फिल्म पद्मावती पर सेंसर किये जाने की स्त्रीवादी मांग


अरविंद जैन 

फिल्म पद्मावती के खिलाफ एक ओर तो समाज के भीतर परंपरावादी ताकतों और सत्ता तन्त्र के गठजोड़ के साथ उग्र प्रदर्शन  इतिहास और फिक्शन के खांचे में बहस के विषय हैं लेकिन क्या दोनो ही पक्ष-फिल्मकार और प्रदर्शनकारी सती क़ानून 1987 के दायरे में सजा के हकदार नहीं हैं. एक ओर जौहर/सती का महिमामंडन करता फिल्मांकन  और दूसरी ओर ‘जो रोज बदलते शौहर वे क्या जानें जौहर’ जैसे नारों के साथ प्रदर्शन के जरिये जौहर/सती का महिमामंडन करते प्रदर्शन. अरविन्द जैन का विश्लेषण:

इतिहास अपनी जगह, परम्पराएं अपनी जगह और राजपूती आन-बान अपनी जगह. लेकिन 1987 के सती एक्ट के बाद, यानी रूप कंवर सती काण्ड के बाद  देश भर में महिलाओं  के आक्रोश के बाद बने क़ानून के आलोक में फिल्म बनने और उसके प्रदर्शन को समझना चाहिए और फिल्म के विरोध के प्रदर्शनों को भी. भारत में सती प्रथा पर रोक तो लार्ड विलियम बेंटिक और राजाराम मोहन राय के जमाने में ही लग गयी थी. लेकिन 1987 के ‘सती प्रिवेंशन एक्ट’ ने यह सुनिश्चित किया कि सती की पूजा, उसके पक्ष में माहौल बनाना, प्रचार करना, सती करना और उसका महिमामंडन करना भी क़ानूनन अपराध है.  इस तरह  पद्मावती पर फिल्म बनाना, उसे जौहर करते हुए दिखाना, सती का प्रचार है, सती का महिमामंडन है और इसलिए क़ानून का उल्लंघन भी. यह एक संगेय अपराध है और इसका काग्निजेंस सेंसर बोर्ड को भी लेना चाहिए. क्योंकि सेंसर बोर्ड को भी जो गाइड लाइंस हैं वह स्पष्ट करती हैं कि कोई भी फिल्म ऐसी नहीं हो सकती जो क़ानून के खिलाफ हो या संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ जाती हो.  इसलिए सेंसर बोर्ड को भी देखना चाहिए कि क्या यह फिल्म सती प्रथा का महिमामंडन करती है?  यदि ऐसा है तो उसे फिल्म को बिना कट प्रमाण पत्र नहीं देना चाहिए. अदालतों को भी सु मोटो एक्शन लेना चाहिए था. यह ऐसा ही है कि देश में छुआछूत बैन हो और आप छुआछूत को जस्टिफाय करने वाली फ़िल्में बना रहे हैं. रचना कर रहे हैं.

उस आख़िरी दृश्य में अनारकली !

उधर जो विरोध भी हो रहा है वह भी सती का ही महिमामंडन कर रहा है. परम्परा के नाम पर. लोग सती के पक्ष में नारे लगा रहे हैं.  वे जौहर को आन-बान-शान बता रहे हैं. यह खेल वर्तमान शासक समूह को भी खूब भा रहा है. राज्य और केंद्र में बैठे शासक-प्रशासक इसे हवा दे रहे हैं. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित भाजपा के कई नेता  फिल्म निर्माता और अभिनेत्री को धमकियां दे रहे लोगों के साथ हैं या उनकी भावना का दोहन कर रहे हैं. अब तो राजस्थान की मुख्यमंत्री विजयाराजे सिंधिया ने भी अपना मुंह खोला है. ये वो लोग हैं जो 1987 में राजस्थान के ‘देवराला सती काण्ड’ के समर्थन में थे और उसके खिलाफ बन रहे क़ानून की मुखालफत कर रहे थे. सिर्फ भाजपा नेता भैरों सिंह शेखावत ने सती प्रथा का तब विरोध किया था.  यह दोधारी मामला है. एकतरफ अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में अमानवीय परम्पराओं का महिमामंडन हो रहा है और दूसरी तरफ लोग इस अभिव्यक्ति के खिलाफ प्रदर्शन इसका महिमामंडन कर रहे हैं – संजय लीला भंसाली और राजपूत संगठन इस मामले में एक सिक्के के दो पहलू हैं और इन सबका फायदा शासक समूह उठा रहा है.

  ‘पिंक’एक आज़ाद-ख्याल औरत की नज़र से

पिछली जो भी फ़िल्में बनी हैं चाहे 1963 में बनी हों..  आज वे रिपीट करना चाहते हैं तो उसपर भी 1987 का क़ानून लागू हो जायेगा. बना लिया ठीक है, लेकिन अब वह सती के प्रचार और महिमामंडन के दायरे में आयेगा. पद्मावती पर इक्का-दुक्का फिल्में ही बनी हैं। डायरेक्टर चित्रापू नारायण मूर्ति निर्देशित तमिल फिल्म चित्तौड़  रानी पद्मिनी 1963 में रिलीज हुई थी। फिल्म में वैजयंतीमाला ने रानी पद्मावती, शिवाजी गणोशन ने चित्ताैड़ के राजा रतन सिंह और उस समय के प्रमुख विलेन एमएन नाम्बियार ने अलाउद्दीन खिलजी का किरदार किया था। फिल्म असफल रही। हिंदी में जसवंत झावेरी के 1961 में फिल्म ‘जय चित्तौड़’  बनी.  1964 में रिलीज ‘महारानी पद्मिनी’ में जायसी के पद्मावत को पूरी गंभीरता से परदे पर उतारा था। महारानी पद्मिनी (1964) में जयराज, अनीता गुहा और सज्जन ने राणा रतन सिंह, रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन खिलजी के किरदार किए थे। इस फिल्म में झावेरी ने खिलजी को बतौर विलेन नहीं दिखाया था। फिल्म में खिलजी पद्मिनी से माफी मांगता है। पद्मिनी उसे माफ कर देती और खुद जौहर कर लेती है। इस फिल्म के निर्माण में तत्कालीन राजस्थान सरकार ने सहयोग किया था। सोनी पर सीरियल ‘चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर’ 2009 में प्रसारित हुआ था। पद्मावती से पहले भंसाली ने ओपेरा पद्मावती का निर्देशन किया था। साठ के दशक की किसी भी फिल्म का विरोध नहीं किया गया। ( फिल्म के इतिहास का इनपुट राष्ट्रीय सहारा से)

लग रहे हैं नारे: जो रोज बदलते शौहर वे क्या जानें जौहर 

जाघों से परे ‘पार्च्ड’ की कहानी: योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित

एक दूसरा प्रसंग भी इसमें है. यह फिल्म जायसी के ‘पद्मावत’ पर आधारित है. इसके पहली भी इस तरह की फिल्म बनी है. सवाल है कि क्या जायसी के पद्मावत को तोड़-मरोड़ कर अपने हिसाब से परिवर्तित कर फिल्म बनायी जा सकती है? यह कॉपीराइट एक्ट की धारा 57 के खिलाफ है. इस धारा के तहत न तो ऐसी रचनानों को संशोधित किया जा सकता है, न तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है-चाहे वह रचना जायसी की हो, प्रेमचन्द की हो या शरत चन्द्र की या किसी और की.  हालांकि ये रचनाएं पब्लिक डोमेन में आ गयी हैं लेकिन उन रचनाओं को भी कॉपीराइट क़ानून के तहत मोडीफाय नहीं किया जा सकता.

स्त्रीवादी क़ानूनविद अरविंद जैन से बातचीत पर आधारित. सम्पर्क: 9810201120

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें    :  डोनेशन/ सदस्यता 

‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें  उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles