दस द्वारे का पिंजरा: स्त्री मुक्ति की संघर्ष गाथा

अनामिका कृत ‘दस द्वारे का पिंजरा’ उपन्यास सन् 2008 को प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में नये प्रयोगों के कारण अनामिका जी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। अनामिका जी हिन्दी की बहुचर्चित कथाकार, कवियत्री तथा आलोचक के रुप में जानी जाती हैं। एक स्त्री की नजर से पूरे समाज को परखने और समझने की उनकी अपनी तड़प है। उपन्यास ‘दस द्वारे का पिंजरा’ स्त्री मुक्ति के अनकहे मुद्दों के साथ जोड़कर नई व्याख्या की मांग करता है। उपन्यास दो खंडो में विभाजित है। प्रथम खंड पंडिता रमाबाई और दूसरा ढेलाबाई के जीवन संघर्ष की कथा है जो स्त्री विमर्श की परत-दर-परत खोलते हुए एक कोलाॅज बनाता है.

लेखिका ने नारकीय जीवन जीने वाली चकलाघरों में स्त्री की व्यथा का वर्णन ‘दस द्वारे का पिंजरा’ उपन्यास में किया है।‘दस द्वारे का पिंजरा’ लेखिका की सहपाठिनी वेश्या मासूमा नाज बहुत सुंदर थी और वह हमेशा एक रहस्यमयी चुप्पी ओढ़े रहती थी। एक दिन लेखिका अपनी मौसी के ससुराल जा रही थी। रास्ते में वेश्याओं का मुहल्ला पड़ता था। लेखिका ने अपनी सहपाठिन मासूमा नाज को वेश्याओं के मोहल्ले में पाँव में घुंघरु बांधे सज-धज कर खड़ी देख लिया। दोनों सहेलियों की नजरें आपस में टकराती हैं और उसके बाद वह कभी स्कूल नहीं आई। अनामिका सोचती है कि ‘‘आज इतने बरस बाद भी उन आँखों की दहशत मुझे ऊपर से नीचे तक दहला जाती है पूरी रफ्तार में नाचते पंखे से टकराकर गौरेय जैसे कट कर गिरती है, कुछ उसकी आँखों में फड़फड़ाया और एक एकदम से कट गिरा। अगर मेरी आँखें उस दिन मासूम रजा से नहीं मिलती, तो यह स्वाभिमानी लड़की स्कूल नहीं छोड़ती।’’1 इस घटना के लिये लेखिका स्वंय को जिम्मेदार मानती है। मासूम का दर्द लेखिका के लिए नासूर बनता है।

स्त्री मुक्ति के बारे में अनामिका ने स्पष्ट लिखा है। इस दुनिया में स्त्री की मुक्ति खोजना आकाश और धरती के सांस्कृतिक पुल बनाने से कम मुश्किल नहीं है। लेकिन यह कठिन काम अंजाम दिए बिना दस द्वारे के इस पिंजरे में रहने वाले सुंदर पंछी खुले गगन में उड़ने के लिए तैयार नहीं हो सकते।

उपन्यास में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों का लेखा-जोखा दो नायिकाएं रमाबाई और ढेलाबाई के माध्यम से सनातनी कुलीनता की चौखट को तोड़कर अपनी जगह बनाने की कोशिश करती है। पीर जी घसियोर और अफसानाबाई की बेटी मेहरुबाई, मेहरुबाई ढेल को जन्म देने के तीसरे दिन बाद स्वंय चल बसी ढेल की बेटी ठुमरी और ठुमरी की बेटी कानन। पंडित रमाबाई और ढेलबाई स्त्री मुक्ति आन्दोलन के साथ क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़कर अपना जीवन सार्थक बनाती है। लोहासिंह का ऐतिहासिक चरित्र है जो कथावाचक और सूत्रधार का किरदार निभाते हुए उपन्यास के सभी चरित्रों का परिचय करके देता है।

 महेन्द्र मिश्र भोजपुरी भाषा के विद्वान गीतकार, संगीतकार थे। वह अक्सर ढेलाबाई के कोठे पर गीत गाते थे।
उन्होंने ऐलान किया कि वह ढेलाबाई से विवाह कर उसे अपनी पत्नी का दर्जा देकर अपने परिवार में रखेंगे। ढेलाबाई महेन्द्र मिश्र को चाहती थी। ढेलाबाई ने संगीत कला-नृत्य की शिक्षा घर में ही ग्रहण की थी। बाबू हलवंत सहाय को ढेलाबाई उच्छी लगती थी लेकिन दोस्ती की वजह से सहाय ने अपने प्यार का गला घोंट दिया। महेन्द्र मिश्र मेले से ढेलाबाई को अगवा कर हलवंत सहाय को सौंप देता है। ढेलाबाई न चाहते हुए भी हलवंत सहाय के साथ रहने के लिए मजबूर हो जाती है। घर की चारदीवारी में उसे नारकीय जीवन जीना पड़ता है। पति सहाय उसे अपने अतीत से निकलने नहीं देता है। रात-दिन अंग्रेज अफसरों के सामने नाच-गाना करना पड़ता था। पति के सामने ही अंग्रेज अफसर ढेलाबाई के साथ अश्लील हरकतें करते हैं तो पति सहाय खुश होते थे। यह बाते ढेलाबाई को मन ही मन दुःखी करती थी। महेन्द्र मिश्र को लगता था अब सब कुछ ठीक हुआ होगा।



ढेलाबाई की जिंदगी को किनारा मिल गया। एक बार ढेलाबाई अपना दर्द ब्यान करती है -‘‘मिश्रा जी, मेरी स्थिति जरा भी नहीं बदली। जो मैं पहले थी अब भी हूँ। रण्डी के बेटी जिसे कोई कुछ भी कह सकता है, जिसके साथ कभी भी, किसी भी समय दरवाजा धकिया कर घुस सकता है भीतर। सामने पान की दुकान है। कोई खण्डर की दिवार से पूछकर तो पीक नहीं फेंकता उस पर। मैं हूं वह दीवार। हर रण्डी वही दीवार है कोठे पर हो चाहे कोठी में।’’2 स्त्री मुक्ति की छटपटाहट हर स्थान पर दिखाई देती है। ढेलाबाई कहती है -‘‘मैं जो पहले थी अभी भी वो ही हूँ। पहले भी मुजरा करती थी, अब भी करती हूँ। फर्क सिर्फ इतना है कि रुपया मेरे हाथ में आता था, अब मुख्तार साहब के हाथ में आता है। पहले पाँव में बस घुंघरु  थे, अब मोटी जंजीरें भी हैं, पाबन्दियों की। यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, इससे बोलो, उससे मत बोलो। ये करो, वो मत करो, सुनते-सुनते मेरे दिमाग  की नसें तड़कने लगी हैं।’’3 पिंजरे में कैद ढेलाबाई हलवन्त सहाय के साथ रहने के लिए अभिशप्त है इसलिए स्वंय को एक जिंदा लाश समझती है। ‘‘खाना इनका दिया खाती हूँ, इसलिए सांस रोककर बगल में लेट जाती हूँ। हर रोज उबकाई आती है तो मन को यही दिलासा देती हूँ कि कर्जा चुका रही हूँ या किराया खाने-पीने का रहने-सहने का।’’4 लेखिका स्त्री मुक्ति के लिए समाज में परिवर्तन चाहती है।

महिला सुधारकों में पंडिता रमाबाई एक विदूषी स्त्री है। ब्राह्मण अनंत शास्त्री डांगे ने पत्नी और पुत्रियों को शास्त्र पढ़ाते और समान अधिकार दिए हैं जिसके कारण उन्हें जाति से बहिष्कृत किया गया। अनंत शास्त्री परिवार समेत गाँव छोड़कर निकल गए। लक्ष्मीबाई अपनी पुत्री रमा की प्रतिभा पर दामाद पोनप्पा को कहती हैं -‘‘जिन पर प्रकृति ज्यादा कृपा करती उनको वह पेरती भी बहुत है। जीवन के सामान्य सुख उनके लिए नहीं होते। अमृत की एक बूँद प्यास की पराकाष्ठा पर टपकाती है।’’5 रमाबाई अपने पिता की तरह साहसी, प्रगतिशील और निर्भीक थी। अकाल पड़ने से पिता अनंत शास्त्री और माता लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो जाती है। रमाबाई अपने भाई को लेकर कलकत्ता पहुंच जाती है और वहां नवजागरण आंदोलन से जुड़ जाती है। बिहार की नीची जाति का युवक सदाव्रत रमाबाई के बचपन का साथी था। सदाव्रत इंग्लैंड से वकालत करता है। रमाबाई की नन्हीं बेटी का नाम मनोरमा है। सदाव्रत की हत्या होती है। परिवार में रमाबाई और मनोरमा के अलावा कोई भी नहीं बचता। रमाबाई हार न मानते हुए अपने जीवन साथ सपूर्ण स्त्री जीवन को ऊँचाई तक ले जाने की निरंतर कोशिश करती रही। सामन्तवादी पुरुषों के सामने चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है। रमाबाई कहती है -‘‘कब तक पुरुष स्त्री को सिर्फ एक मादा मानते रहेंगे।’’6 लोगों के मिथ्या भाषण सुनने के बाद रमाबाई की आँखों के सामने बनारस, वृंदावन और मथुरा की लाखों विधवाओं की स्थिति अजागर हो जाती है। ‘‘ऐन भगवान की आँखों के आगे जो लगातार सेठों और पंडों का यौन शोषण/गाली-गलौच और रोटी के लाले झेलती, आधी जिबह मुर्गियों का जीवन जीने को अभिशप्त थी।’’7 रमाबाई का जीवन संघर्षमयी रहा है। उन्होंने विधवाओं को सहारा दिया और उन्हें शिक्षित करके आत्मनिर्भर बनने की शक्ति दी।

‘दस द्वारे का पिंजरा’ में लेखिका स्त्री मुक्ति की मांग करती है। स्त्री मुक्ति से ही समाज में परिवर्तन लाना चाहती है। ‘‘मुक्ति भी स्त्रीलिंग ही तो है। कभी अकेली नहीं मिलती। हरदम वह झुण्ड में ही हंसती-बोलती चलती है। थेरियों का झुण्ड हो या जैन साध्वियों, चिड़ियों और स्त्रियों के यह बृहत्तर सखा भाव रमाबाई को हमेशा ही आकर्षित करता है।’’8 द पब्लिक एजेंडा में नामवर सिंह ने कहा है, ‘‘दस द्वारे का पिंजरा’ इस उपन्यास के नाम में गहरा संदेश है। दस द्वारे का पिंजरा कबीर से लिया गया है। पाँच ज्ञान्द्रियाँ और पाँच कर्म इन्द्रियाँ मिलकर शरीर के दस द्वार बनते हैं, जिसमें आत्मा बसती है। इस तरह स्त्री की मुक्ति केवल बुद्धि की मुक्ति नहीं होती, केवल हृदय की मुक्ति नहीं होती, बल्कि तमाम इन्द्रियों की मुक्ति भी होती है। देह भी बंधन है और उससे मुक्ति ही पूर्ण मुक्ति है।’’9


‘दस द्वारे का पिंजरा’ स्त्री-मुक्ति, दलित-मुक्ति, देश-मुक्ति, वेश्या-मुक्ति की संघर्ष गथा है। रमाबाई विदुषी स्त्री थी और ढेलाबाई वेश्या पुत्री अनपढ़ थी। दोनों का संघर्ष स्त्री -मुक्ति का ही है। उपन्यास के अंत में दोनों पात्र एक ही कार्य के लिए जुट जाते हैं। इस उपन्यास की सफलता का कारण है कि दानों का स्त्री मुक्ति आन्दोलन से जुड़ जाना।

सन्दर्भ सूचि
1.अनामिका, दस द्वारे का पिंजरा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृ. 6
2.वहीं, पृ. 206
3.वहीं, पृ. 206
4.वहीं, पृ. 207
5.वहीं, पृ. 22
6.वहीं, पृ. 58
7.वहीं, पृ. 111
8.वहीं, पृ. 93
9.वहीं, पृ. 62


लेखक :डाॅ. भारत भूषण
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,गुरु नानक कालेज, किल्लियांवाली,श्री मुक्तसर साहिब (पंजाब)-151211

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