक प्रामाणिक कानूनी दस्तावेज़ सन 1951 में तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित ज. नेहरू के मंत्रिमण्डल में केंद्रीय विधि मंत्री रहते हुए संसद में पेश किया । पर कुछ धार्मिक मतभेदों के कारण बहुत सांसदों  ने बिल का  विरोध किया । लिहाजा यह कि बिल पारित नहीं हो सका । डॉ. अंबेडकर की मनीषा में हिंदू समाज के मुक़ाबले में मुस्लिम समाज का एंव ईसाई समाज का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जो सारे संसार में एक समाज व्यवस्था की तरह है । किसी भी स्वस्थ समाज के लिए उसे एक दायरे या कतार में रखने के समान सामाजिक कायदे कानून होने चाहिए ताकि वह उनका पालन करता हुआ अपना अस्तित्व बनाये रखे । इसलिए संवैधानिक रूप से भारत में  महिला सशक्तीकरण  के लिए पहला कानूनी दस्तावेज़ हिंदू कोड बिल पेश करने का  निर्णय  किया था ।

इस संदर्भ में ‘जेव्हा मी जात चोरली’(when I had concealed my caste) इस प्रसिद्ध कृति के मराठी दलित लेखक बाबुराव बागुल कहते है,  “हिन्दू कोड बिल महिला  सशक्तीकरण का असली आविष्कार है (“Hindu code bill is real invention of women empowerment.”)।  और गंभीर राष्ट्रीय विमर्श की भावना से कहते हैं कि  “अस्पृश्यता को नकारने वाली भीम स्मृति और अस्पृश्यता का पालन करने वाली मनुस्मृति एक ही सभागृह में और एक ही घर में साथ-साथ राज करती हैं । यानी देश एक ही समय में दो स्मृतियों, दो सत्ताओं और दो जीवंत-पद्धतियों में जीता है ।” तात्पर्य यह कि. अंबेडकर यह बात समझते थे कि स्त्रियॉं की स्थिति सिर्फ ऊपर से उपदेश देकर नहीं सुधरने वाली, कानूनी में उसके लिए व्यवस्था करनी होगी । डॉ.अंबेडकर निर्मित हिंदू कोड़ बिल के प्रस्तुति के बिन्दु  निम्नलिखित थे-

1 यह बिल हिंदू  स्त्रियों की  उन्नति के लिए प्रस्तुत किया गया था । 
2 इस बिल की वजह से ही स्त्रियों  को तलाक    देने का आधिकार । 
3 तलाक मिलने पर गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार । 
4 एक पत्नी होते दूसरी शादी न करने का अधिकार । 
5 गोद लेने का अधिकार । 
6 बाप-दादा की संपत्ति में हिस्से का अधिकार । 
7 स्त्रियों   को अपनी कमाई पर अधिकार । 
8 लड़की को उत्तराधिकारी का अधिकार । 
9 अंतरजातीय विवाह करने का अधिकार ।
10 अपना उत्तराधिकारी निश्चित करने कि स्वतंत्रता । 

सभी मुख्य बिंदुओं का अवलोकन से स्पष्ट होता है कि हिंदू कोड बिल भारतीय महिलाओं  के लिए सभी मर्ज कि दवा थी । क्योंकि वह समझते थे कि असल में समाज की  मानसिक सोच जब तक नहीं बदलेगी तब तक व्यावहारिक सोच विकसित नहीं हो सकेंगी । माओत्से तुंग ने सच ही कहा है “सही विचार कहां से आते है ? क्या वे आसमान से टपकते है ? नहीं । क्या वे दिमाग में अंतरजात है ? नहीं । वे सामाजिक व्यवहार से आते है । पर अफसोस कि यह बिल संसद में पारित नहीं हो पाया इसी कारण डॉ. अंबेडकर ने विधि मंत्री पद का इस्तीफा दे दिया । जिससे यह स्पष्ट होता है कि उनको महिला उन्मूलन के लिए अपने पद तक को निछावर कर देने वाला भारतीय महिला क्रांति का ‘मसीहा’ कहा जाय तो अतिशयोक्ति  नहीं होगी ।

हिंदू महिलाओं के उत्थान और परिवर्तन के लिए जो कष्ट एंव परिश्रम डॉ.अंबेडकर ने सहे इस तुलना में अन्य किसी का नाम इतिहास में मिलना मुश्किल है ।

अम्बेडकरोत्तर भारतीय समाज में नारी का उत्पीड़न 

20 वी सदी के मध्य में डॉ. अंबेडकर के  गुजर जाने के बाद 21 वी सदी का आधुनिक समाज में  परिवार के भीतर स्त्री का उत्पीड़न आज भी मौजूद है । विश्व में पहला महिला मुक्ति का मेनिफिस्टो देने वाली मेरी वॉलस्टोनक्राफ्ट और बाद में बेट्टी फ्रेडेन वैश्विक जगत को महिला सशक्तीकरण  की  स्रोत रही । पर डॉ.अंबेडकर गुजरने के बाद के भारतीय परिदृश्य में महिला सशक्तीकरण का आंदोलन धीमी गति से प्रगति पर रहते दिखता है । अम्बेडकरोत्तर सामाजिक, आर्थिक एंव सांस्कृतिक बदलाव  के संबंध में एम.बी. फुलर कि रचना ‘द रोम्स ऑफ इंडियन विमेजहुड’ में वह लिखती हैं कि “पर्दे के पीछे क्या होता है यह भारत में बहुत थोड़े लोगों को मालूम होता है उसके अनुसार, भारतीय समाज `सुधारक भी स्त्री की वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ थे ।” भारतीय स्त्रियों  की गहराई का एहसास नहीं था जिससे वे उस समय थी । अमानवीय अत्याचार सहन  करने के बावजूद स्त्रियाँ समाज के सामने अपना दुख-दर्द रखने के लिए तैयार नहीं होती क्योंकि दूसरों के सामने अपने घर परिवार की तौहीन कर अपनी प्रतिष्ठा कम करने का भय रहता था ।

आधुनिक तकनीकी विकास ने भी स्त्री, दमन, शोषण तथा उसके विरुद्ध हिंसा को बढ़ावा दिया है । मसलन भ्रूणहत्या को बढ़ावा मिला (हालांकि विदेशों में भ्रूण परीक्षण विकलांगता जानने के लिए किए जाते है) है । इसका ताजा उदाहरण जनगणना 2011 के अनुसार हरियाणा में सेक्स रेशियो , 1000:861  है । यही हजार पुरुषों के पीछे 861 स्त्री मतलब भ्रूणहत्या और अन्य कारणों से 139 स्त्रियों की कमी हुई है  । लिहाजा यह कि सामाजिक संतुलन बनाएँ रखने में राष्ट्र नीति मुश्किल में है ।
स्त्रीवादी आंबेडकर की खोज
अंबेडकरोत्तर काल में स्त्री सशक्तीकरण की अवधारणा पुरानी होती नजर आ रही है । हमें एक लोकतन्त्र ढंग से इस समस्याओं का निराकरण करना होगा, जैसे एक लोकतन्त्र में सत्ताधारक पक्ष उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है, जितना विरोधी पक्ष  इस लिहाज से जो तत्व हमने राजनीतिक मानवता से सम्पूर्ण देश को दिए है, वह तत्व अगर हम व्यावहारिकता में भी चलाने में कामयाब  होते तो शायद समस्या न होती । सरकारी तंत्र प्रणाली की  कोशिशों के बावजूद सही मात्रा में सफल नहीं हो पाये हम ।

अंबेडकरोत्तर काल में पुरुष इस सत्य को हमेशा झुठलाता रहा है की समाज की उन्नति और निर्माण में नर और नारी समान रूप से सहभागी है । इस संदर्भ में पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायण महिलाओं पर अत्याचार अपने क्रूरतम रूप में जारी है और महिलाओं तथा दलितों के साथ भेदभाव उन्हे प्रजातन्त्र के अधिकार से जुदा करने जैसा है । स्त्रियों  के लिए आत्मनिर्भरता कोई हर समस्या का समाधान या हर मर्ज की दवा नहीं लेकिन परंपरा से हटकर जीवन गुजरने के रास्ते को सरल जरूर बनाती है । व्यक्तित्व को गंभीर जोखिम उठाने के लायक जरूर बनाती है । टूटने के स्थिति में जीवन को खो देने के दर्दनाक अहसास से बचाकर विकल्प की मानसिकता जरूर विकसित करती है । परंपरा या रिवाज के खिलाफ जाकर सहजीवन को भी जीने के लिए औरतों का अपने ऊपर निर्भर होना सबसे जरूरी शर्त हो जाती है ।

स्वतन्त्रता की अवधारणा ऐसे संबंध प्रारूप में अंतर्निहित है । इसलिए स्वतन्त्रता को जोखिम को झेलने का साहस भी हमेशा समेटकर रखना पड़ता है । यह सुकून का विषय है की अंबेडकरोत्तर भारत में महिलाओं का सम्मानजनक स्थान  सुनिश्चित करने के उद्देश्य से कई स्त्री हितकारी योजनाए सरकार ने आरंभ की है ।

अंतत: डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर के अवलोकन में स्त्री-प्रश्न भारत में किसी भी दूसरे विकसित या पिछड़े मुल्क की तुलना में अधिक जटिल था । यह जटिलता परिवार, समाज, संस्कृति, कानून, रोजगार हर स्थल पर सैकडों रूपों में मौजूद था । वह समझते थे कि इस जटिलता को नजरंदाज करना देश के आधी आबादी के लिए नई गुलामी की बेड़ियाँ गाड़ने वाला जैसा था ।  उनका दावा था कि इस विशाल और जटिल देश में स्त्रियॉं के संघर्ष कहीं गहरे है । इन संघर्षों की संस्कृतिक जमीन को पुख्ता करना स्त्री-स्वतन्त्रता की प्राथमिक और अनिवार्य शर्त है । उनकी दृष्टि में स्त्रियॉं की गुलामी और प्रताड़ना की कुंठा के साथ नहीं , बल्कि अपने इतिहास की इस पूरी गरिमा के साथ उन्हे समता का एक नया दावा प्रस्तुत करने का एक अवसर देने से था ।

संदर्भसूची :
1. लर्नर, ग. (1986). द क्रिएशन ऑफ़ पैट्रिआर्की
2. मिल, जॉ. स. (1969). सब्जेक्शन ऑफ़ वीमेन
3. स्टेट ऑफ़ वीमेन कमिटी रिपोर्ट 
4. डॉ. अम्बेडकर द्वारा 4 ऑगस्ट 1013 को जमादार को न्यूयार्क से पत्र 
5. बागुल, बा. (1963). जेव्हा मी जात चोरली होती (When I had Concealed My Caste). अक्षर प्रकाशन.
6. फुलर एम्. बी.(1900) द रॉंग ऑफ़ इंडियन वीमेनहुड. रेवेल्ल : न्यूयार्क
7. जनगणना 2011

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