भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें(दूसरी किस्त)

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com


धर्म और कानून: समदरसी है नाम तिहारो?


बचपन की स्मृतियों को ‘फेरा’ उपन्यास में व्यापक परिप्रेक्ष्य देते हुए तसलीमा नसरीन एक सवाल उठाती हैं कि स्त्रियों की भाँति पुरुष अपने अस्तित्व और अस्मिता को लेकर शंकित नहीं होता? क्या इसलिए कि समस्त कर्मक्षेत्र का वही एकमात्र केन्द्रबिंदु है? या इसलिए कि समूची आचार संहिताएं, नियम-कानून, शास्त्र उसके कर्म, श्रम, व्याख्या, पसंद, सत्ता और स्वत्व पर टिके हैं, और इस प्रकार वह अनायास समूची संस्कृति का कर्त्ता और कारक तत्व बन जाता है? साथ ही यहाँ वे ‘मेरे बचपन के दिन’ की ईदुल को मयमनसिंह (बांग्लादेश) की शरीफा और स्वयं को कलकत्ता में निर्वासन का त्रास भोगती कल्याणी के रूप में चित्रित कर स्त्री जीवन को बदरंग कर देने वाली बिछोह और विस्थापन जैसी भावनात्मक मजबूरियों को धार्मिक जनूनों और राष्ट्र-राज्यों की कूटनीतियों में अनूदित भी करती चलती हैं। ‘फेरा’ उपन्यास बांग्लादेश में हिंदू विरोधी अभियान तीव्रतर होने की सूरत में सत्रह वर्ष की अवस्था में अंतरंग सहेली शरीफा से बिछुड़ कर कलकत्ता आ बसने वाली कल्याणी की कहानी है जो शरणार्थी और विस्थापित होने के दर्द के बीच अपने को कभी सम्पूर्णता में नहीं देख पाती। तीस वर्ष बाद बेटे दीपन के साथ पुरानी स्मृतियों में जीने और जड़ों की तलाश में लौटी कल्याणी पग-पग पर मोहभंग का शिकार होकर जिस सघन ऐकांतिक टीस और परिताप को झेलती है, वह असल में हर उस विवाहिता लड़की की मनोवेदना की झांकी है जो ससुराल के ‘पराएपन’ के बीच मायके के ‘आत्मीय’ क्षणों को जी लेने का भरपूर उत्साह भीतर संचित कर अपनी मिट्टी की ओर लौटती है और पाती है कि वहाँ उसके अस्तित्व का आखिरी नामोनिशाँ तक मौजूद नहीं। राजनीतिक सरहदों की वजह से उगा यह विभाजन का दर्द अमूमन हर स्त्री का दर्द बन जाता है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने संस्कृति और आचार के नाम पर मजबूत किया है।

भौगोलिक और परिवेशगत परिस्थितियों के आमूलचूल परिवर्तन के बीच कल्याणी यह देख कर स्तब्ध है कि उन्मुक्त शरीफा कैसे एक ठस्स बंदिनी में कायांतरित हो गई है। परिचय के बावजूद घोर असम्पृक्ति! भिन्न आयु-वर्ग के बच्चों से लदी-फंदी शरीफा में जीवन का स्पंदन तक नहीं। हर बात में पति की अनुमति की चिंता! यहाँ तक कि कालीबाड़ी (मायका) घूम आने की स्वतंत्रता भी नहीं – ”बच्चों के बाप से पूछे बिना मैं निकल नहीं सकती।” (पृ0 67) ”शरीफा भी नमाज पढ़ती है?.. इस सूचना मात्र से चकित रह जाने वाली कल्याणी उस समय शरीफा की अन्यमनस्कता के पीछे छिपी विवशता समझ पाती है जब शहर में घूमते हुए वह दो घटनाओं की साक्षी बनती है। एक, शरीफा के बच्चों द्वारा ‘चींटी-चींटी’ खेल खेलते हुए अट्टहासपूर्वक लाल चींटियों को हिंदू कह कर मारना; और दूसरा, सिंदूर-बिंदी वाली कल्याणी को देख कर गली के बच्चों द्वारा आवेशपूर्वक पीछा किया जाना – ”हिंदू हिंदू तुलसी पत्ता, खाते हैं वे गाय का माथा”। (पृ0 94) विदाई के अत्यल्प क्षणों में शरीफा के हाथ का हल्का सा स्पर्श कल्याणी के समक्ष धर्म एवं समाज द्वारा स्त्री को ‘उन्माद’ एवं ‘पत्नी’ बनाए जाने की कठोर यातनाओं का पूरा इतिहास खोल कर रख देता है जिन्हें एक स्तर पर अनिर्वाण के साथ वैवाहिक सम्बंध जीते हुए उसने महसूस किया है और दूसरे स्तर पर मयमनसिंह में ही रुखसाना के भाई स्वप्न द्वारा कल्याणी को पहचान कर घर लिवा लाने में जहाँ उसकी पत्नी एक अलग आइडेंटिटी न रह कर ठीक शरीफा की तरह अपने पति की पसंद का विस्तार बन जाती है।

पहली किस्त :- भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन: स्त्री सशक्तीकरण की अनुगूंजें

वास्तविक जीवन में इस्लामी कट्टरताओं का विरोध करने के जुर्म में निर्वासन का संत्रास भोगने के कारण तसलीमा धर्म के दुष्प्रभावों को स्त्री जीवन के नारकीय विधान तक सीमित नहीं रखतीं, वरन् पूरी मनुष्यता को उसके चंगुल से मुक्त कर बंधुत्व के प्रसार का स्वप्न भी देखती हैं -” धर्मांधता का यह खेल कब तक चलेगा? धर्म को क्या हम लोग जीवन भर लादे रहेंगे? एक भाषा और एक संस्कृति धर्म की दीवार को एक दिन ज़रूर तोड़ने में सफल होगी।” (पृ0 89)  तहमीना दुर्रानी भी मकबरे के वर्चस्व को ध्वस्त कर देना चाहती हैं। रौशन ख्यालों वाली आधुनिक महिला सखी बीवी के जरिए वे हर खासो-आम को चेता देना चाहती हैं कि ”मकबरे के हुक्मरान अल्लाह के नाम पर तिजारत करते हैं”; कि ”मकबरेवाले झूठों पर पलने वाले फरेबी हैं। तुम्हारे लिए दुआ मांगने के वास्ते पीरों को पैसे की दरकार नहीं होती। . . .उनकी ताकत का òोत तुम हो। तुम शैतान को मजबूत करते हो।” (कुफ्र, पृ0 100) लेकिन बेहद तंज के साथ वे इस सच्चाई को रेखांकित करना भी नहीं भूलतीं कि मजहबी शिक्षा, अंधविश्वासों और सियासत के साथ गठबंधन करके धार्मिक ताकतें खुदा के नाम और न्याय की आड़ में जैसा नृशंस दमन चक्र चलाती हैं, वह ”मकबरे के खिलाफ मौजूद ख्यालात को लोगों के ज़हनों और दिलों में ही कुचल” (पृ0 144) देने को काफी है। मकबरे की मुखालफत करने वाली सखी बीवी को सपरिवार जला देना; मकबरे की रजामंदी के खिलाफ ब्लोच प्रेमी से विवाह करने को आमादा तोती को प्रेमी सहित मर्मांतक यातनाएं देकर मार डालना इसके उदाहरण हैं। तसलीमा की तरह कुरान की आयतों का हवाला देकर वे धर्म के संरचनात्मक ढांचे पर विवाद नहीं उठातीं, बल्कि इस असंलग्न तटस्थता के साथ उसके दरिंदगी से भरपूर व्यावहारिक पक्ष का पर्दाफाश करती हैं कि ”एक ज़िंदा वली/बेआसरों का आसरा/मजलूमों और मुफलिसों का सहारा” (पृ0 153) पीर साईं के साथ-साथ उसके कफ़-थूक, पीक-जूठन को पाने के लिए  आखिरी दमड़ी तक लुटाती अज्ञानी जनता को भी कटघरे में खड़ा कर देती हैं। अपनी सत्ता कायम रखने के लिए अपने ही बेटे फ़कीर छोटे साईं को ज़िना (इन्सेस्ट) के झूठे इल्ज़ाम में मरवा डालने वाले पीर साईं के प्रति लेखिका की घृणा अछोर है। वे बेहद लाउड होकर उन पोशीदा सच्चाइयों को अवाम के सामने ला देना चाहती हैं जहाँ बांझ औरतों को औलाद बख्श कर सिद्धि कमाने के हथकंडे के साथ-साथ पीर साईं उन नवजात शिशुओं के सिर को लोहे के पिंजड़े में फंसा कर उनके बौद्धिक-मानसिक विकास को अवरुद्ध करने की युक्तियां भी निकालता है ताकि बदशक्ल चूहेनुमा भिखारियों की एक पूरी फौज को मकबरे के निजाम में शामिल किया जा सके। (पृ0 54) पत्नी के रूप में तहमीना ने कोट अद्दू (पंजाब) के खारल कबीले के मुस्तफा खार के साथ तेरह वर्ष के लम्बे वैवाहिक जीवन में लगभग हर रोज़ अमानुषिक शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक यंत्रणा झेली है, अतः हीर के साथ ‘कुफ्र’ में अपने जख्मों को हरा करते हुए वे पीर साईं के भीतर के शैतान को ज़र्रा-ज़र्रा उघाड़ने में नहीं चूकतीं जो सैक्स और आतंक में ही जीवन का भरपूर लुत्फ उठाना चाहता है। आठ-दस साल की बच्चियों के साथ बलात्कार से लेकर पत्नी हीर को प्यारी तवायफ के रूप में रईस दोस्तों/मेहमानों के मनोरंजनार्थ प्रस्तुत करने तक; ब्लू फिल्में बनाने से लेकर हंटरों की फटकार और कैदी की चीत्कार के पृष्ठभूमि में संभोग करने तक पीर साईं की मानसिक रुग्णताओं और विकृतियों की एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जिसे उसकी ताकत, सम्पत्ति और पोशाक (अल्लाह के नब्बे नाम कढ़ी हरे रंग की चादर) कभी उघड़ने नहीं देती। हीर महसूस करती है कि छोटी-छोटी लाचारगियों, लालचों, रंजिशों और कायरताओं में विभक्त होकर आम आदमी ने मकबरे की ताकत को इतना पुख्ता कर दिया है कि सबूत सहित पीर साईं की घिनौनी हरकतों को पेश करने की हर कोशिश में ”बदनाम मकबरा नहीं, मैं हो रही थी।” (पृ0202) हीर की हताशा में यकीनन धर्म के इस अजीबोगरीब खेल का बहुत बड़ा हाथ है जो किसी अबूझ गणित का सहारा लेकर आदम की पसली से बनी हव्वा के वजूद को नकराने के लिए उसके बड़े से बड़े झुंड की गिनती को भी शून्य पर ले आता है। (पृ0 42) मकबरे के मिथ को तोड़ने के लिए वैयक्तिक स्तर पर इक्का-दुक्का प्रयासों की नहीं, वरन् व्यापक स्तर पर जनजागरण और संगठित लोकशक्ति की ज़रूरत है – यह अनुगूंज उपन्यास के बाद भी देर तक मन में बनी रहती है।

भारतीय उपमहाद्वीप के स्त्री लेखन का तुलनात्मक अध्ययन करने पर एक दिलचस्प तथ्य उभर कर सामने आता है कि भारतीय स्त्री लेखन में अक्सर धर्म एक उत्पीड़क शक्ति के रूप में चित्रित नहीं हुआ है, हालांकि यहाँ भी ‘मनुस्मृति’ जैसा आर्ष ग्रंथ जीवन की तीनों अवस्थाओं में स्त्री को पुरुष के अधीन रहने का संस्कार देकर उसे ‘देह’ अथवा ‘वस्तु से भिन्न कोई स्वतंत्र इयत्ता नहीं देता। मंदिरों में देवदासी प्रथा, काशी-वृंदावन में विधवाओं की दारुण स्थिति तथा देश के विभिन्न भागों में सती प्रथा की पुनर्प्रतिष्ठा धर्म की आड़ में होने वाले यौन शोषण और उत्पीड़न की कथा कहते हैं, लेकिन आश्चर्य कि भरतीय हिंदी लेखन में इन्हें मुख्य विषय बना कर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया है। अलबत्ता अखबारों में रपटों और फीचर लेखों के जरिए जनजातियों एवं कबीलों में पाई जाने वाली ऐसी धार्मिक नृशंसताओं को अवश्य बेबाकी से प्रश्नचिन्हित किया जा रहा है ; या फिर महाश्वेता देवी ‘छुक छुक, छुक छुक आ गेल गाड़ी’ जैसी लम्बी कहानी में कोल्हाटी समाज में पाई जाने वाली उन धार्मिक रूढ़ियों पर प्रहार करती हैं जो घर की बड़ी बेटी को बाज़ार में बैठा कर पुरुष वासनापूर्ति के नए-नए द्वारों को खोलती है।  लेकिन तहमीना और तसलीमा की तरह उनका बलाघात धार्मिक नृशंसताओं के यथातथ्य उद्घाटन की अपेक्षा उनके प्रति विद्रोह चेतना जगाने में अधिक रहा है। इस भिन्नतामूलक दृष्टि के दो कारण हो सकते हैं। एक, इस्लाम की अपेक्षा हिंदू धर्म में स्त्री की किंचित बेहतर स्थिति जहाँ सिद्धांत रूप में उसे देवी/जननी के रूप में पूजा जाता है और अर्धांगिनी के रूप में हर शुभ कार्य में उसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। (यह अलग तथ्य है कि काली के रूप में उसकी असीमित शक्ति का मनचाहा उपयोग करने के बाद पति परमेश्वर के मिथ को सरे-राह डाल उसके बढ़ते कदमों को वहीं फ्रीज़ कर दिया जाता है।) दूसरे, स्वतंत्र भारत द्वारा हिंदू कोड बिल अपनाया जाना जो अपने बुनियादी ढांचे में लोकतांत्रिक और मानवीय है। लेकिन जहाँ तक भारतीय मुसलमान स्त्री की नियति पर लिखे गए भारतीय उर्दू लेखन का सवाल है, वह शरीअत के हस्तक्षेप और शाहबानो विवाद से उठे मसलों को लेकर चुप है। कुर्रतुल ऐन हैदर ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ उपन्यास में रश्के कमर और उसकी बेटी की त्रासदी के जरिए ‘मुताअ’ प्रथा (सीमित अवधि का निकाह) के दुष्परिणामों का ज़िक्र अवश्य करती हैं जो आठवें दशक में गुजरात में प्रचलिम ‘मैत्री करार’ का ही रूप है, लेकिन मुस्लिम समाज को जड़ कर देने वाली सामाजिक समस्याओं का गहन विश्लेषण करने की बजाय उन सपाट स्थितियों का चित्रण करने में अधिक रमी हैं जो पुरुष की वासना का शिकार बना कर स्त्री को ख.ानगी (रखैल बनने वाली वेश्या) बनने को मजबूर करती हैं। उल्लेखनीय है कि कुर्रतुल ऐन हैदर और जीलानी बानो (ऐवाने-ग़ज़ल) दो भिन्न-भिन्न वर्गों की कथा कहती हैं। कुर्रतुल गरीबी, अशिक्षा और जहालत की मार झेलती निम्नवर्गीय रश्के कमर, जमीलुन बी और सदफ़ आपा की ज़िंदगियों में जहाँ आग़ा साहब और वर्मा साहब की मौजूदगी को ज़रूरी बना देती हैं, वहीं जीलानी बानो हैदराबाद के नवाबी खानदानों के अभिजात दंभ और जंग खाई माली हालत के परिप्रेक्ष्य में राशिद मामू और अब्बा जान हुमायूं जैसे  अतिमहत्वाकांक्षी धनलोलुप पुरुष पात्रों की सृष्टि करती हैं जो अपने ऐशो-आराम के लिए चांद और ग़ज़ल को पर-पुरुषों के आगोश में समा जाने को मजबूर करते हैं। गौरतलब है कि दोनों उपन्यास स्त्री की नियति पर निष्क्रियात्मक टिप्पणियां करने के बाद उन सकारात्मक संभावनाओं की ओर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं समझते जिन्हें तलाश कर स्त्री को अकेले अपने दम पर लड़ाई लड़नी है। इस दृष्टि से नासिरा शर्मा के हिंदी उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ का उल्लेख अनिवार्य जान पड़ता है जहाँ महरूख न केवल मुस्लिम परिवारों की रिवायतों का विरोध करती है, बल्कि आत्मसम्मानपूर्वक जीवन जीते हुए भावी पीढ़ी के लिए एक मिसाल बन जाती है। बेशक महरूख ने भी हीर की तरह ‘शताब्दी की चाल से सरकते’ (ठीकरे की मंगनी, पृ0 11) लम्हों में जीवन के ठहराव को जिया है और पैदा होते ही ठीकरे की मंगनी जैसी गलीज़ रिवायतों का शिकार होकर अपनी ज़िंदगी को निरर्थक होते देखा है, लेकिन फिर भी दोनों की स्थिति में काफी अंतर है। हीर की तुलना में महरूख का पारिवारिक माहौल न केवल उदार है बल्कि मंगेतर रफ़त भाई पीर साईं का विलोम बन कर उसके व्यक्तित्व को एक नई तराश भी देते हैं। यह ठीक है कि अततः कुल परिणति में ‘साम्यवादी’ रफ़त भाई ‘अहंवादी’ पीर साईं से भिन्न नहीं, लेकिन उच्च शिक्षा एवं लोकतांत्रिक माहौल देकर उन्होंने महरूख के भीतर की ‘स्त्री’ को अपदस्थ कर जिस स्वतंत्रचेता निर्णय सक्षम ‘मनुष्य’ को प्रतिष्ठित करने की दृढ़ता दी है, वही महरूख की कुल जमापूंजी है। इसी कारण हीर के विपरीत महरूख के पैरों तले ठोस ज़मीन है और सिर के ऊपर अनंत आसमान जो शौहर से अलग स्त्री की अलग पहचान की पुष्टि करता है।

1956 में लागू हिंदू कोड बिल तथा भारतीय संविधान की धारा 15 तथा 16 ने हालांकि कानूनी एवं संवैधानिक तौर पर भारतीय स्त्री के मानवीय एवं मौलिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व लिया है और मिताक्षरा तथा दाय संप्रदाय की विषमतामूलक सिफारिशों को निरस्त करते हुए ‘हिंदू उत्तराधिकार कानून’ ने बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की तुलना में स्वातंत्रयोत्तर भारत की स्त्री को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता एवं समानता प्रदान की है, लेकिन फिर भी वस्तुस्थिति यह है कि न्याय पाने की जटिल एवं सुदीर्घ प्रक्रिया में सामंती संस्कारों से ग्रस्त कानून के पुरुषवादी चेहरे को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। बेशक उपर्युक्त आपत्तियों को निरस्त करने के प्रयास में उन तमाम कानूनी फैसलों को गिनाया जा सकता है जो पिछले पचास वर्षों में किसी महिला/महिला संस्था द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर पूरे स्त्री समाज को मिले हैं जैसे पिता के जीवित होते हुए भी मां को संतान की प्राकृतिक गार्जियनशिप का अधिकार, पुत्री को गोद लेने का अधिकार, विवाहिता पुत्री द्वारा लाचार माता-पिता की देखरख का अधिकार, औपचारिक प्रपत्रों में संतान के अभिभावकत्व का हवाला देते हुए पिता के साथ-साथ मां का नामोल्लेख करने की बाध्यता आदि (और इस प्रकार ‘दीवारों से पार आकाश’ की वसुधा की आक्रोशभरी मायूसी एक अंश तक बेमानी हो जाती है कि परिवार के वंशवृक्ष में मां कहीं नहीं, पृ036) लेकिन यह भी सत्य है कि 48 प्रतिशत जज घरेलू हिंसा को जायज मानते हैं। दूसरे, सैद्धांतिक स्वतंत्रता व्यवहार में भी मुक्ति का संदेश लेकर आए, जरूरी नहीं। यही कारण है कि तमाम कानूनी बाध्यता के बावजूद समाज में प्रत्येक संवेदनशील वसुधा ‘स्वत्वहीन’ कर दिए जाने की वेदना भोग रही है कि ”बच्चे बड़े होंगे तब अपनी पहचान वे व्योमकेश मेहता के पुत्र कह कर ही देंगे। पूरी ज़िंदगी वे खुद के नाम के साथ पिता का नाम जोड़ कर दुनिया में घूमेंगे। वंशावली बनेगी तब व्योमकेश नाम की डाली में से तीन पत्ते फूटेंगे। उसमें मां का नाम कहीं नहीं होगा। गर्भ धारण करने से लेकर जन्म देकर बड़े करने तक मां की सही हुई तकलीफोंका आलेखन कहीं न होगा। अंतहीन कामों में जर्जरित शरीर और मन लेकर वह गुमनामी में विलीन हो जाएगी।” (दीवारों से पार आकाश, पृ0 36)



नारीवाद के भाष्य के रूप में रचा गया उपन्यास ‘कठगुलाब’ (मृदुला गर्ग) स्मिता एवं मारियान तथा प्रख्यात उपन्यासकार स्कॉट फिटजे.राल्ड की पत्नी जेल्डा फिटजेराल्ड के जरिए इस तथ्य का सामान्यीकरण करता है कि प्रत्येक देशकाल का कानून सदा से पुरुषवादी रहा है। अमरीकी समाज में पति प्रताड़िता स्मिता बनाम जिम जारविस केस हो (पृ0 108-110), इर्विंग द्वारा पत्नी मारियान का भावनात्मक शोषण कर उसके उपन्यास को अपने नाम से छापने का छल हो (पृ0 91-93) या भारतीय समाज में पैतृक संपत्ति में बेटी के हिस्से को बेदखल कर सारी जायदाद पुत्र के नाम लिख देने का प्रपंच (पृ0 215), कानून हमेशा पुरुष का ही पक्ष लेता है। ”फैमिनिन वाइल्स से मुक्त हो, सिर ऊँचा करके, अपने हाथों अपने जीवन की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश कीजिए, फिर देखिए, वही कानून कैसे आपको पटखनी देता है”  – गहरी घृणा से भर कर मृदुला न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करती हैं तो ‘चाक’ उपन्यास में सारंग के साथ पेचीदा न्यायिक प्रक्रिया से गुज़र कर मैत्रेयी पुष्पा न्याय व्यवस्था को लेकर रंजीत के अनुभव और सामान्य जन की अनास्था को जोड़ कर एक गहरी सच्चाई रेखांकित करती हैं -”कानून! किसे सिखा रही हो कानून? . . .कानून-कायदे पैसा देकर कागज के ऊपर पोंछ देने वाली इबारत के सिवा कुछ नहीं। और औरत के हक में तो बिल्कुल नहीं। पीढ़ियों से चले आ रहे रीति-रिवाजों से ऊपर हो जाएगी कचहरी? बिरादरी की मर्यादा भंग करने का अधिकार किसी को नहीं।” (पृ0 16) बिरादरी की मर्याद को सर्वोपरि मानने का सामंती दंभ चूंकि घर की देहरी से ही स्त्रियों के लिए न्याय के पट बंद कर देता है, इसलिए जिस तत्परता से वह अंतरजातीय प्रेम विवाह करने वाली लड़की की हत्या का फैसला करता है , उसी तत्परता से ससुराल द्वारा सताई गई बेटी (केका) की दुर्दशा को छुपाने के सैंकड़ों उपक्रम करता है। (चाक, पृ0 262) सवाल उठता है कि लड़की को गांव की इज्ज़त मानने वाला समाज उसकी रक्षा के लिए क्या इसलिए एकजुट नहीं होता कि हमाम में सब नंगे हैं?


भारतीय स्त्री लेखन कानून व्यवस्था में अंतर्निहित दुर्बलताओं (लूपहोल्स) को ही नहीं देखता, वरन् उन स्थितियों से दो-चार होने की कोशिश भी करता है जो वर्तमान कानूनों के प्रभाव को निष्प्रभ बना देती हैं। मसलन, तलाक के अधिकार से सम्पन्न स्त्री द्वारा सिर्फ इसलिए विवाह सम्बंध बनाए रखना कि तलाक के बाद पिता को बेटे का स्वाभाविक संरक्षणत्व मिलने के प्रावधान के कारण वह संतान से हाथ धो बैठेगी (छिन्नमस्ता, पृ0 13) तथा बलात्कार के मामलों को न्यायालय तक न जाने देना क्योंकि सुनवाई के दौरान अश्लील भाव-भंगिमाओं के कारण फरियादी को बार-बार सामूहिक तौर पर बलात्कृत होने की कटु अनुभूति होती है। (यहाँ भंवरीबाई प्रकरण में सवर्ण एवं अभिजात अदालत के पुरुषवादी अहं से छलकते निर्णय को नहीं भूलना चाहिए कि सवर्ण युवक ऐसा घृणित कार्य कर ही नहीं सकते) हालांकि बलात्कार कानूनन जुर्म है और अपराधी को कड़ा दंड दिए जाने का कानूनी प्रावधान भी है, किंतु समाज तक आते-आते हर कानून के ‘डाइल्यूट’ होते चलने की अनिवार्य प्रक्रिया को देखते हुए ज़रूरी है एक ऐसी जनचेतना विकसित करना जहाँ नैतिकता के दोहरे मानदंडों को नकारते हुए स्त्री की यौन शुचिता को उसके जीवन का पर्याय न माना जाए। सामाजिक कार्यकर्त्री की हैसियत से कुंदनिका कापड़ीआ ‘दीवारों से पार आकाश’ में कानून की नपुंसकता को जन चेतना द्वारा प्रतिस्थापित करने का आह्नान करती हैं -”स्वयं स्त्री को हमें समझाना होगा कि वह मात्र शरीर नहीं है। उसकी सारी मान-प्रतिष्ठा मात्र शरी पर ही आधारित नहीं है।  . . .बलात्कार की घटना की तरफ देखने की समाज की जो दृष्टि है, उसे (भी) बदलना होगा। . . . गुनाह करने वाले को कोई कुछ नहीं कहता, किंतु गुनाह का शिकार हुई महिला के माथे पर ज़िंदगी भर का कलंक लग जाता है।” (पृ0 252) ठीक इसी प्रकार न्यायिक अधिकारों की अनुपस्थिति में घृणित एवं तिरस्कृत समझी जाने वाली रखैल की स्थिति पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की व्याकुलता भी भारतीय स्त्री के लेखन में दिखाई देती है। मराठी लेखिका उर्मिला पवार की कहानी ‘औरतजात’  तथा हिंदी लेखिका प्रभा खेतान का उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’  इसका उदाहरण हैं। यहाँ रखैल को स्त्री (पत्नी) की शत्रु तथा घर उजाड़ू रूप में न देख कर पुरुष के शारीरिक-भावनात्मक शोषण की शिकार के रूप में देखा गया है जिसके अपने स्टेटस और संतान के भविष्य के प्रति समाज की हृदयहीनता पुरुष की भोगपरक मानसिकता को कभी प्रश्नचिन्हित नहीं करती।

जा तन की झांई परत

अजीब विडम्बना है कि 1942 में महादेवी वर्मा ने स्त्री की नियति को जिन शब्दों – जन्म से अभिशप्त और जीवन से संत्रस्त – में दर्ज किया था, उतनी ही सघन और मर्मांतक वेदना से पूरित वे शब्द आज भी स्त्री जीवन का सच बने हुए हैं। कन्या जन्म के समय परिवार का शोक संतप्त हो उठना, नई वैज्ञानिक तकनीक के साथ कन्या भू्रण के बढ़ते आंकड़े, घृणित इन्सेस्ट सम्बंध और घरेलू हिंसा  – परिवार संस्था के स्वस्थ स्वरूप को विकृत कर देने वाली कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं जिनका भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों के स्त्री लेखन में समान रूप से अंकन हुआ है। हालांकि वैज्ञानिे शोधें सिद्ध कर चुकी हैं कि कन्या जन्म के लिए न स्त्री उत्तरदायी है और न ही कन्या जन्म का अर्थ पुरुष की मर्दानगी का स्खलन है, किंतु सांस्कृतिक परंपराओं में जकड़े तीनों देशों के अनुदार समाज में कन्या जन्म को अभिशाप रूप में स्वीकारने का संस्कार आज भी शेष है। ”बेटा पैदा करने के कारण मां मुँह दिखाने लायक रह गई थी अन्यथा खानदान का चिराग कौन जलाता? लड़कियों से तो वंश नहीं चलता। वे सिर्फ घर की शोभा बढ़ाती हैं . . .घर-बार साफ रखके पुरुषों को खुश रखती हैं।” (मेरे बचपन के दिन, पृ028) तसलीमा नसरीन ने सीधे-सधे शब्दों में जिन सच्चाइयों का बयान किया है, उन्हीं सचाइयों से खौफ खाकर ‘कुफ्र’ की हीर को जहाँ पहली बेटी के जन्म पर पीर साईं की नाराज़गी न भड़काने के हरचंद प्रयास में अपनी चीखों को दबाने के लिए ”मुँह में कपड़ा ठूंस लेना” (70) पड़ा, वहीं बेटे को जन्म देने के बाद सार्वजनिक तौर पर बधाई देते हुए नाते-रिश्तेदारों द्वारा व्यावहारिक सलाह भी सुनने को मिली कि ”इस कामयाबी” पर अब उसे ”ज्यादा ताकतवर हो जाना चाहिए।” (83) ”हमारी सास तो पहले जता देती थीं कि देखो दुलहिन, मुझे पोता चाहिए। अगर छोकरी हुई तो मायके में फिंकवा दूँगी। मैं सास की नसीहत सुनती और उस पर अमल करती।” (ऐवाने-ग़ज़ल, पृ0 44) बतूल की जचगी के दौरान बतूल को ऐसा ही आदेश सुनाने वाली बतूल की सास की इस गर्वोक्ति में जहाँ पुरुषवादी व्यवस्था के संवाहक होने का दर्प है, वहीं कन्या शिशुओं की अकाल मृत्यु के लिए उत्तरदायी कारकों-व्यक्तियों को लेकर एक प्रच्छन्न स्वीकारोक्ति भी जिसे आंकड़ों में अनूदित करें तो भारतीय संदर्भ में प्रति हज़ार 932 के असंतुलित लिंगानुपात को नज़रअंदाज करना संभव नहीं।


उल्लेखनीय है कि जब जीलानी बानो ‘ऐवाने ग़ज़ल’ में यह कहती हैं कि ”कोई औरत यह नहीं चाहती कि उसके बतन (गर्भ) से उसकी की तरह मजबूर और बेबस हस्ती जन्म ले” (पृ0 45) तब स्त्री की परवशता का मार्मिक आख्यान करने की अपेक्षा वे वस्तुपकर ढंग से उन मनोवैज्ञानिे और सामाजिक संरचनात्कमक कारणों को विश्लेषित करने का आग्रह करती हैं जो बेटी के रूप में ‘स्व’ का विस्तार कर एक ओर मां को आह्लादित करते हैं तो दूसरी ओर अपनी नियति की वारिस जान कर अवसाद की गहराइयों में डुबो देते हैं। इस दृष्टि से मां द्वारा अपने ‘स्व’ के प्रति घृणा और आसक्ति की परस्पर विरोधी मनोवृत्तियों का बेटी में प्रत्यारोपण जितना स्वाभाविक है, उतना ही जरूरी लगता है निजी जीवन की असुरक्षा और असंतोष से सबक लेते हुए बेटी को वे सब ‘कौशल’ सिखा देना जिन्हें हस्तगत कर पुरुषों को ‘नचाने’ की कुट्टनी कला में वह प्रवीण हो सके। जाहिर है इस प्रक्रिया में जहाँ एक स्तर पर वह उसके अक्षत कौमार्य की चौकसी में उसकी स्वतंत्रता, स्वाभाविकता और निजता को निरे शैशव से ही बाधित करती है, वहीं दूसरे स्तर पर उसकी कुल सोच को पुरुषकेन्द्रित कर सदा हाशिए पर रहने का संस्कार भी देती है। ढेर से मनोरम झूठों, आवरणों और वर्जनाओं को गढ़ कर वह स्वयं प्रवंचनाओं और आत्मछलनाओं के जिस इंद्रजाल में जीती आई है, उससे उत्कट घृणा के बावजूद बेटी को उसमें रमा देना उसके मातृत्व का अहम दायित्व बन जाता है। इसका मुख्य कारण है उसकी दृष्टि एवं संवेदना मेंउन विकल्पों और संभावनाओं का अभाव जो उस इंद्रजाल के अस्तित्व और सम्मोहन को काट कर उसके समक्ष एक नई और विराट दुनिया के द्वार खोल सकते हैं। दरअसल परिवार में बेटी के अभिशप्त अस्तित्व के मूल में पुरुषवादी व्यवस्था का आभ्यंतरीकरण करने वाली मां है जो अपनी निष्क्रियता से त्रस्त भी है और उसका विस्तार भी करना चाहती है। हर ज्यादती पर बेटी को दुत्कारने और बेटे को दुलारने वाली मां बेशक खान-पान की ज़रूरतों से बंधे अपने भौतिक अस्तित्व को बचाए रख पाने में सफल होती है, लेकिन इस प्रक्रिया में बेटे को ‘मर्द’ और बेटी को ‘देह’ बनने की दीक्षा देकर भविष्य को बेहद बीहड़ और संकटापन्न बना डालती है। स्त्री की मानसिक निष्क्रियता, मनोविज्ञान और सामाजिक जकड़बंदी से वाकिफ पुरुष हर वार से उसे चित्त कर देने की कला जान जाता है। वरना प्रतिकार की ज़रा भी गुंजाइश होने पर क्या घर-परिवार की अंदरूनी परतों में इन्सेस्ट अतिचार का जारी रह पाना संभव हो पाता? ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया का अपने ही बड़े भाई द्वारा, ‘मेरे बचपन के दिन’ की तसलीमा का मामा और  चाचा द्वारा  तथा ‘फेरा’ की कल्याणी का ममेरे भाई द्वारा यौन शोषण क्या इसलिए संभव नहीं हो पाया कि स्त्री समाज द्वारा इसे कलंक कह कर छुपाने की भयजनित बाध्यता पुरुष को निरंतर कामोन्मादी भूखे भेड़िए में तब्दील करती रहती है? बेशक एक सुरक्षात्मक फासले पर खड़े होकर ऐसी टिप्पणियों को क्रूर सच्चाइयों से मुँह मोड़ने की सुविधाजनक कोशिश कह कर खारिज भी किया जा सकता है, लेकिन प्रिया द्वारा आत्महत्या की धमकी देकर भाई साहब को सदा के लिए चुप करा देना (छिन्न्मस्ता, पृ0 55) और पीर साईं की कामलोलुप दृष्टि से गुप्पी को बचाने के लिए हीर का किन्हीं ‘संभव विकल्पों’ पर विचार करना क्या इस बात का प्रमाण नहीं कि विरोध और विद्रोह के जरिए ही यथास्थितिवाद के खिलाफ जंग छेड़ी जा सकती है? बेशक गुप्पी की जगह उसकी हमउम्र यतीमड़ी को पीर साईं की सेवा में प्रस्तुत करके हीर चकलेदारिन से वेश्या तक की रपटीली ढलानों का सफर करती है, किंतु यह भी तय है कि शोषण की इन्हीं अतल गहराइयों के बीच उसे पीर साईं के वर्चस्व को तोड़ने की प्रेरणा और शक्ति मिलती है।

मुक्त करती हूँ तुम्हें मेरे सुन्दर भीषण भय 

मृदुला गर्ग की विशेषता है कि ‘कठगुलाब’ में शुरुआती तौर पर इन्सेस्ट को सामाजिक कलंक और सांघातिक हादसे के रूप में देखने के बाद वे इसे टर्निंग प्वाइंट के रूप में चित्रित करती हैं जहाँ आईनों और तेज़ रोशनियों से घबरा कर पलायन कर जाने वाली स्मिता अपने को चीन्हने के प्रयास में भीतरी कमज़ोरियों और वर्जनाओं से जूझती हुई एक ऐसी स्त्री के रूप में निखर कर सामने आती है जो आत्ममुग्धता और अपराधबोध से अछूती एक स्वस्थ स्त्री है; जिम जारविस की नज़र में ”किसी भी मनोविश्लेषज्ञ के लिए चुनौती।” (पृ0 32) स्मिता के कायांतरण में मृदुला गर्ग की व्यग्रता को ढूँढना कठिन नहीं जो उन्हें स्त्री के पारम्परिक मिथ  को तोड़ कर एक नया रचनात्मक विन्यास देने को विवश करती है।


पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आधारभूत संस्थाओं के तटस्थ विश्लेषण के बाद स्त्री सशक्तीकरण, दूसरे चरण में, स्त्री द्वारा मनुष्य के रूप में अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व का ईमानदार आत्मसाक्षात्कार है। आत्मसाक्षात्कार चूंकि दूसरों के संदर्भ में अपनी स्थिति/नियति का विश्लेषण न होकर स्व, समाज और समय को संवारने के लिए अंतर्निहित कमज़ोरियों और शक्तियों की पहचान और संचयन की दुष्कर साधना है, अतः यहाँ भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों के स्त्री लेखन में पाई जाने वाली दो समानताओं की ओर ध्यान खींचना खासतौर से जरूरी हो जाता है। एक, लगभग सभी उपन्यासों में पुरुष को स्त्री की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार मान कर उसे नर-सूअर, हरामी (कठगुलाब), मि0 कोबरा (छिन्नमस्ता), शैतान (कुफ्र) जैसी उपाधियों से नवाजा गया है और इस प्रकार प्रथम दृष्ट्या इसे आत्मसाक्षात्कार से बचने की सतही कोशिश का नाम भी दिया जा सकता है। दूसरे, लेखिकाओं ने स्वयं स्वीकार किया है कि गाली-गलौज अपनी हीनता और बेचारगी की मुखर स्वीकृति है। अतः आवेश का उफान थमते ही बहिर्जगत की कड़वाहटों के बीच वे अपने-अपने स्त्री पात्रों की भीतरी दुनिया में उतरने लगती हैं क्योंकि जानती हैं कि कुछ पाने से पूर्व अपने को थहा कर पुनर्संयोजित करना आत्मोपलब्धि का अहम बिंदु है। इस प्रक्रिया में उच्च शिक्षिता, अभिजात उदार पृष्ठभूमि और खुले विदेशी माहौल में पली नीरजा, स्मिता, असीमा, मारियान जैसी आधुनिकाओं को दरकिनार कर जब मृदुला गर्ग ‘कठगुलाब’ में दर्जिन बीबी को आत्मसाक्षात्कार की अग्नि परीक्षा से गुजरते हुए अस्तित्व से अस्मिता तक की भास्वर ऊँचाइयों का संस्पर्श करते देखती हैं तो वस्तुतः वे आत्मसाक्षात्कार से आत्मविस्तार की छोटी सी इच्छा के व्यापक स्तर पर फलीभूत होने का रचनात्मक वितान बुनती हैं। दर्जिन बीबी यानी ”सतयुगी काल से चली आ रही संतोषी भारतीय नारी” जिसेे ”आधुनिक तो किसी हिसाब से नहीं कहा जा सकता था। न पहरावे से, न खानपान, रहन-सहन और न विचार-भावना से। वही पोंगापंथी धुतल्ली का पहरावा। सिर पर पल्लू मेकअपविहीन चेहरा, त्योहारों में आस्था, मां-बाप की आज्ञाकारिणी पुत्री, तयशुदा विवाह की पात्रा, खाना बना-खिला कर तृप्त, बच्चे पैदा करके खुश। . . .(पृ0 155) ”ठीक-ठाक संतुलित दरम्याने किस्म की औरत” लेकिन ”स्वाभिमान का शीरा कुछ ज्यादा मिकदार में”। ठीक ‘ऐवाने-ग़ज़ल’ की बीबी की तरह जो जबरदस्ती हवेली में ब्याह दिए जाने के प्रतिशोध में पुत्र-पौत्रवती होकर भी मृत्युपर्यन्त पति-परिवार को अपने वजूद का अंतरंग हिस्सा न बना सकी। लेकिन जहाँ परस्त्रीगामी ऐय्याश पति का भीगी बिल्ली की तरह पहलू में आ सिमटना उसके अहं को सहला जाता है, वहीं दर्जिन बीबी औसत भारतीय स्त्री के लिए निर्धारित आचार-संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए पति के स्वेच्छाचार को अपनी नियति नहीं बना सकती -”मेरे सिद्धांत मुझे ऐसे पति से एक पैसा लेने की इजाजत नहीं देते जो किसी और का पति बन चुका हो।” (पृ0 157) एक अदद फैशन डिजाइनर मशीन के साथ दो छोटे बच्चों को पालने का संकल्प लेकर अलग हो जाने वाली दर्जिन बीबी का स्वाभिमान की आधारभूमि पर पैर टिकाते ही सामान्य से विशिष्ट स्त्री बन जाना संयोग या साभिप्राय लेखन का नमूना नहीं, वरन् ‘मनुष्य’ के रूप में अपनी जीवन शर्तों और फैसलों का स्पष्ट स्वीकार है -‘मुझे मात्र शरीर बन कर जीना पसंद नहीं था और मैं दया का पात्र भी नहीं बनना चाहती थी।” (पृ0 160)


स्वाभिमान की विशेषता है कि तानों-उलाहनों की विद्वेषपूर्ण संकीर्णताओं में गर्क होने की बजाय वह चुनौतियों से जूझते हुए सतत उन्न्यन का कठिन लक्ष्य चुनता है। इसलिए पूरे उपन्यास में एकमात्र दर्जिन बीबी ही पति प्रवंचिता ऐसी स्त्री हैं जो पति की गरिमा के खिलाफ एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालतीं। ठीक यही बात ‘ठीकरे की मंगनी’ की महरूख के लिए भी कही जा सकी है जो परनिर्भर अवस्था में दूसरों को कोसने की बजाय स्वयं अपने जीवन की नियंता बन गई है -”एक घर औरत का अपना भी हो सकता है जो उसके बाप और शौहर के घर से अलग उसकी मेहनत और पहचान का हो।” (पृ0 197) गौरतलब है कि आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता से दिपदिपाता यह मानवीय बोध न जीवनभर यातनाओं की अटूट शृंखला झेलने के बाद ‘कुफ्र’ की हीर अर्जित कर पाई है, न ‘मेरे बचपन के दिन’ की ईदुल। अलबत्ता पति पर आश्रित रहने की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक मजबूरियों ने दोनों के असंतोष को प्रतिशोध में जरूर तब्दील कर दिया है। ईदुल कुटने-पिटने के बावजूद पति की रसिकता और नास्तिकता को कोस कर और हीर चील के साथ पीर साईं की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होकर अपनी-अपनी मुक्ति के रास्ते तलाशती हैं। भारतीय स्त्री के मुकाबले वे पाती हैं कि मुक्ति के द्वार उनके लिए हैं ही नहीं, न उड़ान भरने के लिए आंगन जितना छोटा आकाश, बल्ेिक मृत पति के आतंक में सेंध लगाते हुए हीर ने तारा के साथ मिल कर जो छोटा सा रोशदान खोला है, उसे भी पुत्र के अंकुश ने ईंटों से चिनवा दिया है। अपने ही खून-दूध से लड़ाई लड़ने के औजार और तकनीक किसी भी स्त्री के पास पहीं।



फिर स्त्री (मातृत्व) की नियति और रुदन का महिमामंडित बखान! आत्मपड़ताल की घाव-कुरेद निर्मम प्रक्रिया में मृदुला गर्ग स्त्री को छल कर पछाड़ने वाले इस संस्कार से मुक्ति दिलाना बेहद जरूरी समझती हैं। एक बार फिर उनकी प्रवक्ता और प्रतिनिधि दर्जिन बीबी जो अहसानफरामोश स्वार्थी बेटे असीम की अपने तईं की गई ज्यादतियों को तब तक बर्दाश्त करती हैं जब तक सामाजिक मर्यादा और सौमनस्य को भंग करने वाले संस्कारहीन नर-पशु के रूप में उभर कर सामने नहीं आता। जीवनभर मालदार पिता की दौलत पर गुलछर्रे उडा.ने के लिए छोटी मां (पिता की दूसरी पत्नी) को मस्का मारने वाले असीम का पिता की मृत्यु के बाद उस ‘रखैल’ को घर से निकाल देने का दंभ भरा ऐलान और नर्मदा के प्रेमी को डरा-धमका कर भगा दिए जाने का दर्प दर्जिन बीबी को गहरी हताशा के साथ अपने भीतर झांकने को विवश करता है। इतनी संस्कारहीन औलाद! परवरिश में कहाँ चूक हुई? ऐसी औलाद को गले लगाने का अर्थ क्या उसकी ज्यादतियों में बराबर की शिरकत नहीं? ”उसे (पति की दूसरी पत्नी) लेकर आ सके तो आ, वरना फिर कभी मत आना यहाँ” (पृ0 186) – दर्जिन बीबी का आदेश जिसके एक छोर पर मां के रूप में अपनी असफल भूमिका पर गहरा अवसाद है तो दूसरे छोर पर ममता की मोहक कंटीली तारों के सम्मोहन को तोड़ डालने का निर्णय भी। अनिवार्य परिणति के रूप में स्त्री जीवन को आच्छादित कर लेने वाली मातृत्व महज एक निष्क्रिय स्थिति या अल्पकालिक स्टेज नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के साथ-साथ पूरे समाज एवं काल को गढ़ने की महती जिम्मेदारी है। इसलिए मृदुला स्त्री से वानरी मोह त्याग कर एक बुनियादी ज़रूरत के तौर पर मानवीय मूल्यों एवं दायित्व को पहचानने का आग्रह करती हैं। क्षिप्र गति से घूमते चाक पर कुम्हार की उंगलियों के कोमल स्पर्श की ही तरह बेहद नामालूम लेकिन सतर्क भूमिका है मां की। असीमा के साथ दर्जिन बीबी के सतत संवाद और साहचर्य के जरिए मातृत्व की सैद्धांतिकी की पुनर्रचना करते हुए मृदुला ने इक्कीसवीं सदी की जागरूक और व्यक्तित्वसम्पन्न मां की कुछ अर्हताओं को इस प्रकार रेखांकित किया है। एक, ”तुम्हें आज़ाद ख्याल होना चाहिए। पहले से खुद को सीमाओं में बाँध कर नहीं रखना चाहिए” (पृ0 160) क्योंकि बंद अनुदार दृष्टि हमेशा मानसिक-वैचारिक रुग्णताओं को संक्रामक रोग की तरह फैलाती है। दूसरे, ”धीरज रखे बगैर कोई काम नहीं हो सकता” (पृ0 176) अर्थात् स्थिति पर आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया करने से पहल जरूरी है ठंडे दिमाग से गहन और पूर्ण छानबीन क्योंकि अधीरता मनुष्य जीवन को कठिनतर बना देने वाली असहिष्णुता और विवेकहीनता की अग्रजा है। तीसरे, ”दुश्मन को दुख पहुँचा कर खुश होना गलत है, खुद हमारी आत्मा के लिए नुक्सानदेह” (पृ0 168) अर्थात् क्षमा एवं उदारता की पक्षधरता जिसके मूल में सदैव सक्रिय रहती है संवेदनशीलता और विवेकशीलता जैसी सकारात्मक अभिवृत्तियां। चौथे, ”उस (नर्मदा) का हौसला बढ़ाने की बजाय यह क्या खटराग ले बैठी” (पृ0 176) अर्थात् राग-द्वेष से मुक्त सहयोग, सहानुभूति और बंधुत्व के प्रसार की तत्परता जहाँ घटनाओं में बंधा अतीत, मृत सम्बन्ध या स्मृतियांे में अटके दुखद प्रकरण महत्वपूर्ण नहीं। महत्वपूर्ण है नई परिस्थितियों के विश्लेषण के बाद नई रणनीति तैयार कर प्रतिकूलताओं से जूझने की निर्भीकता। प्रभा खेतान जहाँ स्त्री मुक्ति का सिरा ”अपने कहे जाने वाले रिश्तों के घेरे के सम्मोहन से मुक्त” (छिन्नमस्ता, पृ0 209) होने में मानती हैं, वहीं निरपेक्ष संलग्नता (कमजंबीमक ंजजंबीउमदज) के साथ मृदुला इस घेरे का इतना प्रसार कर लेना चाहती हैं कि ‘स्व’ और ‘पर’ सारी विभाजक रेखाओं का अतिक्रमण कर एक-दूसरे में लय हो जाएं।


गौरतलब है कि मृदुला गर्ग गहरी सूझबूझ के साथ मातृत्व की जो सैद्धांतिकी गढ़ती हैं, उससे वाकिफ न होने के कारण अधिकांश लेखिकाएं या तो स्त्री के मातृत्व का सूर की हुलसाती-दुलराती जसोदा की तरह महिमामंडन करती हैं या कुंदनिका कापड़ीआ की तरह मोहभंग से उत्पन्न हताशा को व्यक्त करती हैं -”पूरा शरीर, पूरा मन, पूरा समय और निजी जरूरतों व व्यक्तिगत इच्छाओं का पूर्ण समापन चाहने वाली इस स्थिति (मातृत्व) का यह आनंद किस बात का आनंद है? किसी जीवन के सृजन का? यदि वह सृजन का ही शुद्ध आनंद है तो एक के बाद दूसरी लड़की होने पर दूसरों के साथ-साथ मां का चेहरा भी क्यों मुरझा जाता है?” (दीवारों से पार आकाश, पृ0 37)


कुंदनिका कापड़ीआ की विशेषता है कि संतान के लिंग को मातृत्व की सार्थकता के साथ जोड़ देने वाली रुग्ण सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं को रेखांकित करते-करते वे अनायास बहुत गहरे सवाल की ओर इशारा करती हैं कि क्यों हर बार स्त्री ‘बेटा’ नहीं जनती, ‘मर्द’ पैदा करती है? इस प्रश्न के नुकीलेपन से तीनों देशों का स्त्री लेखन हैरान-परेशान है। ”मेरे बचपन के दिन’ की ईदुल समझ नहीं पाती कि उसकी जो सख्ती तसलीमा को पांचों वक्त की नमाज पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है, वही बेटों तक पहुँचते-पहुँचते बेअसर क्यों हो जाती है? (पृ0 125) ‘कुफ्र’ की हीर तहेदिल से बेटा-बेटी में फर्क न करने की इच्छा के बावजूद पाती है कि बाप का वरदहस्त और परिवार का माहौल गुप्पी और राजाजी को किस तेजी से दो अलग शख्सियतों में गढ़ता जा रहा है। बकौल तसलीमा यह वही फर्क है जो बचपन में लड़कों को तेज़ गति से दौड़ते अत्याधुनिक खिलौने और बड़ा मैदान देने तथा लड़कियों को एक टुकड़ा आंगन आकाश देने की रीति की अनुपालना में बाद में चाह कर भी उनकी गति और दिशा नहीं बदल पाता। ‘छिन्नमस्ता’ में बड़े भाई साहब और ‘ऐवाने-ग़ज़ल’ में नसीर के अधिकारों और मनमर्जियों के विस्तार में ठीक यही संस्कार निहित है। ‘ऐवाने-ग़ज़ल’ में बेटे को मर्द बनाने की प्रक्रिया का विस्तृत ब्यौरा देते हुए जीलानी बानो निस्संतान उजाला बेगम की उन कारगुजारियों को निर्ममतापूर्वक उघाड़ती चलती हैं जहाँ अपनी जायदाद का वारिस पाने के लिए वे गर्भवती कुंवारी नौकरानी बी जानी का अपने शौहर अहमद हुसैन से निकाह पढ़वाती हैं और फिर उस अवैध संतान नसीर को हुसैन खानदान का सच्चा वारिस बनाने और मनवाने की कूटनीति में ऐय्याशी, फिजूलखर्ची और उद्दंडता से लेकर शायरी का शौक भी सिखाती हैं। बेशक इस प्रक्रिया में हवेलियों के भीतर पेचीदगियों को बुनतीं जालसाजियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो सबसे पहले स्त्रियों को मुहरा बना कर अस्तित्वहीन करती हैं, फिर सत्ता हस्तांतरण की अनिवार्य परंपरा के नाम पर पुश्त दर पुश्त पुत्र बनने का आदिम संस्कार देती हैं। अतः जरूरी हो जाता है आत्मसाक्षात्कार के निर्भीक क्षणों में स्त्री अपनी भूमिका और पारिवारिक-सामाजिक दबावों पर नज़र रखते हुए संस्कार और परम्परा के क्षेत्र में सार्थक एवं सशक्त हस्तक्षेप करे।



आश्चर्य है कि ‘कुफ्र’ और ‘मेरे बचपन के दिन’ में ऐसा कोई सार्थक हस्तक्षेप न कर पाने वाली तहमीना दुर्रानी और तसलीमा नसरीन क्रमशः ‘माई फ्यूडल लार्ड’ और कविताओं में पहले ही अपने भीतर की स्त्री का खुर्दबीनी विश्लेषण कर चुकी हैं। अपने को सान पर चढ़ा कर निरंतर परखते रहने की प्रक्रिया बेहद कष्टकर और जोखिमपूर्ण होती है, लेकिन तसलीमा की दृष्टि में इसके बिना मुक्ति द्वारों का निर्माण संभव नहीं। तसलीमा मृदुला गर्ग की तरह अपने झोले से रेडीमेड सैद्धांतिकी नहीं निकालतीं, स्त्री की दुविधा-द्वंद्व-दुर्बलताओं के साथ कदम-दर-कदम चलते हुए उसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना और पछाड़ना सिखाती हैं। ”इतनी दूर तक जाती हूँ/फिर भी नहीं टूटता घेरा” (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ0 35) – हर स्त्री की चिरंतन दुख कथा! कामना और उपलब्धि के बीच नाकामयाबी बुनने वाले तत्व हमेशा समाज/पुरुष सापेक्ष नहीं होते, अपनी अंतर्भूत कायरताओं का परिणाम भी होते हैं जिन्हें कुंदनिका कापड़ीआ सुरक्षा की खातिर पहने सैंकड़ों मुखौटों और हज़ारों बख्तर (दीवारों से पार आकाश, पृ0 206) का नाम देती हैं तो तसलीमा मुक्ति की आकांक्षिणी स्त्री के मन की भीतरी परतों का भेदन कर इस कटु सत्य से परिचय करा देना चाहती हैं कि ”खुले मैदान में खूबसूरत लड़कियां आंखमिचौली खेलती हैं/जाना चाहती हूँ, पर न जाने कौन पीछे से पुकारता है/क्या कोई सचमुच पुकारता है?/या फिर मैं खुद ही पुकारती हूँ।” (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ0 35) तसलीमा सुविधा-संस्कार तथा स्वतंत्रता-अधिकार के बीच द्वंद्वग्रस्त स्त्री   को अंतर्विरोधी स्थितियों और प्राथमिकताओं के चयन का पाठ पढ़ाती हैं तो प्रभा खेतान ‘छिन्नमस्ता’ में उन्हें रचनात्मक परिप्रेक्ष्य देकर प्रिया के ईमानदार ऊहापोह में व्यक्त करती हैं -”विद्रोह में कपूर की तरह भभक उठना और तुरंत आंसुओं में उमड़ कर शांत हो जाना . . . अपनी इस प्रवृत्ति को मैं कभी दया, कभी उपेक्षा, कभी अन्य कोई विशेषण देती, पर अपने इस खंडित व्यक्तित्व की परिसीमा से क्या मैं परिचित नहीं थी? नरंेद्र को मैं छोड़ नहीं सकती थी। क्यों? क्या इसका कारण है -सुरक्षा का मोह? व्यवस्था की स्वीकृति?” (पृ0 147) यकीनन यह स्त्री जानती है कि वह निरी देह नहीं; कि देह से परे दिल और दिमाग में ही उसका अस्तित्वमूलक वजूद धड़क रहा है -”स्त्री को कोई छुएगा तो जानती हूँ शरीर ही छुएगा, हृदय नहीं” , लेकिन फिर भी ”एक छुईमुई खामखा चुराती है अपना चेहरा और आँखें” ।


सवाल उठता है कि यह स्त्री यौन शुचिता के शुद्धतावादी नैतिक आग्रहों को नकारने के बावजूद क्या सबसे पहले स्वयं को पातिव्रत्य की लौह शृंखलाओं में नहीं जकड़ लेगी? स्थिति के विपर्यय को गहराई से समझते हुए मृदुला गर्ग आत्मोपलब्धि हेतु अपराध बोध से मुक्ति पाकर आत्मबल संचित करने तक की जटिल मानसिक प्रक्रिया को कोढग्रस्त रतनू माली के बिंब के जरिए साक्षात् करती हैं। ”मैं पापी हूँ। पिछले जन्म के करमों का फल भुगत रहा हूँ।” (पृ0 32) कोढ़ी होने के पाप मात्र से जीवन क्षेत्र में उतरने के लिए सक्रिय सकारात्मक दृष्टि की अपेक्षा बिल्कुल स्त्रियों सी आत्मदया एवं आत्मपीड़ा का वितान। अपने ‘स्वस्थ’ साथी मालियों की उपेक्षा और कोप से बचने के लिए अनुर्वरता के बंद संसार में जीता रतनू माली! लेकिन बाध्य कर दिए जाने पर ‘बीमारी’ के बावजूद जब सर्जक के रूप में अपनी अंतर्निहित क्षमताओं से परिचित होता है तो सामान्य नहीं रह पाता -”मैं पापी नहीं हूँ। पापी नहीं हूँ। मेरे लगाए पौधों पर तरकारी फल गई। . . . मैं पापी नहीं।” (पृ0 33) आत्मविश्वास का निखरता-पसरता आलोक पुंज! ज़रूरत सिर्फ ‘स्वस्थ’ साथियों द्वारा प्रत्यारोपित कर दिए गए पूर्वग्रहों से मुक्ति पाने की है। नियति के स्वीकार और स्थिति के अस्वीकार के बीच गंुझलक मार कर बैठी शंकाएं, संदेह, भय और विवशताएं असल में अपने आत्मबल को परखने की कसौटियां मात्र हैं। प्रश्न-प्रतिप्रश्न और स्पष्टीकरण की उलझी-कंटीली डगर पर कदम बढ़ाए बिना कुछ पाना संभव नहीं। यहाँ ‘चाक’ की सारंग की मानसिक संरचना और व्यक्तित्व के लौहमर्षक रूपांतरण का आख्यान एकाएक अनिवार्य हो जाता है। दो स्थूल सच्चाइयों का गहरा बोध है सारंग को कि ”जानवरों के बाद अगर किसी को खूंटे से बांधा जाता है तो वे है घर-गृहस्थी में उलझी-रमी स्त्रियां (पृ0 345); और कि हर पति के भीतर जीती निरंकुश सत्ता शून्य में तब्दील पत्नी की पूजा-अर्चना में अपने हीनता बोध और अहं दोनो को भुला-सहला लेना चाहती है।  गोबर-चूल्हे और परदे में सिमटी सारंग ग्यारह वर्षों से रंजीत की गृहस्थी चलाते-चलाते-चलाते गुरुकुल की शिक्षा और अपने तेजस्वी स्वभाव को सबकी सुविधा के लिए भूल बैठी है। लेकिन एक के बाद एक द्रुत गति से घटने वाली तीन घटनाओं ने उसे आत्मावलोकन के लिए विवश किया है।


एक, फुफेरी बहन रेशम की दिन-दहाड़े नृशंस हत्या और समूचे गांव की रहस्यमयी चुप्पी जो स्वत्व और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने वाली अकेली स्त्री की खौफनाक परिणति की कथा कह कर आम औरत की बिंधी नियति से उसका साक्षात्कार कराती है। दूसरे, डोरिया जैसे असामाजिक तत्वों की धमकियों से बचने के लिए रंजीत द्वारा चंदन को आगरा भेज दिया जाना जो सारंग को अपने मातृत्व का सीधा अपमान जान पड़ता है। मां का दायित्व क्या बच्चे को जन्म देकर पालने-पोसने की बिंदु भर यात्रा तक ही सिमटा है? उसके भविष्य को लेकर लिए जाने वाले अहम फैसलों में उसकी कोई भूमिका नहीं? जाहिर है दोयम स्थिति का साक्षात्कार उसके भीतर असंतोष और विद्रोह के बीज रोपता है। तीसरे, स्कूल मास्टर श्रीधर से भेंट जो ”चट्टानों से टकरा-टकरा कर पानी की तरह रास्ता बनाने वाली” (पृ0 404) चेतना और ऊर्जा से सम्पन्न सारंग को बताता है कि भविष्य निर्माता के रूप में प्रत्येक स्त्री का दायित्व है ”मर्दों के कुसंस्कारों और अहं की अशिक्षा को मिटाना और निजी स्वार्थों से मुक्त होना।” (पृ0 345) असल में सारंग ‘कस्तूरी कुडल बसै’ की मां कस्तूरी के साहस, हौसले, निर्भीकता और दुर्धर्ष जिजीविषा का जीवंत रूप है जिसमें रंजीत से अलग अपने रास्तों का संधान करने की व्यग्रता है -”तुम्हें बेदाग रहने की लालसा है, मैं दागदार जीवन से डरती नहीं” (185) तो ”अपना फैसला, जुझारुपन और आज़ादी” बनाए रखने का आत्मविश्वास भी। इस सारंग से बेहद भयभीत हैं रंजीत -”गुस्से से लाल हुई औरत! सचमुच पहली बार देख रहा हूँ। अब तक तो औरतों को रोते-मिनमिनाते ही देखा है।” (पृ0 184) एक नई स्त्री छवि गढ़ती सारंग!
मैत्रेयी पुष्पा की तरह प्रभा खेतान स्वीकार करती हैं कि आत्मस्थ होकर अपने प्रति आश्वस्त होना ही दरअसल असंतोषजन्य विद्रोह को ऊर्ध्व चेतना में ढाल कर रचनात्मक परिप्रेक्ष्य देना है। यही वह बिंदु है जहाँ तंज और पीड़ा से मुक्त होकर यह मुक्तिकामी स्त्री निर्विकार भाव से अपनी चारित्रिक उदारता और निस्पृहता को ‘स्त्रियोचित गुण’ कह कर महिमामंडित करने वाली पितृक व्यवस्था के अस्तित्व को नकारती है – ”विनम्र होने का अर्थ यह नहीं कि वर्जनाएं सही जाएं/ताल से लेती हूँ यदि बूंद भर तो इसका यह अर्थ नहीं/कि अधिक के प्रति मेरा आग्रह कुछ कम है/ . . . लोहा पाकर नाचने लगती हूँ तो क्या हीरे को नहीं पहचानती?”’ (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ0 63) तो ”यौनांग को अकाम बनाए रखने के उद्यम में जुटे ‘सतीत्व’ को चखना-हेरना चाहती है -”सुना है सतीत्व बहुत स्वादिष्ट चीज़ है/कभी पहनावे की लाल साड़ी, चूड़ी-फीता, नाक की नथ/खोल कर नहीं देखा सतीत्व/वह आखिर दिखता कैसा है/अस्पृश्य उंगली से छूना चाहती हूँ सतीत्व का सतलड़ा हार”। (पृ0 40) यही नहीं, आत्मविश्वास से भर कर वह अपनी लड़ाई के स्वरूप और मिशन पर बात करने को भी तैयार है -”हमारी लड़ाई अपनों से संघर्ष की लड़ाई है, यानी भूमिगत, अपने अंदर अपने को समझने और मज़बूत बनाने की -हमें मर्द नहीं बनना है, न ही मर्द को औरत बनाना है -एक दूसरे का लबादा पहनने की यह ललक ही मुसीबत बन रही है। ज़रूरत है अपनी-अपनी जगह खड़े होकर अपने-आप को समझने और दूसरे को समझाने की।” (ठीकरे की मंगनी, पृ0 181)

जाहिर है नब्बे के दशक का भारतीय उपमहाद्वीप का स्त्री लेखन जिस नई स्त्री छवि को गढ़ता है, वह वस्तुतः ममता कालिया की कामना का प्रत्यक्षीकरण है कि ”अगर वह इन्हें (घुटे शब्दों को ) लिख दे तो एक बहुत तेज एसिड का आविष्कार हो जाए”  जिसे सकारात्मक संदर्भ देकर एक छोर पर स्त्री सशक्तीकरण का नया मुहावरा गढ़ती है अशिक्षित, निम्नवर्गीय, आत्मनिर्भर नर्मदा – ”तब कहाँ जानती थी कि सारा परिवार छोड़ कर भी जी सके है औरत।” (कठगुलाब, पृ0 139) तो दूसरे छोर पर है उच्चशिक्षिता बिजनेस टाइकून प्रिया – ”लगता है मैंने अभी-अभी जीना सीखा है। धरती पर मेरी जरूरत के मुताबिक धूप है, हवा है, पानी है। मेरी अपनी एक गति है और उस गति से दौड़ रही हूँ।” (छिन्नमस्ता, पृ0 207) और तीसरे स्तर पर तसलीमा नसरीन की ”बहुत डरते-डरते और चुपके-चुपके ज़िंदा रहने वाली स्त्री” – ”सामने कुछ भी नहीं, एक नदी है/मैं तैरना जानती हूँ/भला क्यों नहीं जाऊँ/मैं जाऊँगी/जाऊँगी जरूर”। (तसलीमा नसरीन की प्रतिनिधि कविताएं, पृ075) आत्मसाक्षात्कार! आत्मस्वीकार/ आत्मोपलब्धि! किसी भी ऊर्ध्व मानवीय यात्रा के तीन अनिवार्य सोपान!

क्रमशः


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