बलात्कार और हत्या का न्यायशास्त्र-समाजशास्त्र !

अरविंद जैन

स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने महत्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com

यौन हिंसा (बलात्कार) सिर्फ यौन हवस या तृप्ति का मामला नहीं है. इसके लिए तो (बाल) विवाह, सहजीवन, विवाहेतर सम्बन्ध, लाल बत्ती क्षेत्र, कॉल गर्ल्स, एस्कॉर्ट्स और अन्य अनेक रास्ते हैं. यौन हिंसा मूलतः शक्ति या सत्ता द्वारा स्त्री और उसके परिवार को अपमानित-उत्पीड़ित कर अपना वर्चस्व बनाए-बचाए रखना है. घर में भी और बाहर भी. हत्यारे-बलात्कारी मानसिक रोगी या बीमार नहीं हैं. एक स्त्री या बच्ची के साथ यौन हिंसा, बाकी सब स्त्रियों के लिए भय-धमकी-चेतावनी है कि अगर उसने विरोध किया, तो उसका भी यही परिणाम होगा. पति को अपनी पत्नी से बलात्कार का कानूनी अधिकार (हथियार) मिला हुआ है, सो ‘बलात्कार कि संस्कृति’ अजर-अमर बनी हुई है. घर में स्त्री का सम्मान नहीं, तो बाहर कैसे होगा!
पुलिस-कानून-अदालत-संसद, सब पर तो मर्दों का ही क़ब्ज़ा है. कानून की भाषा-परिभाषा भी स्त्री को सुरक्षा कम देती है, आतंकित और भयभीत अधिक करती है. आधी दुनिया सिर्फ ‘वोट बैंक’ है. वोट देने का अधिकार है लेकिन सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक सत्ता में, समान भागेदारी ना होने के कारण हाशिये पर खड़ी है। स्त्री जितना विरोध करती हैं, उतना ही दमन और बढ़ जाता है. युवा स्त्री को काबू करना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा है, तो कम उम्र की बच्चियों का शिकार बढ़ता गया. सिखा लो ‘मार्शल आर्ट’! चारों तरफ बेबस अँधेरा- क्या करें, कहाँ जांएं, किस से कहें, कौन सुनेगा….धरना-प्रदर्शन-आन्दोलन ! ये तमाम सुरक्षा प्रहरी और कानून के रखवाले भी तो, उनके ही बचाव में तो अड़े-खड़े हैं. ऐसे में कौन-क्यों चीख रहा है सड़क पर या छोटे पर्दे पर? कोई है!

देशभर में छोटी उम्र की बच्चियों के साथ, यौन हिंसा और हत्या के मामले (2014 में 15,191 2015 में 17,653 2016 में 18,480) लगातार बढ़ते जा रहे हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार मामलों में फाँसी का प्रावधान किया है।(कानून बना है, फाँसी शायद अभी तक एक भी नही)। केंद्र भी शायद संशोधन करेगा। मेनका गांधी का बयान आया है।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार हत्याओं के भी ‘दुर्लभ में दुर्लभतम’ मामलों में ही फाँसी दी जा सकती है, सो अभी तक बच्चियों से बलात्कार के बाद हत्या के अधिकांश संगीन मामलों में भी फाँसी की सज़ा नहीं दी गई (दो-तीन को छोड़ कर-धनंजय, जुम्मन, नायक आदि)। ऐसे में कानून बनाने से होगा क्या! निर्भया के हत्यारों को ही अभी फाँसी नहीं हुई।पता नहीं फ़ाइल कहाँ अटकी-लटकी हुई है। अगर सज़ा नहीं, तो फिर कानून क्यों बने-बनाये गए? कानून का डर नहीं तो अपराध कैसे रुकेंगे? मानवाधिकारों की आड़ में , अपराधियों की ही ‘रक्षा-सुरक्षा’ कब तक करते रहेंगे ? अपराध की सज़ा जरूर हो, निश्चित समय में। अपराध और सज़ा का न्यायशास्त्र नए सिरे से बनाना ही पड़ेगा, वरना….! कठुआ और उन्नाव तो दिल्ली से बहुत दूर हैं! हम सब जानते हैं कि दहेज हत्या के एक भी मामले में, आजतक फाँसी नहीं हो पाई। निचली अदालतों से हुई भी, तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा उम्र-कैद में बदल दी।ऐसे अनेक मामले हैं,जिन्हें यहां बताना-गिनाना व्यर्थ है। कानून है (नया बन जायेगा) मगर सज़ा कब मिलेगी?
लगभग 25 साल पहले की बात है. रेणु (उम्र 11-12 साल) के साथ प्रेमदत्त ने शिवमन्दिर, अलीगढ़ में बलात्कार किया और उसके बाद हत्या. सत्र न्यायाधीश ने हत्या के लिए फाँसी की सजा सुनाई मगर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री गिरधर मालवीय और ए.बी. श्रीवास्तव ने फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलते हुए कहा, हमें लगता है कि यह केस फाँसी की अधिकतम सजा की माँग नहीं करता. अपीलार्थी जिसकी उम्र सिर्फ बाईस साल थी, ऐसा लगता है कि मृतका को अपने साथ हत्या करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी हवस पूरी करने के लिए ले गया था. हम महसूस करते हैं कि ‘न्याय का उद्देश्य’ अपराधी को उम्रकैद की सजा से पूरा हो जाएगा. (विनोद कुमार बनाम राज्य, 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2360)

जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एक मात्र निर्णय है, जिसमें छह वर्षीया लडक़ी (सकीना) के साथ बलात्कार के बाद हत्या के अपराध में फाँसी की सजा हुई. गवर्नर और राष्ट्रपति द्वारा रहम की अपील रद्द होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी पुनर्विचार याचिका या रिट पिटीशन रद्द की गई. इस दुर्भाग्यपूर्ण मुकदमे में 26 जून, 1983 को करीब चार बजे जुम्मन मियाँ ने अपने पड़ोसी यूसुफ खाँ की पत्नी दुल्हे खान बेगम से प्रार्थना की कि वह अपनी बेटी सकीना को उसके साथ बाजार भेज दे, वह उसके लिए आइसक्रीम लाना चाहता है. बेगम ने बिटिया जुम्मन के साथ भेज दी और खुद सो गई. घंटे-भर बाद उठी तो देखा बेटी अभी तक नहीं आई. पहले उसने सोचा शायद बाहर बच्चों के साथ खेल रही होगी. लेकिन समय बीता तो वह घबराई. इधर-उधर देखने के बाद जब सकीना नहीं मिली तो वह खुद जुम्मन के घर पहुँची लेकिन वहाँ ताला लगा मिला. पति आए करीब सात बजे तो अड़ोस-पड़ोस में बच्ची ढूँढ़ते रहे, पर बच्ची होती तो मिलती. मामला सुन-सुनकर भीड़ इकट्ठी हो गई. जब यूसुफ खान दोबारा जुम्मन के घर जा रहे थे तो पड़ोसी ने बताया कि करीब साढ़े चार बजे उसने सकीना को एक हाथ में आइसक्रीम लिये, जुम्मन की उँगली पकड़े घर में घुसते हुए देखा था. दूसरे ने बताया कि वह जुम्मन के घर के आगे से गुजर रहा था तो उसने घर के अन्दर से आती बच्ची के रोने की आवाज सुनी थी. उत्तेजित भीड़ जुम्मन के घर पहुँची और दरवाजे के सुराख से टॉर्च जलाकर देखा तो अन्दर चारपाई पर बुर्के में लिपटी बच्ची की लाश पड़ी थी. दरवाजा तोडक़र भीड़ अन्दर पहुँची तो पाया कि लाश सकीना की ही थी, जिसके शरीर पर काफी चोटों के निशान मौजूद थे.

आगरा के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने जुम्मन को फाँसी का हुक्म दिया. उच्च न्यायालय ने भी फैसले की पुष्टि करते हुए कहा, ”अपराधी के जघन्य और अमानुषिक कृत्यों को देखते हुए वह किसी प्रकार की नरमी का अधिकारी नहीं है. उसने सोच-समझकर छह साल की बेबस बच्ची के साथ बलात्कार किया है और गला घोंट कर हत्या करने तक गया है. उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध जुम्मन ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च, 1986 को याचिका खारिज करते हुए ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, ”जहाँ अपराध समाज के विरुद्ध हो, वहाँ ऐसे गम्भीर मामलों में मृत्युदंड की सजा न देना विशेषकर हत्या के ऐसे मामलों में जो अत्यन्त नृशंसता के साथ किए गए हों, भारतीय दंड संहिता की धारा 302 जो (फाँसी की सजा का प्रावधान करती है) को शून्य में बदलना होगा।. अदालत का यह कर्तव्य है कि अपराध की गम्भीरता के अनुसार उचित सजा के निर्णय सुनाए. सामाजिक आवश्यकता और सम्भावित अपराधियों को रोकने के लिए भी एकमात्र उचित सजा जो अपराधी जुम्मन को मिलनी चाहिए, वह मृत्युदंड के अलावा और कुछ भी नहीं हो सकती, क्योंकि उसने अपनी कामपिपासा शान्त करने के लिए, एक निर्दोष बच्ची की भयंकर तरीके से कलंकपूर्ण हत्या का अपराध किया है.

जुम्मन ने 12 अप्रैल, 1986 को गवर्नर से रहम की अपील भी की जो 18 फरवरी, 1988 को रद्द हो गई. राष्ट्रपति ने भी रहम की अपील 10 जून, 1988 को ठुकरा दी. 15 जुलाई, 1988 को रहम की दूसरी अपील की गई. इसके बाद 10 नवम्बर, 1988 को फिर सुप्रीम कोर्ट में एक रिट दाखिल की गई, जिसमें मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई और फिलहाल के लिए मृत्युदंड रुकवा दिया गया. इस याचिका को भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों ने 30 नवम्बर, 1990 को मानने से इनकार कर दिया. जुम्मन के विद्वान वकील श्री आर.के.जैन (जो मृत्युदंड के कट्टर विरोधी थे और सुप्रीम कोर्ट बार के अध्यक्ष भी) की सारी दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्तियों को सजा घटाने का कोई उचित आधार या तर्क नजर नहीं आया। कैसे आता ? लेकिन दुखद तथ्य यह है कि जुम्मन खान के बाद भी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार के बाद हत्या के मामलों को ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ नहीं माना गया. अनेक फैसले इसका प्रमाण हैं.

राजकीय महाविद्यालय, सुनाम के प्रोफेसर गुरपाल सिंह अपनी पत्नी मनजीत कौर और करीब दो वर्षीया बेटी मल्हार के साथ अपनी भानजी की शादी के अवसर पर चुघे कलाँ (पंजाब) गए हुए थे. शादी के अगले दिन 21 मार्च, 1991 को मल्हार, हरचेत सिंह की गोदी में रही थी. हरचेत सिंह (उम्र 29 साल) गुरपाल सिंह के जीजा कश्मीरा सिंह का मित्र था जो घर अक्सर आता रहता था. दूल्ला-दुल्हन के जाने के बाद गुरपाल सिंह और उनकी पत्नी ने जब मल्हार की तलाश की तो आसपास कहीं नहीं मिली. काफी ढूँढऩे के बाद जब वे खेत में पहुँचे तो देखा कि हरचेत सिंह दो वर्षीया मल्हार के साथ बलात्कार कर रहा है. उन्हें देखकर हरचेत सिंह भाग खड़ा हुआ। मल्हार के पास पहुँचे तो वह खून से लथपथ दम तोड़ चुकी थी.

पुलिस-थाना-कोर्ट-कचहरी-गवाहों के बयान और वकीलों की बहस सुनने के बाद भटिंडा के सत्र न्यायाधीश ने हरचेत सिंह को बलात्कार के जुर्म में उम्रकैद और दो हजार रुपया जुर्माने और हत्या के जुर्म में फाँसी और दो हजार रुपया जुर्माने की सजा सुनाई. लेकिन पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति श्री जय सिंह शेखो और ए.एस. नेहरा ने अपील में फाँसी की सजा रद्द करके सिर्फ आजीवन कैद का फैसला सुनाते हुए कहा, ”सजा के सवाल पर बहस सुनने के बाद, हम महसूस करते हैं कि यह केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभ की श्रेणी में नहीं आता है. अतएव माननीय न्यायमूर्तियों ने फाँसी की सजा देने से मना कर दिया था. दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने भी राज्य बनाम अतरू रहमान में फाँसी की सजा की पुष्टि नहीं की थी. हालाँकि अभियुक्त ने छह साल की बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी. जुम्मन खान के मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यहाँ लागू नहीं होता। (जिसे सेशन जज ने आधार माना है) क्योंकि ”उस केस में जुम्मन ने पहले से सोच-समझ और पूरी तैयारी के साथ बेबस बच्ची के साथ बलात्कार किया था, गला घोंटकर हत्या की थी. प्रस्तुत मुकदमे में मृतक (मल्हार) की मृत्यु बलात्कार के कारण पीड़ा, खून बहने व सदमे से हुई है जो आमतौर पर मृत्यु के लिए काफी है. अपराध कामपिपासा शान्त करने के लिए किया गया था. पहले से दोनों पक्षों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी. ऐसा लगता है कि अपीलार्थी में कामपिपासा इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उसे आदमी के रूप में जानवर बना दिया था. (1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1529)

दो साल की बच्ची के साथ 29 वर्षीय नौजवान आदमी बलात्कार करेगा तो निश्चित ही है कि बच्ची जिन्दा कैसे बचेगी ? कामपिपासा शान्त करने के लिए, दो साल की बच्ची के साथ ऐसा कुकर्म ? इससे अधिक घृणित और जघन्यतम अपराध और क्या होगा ? जब इसे घृणित और ‘जघन्यतम अपराध’ मान लिया जाता है तो यह कहने का क्या अर्थ है कि यह ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं है. आदमी जब जानवर (भेडिय़ा) हो जाए तो उसे आजीवन कैद में रखने का मतलब सजा देना है या ऐसे भेडिय़ों को जेल में सुरक्षित रखना. 26 वर्षीय, फौजी जवान द्वारा चार महीने की बच्ची के अपहरण, बलात्कार और हत्या (लाश अन्धे कुएँ में) के मामले में भी सजा उम्र-कैद ही रही. हालाँकि न्यायमूर्तियों ने स्वीकारा, ”हमारे लिए इससे अधिक जघन्य बलात्कार की कल्पना तक करना कठिन है.” निर्णय में जुम्मन खान का उल्लेख तक नहीं है. (सिद्दिक सिंह बनाम महाराष्ट्र,1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2919 )

बच्चियों से बलात्कार और हत्या के अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें अभियुक्त को सन्देह का लाभ देकर बाइज्जत बरी किया गया है. पाँच वर्षीया सुकुमारी के साथ बलात्कार और हत्या के अपराध के एक मामले में मुजरिम को रिहा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस. रतनावेल पांडियन और के. जयचन्द्रा रेड्डी ने कहा, ”हम सचेत हैं कि एक गम्भीर और संगीन अपराध हुआ है, लेकिन जब अपराध का कोई सन्तोषजनक प्रमाण न हो तो हमारे पास अभियुक्त को सन्देह का लाभ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, इसलिए इस मुकदमे में हम ऐसा करने को विवश हैं. (जहरलाल दास बनाम उड़ीसा राज्य 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1809).

करीब 20 साल पहले लिखा था “1990 से 1996 तक हुए बलात्कारों में 71 प्रतिशत बलात्कार 16 साल से अधिक उम्र की स्त्रियों के साथ और 29 प्रतिशत बलात्कार 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ हुए हैं. 1990 में यही प्रतिशत क्रमश: 75 प्रतिशत और 25 प्रतिशत के लगभग था. अभिप्राय यह है कि पिछले सात सालों में जहाँ 4 प्रतिशत बलात्कार 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ बढ़े हैं, वहीं 16 वर्ष से अधिक उम्र की स्त्रियों के साथ हुए बलात्कारों में 4 प्रतिशत की कमी हुई है. यह 4 प्रतिशत का परिवर्तन बेहद महत्त्वपूर्ण बदलाव की ओर संकेत देता है। इस बदलाव के सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों को रेखांकित करने के लिए अपराध और संचार माध्यमों की भूमिका को भी देखना पड़ेगा. उपरोक्त आँकड़ों के विवेचन, विश्लेषण और अध्ययन के आधार पर नि:सन्देह यह स्पष्ट होता है कि 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ यौन हिंसा के अपराध लगातार बढ़ रहे हैं विशेषकर महानगरों में, अधिकांश बलात्कारी नजदीकी रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त या परिचित होता है. पिता, भाई, चाचा, ताऊ, मामा वगैरह द्वारा भी बलात्कारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है. कम उम्र की बच्चियों की प्राय: बलात्कार के बाद हत्या कर दी जाती है या आघात से मृत्यु हो जाती है. कुछ मामलों में बलात्कार की शिकार लडक़ी सामाजिक अपमान और लज्जा के कारण आत्महत्या कर लेती है.” (यौन हिंसा और न्याय कि भाषा, अरविन्द जैन, 1999)

युवा लड़कियां विरोध-प्रतिरोध कर सकती हैं, आत्मरक्षा में जुडो कराटे या हथियार इस्तेमाल कर सकती हैं लेकिन अबोध उम्र कि छोटी बच्चियां क्या करें? सिर्फ कानून में फाँसी की सज़ा का प्रावधान करने, फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने और बाहरी लीपापोती से कुछ होने वाला नहीं है. यौन हिंसा का मुख्य कारण काम-पिपासा शान्त करना या मानसिक विक्षिप्तता कम, बदला लेना अधिक है. अपराधियों को सुधारवादी-उदारवादी न्याय नीति के अन्तर्गत कम सजा देने से ‘न्याय का लक्ष्य भले ही पूरा हो जाए मगर इस प्रकार के अपराधों को बढ़ावा ही मिलता है. दंड-भय ही न रहे तो अपराध कैसे कम (समाप्त) होंगे !कानून व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के साथ-साथ जरूरी है सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक सोच में बदलाव. बलात्कारियों का मृत्युदंड की ‘हवाई घोषणाओं से क्या होना है? यौन हिंसा के ये आँकड़े और आँकड़ों का तुलनात्मक जमा-घटा सिर्फ संकेत मात्र है. स्त्री के विरुद्ध पुरुष द्वारा की जा रही यौन हिंसा की वास्तविक स्थिति (सरकारी) आँकड़ों से कहीं अधिक भयावह और खतरनाक है. समय रहते उचित कदम नहीं उठाये गए, तो निश्चित रूप से स्थिति विस्फोटक हो सकती है.

तस्वीरें गूगल से साभार 
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