स्त्री-अधिकार की मुखर नायिका सावित्रीबाई फुले के स्मृति दिवस (10 मार्च) पर संघर्ष की नायिका भंवरी देवी के संघर्षों को याद करते हुए यह नाटक पढ़ें.
कहाँ और कैसे शुरू करूँ , कोई नई बात तो है नहीं , बात तो सदियों पुरानी है , मर्द औरत की है , मर्द जात , औरत जात की है ..जब दो ही जात होती थी एक औरत और एक मर्द …तब से लेकर आज तक इन जातों की खाई पट नहीं पाई ..बख्त ( वक्त) के हिसाब से बढती जाती है … कभी पटती नहीं …ये खाई ..साथ साथ चलती है पर मिलती नहीं …
आदम जात बहुत खुश थी जब पेट भरना ही जीवन का मकसद था ..पेट भरना और जीवन का आनंद लेना …और पेट भरने के लिए कंद , फूल , फल और शिकार , उसके बाद नाच , गाना , मौज मस्ती , नाच , नृत्य , कबीला , और खानाबदोशी …सारी धरती आपनी … समभवत वो औरत जात का स्वर्ण काल था ..जब उसकी इच्छा सबकी सर आँखों पर थी …और उसको मिली कुदरत की नियामत उसकी आज़ादी का सबब थी … वो किसके साथ घूमेगी , खेलेगी , नाचेगी , गाएगी और सोएगी ..ये उसका अख्तियार था … बरखुरदार ..आँख फाड़ ..फाड़ के क्या देखे है ..तेरे हिसाब से बस ..जन्नत थी ..जन्नत … इतना मान ..सम्मान की तिनका भी बहुत था खुले आसमान में अपनी आज़ादी के लिए .. व्यक्तिगत फ्रीडम के लिए ..जो आज तालों , प्राइवेट फ्लाटों , बंगलों में नहीं मिलती ….
शक , सुबाह, मैल, का कीड़ा नहीं था … मर्द सही में मर्द था ..उसमें न्यूनगंड… इन्फेरिरोरिटी काम्प्लेक्स नहीं था … होगा भी तो कहीं कोने में पडा होगा … तू किसका है …किसकी औलाद है …किसका खून है ..ये सवाल नहीं थे ..एक ही समान भाव था ..किस माँ की औलाद है ..सबको स्वीकार थी माता की सत्ता …मातृसत्ता… क्योंकि आज भी मातृत्व यकीन है और पितृत्व अनुमान …
उत्क्रांति ..एवोलुशन..बख्त की सबसे कुदरती नियामत है ..यानी जो चलता है वो बख्त ..जो ठहरा वो मौत … इस बख्त के साथ आदम भी बदला …और उसकी जात भी बदली और ऐसे बदली की औरत बदल गयी ..सृष्टि का चक्र बदल गया .. पैदा करने वाली गुलाम और पैदा होने वाला मालिक … मालक ..और यही वो काली शहाई थी जिससे आज भी औरत का आसमान काला है और मर्द का टिमटिमाते तारों सा …
आदम जात के दिमाग में ऐसा केमिकल लोचा हुआ की मेरा सारा व्यक्तित्व काया , स्तन , कमर , कोख और योनी तक सीमित हो गया और अंतत एक ‘बस्तु’ की पहचान में सिमट गया … संस्कृतियों के महान दौर आये और गए ..बस ‘वस्तु’ और तथास्तु कायम है …
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भंवरी का मंचन |
बात है उस समय की जब हम ‘सभ्य’ बनाना शुरू हुए .. हमने अपने शुद्ध , सात्विक शरीर को जब ढकना शुरू किया .. सर्दी ..गर्मी से बचने के लिए तो हम ..अपने बचाव शुरू से करते आयें हैं … पर सभ्यता के नाम पर जब ..अपने तन को ढकना शुरू किया … पहले पत्तों, से ..फिर पशुओं के चरम से फिर वस्त्रों से ..और इतिहास गवाह है की सभ्यता के नाम पर हमने जितना तन ढका ..इंसानियत उतनी ही नंगी होती चली गयी … जिस्म पर वस्त्र बढ़ते गए और इंसानियत के वस्त्र उतरते गए …निश्छल,पवित्र मन , भाव , लोभ , लालच बढ़ता गया .. भविष्य की भट्टी में वर्तमान जल गया ..और आज तक जल रहा है ..आज को जीने की बजाय कल की आग में सब जल रहे हैं … जैसे ..यहाँ बैठे बैठे आप ..मैं क्या कह रही हूँ ये समझने ..बुझने ..मनन करने की बजाय ..मैं आगे क्या बताने वाली हूँ ..उस अनुमान .. अंदाज़े के तवे पर अपने इस पल के सुख को भुन रहे हो … मतलब ..सुख चैन ..का स्वाद , आनंद सीखा ही नहीं ..हाँ भाई सभ्य जो हो ….
इस आगे की सोच ने उजाड़ दिया आदम जात को … खाने को अपार , रहने को प्रकृति की गोद … आदम और प्रकृति का संतुलन , बल्कि प्रकृति की श्रेष्ठता का ढंका बोलता था … पर आज तो सब मिल रहा है ..पूरी दुनिया का भ्रमण , कबीला , खानाबदोश जीवन .. पर नहीं कीड़ा घुस गया दिमाग में कल क्या होगा … फिर क्या .. जोड़ना , जमा करना शुरू , सामूहिक कबीला बंटा तेरे कबिले, मेरे कबिले में… तेरे भू भाग मेरे भू भाग में .. कबीला बंटा , ज़मीन बटी, जल जंगल बंट गए … पशु प्राणी बंट गए ..पहले पशु गुलाम हुए ..आदम ने पशुओं को गुलाम बनाया .. पशु पालन शुरू किया .. पशु पालन से खेती शुरू हुई . और खेती से सम्पति ..जायदाद का ख्याल आदम के दिमाग में आया … और हम सब अपना अपना बाँट के सभ्य हो गए … यानी पशु से इंसान ..सभ्य इंसान बन गए … ये बात और है की हम इंसान बनने की बजाय वस्त्रों से लदे पशु बन गए …
अरे हाँ पशुओं से याद आया की जब तक पशु पालन को मर्द जात ने करीब से नहीं देखा था तब तक ..मर्द जात को पता नहीं था की सन्तान के जन्मने में उसकी कोई भूमिका है … पशुओं के लैंगिक व्यवहार को देखकर .. समझ कर मर्द जात के दिमाग में बत्ती जली की सन्तान उत्पत्ति में उसकी अहम् भूमिका है … बच्चा ..औरत और मर्द के सम्भोग से पैदा होता है ..ये मर्द को पता चला ..उससे पहले मर्द को लगता था औरत में गजब की दैवीय ताकत है जिसके बल पर वो सन्तान पैदा करती है …
पशु पालन से मर्द को जो ब्रह्म ज्ञान मिला वो ये …१ अपने शरीर और दिमाग के बल पर वो पशुओं को पालतू बना सकता है २. सन्तान उत्पत्ति में उसकी भूमिका है ..बिना मर्द के औरत सन्तान पैदा नहीं कर सकती ३. खेती करना …4. खेती ने संपत्ति ..जायदाद का लालच ..लोभ मर्द में पैदा किया … पहले कबीलाई संपत्ति ..फिर कुनबे की ससंपत्ति और फिर निजी संपत्ति… और फिर संपत्ति..संपत्ति .. और सिर्फ़ संपत्ति…. पति..पति..पति ….
इस संपत्ति और पति के नए अवतार में मर्द को एक ताक़त का अहसास हुआ ..मैं कर सकता हूँ ..मैं हूँ …ये मेरा है ….बस यही वो कीड़ा है जो मर्द के इन्सान को खा गया …इसने ..मर्द के अन्दर ‘डर’ पैदा कर दिया …’डर’ खो जाने का … संपत्ति के छीन जाने का … और इस ‘डर’ का मुकाबला करने के लिए उसने ‘हिंसा’ का उपयोग किया .. मजे की बात ये ‘डर’ उसे कभी औरत जात से नहीं था …कोई मेरी संपत्तिछीन लेगा … ये ‘डर’ उसे अपने जैसे ‘मर्द’ से था ..और आज भी है .. इस ‘डर’ से पीछा नहीं छुड़ा पाया मर्द ..उसने दूसरों को डराने के लिए ..युद्ध किये ..इस ‘डर’ ने मर्दों में श्रेष्ठता की होड़ लगाईं ..और मर्दानगी को जन्म दिया … यानी शरीर बल , युद्ध कौशल , हिंसा ..कब्ज़ा …ये इसके माप दंड बने ..और इसमें से वो मर्द जो इस कसौटी पर खरे नहीं उतारे उनको इस मर्दानगी वाले मर्द ने …दास बनाया … कबिले से शुरू हुई ये दरिंदगी ..नस्ल तक पहुँच गयी … उस समय शुरू हुआ मर्दानगी का खेल आज भी बदस्तूर जारी है …. इतनी हिंसा .. खून खराबे .. के बाद भी मर्द अपने अन्दर के ‘डर’ को नहीं जीत पाया ..उससे आज भी आतंकित है ..और वो हैसंपत्ति. के खो जाने का ‘डर’… इस संपत्तिके ..जायदाद के खेल ने मर्द से इंसानियत छीन ली और उसमें सदा सदा तक ये जंगली ‘पशु’ को पैदा कर दिया … जो हिंसा के बल पर दुनिया में काबिज़ होना चाहता है ..पर तब से लेकर आज तक हो नहीं पाया … मेरी संपत्ति मेरी रहे ..इस ‘डर’ ने इससे क्या क्या नहीं करवाया ..एक व्यवस्था बनवाई ..मर्द की चले ..कबिले में ..घर में ..गाव में .. मर्द याने पिता … पितृसत्ता … जिसमें ‘मर्दानगी’ वाले मापदंड वाले पुरुष ही श्रेष्ठ होते हैं ..उनकी सत्ता .. उसके लिए इस मर्द ने …हिंसा , और भेद का सहारा लिया …जो आज भी कायम है …
अब खेल देखिये … सन्तान पैदा करती है औरत और मर्द मिलकर ..दोनों की साझा सन्तान ..इस मर्द ने कुदरत के इस नियम को अपने हाथ में लिया ..और कहा मेरा बच्चा ..यानी बच्चा पैदा करे औरत ..पर बच्चा मर्द का … इस मर्द ने अपना बच्चा पैदा करने के लिए क्या क्या नहीं किया ..पहले तो औरत जात को गुलाम बनाया ,उनको एक बाड़े में रखा , उनकी आज़ादी को खत्म किया … कहीं भी जाने की .. घुमने की ..किसी के बच्चे की माँ बनने की ..अपने लैंगिक इच्छा और औरत के कुदरती स्वभाव पर अंकुश लगाया ..उसके लिए ..इस मर्द ने युद्ध किये .. समाज के नियम बनाये .. और एक पितृसत्ता व्यवस्था कायम की …पितृसत्ता व्यवस्था का मतलब ही है ‘मर्दानगी वाले मर्दों’ की सत्ता जिसका मूल है शोषण और भेद भाव … मर्दों, मर्दों में भेद भाव … औरत मर्द में भेद भाव … व्यवस्था में औरत को गुलाम बनाने के बाद ..’ इस मर्द ‘ ने औरत जात को पालतू बनाना शुरू किया ..उसके लिए इसने धर्म बनाया …और वो ‘मर्द’ वाला इजाद ‘धर्म’ आज भी मर्दानगी के उसूलों पर चलता है …चाहे वो कोई भी धर्म हो ..’वध’. क़त्ल .;; हिंसा .. उसका मूल है ..ऊपर से वो कितनी मिट्ठी बात करे … उस धर्म में पहला धर्म शुरू हुआ ..औरत के मासिक धर्म से ..हाँ भाई क्यों ‘मेरा बच्चा’ हो इस दुराग्रह से औरत के मासिक धर्म को नियंत्रित किया गया … इस समय वो कहाँ जायेगी ..क्या करेगी .. ये तय किया ‘मर्द’ ने ..उसमें छुत.. अछूत का खेल किया … पवित्र ..अपवित्र का ऐसा खेल शुरू किया की इस कुदरती प्रक्रिया को औरत एक बोझ समझती है …इस समय अपने आप को हीन समझती है ..जब की सृजन शक्ति के इस काल में उसे ‘आत्म विश्वास’ से लबालब होना चाहिए …. पर औरत इस सृजन शक्ति पर्व पर अपने को असहाय और पीड़ित समझती है ..दरअसल किसी से लड़ने का कारगर अस्त्र है उसको भीतर के स्तर पर यानि मन के स्तर पर तोड़ दो …वो कभी स्वाभिमान से उठ नहीं पायेगा ..यही मर्द ने किया है उसके साथ … पहले उसके स्वाभिमान , फिर कुदरती सृजन प्रक्रिया और उसका इंसान होना ..स्वावलंबी होना इन सब पक्षों पर षड्यंत्र वश कुठाराघात किया है …
अरे भाई क्या हो गया ..आप क्यों उबल रहे हो …मैं आपकी नहीं उन मर्दों की बात कर रही हूँ ..आपकी नहीं ..या कहीं आप में भी वो मर्द तो नहीं जाग गया …बात बता रहीं हूँ मैं अपनी ..आप बीती … किसी को गलत या सहीं नहीं बता रही … और तुम जो उबल रहे हो … तुम भी इससे पीड़ित हो ..आज तुम्हा री बहन बेटी .. घर से देर सवेरे बाहर होती है तो किससे डर लगता है तुम्हें ..’इसी मर्द ‘ से ना ..तो तुम भी पीड़ित और मैं भी पीड़ित .. एक पीड़ित को दूसरे पीड़ित की बात सुननी चाहिए ..यही धर्म है …
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भंवरी -मंचन के बाद |
ये धर्म भी इस ‘मर्द’ ने अपनी हर बात जायज ठहराने के लिए किया .. औरत के मासिक श्राव पर कब्ज़ा करने के लिए ..मासिक धर्म बना .. यानी औरत के बीज .. अंडाणु को कंट्रोल करने और ‘मेरी औलाद , हो इस औरत की कोख से’ यही है धर्म का मूल ..और आधार ये की सम्पत्ति के लिए क्लेश ना हो ..जो ‘मर्द’ का फ़ैसला हो वहीँ सबको मानना पड़ेगा ..यहीं है सभी धर्मो का मूल … ये बात कडवी है पर सोलह आन्ने सच है भाई ..
मर्द ने व्यवस्था और धर्म यानी .. पितृ सत्ता जो कहे वही धर्म ..से स्थापित करने के बाद पालतू औरत को अपनी भक्त बनाने के लिए संस्कारों का खेल शुरू किया … पहले तो औरत मेरी सम्पति, इसके लिए उसको बाड़े में बंद किया … और बाड़े से बाहर निकलने के लिए मर्द के कानून से वो व्यवहार करे ..इसको धर्म बनाया .. फिर मेरी संतान उत्पन्न हो उसके लिए औरत को ‘पत्नी’ बनाया यानी ..विवाह संस्कार की स्थापना की … पत्नी यानी पति की सम्पति .. इसके लिए मर्द ने .. बाकायदा .. औरत विवाह के बाद उसकी है उसको चिन्हित करने के लिये उसके गले में अपना पट्टा डाला उसको क्या कहते हैं आप ‘मंगल सूत्र’ ..उसके माथे पर बिंदी ..मांग में सिंदूर … पावं में पायल ..यानी वो जब भी कभी बाहर निकले ..वो अपना स्वयं विज्ञापन करती हुई निकले ..मैं उस मर्द की सम्पति हूँ ..माल हूँ … उसकी वस्तु हूँ …वो मेरा मालिक है .. मैं उसकी पराधीनता स्वीकार करती हूँ ..और मैं ये संस्कारों को मानती हूँ ..नहीं मानूगी तो मैं मर्द द्वारा निर्धारित दंड की भागीदार हूँ …
इतना करने पर भी ‘मर्द’ का डर गया नहीं ..शक का कीड़ा उसे हर पल सताता है …सता रहा इसलिए औरत के शरीर पर बल पूर्वक कब्जा करने के बाद उसके दिमाग पर कब्ज़ा करने के लिए उसने ..धर्म , पुरोहित ..संस्कार ..त्यौहार ..उपबास .. व्रत ..के तन्त्र ..मन्त्र की स्थापना की … यानि बाड़े में कैद औरत को संस्कारित किया गया ..पतिव्रत ….बनाने के लिए ..मर्द के मन में एक ही मन्त्र चलता है ..तू मेरी हो .. मेरी रहे ..मैं सबका हूँ ..सब मेरी हों …उसके लिए ..संस्कार ..रचे गए ..वो परम्पराएं बन गयी … बाड़े के अंदर ,,मेरी बन कर रह .. मेरे लिए ..प्रार्थना कर ..मैं तेरा भगवान तू मेरी भोग्या.. जब चाहूँ ..जैसे चाहूँ ..हर समय उपलब्ध रह …तेरा धर्म है बस मर्द को खुश रखना और ..मेरी ही ‘ औलाद’ को जन्म देना … तू माँ बनेगी तो सिर्फ़ मेरे बच्चों की ये तेरा धर्म हैं और मैं कितने ही बच्चों का बाप बन सकता हूँ ये मेरा यानी मर्द का धर्म है ..आखिर यही तो है असल मर्दानगी … और इन्हीं संस्कारों को तू ऐ औरत आगे बढ़ा… इतना मैं तुझे अधिकार देता हूँ पर कभी मेरे रास्ते मैं मत आना ..तब से लेकर औरत ..संस्कार , परम्परा और संस्कृति की खेवनहार है और वो है ..भोग्या वस्तु ..की संस्कृति .. संस्कार और परम्पराएं … जिसका पालन औरत आज भी कर रही है ..एक औरत दूसरी औरत को यही बताती है तू मर भी रही हो पर मर्द को मना मत करना …
इतना करने पर भी ‘मर्द’ का डर खत्म नहीं हुआ ... संपत्ति का रोग .. अब सन्तान पैदा होगी तो वो मोटी मोटी औरत और मर्द जात होगी या कभी कभी तृतीय पंथी भी होगी .. अब औरत को सम्पति में हिस्सा देना नहीं .. और तृतीय पंथी को हाशिये से बाहर रखा … औरत को विवाह संस्था से बाँध दिया … और संपत्ति से बेदखल करने के लिए संस्कार बनाया ..कन्या दान और ये पुरोहित से मन्त्र चलवाया कन्या दान महादान … ये कोई पुन्य का काम नहीं है … इसकी असली वजह है ये पक्का करना है , सुनिश्चित करना है की हर औरत की पहचान एक ‘वस्तु’ है और उस वस्तु का दान हुआ की नहीं ..और उस दान वस्तु का मर्द ने भोग लगाया या नहीं … दान वस्तु का किसी सम्पति पर हक्क नहीं बनता …इसलिए .. अपनी नस्ल .. गोत्र विवाह ..वर्ण व्यवस्था को कायम रखने के लिए ये संस्कार और संस्कृति प्रस्थापित और प्रचलित की गयी और आज भी है ..आज भी मर्द तय करता है की वो अपनी ‘कन्या वस्तु ‘ किसे दान करे .. वस्तु की राय मायने नहीं रखती …. उसको पितृ सत्ता की संस्कृति का निर्वहन करना होता है …
इस संस्कृति का हर संस्कार संपत्तिसे जुडा है … औरत सन्तान पैदा करेगी और हर बार मर्द पैदा होगा… ये …प्रकृति नहीं स्वीकार करती ..इसलिए ..मर्द पैदा करने वाली औरत श्रेष्ठ ..औरत में श्रेष्ठ औरत वो जो मर्द पैदा करे .. एक भोग्या वस्तु के रूप में रहे और मर्द को खुश रखे … भोग्या के सारे गुण ..नाजुक , सुन्दर . ह्यावान , अब आप सब जानते हो …उसका बखान करने के लिए कवि कालिदास से ग़ालिब तक हैं ..मय..मदिरा ..शराब और शबाब से भरा पड़ा है मर्द साहित्य …जिसमें भोग्या..दबी ..कुचली ..शोषित जात है औरत ….
मर्द ही होगा मर्द की संपत्तिका वारस… और वारिश देने वाली … वंश ..कुल दीपक को जनने वाली ही इस पितृ सता में स्वीकार्य है .. ये है सम्पति का सच ..और संस्कारों का ढ़कोसला… सम्पति का डर यहीं खत्म नहीं हुआ मर्द का ..विवाह पश्चात . मर्द की मृत्यु … मर्द की मृत्यु के बाद औरत स्वीकार नहीं ..वो संपत्ति में हक्क मांगेगी ..इसलिए उसके पति प्रेम को महिमा मंडित करवाया गया और उसे जिंदा जलाया गया ..सती प्रथा, यही प्रथा है ..और आज भी हमारे समाज में ये महिमा मण्डन है …. मतलब संपत्तिको पाने के चक्कर में ये मर्द क्या क्या कर रहा है … पर संपत्तिहै की इसके कब्जे से बाहर चली जाती है …
ये कबीले के सरदार से लेकर राजा, पुजारी , व्यापारी , सब बन गया , वर्ण व्यवस्था से वर्ग व्यवस्था , सामन्तवाद से समतावाद तक .. धर्मान्धता से विज्ञान तक .. तानाशाह से लोकतंत्र तक .. साम्यवाद से पूंजीवाद तक ..अनपढ़ से पढ़े लिखे तक … असभ्य से सभ्य होने तक ये मर्द , मर्द रहा और इसने सब कर लिया ..पर संपत्ति कैसे इसकी हो इसका तोड़ नहीं निकाल पाया ये मर्द … आदम जात से हिंसक बना , शोषक बना .. अत्याचारी , व्यभिचारी या क्या क्या बन गया इस सम्पति के खेल में बस … इन्सान नहीं बन पाया ये मर्द ..जो बाहर से मज़बूत पर अन्दर से खोखला … बाहर निडर ..निर्भीक शेर ..अन्दर कायर ..डरपोक चूहा है ये रक्त पिपासु मर्द ….
फुट ..फुट ..और फुट .. डालो और राज करो ये मर्द का मन्त्र है ..इसलिए वर्ण व्यवस्था ..जात व्यवस्था में बदल गयी .. हर जात का अपना ..अपना मर्द … यानि कुदरत ने बनाई जात में मर्द ने और जात बना दी … सवर्ण और बिना वर्ण … पर कमाल देखिये .. एक जात दूसरे से श्रेष्ठ ..यानी सवर्ण जात का मर्द श्रेष्ठ .. उसकी श्रेष्ठता सभी वर्णों को स्वीकार ..पर औरत के उपर सब शेर …वो सबकी संपत्ति … क्या सवर्ण और क्या अवर्ण … यानी मर्द तो मर्द है जी ..क्या हुआ अगर सवर्ण जाति के मर्द की लात खाया है अवर्ण जाति का मर्द ..पर औरत ..पर कब्जा सभी का ..जात की जात ..की जात की जात यानी औरत जात ..वो बस वही काम आती है ..और वहीं सजती है ..यानी यौन संतुष्टि और पैर की जूती… ये हैं हमारे संस्कार और संस्कृति … मंगल से मांगलिक .. सौ भाग्यवती से अभागन , सर्प दोष से योनी दोष सब मर्द के द्वारा स्थापित पुरोहित की भोग्या पिपाशु पशुता का …. योनी में लिंग फंसाकर …लिंग ध्वज को पूजा अर्चना की जगह स्थापित करने को ..की हर पल तू ..ऐ औरत मत भूलना तेरी योनी पर पहला और अंतिम कब्जा लिंग का है सिर्फ़ मर्द का लिंग ही जीवन और आराधना है तेरी .. मर्द का लिंग ही तेरा कल्याण है .. और ये मर्द द्वारा बनाई गयी चार दीवारी तेरी दुनिया है …इसके बाहर तूने कदम रखा तो मर्द का लिंग तेरी योनी का भोग लगाने के लिए तैयार है … इसलिये खबरदार ..तू किसकी है उसका मंगल सूत्र लटका कर आना ..किसी मर्द को साथ लेकर आना चाहे वो ३ साल का पिद्धा ही क्यों ना हो .. और मर्द ही जनना … और मर्द जब चाहे उसके लिए तैयार रहना ..फिर वो मर्द सवर्ण हो या अवर्ण … यही ज्ञान है …और यही विज्ञान है मर्द का ..मर्दों के लिए …कडवा है ..पर सच है …
औरत के बाहरी यौनांग यानी भग्नासा से यह मर्द और इसकी पितृसत्ता डरती है … कांपती है .. पसीने छूट जाते हैं पितृसत्ता के …क्यों बात जमी नहीं क्या? पर सच्च है क्योंकि यह अंग … बाहरी यौनांग यानि भग्नासा औरत को उन्मुक्त यौनाचरण के लिए प्रेरित करता है . जिससे पितृसत्ता के खोखले समाज के स्थायित्व को खतरा है . नैतिकता ..नैतिकता का ढोल तब बजता है जब औरत के यौनाचरण पर पुरुषों की पाबंदी हो …ये औरत की देह के प्रति देखने का पितृसत्तात्मक नजरिया है ..जिसका मतलब है औरत केवल प्रजनन के लिए है … यानी उसका गर्भ तो पुरुषों को चाहिए ..परन्तु औरत का यौनानंद उन्हें स्वीकार नहीं … इस व्यवस्था में और को यौनानंद प्राप्त करने का अधिकार नहीं … यानी औरत की सारी देह का पुरुष जैसे चाहे आनंद ले … पर औरत नहीं ले सकती और ना ही ..ना कह सकती है … औरत की देह के वही हिस्से इस व्यवस्था को स्वीकार हैं जिससे इनका फायदा है … इसलिए औरत के G स्पॉट और C स्पॉट ..कलितोरिउस … की संवेदन तंत्रियों को देह से अलग कर दिया जाता है ..यानी औरतों का खतना किया जाता है … उसको सी ..यानी तालेबंद किया जाता है .. यही वो दम्भी सोच है जो औरत के यौनानंद के कुदरती हक़ को छीन कर उसे ‘यौन’ दासी बनकर रखती है … जिसकी वजह से औरत को अतिचारी अमानवीय प्रक्रियाओं को सहना पड़ता है … और ये मर्द जहाँ औरत दिखी नहीं … कि इसका लिंग ध्वज फडफड करने लगता है ..यही है मर्द के लिंग ध्वज का पराक्रम..शर्म आयी ना इस सच्चाई को जानकर ..पर ये तो आपके आसपास हमेशा होता है की ये औरत को देखा नहीं की मर्द का लिंग ध्वज फड फाड़ने लगता है और शर्म कहीं कोसों दूर भाग जाती है और सारे मर्द सामूहिक भोग लगा ..अपने लिंग ध्वज को फहराते हैं …
यही मेरे साथ इन मर्दों ने किया … मेरा दोष ये था की मैं मान बैठी थी की मैं १९४७ में आज़ाद हो गयी थी ..मैं मान बैठी थी की लोकतंत्र में संविधान ने मुझे बराबरी का हक्क दिया है .. मैं मान बैठी थी की मुझे वोट देने का मर्द के बराबर अधिकार है .. मैं इस नई आज़ाद फ़िजा मैं एक इंसान हूँ ..मेरे हक्क ..हुकुक हैं ..मैं भारत सरकार के जन उत्थान योजना की एक कार्यकर्ती हूँ .मैं संविधान सम्मत ..नीतियाँ लागू करने में ..सक्षम हूँ … कानून सम्मत नहीं है बाल विवाह … वो एक बुराई है ..वो एक अभिशाप है और ग़ैर क़ानूनी है ….बस यही तो मेरा कर्म था … पर मर्द के बनाये दायरों ..कानूनों …मर्द की सत्ता में दखल था मेरा ये कर्म … ये मर्द को बर्दास्त नहीं हुआ … उसने सबक सीखाया .. अपना लिंग ध्वज ..सामूहिक .. रूप से सरे आम ..आज़ाद देश के आज़ाद परचम के नीचे फहराया अपना लिंग ध्वज और पूरी दरिंदगी के साथ … जानवरों से भी बदतर ..अपनी मर्द की सत्ता को स्थापित करने के लिए … मेरी योनी को सबक सीखाने के लिए ..मुझे ये बताने के लिए की मैं औरत हूँ ..औरत मर्द की एक वस्तु एक भोग्या …
अपने लिंग ध्वज उपक्रम में इस मर्द ने वहशीपन की हद्दें तोड़ दी ..समाज , परिवार , संस्कृति , रिश्ते नाते ..सारे संस्कृति के ढकोसले सामने आ गए .. क्या बुड्ढा, क्या जवान ..क्या बालिग़ ..क्या ना बालिग़ … सब मर्द उस दिन मेरी योनी का भोग लगाकर ..अपना ..अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए सामूहिक और सरेआम अपना लिंग ध्वज फ़हरा रहे थे …
मैं चूर ..चूर .. बेहाल … इनकी दरिंदगी की शिकार … मेरे शरीर को तोड़ा.. मेरी आत्मा को नश्तर .. मेरे रोयें रोंयें में बसी इनकी हवस … मेरी चीख ..पुकार ..पीड़ा ..मेरा मान, सम्मान , स्वाभिमान ..सब खंडित ..विखंडित … चूर ..चूर ..जज़्बा.. इसांनियत का चूर चूर ..सिर्फ़ औरत ..औरत का शरीर ..अपने आप को कोसता हुआ ..घिन घिनौना ..रूप … बस एक जिंदा लाश ..अपने आप को ढोती हुई .. अपने व्यक्तित्व , अस्तित्व , स्वाभिमान और इंसानियत की लाश अपने कन्धों पर लेकर चलती हुई ..एक जिंदा लाश … और अपनी मर्दानगी का लिंग ध्वज फहराते मर्द …
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भंवरी का अभिनय करती बावली रावत |
पर मैं उठी … अपने जिस्म के घावों को भरा , रूह के नश्तरों को सीया, और अस्तित्व के एक एक टुकड़े को जोड़ा , अपनी अस्मिता की राख से अपनी स्वाभिमान के लौ को जलाया और न्याय के लिए निकली .. मैंने अपने आप को कहा मैं वस्तु नहीं हूँ ..इंसान हूँ ..जिन्दा हूँ ..आज़ाद देश में हूँ … कानून है , न्याय व्यवस्था है … कोई सनक नहीं है किसी की … की जो जब चाहे, जो चाहे करे .. अदालत गयी .. अपने उपर हुए अन्याय के लिए न्याय मांगने … मेरा मेरे जीवन साथी ने साथ दिया , पूरे देश की औरतों ने साथ दिया .. देश में औरत के ह्क्कों की लड़ाई का सिलसिला तेज़ हुआ .. अदालतें जागी … ये भरोसा हुआ मुझे न्याय मिलेगा … पर अदालत की दहलीज़ में जाति व्यवस्था ने पैर ..पसार लिए .. विज्ञान के युग में चाँद से आये एक मर्द न्यायधीश ने जाति वादी व्यवस्था में सवर्ण और अवर्ण के छुआ छुत के भेद को मानते हुए … पूरी घटना को असम्भव करार दिया … क्योंकि जज साहब के घर चाँद में जो पुस्तक पढाई जाती है .. उसको ही उन्होंने सच माना और इस देश की धरती पर आकर देख लेते कैसे सदियों से सवर्ण मर्दों की लार टपकती है अवर्ण औरतों पर .. वो खेत हो .. खलियान हों , घर हो , में चौबारा हो … सुबह , हो ,,दिन हो .. रात हो … उनकी सेज सजाने के लिए अवर्ण महिलाओं को अपनी सम्पति समझ कर उपभोग किया जाता है … काश की जजये समझ पाते ..अपने जन्म के संयोग और मर्द होने के दभ को छोड़ एक न्याय व्यक्तित्व के रूप में घटना को देख पाते … ये अफ़सोस है मेरे मन में ..काश …
“जब तक औरत पुरुष की ज़रूरत पूरा करे …पैदा करे तब तक संस्कारी ..और जब औरत अपनी ‘इच्छा’ जाहिर करे तो चरित्रहीन… वाह रे वाह ..क्या मापदंड है ये पुरुषों का .. पुरुषों के लिए .. पुरुषों द्वारा बनाया समाज का”.. इतिहास में ..धर्म में कौन सा ऐसा पुरुष है जिसने ‘औरत’ का अपनी ज़रूरत के लिए उपयोग ना किया हो ..जिसने उसकी देह के अतिरिक्त उसे व्यक्ति समझा हो ..उसे इंसान माना हो .. कहाँ हैं वो मर्यादा पुरुषोत्तम जो सिर्फ़ ‘अग्नि परीक्षा’ लेना जानते हैं ..और अपनी ‘परीक्षा’ के समय औरत के साथ खड़े होने की बजाए उसे ‘वनवास’ भिजवा देते हैं .. धिकारती हूँ मैं ऐसे ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ पुरुषों को .. धिकारती हूँ ऐसे समाज और उसकी मान्यताओं को .. धर्म , सामन्तवादी ,तानशाही लोकतान्त्रिक , और उदारीकरण वाली सत्ता और उसकी व्यवस्थाओं को जो सिर्फ औरत की देह का उपयोग और उपभोग करना जानती हैं और मानव इतिहास के आरम्भ तक करती आईं हैं ..नकारती हूँ ऐसी व्यवस्थाओं को..
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भंवरी देवी |
पर मैं तो लोहे की बनी हूँ ..पक्की दृढ इच्छा शक्ति की हूँ ..जो टूटना था, वो टूट चूका ..ये मेरा युद्ध है न्याय संगत व्यवस्था के निर्माण के लिए ..अब बनना ही बनना है और बनाना है ..एक न्याय संगत समाज… मैं औरतों से पूछती हूँ अपनी कोख में मर्द को पालने की बजाय आओ इंसान पालें … मर्दवादी , मनुवादी , पितृ सत्ता , उपभोग वाद , शोषण कारी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लडें.. अपने घरों में मर्द बच्चा नहीं ..इंसान बच्चे की परवरिश करें , अपनी कुदरती रचना को विषमता का आधार ना बनने दें … हम भिन्न हैं ..विषम नहीं ..वस्तु नहीं ..इन्सान हैं ..शरीर से परे ..एक व्यक्तित्व के रूप में पहचान बनाएं ..औरतों के काम से मुक्ति पाएं और काम का कोई लिंग नहीं होता ये मर्दों को समझा दें .. हिंसा मुक्त एक समता वादी , नारीवादी, शांतिप्रिय, इंसान का समाज बनाएं ….
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