प्रेम के भीतर देह ने केंद्रीय विमर्श खड़ा किया है: अनामिका

रानी कुमारी 

“स्त्री क्या है? क्या स्त्री, पुरुष का अन्य है/ अदर है। जो पुरुष को पूरा करते हुए निस्तेज हो जाती है। क्या स्त्री एक कोरी स्लेट है कि कोई भी उस पर, कोई भी इबारत लिख दे! साहित्य में स्त्री का चित्रण कैसे हुआ है?’ ये सवाल वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने दिल्ली विश्वविद्यालय में संजीव चन्दन के कहानी संग्रह के विमोचन समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए किये.

जनवरी माह में सर्दियों के आगमन के साथ ही साहित्य के मौसम में अनेक पुस्तकें आई। बहुत-सी किताबों का लोकार्पण हुआ और परिचर्चा हुई। इसी समय ‘स्त्रीकाल’ पत्रिका के संपादक और स्त्रीवादी कार्यकर्ता संजीव चंदन के पहले कहानी संग्रह ‘546 वीं सीट की स्त्री’ का लोकार्पण 17 जनवरी 2018 को पी. जी. मेंस हॉस्टल दिल्ली विश्वविद्यालय में हुआ तथा इस अवसर पर ‘कथा में स्त्री’ विषय पर परिचर्चा भी हुई। कार्यक्रम के शुरुआत में दूधनाथ सिंह और रोहित वेमुला (17 जनवरी को ही रोहित ने आत्महत्या की थी ) की स्मृति में 2 मिनट का मौन रखा गया। परिचर्चा की अध्यक्षता कवयित्री अनामिका जी ने की।

रोहिणी अग्रवाल ने आगे कहा कि हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ को हम एक प्रेम कहानी के रूप में पढ़ते हैं इस कहानी को सोचकर लहनासिंह याद आता है और सूबेदारनी याद आती है। इस कहानी में सूबेदारनी प्रेम का प्रतिदान मांगती है ना कि प्रतिदान देती है। लेकिन शायद आज ऐसा नहीं होता। उन्होंने कहा कि स्त्री लेखन मिथकों को रचता है। स्त्री लेखन उसके तलघर की दमित आकांक्षाओं और सपनों को कुरेदता है। हालांकि स्त्री लेखन के एक हिस्से में दिखता है कि पुरुष कितना खलनायक है। जबकि पुरुष लेखन करता है तो स्त्री को हीन और दोयम दर्जे के रूप में चित्रित करता है। स्त्री और पुरुष दोनों प्रतिपक्ष के दो पाले में ही रहेंगे? पुरुषों के लेखन से स्त्री गायब होती जा रही है । स्त्रियों में प्रेम का कुचला हुआ और दमन का रुप ही क्यों आता है! लेखक स्त्री में आत्मविश्वास क्यों नहीं भरता ? संजीव मेरे प्रिय कथाकार है। उनके उपन्यास मुझे छूते हैं, झकझोरते हैं पर उनके यहां एक भी अविस्मरणीय स्त्री पात्र नहीं मिलता। उदय प्रकाश की कहानियों में स्त्री पितृसत्ता, वर्ण-व्यवस्था को मजबूत करती नजर आती है। उनके यहां भी स्त्री के निजता का सवाल नहीं मिलता। ऐसे दो लेखक हैं जिनके यहां पर स्त्री लड़ती हुई दिखाई देती है एक शिव मूर्ति और दूसरे भगवानदास मोरवाल। लेकिन जब मैं संजीव चंदन की कहानियां पढ़ती हूं तो लगता है कि वह सार्थक हस्तक्षेप कर रही हैं. संजीव चंदन के इस कहानी संग्रह की कहानियों में स्त्रियों से जुड़े विविध पहलू और मुद्दे, उसकी सच्चाइयां व्यक्त होती हैं। स्त्री का व्यक्तित्व समग्रता में आकार लेता है इन कहानियों में। इस संग्रह को आज के समय की बहुत बड़ी दस्तक के रूप में याद किया जाना चाहिये।

रोहिणी ने कहा कि संजीव चंदन की कहानियों में बार-बार आता है कि ये वो समय था जब ये हुआ, जब वो हुआ। हम भूमंडलीकरण के दौर में जी रहे हैं।आधुनिक समाज में जी रहे हैं जहां सूचनाओं पर अधिकार का दंभ हम भरते हैं। दुनिया नहीं सिकुड़ी हमारी सोच सिकुड़ी है, वापस हम कबीलाई हो गए हैं। इस विडंबना को ये कहानियां व्यक्त करती हैं. ‘तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले’  की नायिका कह रही है कि मैं अब बेटी को जन्म ही नहीं दूंगी बल्कि मेरे रौंदे हुए, कुचले हुए सपनों, ऊर्जा, अरमानों को उसमें उकेर दूंगी।आर्ची की कहानी यौन शोषण से उत्पन्न उत्पीड़न की कहानी भर नहीं है. इसके खिलाफ मोर्चाबंदी रूमी ले रही है।

इन कहानियों में लेखक पात्र भी है, कथावाचक भी है और कथा पाठक के रूप में आनंद भी लेता है। तीनों रूपों में वह अपने आप को बांटकर चल रहा है। शिल्प में कथा का आनंद भी ले रहा है। कथा के ताने-बाने में परंपरागत ढांचे को तोड़-फोड़ करके स्त्री के मन में घुसता ही इस तरह से है कि स्त्री का त्रिआयामी चित्रण कर सके। यह कहानी संग्रह कोई समाधान नहीं दे रहा है। यह कहानी संग्रह एक डिबेट का आह्वान करता है। इस डिबेट के लिए दूसरे की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने अंदर विचार विमर्श करने की जरूरत है। यह जो पुरुषों की लेखनी में जो चुप्पी पसरी हुई है स्त्रियों को लेकर। उसको यह कहानी संग्रह बहुत ही सृजनात्मक और बहुत ही अविस्मरणीय ढंग से तोड़ने वाली धमक है।

पैनल के पहले वक्ता और युवा आलोचक कवितेंद्र ने अपने वक्तव्य में कहा कि अभी तक मैं संजीव को स्त्रीवादी कार्यकर्ता के रूप में ही जानता था। संजीव चंदन ने 22 साल में 11 कहानियां लिखी। इससे ऐसा लगता है कि बहुत कम लिखते हैं ,या जम कर लिखते हैं। ‘546 वीं सीट की स्त्री’ कहानी में ऋचा, भविष्य की स्त्री नहीं है। अपने जीवन में दमन झेलती हुई आखिरकार राजनीति में सत्ता पा लेती है। लेकिन एक स्त्री की राजनीति सत्ता, पितृसत्ता के मुकाबले हार जाती है और कहानी बखूबी यह चीज दिखाती है। संजीव चंदन की कहानी स्त्रीवादी लेखन में उपलब्धि है।’इनबॉक्स में रानी सारंगा : धइले मरदवा के भेस हो’ और ‘प्रेमकथा में हाड़ा रानी की पुनर्वापसी बनाम बैताल…’ कहानियों में विवाहेतर प्रेम को दर्शाया गया है। शादी के बाद भी प्रेम की क्या आवश्यकता पड़ती है। अभी तक हमारा समाज प्रेम को ही स्वीकार नहीं कर पाया है! अब तक विवाहेत्तर प्रेम में पति खलनायक चित्रित होता रहा है लेकिन संजीव की कहानियों में विवाहेतर प्रेम में पति खलनायक नहीं है। यह ख़ास बात है. संजीव की कहानियां हल नहीं सूझा पाती, वह हम पाठकों पर छोड़ देते है। तबस्सुम सवाल पूछती है कि रूमी का पात्र ऐसे क्यों गढ़ा? ऐंगल्स ने कहा है यौन प्रेम स्वभावत: एकांतिक होता है। संजीव चंदन की कहानियां मुक्ति का सवाल उठाती है।

आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि ‘कथा में स्त्री’ पद काफी मानीखेज है। बाणभट्ट से ही ‘कथा’ की शुरुआत होती है। दंडी ने दो भेद बताए है कथा (काल्पनिक) और आख्यान। आख्यायिका में स्त्रियां नहीं है। लेकिन वास्तविकता में स्त्रियां गायब होती है काल्पनिक कथाओं में स्त्रियां होती है।संजीव चंदन अपनी कहानियों में मिथकों का बहुत इस्तेमाल करते हैं। हमारे यहां पुरुष, स्त्रियों को गढ़ते हैं। संजीव चंदन भी इस कहानी संग्रह को वास्तविक और आभासी स्त्रियों को समर्पित करते हैं। आर्ची नाम के पात्र की कहानी, आगे की कहानियों में भी मिलती है। इनकी कहानियों में अंतः सूत्र और डिटेल्स अधिक है। जो कई बार बेमतलब की लगती है।अधिकांश कहानियों में स्त्रियां सुनती है वह पैसिव है, जो एक्टिव हैं वे हाइपर एक्टिव हैं।

लेखिका रजनी दिसोदिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि संजीव चंदन उस युवा पीढ़ी के रचनाकार है। जिनका बचपन भूमंडलीकरण से पहले वाले दौर में बीता और उनकी युवावस्था बाद वाले  की है। युग परिवर्तन के इस दौर को युवा होते खुली आंखों से देखा है.  यह पूरा दौर मीडिया, सिनेमा, कला यहां तक कि प्रत्येक क्षेत्र में भूमंडलीकरण के असर का दौर है। संजीव की कहानियों के कथानक कहीं पीछे छूट जाता है वह अनायास आता है। डिटेल्स खूब हैं, जबकि इसके प्रति लेखक सजग है। भूमंडलीय दौर में जो परिवर्तन हो रहे हैं तो  चरित्र ऐसे आ रहे हैं इसलिए डिटेल्स भी जरूरी है। यहाँ स्त्री दृष्टि की कहानी को  पुरुष देख रहा है स्त्री की तरह। स्त्रियां, प्यार में बंधन नहीं चाहती इसी संदर्भ में सारंगा वाली कहानी डिस्टर्ब करती है। यह कहानी सोशल मीडिया पर आधारित  है। पहला पुरुष थोपा हुआ होता था, लेकिन रूमी के साथ ऐसा नहीं है। रूमी बंधनहीन प्रेम की मांग करती है। तमाम प्रेम उसे अकेला कर रहे हैं, यह यात्रा उसे अकेला ही बनाती है। इस मायने में दलित स्त्री अलग है वह समझती है कि अकेले होते ही शिकार बन सकती है इसलिए वह सामूहिक रहना पसंद करती है। इस मुक्ति की कोई सामाजिकता नहीं है।’वह ट्रेन निरंजना को जाती है’ कहानी में नायिका को मुंबई जाना था लेकिन वह निरंजना चली जाती है। मां की दो आंखें उसे निरंतर देखती रहती है, पिता का विश्वास नजर रखता है। यह एक खूबसूरत कहानी है, भूमंडलीकरण के प्रवाह को थामने की कहानी।

कथाकार टेकचंद ने अपने वक्तव्य में कहा कि संजीव चंदन की कहानियां आज की जिस स्त्री को केंद्र में लेकर आती है उसकी मानसिक संरचना बेहद जटिल और संश्लिष्ट है। जिसका प्रमाण इन कहानियों में मिलता है। हिंदी कथा -साहित्य में स्त्री कैसी है? जब हम प्रेमचंद के लेखन को देखते है तो सचेत स्त्रियां दिखायी देती हैं, आजादी के बाद महानगर की स्त्रियां, और उसके बाद मोहन राकेश की ‘सावित्री’। संजीव की कहानियों में मिथक आज के जीवन को भी व्याख्यायित करते हैं।

कथाकार अल्पना मिश्रा ने अपने वक्तव्य में कहा कि हम संजीव चंदन को स्त्री के संघर्ष में एक साथी, एक्टिविस्ट के रूप में देखने को अभ्यस्त रहे हैं। मैंने यह कहानियां वैज्ञानिक दृष्टि से देखी और पढी है। इनकी कहानियां औपन्यासिक क्लेवर की है। जब इनकी कहानियों को पढ़ती हूं तो देखती हूं कि 70 से लेकर आज तक की राजनीति पर बात की गई है। इतना बड़ा क्लेवर है। पात्र सुदृढ़ है। क्लेवर और मार्मिकता साहित्य का प्राण है। हर विधा में मार्मिकता की जगह है। संजीव चंदन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और चेतना को लेकर आते हैं कहानियों में। परकाया प्रवेश हिन्दी की कहानियों में पहले भी हुआ है. जैनेंद्र की पत्नी कहानी, अज्ञेय की रोज़। जब हम अज्ञेय की रोज़ कहानी के उस घंटे की आवाज को आज भी महसूस करते हैं, वह आवाज कितनी तकलीफदेह है.

अल्पना मिश्र ने हिन्दी आलोचना में स्त्रियों के प्रति दोयम व्यवहार को चिह्नित किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में बंग महिला और महादेवी वर्मा पर 3 लाइनें लिखी। बंग महिला के लेखन के बारे में कुछ नहीं लिखा, उनका कुल-खानदान खूब लिखा.  कथा में स्त्रियों ने हस्तक्षेप करना शुरू किया, तो उन्हें जगह नहीं मिली।क्या शिवरानी देवी को कभी कथाकार शिवरानी कहा गया? अल्पना ने कहा कि स्त्रियों का संघर्ष निरंतर जारी है. सावित्रीबाई फुले के साथ क्या-क्या हुआ। जब उनका साथ रानाडे ने दिया। हम केरल के चान्नार विद्रोह को भी देख सकते हैं। तब स्त्रियां कमीज नहीं पहन सकती थीं.  मिशनरियों आने के बाद उन्होंने विश्वास दिलाया कि ऐसा हो सकता है। ऊपरी वस्त्र पहनने का लंबा आन्दोलन चला. दबाया कुचला हुआ व्यक्ति जब बोलता है तो वह प्रतिरोध की भाषा ही होती है। आज नई चुनौतियां भी हमारे सामने हैं, जिसमें मुख्य रूप से बाजार का दबाव है और दूसरी ओर  पितृसत्ता है।

रंगकर्मी और लेखिका नूर जहीर ने अपने वक्तव्य में कहा कि परिकथा में से परी, रूपकथा से रूप, लोक कथा से लोक और मिथक से उसका छुपा हुआ चेहरा लेकर जब दास्तानगोई की मिटटी की हंडिया में धीमी आंच पर देर तक दम दिया जाए तो जो सोंधी महक लिए बनके सामने आएगा वह “पांचसौ छियालिस्वीं सीट की स्त्री” होगी —-मेरी मुराद सिर्फ इस नाम की कहानी से नहीं इस पूरे मजमुए से है।इनकी कहानियाँ  चलती हुई कहानी किसी निर्धारित अंत तक पहुंचे, यह जरूरी नहीं। संजीव की कहानी चलती हुई तो महसूस होती है। वह एक ही डगर या पात्र के सहारे नहीं चलती है। एक कहानी कई सवाल खड़े करती हैं।

नूर ने कहा कि कहीं न कहीं हर कहानी सवाल खड़े करती है, एक प्रश्न नहीं, एक साथ कई सवाल—–समय को, अपने समय को, बीते वक़्त को हम कैसे याद करेंगे? क्या उस समय में पड़ा अकाल, जेल भरो आन्दोलन, बढ़ते बलात्कार, छिछली,भ्रष्ट राजनीति, समय को परिभाषित और रेखांकित नहीं करेंगे? किस खांचे में किस केटेगरी में हम डालेंगे एक समय को? क्या मुद्दे हैं जो हमें उस वक़्त की याद दिलाएंगे? प्रचलित रीती  रिवाज? जिसमे बट सावित्री व्रत तो रख रही हैं स्त्रियाँ और साथ ही पंखों का भी ढेर लगता जा रहा हो, या प्रधान मंत्री के इस वाक्य से “कुंवारा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं,” स्त्री के बढ़ते हुए आत्मविशवास से या उनपर बढ़ते हुई हिंसा और यौन उत्पीडन से या इस समझ से कि राजनीति में आने वाली स्त्रियाँ,  हाँ, वामपंथी राजनीति से जुडी हुई स्त्रियाँ भी किसी की पत्नी, बहु, बेटी होती हैं?

अध्यक्षीय वक्तव्य में अनामिका ने कहा कि नये लड़के और लड़कियां स्त्रीवाद के गर्भ से जन्मे हुए हैं। ‘तुम्हीं से जनमूं तो पनाह मिले’ कहानी स्त्रीवाद से जन्मे लेखक की दृष्टि की कहानी है. स्त्री को बहुत सारी खिड़कियों से देखने की कोशिश की है संजीव चंदन ने। और बहुत सफल कोशिश की है । संजीव को मैं दो दशक से जानती हूँ. 20-22 के उम्र के वह होंगे, तब से जानती हूं। स्त्री अध्ययन की कक्षा में बैठकर जिस तरह के प्रश्न उठाते थे। उसी समय लगा था कि यह प्रश्न इन्हें कहीं ले जाएंगे। लंबी उड़ान और लंबी थकान का सिलसिला पैदा करेंगे। इन 20 वर्षों में जो इन पर गुजरी है मैं उसकी साक्षी रही हूं। जब मैं ये कहानियां पढ़ती हूं तो एक तरह से भूमिगत, जैसे गर्भ गत 9 महीने होते हैं, वहाँ से लिखी कहानियां दिखती हैं। जो भी राजनीति में सक्रिय रहता हैप्रतिरोध की राजनीति में, उसके लिए एक गर्भ और हो जाता है.  भूमिगत जब मनुष्य रहता है, कई तरह की परिस्थितियों में, तो एक नए तरह का गर्भ  समय भी बन जाता है। आप सब के जीवन में वह समय जरूर आता होगा। आप सबसे छुपकर अपने भीतर, अपने को ही दोबारा जन्म देने की कोशिश में एक गर्भ की संरचना कर लेते हैं। वह जो एकांत होता है अंग्रेजी में उसके लिए एक शब्द है ऑल -अलोन। कच्ची पक्की नौकरियां करते हुए, कच्चे-पक्के संबंध जीने का यह समय एकांत पैदा करता है। त्रास पैदा करता है। कितने सवाल उठाता है इसका प्रबल साक्ष्य इस संग्रह में मिलेगा। सभी वक्तव्यों में एक सवाल उठा है प्रेम क्या है? जब हम अन्ना कैरेनिना के बरक्स रुमी को रखते हैं या चेखव की कहानी डार्लिंग को लेते हैं।तो देखते हैं यह कहानी 19वी शताब्दी की लड़की की है, जो अकेली हैं। जब हम इसके बरक्स संजीव चंदन की रुमी को रखते हैं तो समझ आता है कितना पानी बहा. यह भी मुझे लगता है हर व्यक्ति अपने आप में विशिष्ट है उसका वैशिष्ट्य अंदर ही अंदर को कुम्हला रहा है ,उसकी पत्तियां गिर रही हैं। प्रेम ही वह संभावना है जो उसके भीतर छिपे वैशिष्ट्य को, उसकी संभावना को मुकुलित करने का आभास देता है। आपके भीतर जो था वह पूरी तरह खिल गया है। ऐसे समय में प्रेम श्रृंखलाओं से कैसे निपटा जाए क्योंकि प्रेम श्रृंखलाएं फिर अपमान की उस राजनीति से हमें रूबरू करती है, जिसको हम सामाजिक संदर्भ में समझ चुके हैं, लेकिन निजी संदर्भ पर इतनी चर्चा नहीं की।

अनामिका ने कहा कि  बुद्ध ने मैत्री की चर्चा की है, स्त्री -आंदोलन ने सिस्टरहुड की बात कही। हम सब बंधुता की बात करते हैं। तो कैसे प्रेम करें कि बंधुता क्षरित ना हो या मैत्रीभाव क्षरित ना हो। प्रेम की क्षमता का शुभ पक्ष, सबसे प्यारा पक्ष है। ऐसा प्रेम कैसे करें एक बार वह खिलकर मुरझाए ना, हमेशा खिला रहे यह बहुत बड़ी चुनौती है हमारे सामने। कच्ची पक्की नौकरियों के चलते कच्चे-पक्के संबंध बना रहे हैं कहीं छोड़ा कहीं पकड़ा, कभी यहां कभी वहां हम एक विराट घूर्णन जैसे भंवर के शिकार हो गए हैं और मक्खन कहीं ऊपर नहीं आ रहा। यह जिस समय की आहट है उसे बेहतर ढंग से इस लड़के (संजीव चंदन) ने पकड़ी है जिसे मैं 20 साल की उम्र से जानती हूं।

पिछले 10 साल में जब एक व्यक्ति किशोर से युवा हो रहा है। उसके समय के विडंबनात्मक पक्ष सूचना के माध्यम से आ रहे हैं। हम एक आतंक विह्वल समय में रह रहे हैं। प्रेम की तलाश नैसर्गिक है। प्रेम अब दिखाई नहीं देता। इन कहानियों में प्रेम श्रृंखलाएं हैं एक से दूसरी, दूसरे से तीसरी। प्रेम के भीतर देह ने केंद्रीय विमर्श खड़ा किया है। इस कहानी संग्रह में भी छोटे शहरों से बड़े शहरों में आई लड़कियां है। एक नए तरह का संबंध जीती स्त्रियां है। संजीव चंदन की कहानियों के चरित्रों में पारस्परिकता है, कोई भी पात्र विक्टिम नहीं है। साथी पुरुष से स्त्रियां खुल कर बात करती है, साथी पुरुष भी उनकी बात सुनते हैं। सहजीवन की कल्पना है, यूटोपिया है। जहां दोनों अपने मन की बात कह सकते हैं। इस तरह की कल्पना के लिए संजीव चंदन ने अपने समय के द्वंद, नई तकनीक और शिल्प का प्रयोग किया है। मंच संचालन धर्मवीर ने किया। शिक्षकों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों से पी. जी. मेंस सभागार खचाखच भरा हुआ था। जो स्त्रीवादी मुद्दों की संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता को दर्शाता है। धन्यवाद ज्ञापन रानी कुमारी ने किया ।

रानी कुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में तदर्थ प्राध्यापिका हैं. 

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