भाषा में भय के मनोविशेषज्ञ हैं मलखान सिंह

सुशील मानव


स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन तथा एक्टिविज्म. सम्पर्क: susheel.manav@gmail.com
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‘यकीन मानिए/ इस आदमखोर गाँव में/ मुझे डर लगता है/  बहुत डर लगता है।’
किसी व्यक्ति या समुदाय को पूरा का पूरा गाँव आदमखोर लगने लगे तो ये उसके भय की पराकाष्ठा ही है,साथ ही तथाकथित सभ्य समाज की बर्बरता व अमानवीयता की हद भी।भय दरअसल मानस की प्राकृतिक रक्षात्मक प्रतिक्रिया है। जिसे कंडीशनिंग प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति और समुदाय के अंतर्मन में आरोपित किया जातारहा है।सदियों पूर्व मनुवादी व्यवस्था ने राजसत्ता के सहयोगसे मूलनिवासी समुदाय के भीतर लोगों के मन में भय की अनुक्रिया विकसित की। चूँकि इसमें सत्ता और व्यवस्था दोनों एकसाथ शामिल रहे थे अतः ये एक तरह की अनुबंधित अनुक्रिया थी। जिसके लिए सबसे पहले दलित समुदाय के लोगों के मन पर कब्जा किया गया उनके हौंसलों को तोड़ा-फोड़ा गया और धार्मिक-सामाजिक-राजनैतिक आचारसंहिता को सत्ता के साथ गठजोड़ कर उनपर थोपा गया फिर उन्हें सत्ता-व्यवस्था द्वारा तद्नुसार अनुकूलित किया गया। राम द्वारा शंबूक की हत्या का मिथकीय चित्रण प्रतीक है इस तथ्य का कि दलित समुदाय के लिए जो कुछ भी निषिद्ध था उसके उल्लंघन पर राजसत्ता के पास सज़ा-ए-मौत से कमतर तो कुछ था ही नहीं। इन रूह कँपा देनी वाले सज़ा-यातनाओं के कारण आतंक का मनोभाव और अधिक घनीभूत होकर समुदाय विशेष के मन में बैठ जाता। ये भय हिंदी के बेहद महत्वपूर्ण कवि मलखान सिंह की रचना प्रक्रिया का बहुत ही अहम् हिस्सा है जिसमें वो किसी दक्ष मनोवैज्ञानिक की तरह भय के निदान के ताईं अपने आसपास समुदाय,समाज व्यक्ति और स्थिति-परिस्थिति का बहुत ही सूक्ष्म अनुभूति व अध्ययन परीक्षण करते हैं तभी तो भय उनकी कविताओं में ज़रूरी तत्व की तरह बार बार आता है-
“चेहरे पर- / मरघट का रोना है/ आँखों में भय/ मुँह में लगाम/ गर्दन में रस्सा है/ जिसे हम तोड़ते हैं/ मुँह फटता है/ और/ बँधे रहने पर/ दम घुटता है।”

सत्ताधारी समाज ने भाषा और उत्तेजना को प्रबलक की तरह इस्तेमाल किया। सर्वप्रथम भाषा में जाति सूचक शब्दों को निर्मित किया गया फिर दलित समुदाय के लिए अपमान व हीनता को दर्शाने वाले कारक के रूप में स्थापित-प्रचारित किया गया।तत्पश्चात इन जाति-सूचक शब्दों के भाव-बोध को मुहावरों, लोकोक्तियों गालियों में तब्दील करके समुदाय का अपराधीकरण कर दिया गया। इसके अनंतरभाषा के अश्लील प्रयोग से दलित समुदाय को हतोत्साहित करने का अभियान चलाया जाता रहा, एक निश्चित आवृत्ति और टोन में बार बार लगातार। कवि मलखान सिंह किसी मनोविशेषज्ञ की तरह भाषा में इसकी शिनाख्त करते हुए कहते हैं-
“मैं आदमी नहीं हूँ स्साब / जानवर हूँ / दोपाया जानवर / जिसे बात-बात पर / मनुपुत्र-माँ चो-बहन चो-/ कमीन कौम कहता है।”

मनुवादी सत्ता व्यवस्था द्वारा पहले-पहल भय की अनुक्रिया विकसित की गई। फिर भयोत्पादक उत्तेजना की उपस्थिति में ऐसी भयंकर अनुक्रिया उत्पन्न हुई जिसने भय को इतना अधिक प्रबलित कर दिया कि इसकी तीव्रता और व्यापकता नेएक पूरे कौम की मनोवृत्ति एवं व्यवहार को भयानुबंधित कर दिया।इस भयोत्पादक उत्तेजना में सत्तावर्ग की घृणा, क्रोध,बर्बरता, जुगुप्सा पैदा करती अमानवीयता, उन्मादी अट्ठहास धारदार हथियार लंबे चौंड़े बलिष्ठ लठैत और….दलित समुदाय की चीख, रहम की गुहार लट्ठ और तलवार से कटा फूटा रक्तरंजित शरीर, बलत्कृत स्त्रियों की क्षत-विक्षत योनियाँ, आग में भूने हुए नवजात बच्चों के शव सब कुछ शामिल रहा होगा। जिसका परिणाम ये हुआ कि दलित वंचित समुदाय दूर से ही उनकी सत्ता एवं उपस्थिति के आभास करके भयभीत होने लगा।ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बड़ी चालाकी से इनके भय और वंचना को अपमान घृणा व तिरस्कार केसाँचे में ढालकर रुपांतरित कर दिया। फिर चाहे वो सिर पर मैला रखकर ढोना हो या या गले में थूकने का पात्र टांगकर घूमना। बिना जूता चप्पल और पगड़ी के रहना हो या दलित स्त्रियों को स्तन खोलकर रहने का आदेश। मलखान सिंह भय की उस अनुक्रिया को न सिर्फ बहुत बारीकी से पकड़ते है अपितु इसका रचाव अपनी रचना ‘सफेद हाथी’ में बखूबी करते हैं –
“मदान्ध हाथी-/ लदमद भाग रहा है/ हमारे बदन/ गाँव की कंकरीली /गलियों में घिसटते हुए /लहूलुहान हो रहे हैं/ हम रो रहे हैं/ गिड़गिड़ा रहे हैं/ ज़िन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं/ गाँव तमाशा देख रहा है/ और हाथी/ अपने खम्भे जैसे पैरों से/ हमारी पसलियाँ कुचल रहा है/ मवेशियों को रौंद रहा है/ झोपड़ियाँ जला रहा है/ गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर/ बंदूक दाय रहा है और हमारे/ दुध-मुँहे बच्चों को/ लाल-लपलपाती लपटों में/ उछाल रहा है।”



लोग भय को अपने बचाव के साधन के रूप में इस्तेमाल करने लगे। ये भय की अनुक्रिया का सामान्यीकरण था। जिसे और भी कई सामाजिक-धार्मिक-राजनैतिक पाबंदियों को थोपकर चाक-चौबंद किया गया। संपत्ति तो उनसे पहले ही सब छीन ली गई थी। उनसे उनके देवता, उनके सारे अधिकार भी छीनकर ब्राह्मण व्यवस्था द्वारा दलित समुदाय को घोर वंचना से अभिशापित कर दिया गया। इस तरह अधिकारहीन वंचित समुदाय अपना पेट पालने के लिए उनके मरे हुए पशुओं उनके छोड़े हुए जूठन, उनके फेंके हुए सड़े-गले खाद्य-अपशिष्टों पर बहुत बुरी तरह आश्रितथा।ये अधिकारहीनता और वंचना ही थी जिसने एक पूरे कौम को सदियों तक बेहद अमानवीय तरीके से बेहद दुरूह,दुष्कर एवं विक्षिप्त जीवन जीने को बाध्य करता रहा। भय और वंचना के बीच पिसते दलित जीवन की उसी दुरूहता को बहुत ही सहज सरल भाषा में मलखान सिंह ने अभिव्यक्त करते हैं-
“मेरी माँ मैला कमाती थी / बाप बेगार करता था / और मैं मेहनताने में मिली जूठन को / इकट्ठा करता, खाता था/……/ मुझे गुस्सा आता है / कि पेट और पूँछ में / एक गहरा सम्बन्ध है/ कि पेट के लिए रोटी ज़रूरी है/ और रोटी के/ लिए पूँछ हिलाना/ उतना ही ज़रूरी है/ इसीलिए जब किसी बात पर बेटे को/ पूँछ तान गुर्राते देखता हूँ/ मुझे गुस्सा आता है/ साथ ही साथ डर भी लगता है/ क्योंकि गुर्राने का सीधा सपाट अर्थ / बगावत है।”


जब व्यक्ति भय के कारक के प्रति चिंतित रहता है तो वो खुद को भय से मुक्त नहीं रख पाता। उसकी ये चिंता ही अनुकूलित होकर उसके व्यक्तित्व से चिपक जाती है। धीरे धीरे स्थिति इतनी तीव्र हो जाती है कि ये अनुकूलित भय ही स्थायी भाव बनकर एक तर्कहीन फोबिया में तब्दील हो जाता है तथा व्यक्ति और समुदाय के पूरे मनोविज्ञान को प्रभावित करने लगता है। और फिर व्यक्तिऔर समुदाय अपनी चिंता से दूर होने या बचने के लिए भयोत्पादक समाज व स्थितियों से बचने का प्रयास करता है। और अपने इसी अर्जित भय को विरासत के रूप में अपनी भावी पीढ़ी को सुरक्षा के ढाल बताकर सौंपता है-
“मरते समय बाप ने/ डबडबाई आखों से कहा था कि बेटे/ इज्जत इंसाफ और बुनियादी हकूक/ सबके सब आदमी के आभूषण हैं/ हम गुलामों के नहीं/ मेरी बात मानो-/ अपने वंश के हित में/ आदमी बनने का ख्वाब छोड़ दो/ और चुप रहो।”

असुरक्षा एवं हीनता का भाव भय की व्युत्पत्ति है। जिसमें व्यक्ति और समुदाय सदैव एक अनहोनी की आशंका से घिरा रहता है। एक समय में जब भय सीमा से बढ़कर आतंक का रूप धर लेता है तो दूसरे रूप में उभरता है। भय को निकलने का कोई जरिया नहीं मिलता तो वो दूसरे रूप धर लेता है। क्या कारण है कि अधिकांश दिमागी बीमारियाँ दलित,दमनित, शोषित समुदाय में ही दिखती हैं। इन्हीं भय-जनित विक्षिप्तियों के चलते ही दलित स्त्रियों को डायन घोषित करके घेरकर उनकी हत्या कर दी जाती रही हैं। मानसिक संघर्ष के कारण उत्पन्न हुए तनाव की स्थिति में दुखद भावनाओं से अपनी रक्षा हेतु व्यक्ति किसी विचार प्रक्रिया को ही बार बार दोहराकर खुद को उलझाए रखता है।व्यक्ति जब हीनता की भावना से ग्रस्त होता है तो वहइसके कारण उत्पन्न तनाव को बाध्य क्रियाओं अथवा विचारों के माध्यम से अभिव्यक्ति यानी निष्कासन करता है। वो देवताओं को पूजकर ओझाई-सोखाई करने लगता है। ऐसा करने से न सिर्फ उसका तनाव कम होता है अपितु श्रेष्ठता का भाव उपजता है। श्रेष्ठता का ये भाव हीनता के भाव की प्रतिपूर्ति करता है। मलखान सिंह इस मनोदशा को डिकोड करते हुएलिखते हैं-
“यह ससुरी ओझाई ही तो है/ जिसके कारन जन आज भी/ उस खूँटे से बँधा हैं/ जिसका एक पाँव/ शैतान की आँत में/ दूसरा पाँव–/ धरती की काँख में धँसा है।”



हालाँकि पुरानी पीढ़ी जिसने हिंसा,बर्बरता और दमन की अनुभूति की है उनकी स्मृतियों में बसा वो भय उनके मन की आभासी कंडीशनिंग करती रहती है। इसका बहुत सा उदाहरण अभी गाँवों में बाकी है-जैसे किसी दलित के दरवाजे सवर्ण आए तो वो उठ खड़ा हो जाए। या सवर्ण के यहाँ चाय-पानी करने पर अपनी गिलास-कप धोकर वापिस रखना। सवर्णों के बच्चों तक से पालागी जयरमी करना। ये एक तरह की आभासी कंडीशनिंग है जो
दरअसल पूर्व अनुभूति की ही छाया है। इसकी झलक मलखान सिंह की कविता ‘हमारे गाँव में’ कवितामें मिलती है-
“हमारे गाँव में नम्रता/ जन की खास पहचान है/ और उद्दंडता हरि का बाँकपन/ तभी तो वह-बोहरे का लौंडा/ जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता/ को दूर से ही आता देख/ मेरा बाबा/ ‘कुँवरजी पाँव लागूं’ कहता है/ और वह अशिष्ट/ अपना हर सवाल/ तू से शुरू करता है/ तू पर ही खत्म करता है।”


भय का एक कारण प्रतिक्रिया के परिणामों का न पता चलना होना होता है। यदि आप अपनी भयकी घटनाओं के कारणों का पता लगा लेते हैं, तो लड़ना आसान हो जाता है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ भय ही रचते हैं मलखान सिंह वो भय के मनोविज्ञान की शिनाख्त करके उसे तोड़ते भी हैं।
“हमें अन्धा/ हमें बहरा/  हमें गूँगा बना / गटर में धकेल दिया / ताकि चुनौती न दे सकें / तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को।”
प्रबलक प्रतिक्रिय़ा का अनुसरण करता है, जिससे उसकी प्रतिक्रिया शक्ति प्रबल होती है। अर्थात प्रतिक्रिया पहले होती है और प्रबलन बाद में मिलता है जो प्रतिक्रिया की शक्ति में वृद्धि का साधन बनता है। यही अब तक भय के मनोविज्ञान में काम कर रहा था,अब इसे उलट दीजिए।एससी/एसटी एक्ट को प्रबलन के रूप में देखिए। इसने सदियों से भयभीत और अधिकार वंचित रहे मूलनिवासी दलित समुदाय के प्रतिरोध की प्रतिक्रिया शक्ति को महज कुछ दशकों में इतना संघर्षशील बना दिया कि सुप्रीमकोर्ट के माननीयों तक को इसकी शक्ति सीमित करनी पड़ी! ये कहकर कि सवर्ण समुदाय के प्रति इस एक्ट का बहुतायत दुरुपयोग किया जा रहा है! जबकि एससी/एसटी एक्ट ने रामायण के मिथक बाली को मिले वरदान की तरह काम किया। एक ओर जहाँ इस एक्ट ने दलित समुदाय को बल दिया वहीं वो सवर्ण समुदाय द्वारा अब तक किये जाते रहे भय की अनुक्रिया व इसके प्रबलन को निषिद्ध भी किया। साथ ही प्रशासनिक संस्था व सत्ता को मन-बेमन इस एक्ट के साथ खड़ा होना पड़ा। इससे न सिर्फ भयभीत दलित समुदाय को अन्याय के ख़िलाफ़ न्याय का भरोसा मिला अपितु प्रतिरोध का साहस और बल भी हासिल हुआ।

“अब! केवल यही सोच रहा हूँ मैं/ कि सामने बंद दरवाजे पर/ दस्तक नहीं, ठोकर दूँगा/ दीवालें चूल से उखाड़/ जमीं पर बिछा दूँगा/ चौरस जमीं पर / मकां ऐसा बनाऊँगा/ जहाँ हर होंठ पर/ बंधुत्व का संगीत होगा/ मेहनतकश हाथ में-/सब तंत्र होगा।”
बाद में लोकतांत्रिक सत्ता व्यवस्था के उत्तरोत्तर जातीय संगठनों एवं राजनैतिक दलों के बरअक्श जातीय चेतना का विकास हुआ और फिर अस्मितावादी राजनीतिक दलों के राज्य सत्ता में भागीदारी के चलते दलित समुदाय में अस्मिताबोध का विकास हुआ।संविधान ने वंचना के अभिशाप को तोड़ते हुए उन्हें शिक्षा रोज़गार औरसत्ता-संस्थानों में प्रतिनिधित्व का हक़ दिया।जबकि लोकतांत्रिक व्यवस्था ने सत्ता को ब्राह्मणवादी विचार व्यवस्था के असंगत और परस्पर विरोधी भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया। मतदान का अधिकार मिलने से भी उनमें बराबरी का बोध जन्मा। सत्ता में भागीदारी और एससी/एसटी एक्ट के पावर-कांबो-पैक ने दलित समुदाय में भय की अनुक्रिया के स्थान पर दूसरी अनुक्रिया विकसित की जो परस्पर विरोधी और अधिक प्रबल अनुक्रिया थी। ये काउटंर रिएक्शन यानी प्रतिरोध की अनुक्रिया थी। जिसने युवा दलित समुदाय के मन से भय की जड़ों को न सिर्फ ऊखाड़ फेंका अपितु उन्हें बहुत आक्रामक और लड़ाकू बनाया। ये अनुक्रिया अधिकारों के प्रति सकरात्मक संवेगात्मक प्रतिक्रिया है। ये संघर्ष से अनुबंधित होकर अर्जित की गई अनुक्रिया है। ये एक वंचित समाज केद्वारा भय पर विजय की अनुक्रिया का अनुगूँज है। मलखान सिंह की ‘आज़ादी’शीर्षक कविता में बदलाव की ये अनुगूँज पुरजोर सुनी जा सकती है-
“वहाँ वे तीनों मिले / धर्मराज ने कहा पहले से / दूर हटो — / तुम्हारी देह से बू आती है / सड़े मैले की / उसने उठाया झाड़ू / मुँह पर दे मारा ।/ वहाँ वे तीनों मिले / धर्मराज ने कहा दूसरे से / दूर बैठो —/ तुम्हारे हाथों से बू आती है / कच्चे चमड़े की / उसने निकाला चमरौधा / सिर पर दे मारा/ वहाँ वे तीनों मिले / धर्मराज ने कहा तीसरे से नीचे बैठो —/ तुम्हारे बाप-दादे / हमारे पुस्तैनी बेगार थे / उसने उठाई लाठी / पीठ को नाप दिया/ अरे पाखण्डी तो मर गया !/ तीनों ने पकड़ी टाँग / धरती पर पटक दिया / खिलखिलाकर हँसे तीनों/ कौली भर मिले / अब वे आज़ाद थे।”



मलखान सिंह अपनी रचनाओं में धर्मसत्ता को भी पुरजोर चुनौती देते हैं तो एक आस्तिक की तरह वेदना के स्वर में ही देते हैं। वो कहीं भी अपनी वैज्ञानिक विचारधारा के आधार पर भगवान के अस्तित्व को सीधे-सीधे नकारते नहीं बल्कि तथाकथित नियंता को कठघरे में खड़ा करके उनके पापकर्म, उनके अन्याय एवं पक्षपाती रवैये की मुखालिफ़त करते चलते हैं।ये बात इस तथ्य को और पुख्ता करती है कि उनकी कविताओं का यथार्थ और व्यथानुभूति भले उनकानिजी होपर उनका संघर्ष निजी नहीं बल्कि पूरे दलित समुदाय व समाज के लिए है।
“ओ परमेश्वर!/कितनी पशुता से रौंदा है हमें/ तेरे इतिहास ने/ देख, हमारे चेहरों को देख/ भूख की मार के निशान/ साफ दिखाई देंगे तुझे/ हमारी पीठ को सहलाने पर/ बबूल के काँटों से दोनों/ मुट्ठियाँ भर जाएगीं तेरी/ हमारे सूजे हुए कंधों को छू/ बैल के पके कंधे का दर्द भी/ हल्का लगेगा तुझे/ हमारी बस्ती में/ खाँसती-बोझा ढोती/लाशों को देख/ जिंदा रहने का साहस ही/ खो बैठेगा तू!/ हम फिर भी जिंदा हैं/ और तू!चुप है/ गूँगे की तरह चुप!”
उसी क्रम में वो ब्राह्मणवादीवर्चस्ववाद को भी चुनौती देते हैं। शुचिता के उनके सुविधावादी पाखंड को दलितों के बद्बूदार यथार्थ और दान-धर्म के नाम पर हरामखोरी के कला-कौशल को श्रम-मूल्यों के बरअक्श रखकर खारिज करते हैं। दलितों को भौंड़ा समझने वाली ब्राह्मणवादी मनोवृत्ति के सुवासित देहगंधों से इतर पसीने से सनी जीवन गंध के सौंदर्यबोध को रचते हैं।साथ ही साथ अवैज्ञानिक कर्मकांडों, वर्ग-योनि में जन्म की अवधारणा, एवं दलित होने के पिछले जन्म के पाप-कर्म जैसे अतार्किक बातों को खारिज कर देते हैं। ये शोषण की पीड़ा से उपजी वितृष्णा नहीं बल्कि उनकी वैचारिकता में वैज्ञानिक चेतना का विकास हैजो सीधे उनकेआत्मबोध से जुड़ती है।


“सुनो ब्राह्मण/ हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरु होता है/ और इसका अंत भी/ तुम्हारे अंत के साथ होगा”
लोकतांत्रिक सत्ता-व्यवस्था से ब्राह्मणवादी व्यवस्था खत्म न भी हुई हो तो कुछ कमजोर ज़रूर पड़ी। माने बदली हुई परिस्थितियों में समुदाय के भीतर वो भय को प्रबलित नहीं कर पाए।लेकिन इतनी सदियों तक शोषण और बर्बरता के बलबूते सत्ता के केंद्र में रहा सुविधाभोगी वर्ग इतनी आसानी से अपनी सत्ता भला क्यों छोड़ने लगा। तो इसी क्रम में एक आजाद और लोकतांत्रिक राज्य में भी कई कई बार वो ब्राह्मणवादी सामंती बर्बरता दोहराई गई । भय की मनोवृत्ति को फिर से खड़ा करने कीअमानवीय कोशिश में दलित समुदाय का जनसंहार किया गया। उनकी लड़कियों स्त्रियों से सामूहिक दुष्कर्म करके उनके यौनांगों में मनोविकृति की हद तक डंडा, रॉड सरिया ईंट पत्थर भरा गया स्तनों को काट दिया गया। घर-बार फूँक कर मवेशियों संग बड़े बूढ़ों को जिंदा जला दिया गया।


बरमेश्वर सिंह की रणवीर सेना जैसे बर्बर और अमानवीय सवर्ण संगठनों ने लक्ष्मण पुर बाथे, बथानी टोला शंकर बिगहा, मियांपुर, बेल्छी जनसंहार और भगाना कांड भय और आतंक के मनोविज्ञान को फिर से खड़ा करने की कोशिश करते दिखे जिन्हें सत्ता और प्रशासन का पूरा सहयोग हासिल था। आजादी एक छलावा सिद्ध हुई। प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष ही सही ब्राह्मणवाद ने सत्ता में अपनी पकड़ बनाए रखी। पहले दलित समुदाय का जनसंहार और फिर साक्ष्यों के अभाव में न्यायव्यवस्था से आरोपियों का बरी हो जाना यही दर्शाता है।ब्राह्मणवाद तले दबे इस लोकतांत्रिक सत्ता की  विरूपता को बहुत ही कुशलता से अभिव्यक्ति देते हैं मलखान सिंह-
“कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज/ लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं/ शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है/ देवताओं का प्रिया राजा/ मौत से बचे हम/ स्त्र-पुरुषों और बच्चों को/ रियायतें बाँट रहा है/ मुआवजा—दे रहा है।”


कह सकते हैं कि मलखान सिंह भय की वेदना लिखते हैं, अपमान पीड़ा तिरस्कार और वंचना लिखते हैं। इन रचनाओं का हासिल ये है कि इनमें वर्ग या जाति विशेष के प्रति प्रतिशोध नफ़रत या गाली नहीं है कि जिनका पाठक होकर एक सवर्ण उत्तेजित प्रतिक्रिया दे। इन कविताओं का अर्जित ये है कि इन्हें पढ़कर ब्राह्मण या सवर्ण पाठक के मन में आत्मग्लानि व अपराधबोध का भाव पैदा होता है। इन्हें पढ़कर वो अपने पुरखों के सामने गर्व से शीश नहीं नवाता बल्कि कई बार धिक्कारता है, लानत भेजता है उनकी बर्बरता एवं अमानवीयता भरे इतिहास पर। शर्मिदां होता है उनका वंशज होने पर। इन कविताओं की सार्थकता ये है किये सवर्ण पाठकों को भी उद्वेलित और आंदोलित करती हैं।सवर्ण से मनुष्यतर होने की भावनाजगाती हैं।
“सुनो ब्राह्मण/ हमारे पसीने से/ बू आती है तुम्हें/ फिर ऐसा करो/ एक दिन/ अपनी जनानी को/ हमारी जनानी के साथ/ मैला कमाने भेजो/ तुम! मेरे साथ आओ/ चमड़ा पकायेंगे/ दोनों मिल बैठ कर/ मेरे बेटे के साथ/ अपने बेटे को भेजो/ दिहाड़ी की खोज में/ और अपनी बिटिया को/ हमारी बिटिया के साथ/ भेजो कटाई करने/मुखिया के खेत में/”


सवर्ण सत्ता की भाषा में दलित पीड़ा की अभिव्यक्ति संभव ही नहीं है। सत्ता की भाषा में किया गया कोई भी रचाव क्रिया-प्रतिक्रिया तक ही सिमटकर रह जाती है। इसीलिए सत्ता की भाषा से अलगमलखान सिंह अपनी अलग काव्य भाषा विकसित करते हैं। ये भाषा का ही कमाल है कि सवर्ण सत्ता का प्रतिरोध करते हुए भी उनकी अपनी मनुष्यता का तनिक भी क्षरण नहीं होता। साथ ही अपने भाषा में वो सामाजिक दायित्वबोध वाले कवि नजर आते हैं। आवेग और दायित्वबोध का बेहद उम्दा संतुलन नई भाषा शैली के चलते ही उनकी रचनाओं में संभव हो पाया है।
“सामने अलाव पर/ मेरे लोग देह सेक रहे हैं / पास ही घुटनों तक कोट/ हाथ में छड़ी,/ मुँह में चुरट लगाए खड़ीं/ मूँछें बतिया रही हैं।/ मूँछें गुर्रा रही हैं/ मूँछें मुस्किया रही हैं/ मूँछें मार रही हैं डींग/ हमारी टूटी हुई किवाड़ों से/ लुच्चई कर रही हैं।/ शीत ढह रहा है/ मेरी कनपटियाँ/ आग–सी तप रही हैं।”

अपनी रचनाओं में दीनता हीनता वंचना के सटीक निरूपण के लिए उन्होंने जानवरों व मिथकों की उपमाओं प्रतीकों और रूपकों का प्रयोग किया है। उनकी रचनाओं के बिंब और रूपक तक दलित-बोध सवर्ण-बोध लिए हुए हैं। जैसे आदमखोर गाँव, ठकुराइसी मेड़, डोम टोला के लिए ठेठ मेढक और सुअर खुडारो, ब्राहम्णवादी व्यवस्था के लिए अजगर का जबड़ा, भरपेट भोजन से वंचना के लिए ‘पत्थर पेट बाँध सोते हैं’।धार्मिक समाजिक विडंबनाओं की अभिव्य़क्ति के लिए उन्होंने वक्रोक्ति का बहुत उम्दा प्रयोग किया है।
धर्मसत्ता के परम प्रतीक शिवलिंग को एकलब्य का अँगूठा बताते हुए वो कटाक्ष करते हैं-
“तेरा धरती में गड़ा स्थूल लिंग/ अग्रज एकलव्य का कटा अँगूठा/ प्रतीत होता है हमें।”  या फिर
“यदि कोई प्यासा जन/ भूल या मजबूरी बस/ हरि कुँए की जगत पर/ पाँव भी रख दे / तो कुँए का पानी/ मूत में बदल जाता है।”



भय की अनुक्रिया को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से चालाकी पूर्वक जोड़ा-तोड़ा जाता रहा है। भय और बुराई हमेशा से ही एक दूसरे से संबंधित रहे हैं।मौजूदा सत्ता ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पोषक और पैरवीकार हैं। जब लोकतंत्र के चारों स्तम्भों के भीतर ब्राह्मणवादी सवर्णों का वर्चस्व है। ऐसे में आज के समय में मलखान सिंह के कवि की आवश्यकता और प्रासंगिकता पहले से ज्यादा बढ़ गई है।यूँ कि वो दलित अस्मितावादी कवियों की तरह यातना के आवेश से प्रतिक्रिया के लिए उकसाते या उत्तेजित नहीं करते बल्कि अपनी वेदना से पाठक में संवेदना का विकास करते हैं। जो मनुष्य होने की सबसे ज़रूरी शर्त है।रोहित वेमुला, ऊना,और इलाहाबाद कटरा में दिन-दहाड़ें हुई कानून के छात्र की हत्या, सहारनपुर और भीमा कोरेगाँव के सवर्ण-अवर्ण संघर्ष मौजूदा समय की भयावहता की गवाही देते हैं। संविधान को ताक पर रखकर जिस तरह से एससी/ एसटी एक्ट को संघ सरकार के इशारे पर न्यायपालिका द्वारा कमजोर किया गया है वो भय को दलित समाज में फिर से खड़े करने के बुनियाद के तौर पर देखा-समझा जाना चाहिए। वहीं दूसरी ओर शिक्षा स्वास्थ्य समेत तमाम दूसरे सरकारी अर्द्ध सरकारी संस्थानों का तेजी से निजीकरण करके आरक्षण को खत्म किया जा रहा ताकि दलित वंचित समुदाय के समाज को सत्ता के तमाम संस्थानों से प्रतिनिधित्वविहीन करके फिर से ब्राह्मणवादी सत्ताकायम किया जा सके।

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ISSN 2394-093X
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