वो खौफ़ खा गया और अन्य कविताएँ

साँझ

साँझ नाम से कविताएं लिखने वाली सौम्या गुलिया दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की शोधार्थी हैं.नाटक के एक समूह ‘अनुकृति’ से जुड़ी हैं. संपर्क : ई मेल-worldpeace241993@gmail.com

वो खौफ़ खा गया

बस इतनी सी बात थी
और वो खौफ़ खा गया
मैंने रंग दिए सफे जो कुछ
स्याह काली रात से
जुबाँ तो खामोश थी
चीख़ें जो मेरे हर्फ़ कुछ
तो वो खौफ़ खा गया

मैंने जो बाँहें खौल कर
बादलों से थोड़ी बात की
और बात को सुनके मेरी
बादल बरसने की जगह
खिलखिला के हँस दिए
अब ऐसा भी क्या गज़ब हुआ
कि वो खौफ़ खा गया

घरदारी की चारदीवारी से
थोड़ा जो झाँका मैंने बाहर
सूरज की किरणों की तरह
जो मैने अपने सर का पल्लू उतार
हर दिशा में फैला दिया
अब ये भी भला क्या बात थी
जो वो खौफ़ खा गया

करते थे बहुत ही शोर जो
वो पायल, कंगन और बालियाँ
एक रोज़ यूँही जी किया
तो मैंने उनको उतार रख दिया
अब ऐसा भी मैंने क्या किया
जो वो खौफ़ खा गया

वो डरा रहा था रात को अंधेरे से
वो डरा रहा था नदी को लड़खड़ाने से
वो डरा रहा था मुझे मर्दों के इस ज़माने से
फिर जो मैंने नज़रे उठाके
थोड़ा-सा मुस्कुरा दिया
कमाल ही हुआ बड़ा
कि मुझको डरा रहा था जो
वो खुद ही खौफ़ खा गया

तो तुम उससे उलझना नहीं

जब वो हर खौफ़ से आज़ाद होकर
घूम रही हो अँधेरी रात में
सुनसान सड़क पर
अपनी आँखों मे
बग़ावत की बात लेकर
तो तुम उससे उलझना नहीं

जब वो झील से नदी
और नदी से दरिया बन जाए
और बगावत उसकी
रोज़मर्रा की आदत बन जाए
फ़ितरत बन जाए
तो तुम उससे उलझना नहीं

जब उसकी आँखों में
नज़ाकत न दिखे
उसकी बातों में तुम जिसे कहते हो शराफ़त
वो शराफत न रहे
जब उसकी आँखों में काजल की जगह
खौलता लाल रंग ले ले
तो तुम उससे उलझना नहीं

जब सदियों से ताला लगे
जंग खाए
उसके लब
खामोशी का दामन छोड़
तुम्हारी आँखों में आंखें डालकर
तुम्हें पुचकारने की बजाय
ललकारने लगे
तो तुम उससे उलझना नहीं

जब वो तुम क्या चाहते हो से ज्यादा
खुद की चाहत को चाहने लगे
तुम्हारे मर्दाना रौब की
खिल्ली उड़ाने लगे
तुम्हारी ख्वाहिशों, फरमाइशों को
को पूरा करने से इनकार करने लगे
और तुम से ज्यादा
अपनी बात करने लगे
तो तुम उससे उलझना नहीं

जब वो तुम्हारे बनाए खाँचों में
ढलने से इनकार करने लगे
अपने हर अंग हर एहसास से
मोहब्बत करने लगे
उनकी खुलकर बात करने लगे
जब अपनी जाँघों के बीच बहते
लाल रंग को
अपने माथे पर सजाने लगे

तो देखो,  तुम उससे उलझना नहीं

लड़की की तरह हँस
.
सुन! ऐ पगली! यूँ न खिलखिला के हँस
नज़रें झुका, होंठों को दबा
ज़रा ख़ामोश रहके हँस

अपना नहीं
तो ज़रा मआशरे का सोच
बड़े अदब-ए-पसंद है लोग
ज़रा मुँह छुपा के हँस

वड़े-वढ़ेरों अक्लमंदों ने
क़ायदे कानूनों की
लिखी हैं एक किताब
ख़ास लड़कियों के नाम
पहले जाके उसको पढ़
और हँसना ही है फिर भी
तो ज़रा लड़की की तरह हँस

ठहाके लगाना तो मर्दाना तौर है
ख़ातूनों की हँसी ऐसी हो
जो न बेहया लगे
न कानों में ही चुभे
जिसकी तासीर हो शकर
जो मर्दों के दिल छुए
मेरी सलाह है ये
तू नज़ाकत का पाठ पढ़
दुनिया-ए-अदब सीख
और ज़रा शर्मों हया से हँस

लड़की है तू
ज़रा लड़की की तरह हँस
ख़ामोश रहके हँस
मुह छुपा के हँस
और शर्मों -हया से हँस
ज़रा लड़की की तरह हँस
ख़ामोश रहके हँस
मुह छुपा के हँस
और शर्मों-हया से हँस

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