“आम औरत की दैहिक या मानसिक यातना के लिए दहकते सवाल“

नीलम कुलश्रेष्ठ


जिंदगी की तनी डोर, ये स्त्रियाँ, परत दर परत स्त्री सहित कई किताबें प्रकाशित हैं.
सम्पर्क:  .kneeli@rediffmail.com,

 आदरणीय सुधा अरोडा जी की पुस्तक मंगाने से पहले उसकी  समीक्षा लिखने के अपने निर्णय से पहले मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं एक जटिल चुनौती को आमंत्रित कर रहीं  हूँ। इस पुस्तक में  स्त्रियों की एक एक समस्या ,उनके बौद्धिक विश्लेषण ,बरछी की नोंक जैसे दिल में उतर जाते शब्दों से लहूलुहान होकर मैं समझ पाती हूँ कि  किस तरह `कथादेश `के स्तम्भ `औरत की दुनियाँ `में एक एक तराशे -संजोये सुधाजी के शब्द पहले भी अपने नियमित स्तम्भ लेखन के कारण धारदार हैं।

बरसों  पूर्व `जनसत्ता `के` वामा `स्तम्भ की ऐसी लेखिका का स्तम्भ पुरुष सम्पादकों ,उपसंपादकों के पुरुष वर्चस्ववादी षड्यंत्र ने बंद करवा दिया था। सुधाजी की आत्मकथ्य `में इस बात  को पढ़कर पाठक दुखी हो सकते हैं.   सुधा जी भी उन दिनों टूटी  होंगी लेकिन इससे  मिलते जुलते अपने अनुभवों से स्वयं गुज़र कर मुझे लगता है कि किस तरह एक समर्थ लेखिका ने इस सत्ता  को झकझोर कर रख दिया होगा जो सब षणयंत्र करने पर मजबूर हुए।

 घर के खर्च के लिए कितने पुरुष खुशी खुशी रुपया देतें हैं  ?एक एनजीओ में शिकायत लेकर आई स्त्रियों के दर्द से उन्होंने जाना। सुधा जी ने अपने लेख में इस बात को रेखांकित किया है कि आजकल की मांए जी जान से बेटियों के कैरियर बनाने में जुटीं हैं जिससे उनके हाथ में भिक्षा पात्र न हो. वे प्रश्न भी करतीं हैं कि यदि औरत होने का मतलब सिर्फ घर व बच्चों की देखभाल हो तो इनमें  कितनी बेटियां अपने बच्चों को स्वतंत्र होकर  पाल पाएंगी ? कुछ दमदार स्त्रियों का बूता है कि वह पति को अहसास दिला सकतीं हैं कि वह भिक्षा नहीं मांग रहीं ,न वे घुसपैठिया हैं , न चुप रहने वाली।

आज कॉर्पोरेट्स में काम करने वाली लड़की अपना घर बनाने का दमखम रखतीं हैं लेकिन उनकी संख्या है कितनी है?ये पुस्तक संपत्ति अधिकार की बात भी करती है कि किन घरों में स्त्रियों को सम्पत्ति में  अधिकार दिया जाता है या कितना अपना हक मांग  पातीं हैं ?या रिश्तों की ऊष्मा बचने के लिए चुप रहना ही पसंद करतीं हैं। नासिरा शर्मा जी की कहानी `मेहर `पड़ने  के बाद मैंने कुछ मुस्लिम महिलायों से पूछा था कि क्या उन्हें मेहर दिया जाता है ?उनका उत्तर  था कि ये सिर्फ मौखिक  ही दुल्हिन को दिया जाता है.

शौहर शादी के बाद सुहागरात को ही उसे बहला फुसलाकर `मेहर `की रकम मुआफ़  करवा लेता है। कभी वह`मेहर `की रकम मांगती है तो उसे काइयाँपन से बहलाया जाता है ,“तुम और हम लोग थोड़े ही हैं ?मेरा सब कुछ तो तुम्हारा ही है। “

` यह भिक्षापात्र विरासत में  देने के लिए नहीं है`,`आदर्श औरत की परिभाषा `,`और चुप रहे तभी महान है `आदि अनेक लेख `वामा `स्तम्भ में स्त्री समस्यायों की परत दर परत  उघाड़ते रहते थे। हिंदी अकादमी ,दिल्ली से पुरस्कृत गुजराती लेखिका बिंदु भट्ट ने एक महिला दिवस के कार्यक्रम में कहा था ,“सब स्त्रियाँ अपने माता पिता से छोटे मोटे  झगड़े करतीं हैं। बहिन को या  भाभी को चार साड़ियां दीं हैं ,मुझे दो ही दी हैं.उन्हें आगे बढ़कर संपत्ति के अपने अधिकार के  लिये लड़ना चाहिए। “
              
 ऐसा  ही आवाहन करने वाली सुधा जी `मनुस्मृति संस्करण सन १९९७ `से एक ऐसे मूलभूत कारण को इंगित कर रहीं हैं कि  किस तरह लड़कियों को गोरखपुर  की प्रेस की एक पुस्तक द्वारा स्त्री को सिर्फ़ माँ ,बेटी व  पत्नी के खाने में फ़िट किया जाता था। बरसों पूर्व हर लड़की को ये पुस्तक उसकी शादी में दी जाती थी। इसे पढ़ कर उसका दिमाग इतना पंगु हो जाता था की अपने अस्तित्व व अधिकारों के लिए लड़ने की बात सोच नहीं सकती थी। तभी अखबार ऐसी खबर से भरे रहतें हैं -`झुलस कर विवाहिता की मृत्यु `,`युवती ने खुदखुशी की `,नवविवाहिता की संदेहास्पद मौत ,`दहेज़ प्रतारणा `.इस किताब ने भी इन दुर्घटनाओं के होने में  अहम भूमिका निबाही   थी.

 सुधा जी  ने लिखा है कि ये समाज फ्रेंच लेखिका सीमोन  द `बुवा `की पुस्तक `द सेकेण्ड सेक्स. `,तसलीमा नसरीन की ,`औरत होने का हक़ में `.अरविन्द जैन की `औरत होने की  सज़ा `[ये मैं अपनी तरफ़  से लिख रहीं हूँ लता शर्मा की पुस्तक `खिड़की के पास वाली जगह `[मेधा बुक्स ,देल्ही ]तो लड़कियों व उनके माँ बाप को ज़रूर पढ़वानी चाहिए। साथ ही मेरी पुस्तकें `जीवन की तनी डोर ;ये स्त्रियाँ `[मेधा बुक्स ],`परत दर परत स्त्री `[नमन प्रकाशन ],`मुझे जन्म दो माँ `[संतोष श्रीवास्तव ]]आदि  समाज क्यों नहीं पढ़ने  को देता जबकि गोरखपुर प्रेस की पुस्तक की दस लाख से ऊपर प्रतियां बिक चुकी हैं।

पुस्तक के अनुसार कलकत्ता जैसे शहर की राजस्थानी महिलायें अपनी छोटी बच्चियों के साथ राजस्थान सती मेला देखने जातीं हैं। वे सोचने की ज़हमत नहीं उठातीं कि उस जैसी हाड़ मांस की स्त्री  आग की चिंगारियों में किस तरह ज़िंदा ,तड़पते ,चीखते जान दी होगी। तो उसका मृत्यु उत्सव मनाने में  कैसा नृशंस आल्हाद है ?

मेरे लिए गिरिजा व्यास इसलिए आदर की पात्र हैं कि उनके विरोध के कारण राजस्थान सरकार सती चौरों को पर्यटन स्थल का दर्ज़ा नहीं दे पाई थी वर्ना देवीत्व की असीम सीमाएं छूने वाली भारतीय स्त्री का विदेशों में और भी डंका बजता। ऐसी महिमा से और भी परिवार अपने घर की विधवाओं की सती की आड़ में ह्त्या करते।

औरत बनने की उम्र से पहले की उम्र की लड़कियों की आत्महत्या की छानबीन में कोलकत्ता की  प्रख्यात  अनुवादक सुशील गुप्ता की भतीजी कीर्ति  गुप्ता भी शामिल हैं। उस घर में  तीन पीढ़ियों  बाद विवाह का आयोजन हो रहा था। कीर्ति ने वरपक्ष की अंधाधुंध मांगों से तंग आकर शादी से एक महीना  पहले आत्महत्या करके पिता को कर्ज़ से बचा लिया। एक दूसरी लड़की ने कॉलेज की रैगिंग से घबरा कर जान दे दी। सुधा जी की कलम ढ़ूढ़ने का प्रयास करती है कि हमारे सामजिक ,शैक्षणिक क्षेत्र में क्या कमी है जो हमारी लड़कियाँ ऐसा कायरता पूर्ण कदम उठातीं हैं ,अपने  भविष्य का गला घोंट डालतीं हैं.इस शब्दों को पढ़ कर कुछ लोग तो चिंतन करें ऐसी दुर्घटनाएं फिर ना हों।

स्त्री जब बच्चों को पाल पोस कर बड़ा कर देती है ,होना तो ये चाहिए कि वह चैन से बैठकर एक एक सांस लेकर  इत्मीनान से ज़िंदगी बिताये लेकिन कभी कभी सुनियोजित षडयंत्र से पागल करार करके मानसिक अस्पताल में पहुंचा दी जाती है। इस पुस्तक की उपयोगिता तभी पता लगती है जब `तहलका `की इन्वेस्टिंग टीम पर्दाफ़ाश करती है कि किस तरह से मनोचिकित्सक को रुपए खिलाकर कोई भी अपनी पत्नी को पागल होने का प्रमाण पत्र पा सकता है। सोहेब इल्यासी जैसे लोग कोर्ट से क्लीनचिट पाकर गर्दन ऊंची किये निकलते हैं। स्त्रियां ही क्यों स्टोव से जलतीं हैं  ? किसी रंजिश या अपने काबू में नहीं आ रही स्त्री को वस्त्रहीन करके गाँव में  घुमाया जाता है।एन आर आई पतियों द्वारा विदेशों में क्यों पत्नियाँ मार दी जातीं हैं या पागल करार कर दी जातीं हैं या वह प्रताड़ित होकर ,नस काटकर मरने को मजबूर हो जातीं हैं।

इस दूर  दूर तक पहुंचवाली पुरुष व्यवस्था  के अपराधी पंजे पुलिस ,कोर्ट ,अस्पातल  ,कैरियर  ख़राब करने के लिए कहाँ कहाँ पहंच सकतें हैं। एक क्राईम थ्रिलर फ़िल्म की साथी  अपराधी महिला का अक्सर अन्त में अपने साथी द्वारा ही गोली से से भून दी जाती है  या लूट  का मालकर वह अकेले ही फ़रार हो जाता है।

सुधा जी की कलम आपको कहाँ कहाँ झांकने का अवसर देगी। आप चहारदीवारी में सुरक्षित भारतीय देवी की कथाएं पढ़िए जिन्हें डर लगता है ,“मेरे पति  की पहुँच दूर दूर तक है। कहीं वो मुझे पागलखाने ना भिजवा दें। “

नाबालिग उम्र से शोषण की शिकार फूलनदेवी किस तरह `बेंडिट क्वीन `बनकर बंदूक़ उठा लेती है। इसमें लेख है शेखर कपूर की फ़िल्म का जिसमें वे कैमरे की आँख लिये दलित महिला जीवन के उतार चढ़ाव की ,उसके वहिशयाना शोषण व उसकी बगावत में वहशी बन जाने की दास्तान को सेल्युलाइड पर उकेरते हैं। लोग शेखर कपूर पर `एलीट `वर्ग के लिए फिल्म बनाने का आरोप लगाते हैं। सुधा जी की तीक्षण आँख कलम के ज़रिये जुबां खोलती है कि इसे घर घर में दिखाना चाहिए। जिसने ये फ़िल्म  देखी है  वह समझ सकतें हैं कि जैसे अशोक मेहता का कैमरा भिंड,मुरैना में चम्बल की घाटियों में ऊँचे नीचे मिट्टी बीहड़ों में बलखाता घूमता चलता  है ,ऐसा ही है स्त्री जीवन ,ऐसा लगता है  –हम बेहद दुर्गम व ख़तरनाक रास्तों से गुज़र रहे हैं।

 जब मैं अहमदाबाद में ये समीक्षा लिख रही थी तो एक अजीब इत्तेफ़ाक हुआ था। नई नौकरी लगा बेटा बोला था ,“आज शनिवार है। हम  कुछ दोस्त एक दोस्त के यहां फ़िल्में देखेंगे,लंच  वहीं लूंगा। हम लोग `बवंडर ` फिल्म ढूंढ़ रहे हैं। मम्मी ये फ़िल्म वही  है न जब हम छोटे थे नानी  के घर आप बड़े लोगों ने हम  बच्चों को भगाकर ,कमरा बंद करके ये फ़िल्म देखी थी। “

 “हाँ ,–नहीं —वह फ़िल्म `बेंडिट क्वीन `थी। `बवंडर `की स्क्रिपट राइटर की पुस्तक सुधा अरोड़ा की पुस्तक की   मैं आजकल समीक्षा लिख रहीं हूँ। “

 मैं उससे यह भी कहना चाहतीं हूँ ,“अब तुम बड़े  हो गए हो ऐसी फ़िल्में ढूंढ़ कर देखो  ,तुम्हारी माँ ने स्त्री समस्यायें सुनकर तुम्हारे कान पकाये हैं ,वह नंगा सच आंखों से देखो। “

स्त्री से जुड़ा एक जघन्य अपराध है बलात्कार।स्त्री की उम्र ३ वर्ष  से लेकर कुछ भी हो सकती है। ये पुस्तक अनेक  बलात्कार के बहुचर्चित  काण्ड पर व उस पर बनी फ़िल्म ` बवंडर `की अंदरूनी कहानी कहती है कि पुरुष व्यवस्था किस तरह तरह स्त्री को डराकर रखना चाहती है -`कोर्ट में बलत्कृत स्त्री मुक़दमा करती है तो हार जाने पर बलात्कारी जयघोष करते हैं ,`नाक कटी किसकी ,मूंछ कटी किसकी ,इज़्ज़त घाटी किसकी `का जयघोष करके उसे चुप रहने पर मजबूर करना चाहती है। ऐसे बलात्कारियों के छूट जाने पर सुधा जी सुझाव देतीं हैं कि स्कूलों में यौनशिक्षा तुरंत अनिवार्य हो और स्वयंसिद्धा जैसे स्वरक्षा के प्रशिक्षण केम्प लगाएं जाएँ .यहां मुझे नमिता सिंह जी  की  कहानी याद आ रही है `गणित `.एक ढाबे वाले की पत्नी पिटाई करने वाले अपने पति की पुरुष व्यवस्था की प्रतीक डंडी तोड़ देती हैं।

इस पुस्तक में `मीडिया में औरत `प्रभाग में इस फ़िल्म के बहाने दिखाया है  कि कैसे भंवरी बाई का पहले दैहिक शोषण होता है ,फिर समाज उसका मानसिक शोषण करता है। उसी के बलात्कार को  एनकैश करके कैसे उसकाआर्थिक शोषण किया जाता है। सुधा अरोरा जी ने इस की स्क्रिप्ट लिखने की राशि भँवरी  बाई के नाम  कर दी थी  .वह भी उस तक नहीं पहुँचाई गई थी।   इस फिल्म के अंत में समाज सेविका  बनी दीप्ति  नवल एक संवाद बोलती हैं ,“भंवरी बाई को न्याय नहीं मिला तो क्या हुआ ? उस ग्रामीण महिला ने आवाज़ उठाने का साहस तो किया। शी इज़ अ लेजेंड  .“

इस केस के सात आठ साल बाद भंवरी बाई के दुस्साहस की प्रतिध्वनि गुजरात के पाटन मे दिखाई दी। प्राथमिक शिक्षा का प्रशिक्षण देने वाले संस्थान  में रहने वाली एक आदिवासी लड़की पर छ;प्रशिक्षक महीनों बलात्कार करते रहे जिनमें एक विकलाँग  भी था इस लड़की ने अपनी शिक्षिका की सहायता से ऍफ़ आई आर लिखवा दी थी बाप पांच लाख के लालच में बिकने को तैयार हो गया था। इस पर सामजिक ,राजनीतिक दवाब पड़ने लगा। वह आत्महत्या पर भी उतारू हो गई। अंतत; डीआई  जी ,एक महिला पुलिस अधिकारी डॉ. मीरा रामनिवास जी व एन जी ओ से सहारा मिला और उसने  केस जीतकर एक इतिहास रचा।
           
शोभा डे जिसने जिस तरह प्रिंसेस डायना की मौत पर टिप्पणी की है। सुधा जी उनकी ख़बर  ले डालतीं हैं। वे बहुत गहन संवेदना से रेखांकित करतीं हैं कि ब्रिटेन  के राजप्रसाद में रही डायना  और संसार की  हर स्त्री का दुःख सार्वभौमिक है। उसके सामने दो रास्ते हैं -पति की आवारगी को झेले या बगावत कर दे और फिर समाज से जुड़कर उसके दर्द का इतना निदान करे  कि  उसकी मौत पर बच्चे ,बूढ़े व सभी नौजवान रो पड़ें।
        
इस पुस्तक की उपलब्धि है कुरान की नारीवादी व्याख्या ,सुन्नत का विवरण व हज़रात मुहम्मद  को नारीवादी बताना .सफिया बीवी व इमराना काण्ड पर इस पुस्तक में सटीक टिप्पणी की है।
 

      
सुधा जी उन पाखंडी नारीवादी महिलाओं को बेनक़ाब करने  से नहीं चूकतीं जो पुरुष प्रधान सत्ता का प्रतिरूप या राजनेताओं की कठपुतली बन जातीं हैं। उनके लिए नारीवादी होना एक धंधा है। ऐसी स्त्रियों के लिए सुधा जी के शब्द हैं ,“—-फिर महिला दिवस पर औरत होने का जश्न मनाने के बजाय दो मिनट मौन रखने के अलावा क्या विकल्प रह जाएगा ?“

(मार्च 2009 हंस में प्रकाशित)

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