सरस्वती और अन्य कविताएँ



सरस्वती 


उसे नहीं पता की बचपन की सही जगह स्कूल है,
किताबो में उसके जैसे बच्चो का नाम फूल है,
पर सब्जियों के भाव उसे मुंहजबानी रहते है याद,
बाज़ार से हमेशा दो रुपये किलो महंगा रहता है उसके यहाँ प्याज़|
आप कितनी भी सब्जियां लो,
हरी मिर्च डाल कर वो दाम राउंड फिगर पर ले आती है|
उसे भोली समझने की भूल मत करना,
कईयों को तो वो भुल्कियाती है|

सोता आदमी भी जाता है जाग,
जब वो लगाती है हांक|
चाचा ,भैया,दीदी,काकी,
बाप रे ,सारे ग्राहक उसके रिश्तेदार है|
उसके हुनर के आगे तो ,
बिजनेस मैनेजमेंट की क्लास भी बेकार है|
मशीन की तरह सब्जिया तौलती है,
कैलकुलेटर की तरह जोडती है दाम|
एक बार पूछा था मैंने,
सुरसती बताया था अपना नाम|

अन्नपूर्णा 


उसकी सुबह की शुरुआत तू ,तू,मैं,मैं से होती है,
कभी गरजती है,कभी चिल्लाती है ,कभी खाली रोती है|
शाम तक स्टेशन पर चाय बेचकर उसका पति ,
खुद देसी पीकर हो गया था ढेर |
ढहते ,ढीमलियाते अभी घर पहुंचा है,
गोला उगने के बेर|
बच्चे टुअर टापर बने अन्दर बाहर कर रहे है,
अपनी मूकता से भी ना जाने कैसे वो माँ में बेचैनी भर रहे है|
बेचारी माँ कभी बाप के  शर्ट के पौकेट टटोलती है,
कभी घर के डब्बे कनस्तर खोलती है|
आख़िरकार कर ही लेती है,  कुछ पैसो का इंतजाम,
चूल्हा लीप कर ले आती है ,बाजू के किराने दुकान से सामान |
सवा किलो चावल,आधा किलो आलू,अढाई सौ पियाज,
तसली में लेवा लगाके बार देती है आंच|
दुआचिया चूल्हा पर तरकारी भात हो जाता है  तैयार,
बोरारूढ़ खाने लगता है  पांच जन का परिवार|

लक्ष्मी 


मैडम जी ,हमरा पति हमको लक्ष्मीनिया कहता है ,
पीने के बाद तो हरमेशा हमको छमिया कहता है|
कहता है की हमारे गोड में चक्का लगा है,
कहियो घर में कोई और हमसे पहिले नहीं जगा है|अन्दर बाहर,अंगना दुवार रोज लिप के चमकाते है,
सास ,ससुर ,लईका फईका सब के फरमाइश पुगाते है
झारू ,बुहारू,फटकन ,झटकन हम एक तनिका में फरियाते है,
कहता है कि पते नहीं चलता है की हम कब खाएक बनाते है|
साचो मैडम जी ,कोई से आपन घर ना संभलता है ,
हम चार गो घर में कमाते है,
तब भी हम को कभी हारल थाकल नहीं देखिएगा,
हम हरमेशा मस्ती में गीत गाते है |
रोज रात जब हमारा पति आता है,
हमको लक्षमिनिया कह के बुलाता है,
आ जब हम उसके गोड जातते है,
तब धीरे ,धीरे मुस्कियता है |

भवानी

भीड़ भरी बस में वो भारी  टोकरी के साथ जगह बना रही है,
जब हम लजा ,सकुचा रहे है,जाने कैसे वो मर्दों को धकिया रही है|
भर हाथ नाखी चूड़ी पहने ,वो बेफिक्री से पान चबा रही है,
हे भगवान् ,कान तो देखो ,पांच छेदों में वो पांच बालिया,झुमके झमका रही है|
जम्फर पर  छिटदार साडी पहने,

बालो में परांदा झुला रही है |
तिस पर नाक में झुलनी,
ये बंजारन तो कहर बरपा रही है|
“बस रोको कंडक्टर जी” वाह रे ,आवाज में दम है,
पर इस भीड़ भरी बस से टोकरी समेत निकलना ,
क्या किसी जंग से कम है?
ये मैं क्या देख रही हूँ,
झट टोकरी ,पट बच्चा ,फिर एक और बच्चा झट पट उतर रही है,
सर पर टोकरी,कमर पर बच्चा और एक की ऊँगली थामे ,
सरपट चलती वो बंजारन मुझे भवानी नजर आ रही है|

लेखिका:- प्रीति प्रकाश
शोधार्थी,हिंदी विभाग,तेजपुर यूनिवर्सिटी


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