अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अपने विश्वविद्यालय के अस्तित्व को बचाने के लिए आज भी प्रदर्शन कर रहे हैं. उन्होंने यह भी संकल्प किया है कि विश्विद्यालय के इस संघर्ष को बाहर भी ले जाया जायेगा. विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कमलानंद झा ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी पर हिन्दुत्ववादियों द्वारा हमले के प्रयास, जिन्ना-विवाद पर अपने विचार रखे हैं.
सुप्रसिद्ध नाटककार शहीद सफ़दर हाशमी के नाटक की एक पंक्ति है, ‘लड़ो पढ़ाई करने को, पढो लड़ाई करने को.’ पढ़ने का मकसद सिर्फ ज्ञान गरिमा से मंडित होकर छोटी-बड़ी नौकरी प्राप्त कर ‘घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना’ नहीं है. बल्कि पढ़ने का मतलब खुद का विवेक पैदा करना है, सामजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों में सार्थक हस्तेक्षेप करना है. समाज को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करना, सपने देखना और उन सपनों को पूरा करने की दिशा में सधे कदम बढ़ाना है. इसी को पढ़-लिखकर स्वस्थ नागरिक बनना कहते हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय अभी भीषण संकट के दौर से गुजर रहा है. विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं. अपनी परीक्षाएं और भविष्य की चिंताओं को धता बताकर यह मांग कर रहे हैं कि देश का विश्वविद्यालय कैसे सुरक्षित रह पाएगा? देश के गरिमापूर्ण शैक्षिक संस्थाओं को गुंडागर्दी से कैसे बचाया जाए? सत्ताधारी पार्टी का मकसद देश के विश्वविद्यालयों को ज्ञान, विज्ञान, बहस, तथा चिंतन परम्परा से काटकर उसे कूपमंडूकता का पर्याय बनाना है. क्योंकि यही वह जगह हैं जहाँ से उनके नापाक इरादे को चुनौतियां मिल रही हैं. यह प्रयास इन चुनौतियों और सवालों को समाप्त करता है.
सत्ताधारी पार्टी के जो नेता विश्वविद्यालय से जिन्ना साहब की तस्वीर हटाने की बात कर रहे हैं, वे सिर्फ और सिर्फ जिन्ना के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटी सेक रहे हैं. ये लोग हमेशा एक ‘अन्य’ की तलाश में रहते हैं. यह सिद्ध करने के लिए कि ये ‘अन्य’ राष्ट्रद्रोही हैं और हम सबसे बड़े राष्ट्रभक्त.
विधि विशेषज्ञ फैज़ान मुस्ताफ़ा ने बड़े मार्के की बात कही कि, “मैं इतने दिनों तक एएमयू में पढ़ा कितने दिनों तक यहाँ पढ़ाया लेकिन जिन्ना की वह तस्वीर नहीं देखी, लेकिन आज युवा वाहिनी के लोगों के सौजन्य से जिन्ना की तस्वीर पूरे देश ने देख ली, उनकी तस्वीर पूरे देश में लग गई.” चुनाव पूर्व हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की छुद्र राजनीति ने एक गुंडागर्दी को जिन्ना-विवाद का नाम देकर अलीगढ विश्विद्यालय को बदनाम करने की कोशिश की है. स्थानीय सांसद सतीश गौतम ने सबसे पहले कुलपति से जिन्ना की तस्वीर के बाबत पत्र लिखकर कुछ सवाल पूछे. उसके दूसरे-तीसरे दिन युवा वाहिनी के कुछ कार्यकर्ता आपत्तिजनक नारे लगाते हुए तस्वीर उतारने की नीयत से आक्रामक रूप में जबरदस्ती परिसर में प्रवेश करने की कोशिश की जिसे विश्विद्यालय के सुरक्षाकर्मियों ने पुलिस-थाने के हवाले कर दिया. पुलिस ने उन्हें आनन-फानन में छोड़ दिया. विश्वविद्यालय के छात्र इस बात को लेकर मुख्य गेट पर धरना प्रदर्शन कर कदाचित थाने तक की शांतिपूर्ण मार्च की योजना बना ही रहे थे कि पुलिस ने उनपर बेरहमी से लाठी चार्ज कर दिया, जिसे पूर्व कुलपति जमरुद्दीन शाह ने ‘लाठी अटैक’ की संज्ञा दी है, जिसमें छात्रसंघ के अध्यक्ष मशकूर अहमद उस्मानी एवं उपाध्यक्ष सज्ज़ाद सुभान राथर समेत कई विद्यार्थी गंभीर रूप से घायल हो गए. इस हिन्दू वाहिनी की गुंडागर्दी और पुलिसिया दमन के खिलाफ विद्यार्थी आज भी शांतिपूर्ण धरने पर बैठे हुए हैं.
पूरे देश में जो लोग जिन्ना की तस्वीर से आहत हैं उन्हें वास्तविकता से परिचित नहीं कराया गया है. लोकप्रिय मीडिया का दायित्त्व बनता है कि वे अपने दर्शकों-पाठकों को वास्तविकता से परिचित कराएं और निर्णय करने की ज़िम्मेदारी उनपर छोड़ दें. लेकिन यहाँ मीडिया निर्णायक की भूमिका में होता है. पहली बात तो यह की जिन्ना की यह तस्वीर विश्वविद्यालय के किसी प्रशासनिक या शैक्षिक भवन में नहीं लगी हुई है. यह तस्वीर सन 1938 से छात्र संघ के एक हॉल में लगी हुई है. यहाँ अकेले जिन्ना की ही तस्वीर नहीं लगी हुई है बल्कि देश-विदेश के ऐसे कई महान लोगों की लगी हुई है, जिन्हें छात्र संघ की स्थाई सदस्यता से सम्मानित किया गया है. इस सम्मान से सम्मानित होने वालों में महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार ई एम फास्टर, सी बी रमण, बहुगुणा, के एन मुंशी, शिक्षाविद और न्यायाधीश ए एन मुदालियार आदि कई गणमान्य व्यक्ति रहे हैं. कहा जाता है कि बम्बई हाई कोर्ट में भी जिन्ना साहब की डिग्री आदि है, शायद तस्वीर भी लगी हुई है.
मीडिया का काम सिर्फ वर्तमान को छेड़ना नहीं बल्कि इतिहास की सच्चाइयों से रूबरू कराना और समय समय पर उससे मुठभेड़ करना भी है. खासकर ऐसे प्रसगों से जिनके सन्दर्भ और तार सीधे सीधे इतिहास से जुड़ते हैं. जिन्ना साहब के व्यक्तित्व के दो मुख्य पडाव हैं. पहले पड़ाव पर वे अत्यंत दृष्टिसंपन्न देशभक्त के रूप में हमारे सामने आते हैं. शहीद भगत सिंह और बाल गंगाधर तिलक के लिए अंग्रेजों के ख़िलाफ़ अदालत में केस लड़ते हैं. हिंदू -मुस्लिम एकता के मिसाल माने जाते थे जिन्ना साहेब. 1920 के बाद भारतीय राजनीति की दिशा जैसे-जैसे मुड़ती है, जिन्ना की राजनीति भी करवट लेती है. यह उनकी राजनीति का दूसरा पड़ाव है. दो राष्ट्र के सिद्धांत के जितने दोषी जिन्ना और उनके सहयोगी हैं, उतने ही दोषी हिदूवादी संगठनों के नेता भी हैं. इन नेताओं का कहना था कि मुसलमान हिन्दुस्तान में नहीं रह सकते, अगर वे हिन्दुस्तान में रहगें तो उन्हें दोयम दर्जे की नागरिकता मिलेगी. दूसरी तरफ़ जिन्ना का भी कहना था कि हिन्दुस्तान में भारतीय मुसलमान सुख और चैन से नहीं रह सकते. इसलिए पाकिस्तान के रूप में अलग मुल्क चाहिए. और इस तरह दोनों तरफ़ के उग्रवादी नेताओं की बदौलत देश का विभाजन हो गया. छात्र संघ के हॉल में जो जिन्ना साहेब की तस्वीर लगी हुई है वह उनके पहले वाले छवि के आधार पर लगी हुई है. भारत को आज़ाद कराने में उनकी भी ‘आभा’ है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. इतिहास को न भुलाया जा सकता है, न ही निगला जा सकता है. और यही वज़ह है कि उनकी मृत्यु के बाद भारत के संविधान सभा ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी थी. यह भारत की उदारतापूर्ण गौरवशाली परम्परा है. इस परंपरा में जिसका जितना देय हैं, हम उसमें कृपणता नहीं करते.
जिस देश में गाँधी के हत्यारे गोडसे की मूर्ति बनाई जा सकती है, उसपर माल्यार्पण हो सकता है, उस देश में जिन्ना की तस्वीर से परहेज क्यों? वे मूक, शांत और स्थिर तस्वीरें क्या बिगाड़ रहीं हैं, उनसे इतना भय क्यों? अगर अस्सी वर्षों से इस तस्वीर ने कुछ नहीं बिगाड़ा तो इतने वर्षों बाद गड़े मुर्दे को उखाड़ने का मतलब? और अगर किसी को इस तस्वीर से परेसानी है तो उसका वैधानिक तरीका अपनाया जाना चाहिए. सरकार की ओर से दिशा-निर्देश लिया जाना चाहिए. इन हथियारबंद मवालियों को किसने अधिकार दिया कि वे अनधिकारपूर्वक विश्विद्यालय में प्रवेश करें.
दरअसल अलीगढ़ के सांसद अपने घृणित लक्ष्य में कामयाब रहे हैं. उन्हें देश में आम नागरिकों के चित्त में मुसलमानों की छवि को विकृत करना था, सो वे कर चुके. देश के कई स्थानों पर अलीगढ़ के ख़िलाफ़ वातावरण बन गया है. सांसद जी पार्टी के अन्दर नायकत्व प्राप्त करने में बहुत हद तक सफल रहे हैं. अगले चुनाव में टिकट हेतु प्रतिद्वंदी को मात करने की यह चाल कहाँ तक सफल होती है, यह तो भविष्य ही बता पाएगा. अगर जिन्ना की तस्वीर उतार ली जाती तो विधायक जी के एजेंडे की हवा निकल जाती. पद्मश्री काजी अब्दुल सत्तार ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि “आज़ाद हिन्दुस्तान में जिन्ना की जरुरत नहीं है. ए एम यू ही नहीं देश भर में जहाँ भी जिन्ना की तस्वीर लगी है, उन्हें उतारा जाना चाहिए. जिन्ना हमारे आदर्श नहीं हैं, जो उनकी तस्वीर लगाने के लिए धरना प्रदर्शन किया जाए.” गौर करने की बात यह है कि विद्यार्थी भी जिन्ना को आदर्श नहीं मानते हैं. उनका आन्दोलन तस्वीर के लिए नहीं गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ है. सत्ताधारी पार्टी एक शैक्षिक संस्थान बना तो सकती नहीं. लेकिन बनी हुई संस्थाओं को नष्ट करने से उन्हें परहेज नहीं. मैथिली भाषा में एक कहावत है, ‘लिखने आता है- नहीं, और मिटाने आता है- दोनों हाथों से. तो यह सरकार दोनों हाथों से इस ‘पुण्य’ कार्य में लगी हुई है.
यह मात्र संयोग नहीं है कि ठीक परीक्षा के वक्त इस विवाद को हवा दी गई है. वे जानते हैं कि इस विवाद में उलझकर वे पढ़ना- लिखना छोड़कर आन्दोलन में अपना समय गवाएंगे. कुछ विद्यार्थियों का पुलिस में नाम दर्ज़ कराकर उनके भविष्य को अंधकारमय करने की कोशिश की जाएगी. लेकिन ये विद्यार्थी आन्दोलनधर्मी हैं, आज आन्दोलन का नवां दिन है. इनकी कई मांगे मान ली गई हैं. दो युवा वाहिनी के कार्यकर्ता गिरफ्तार हो चुके हैं. दोषी पुलिस कर्मियों के ख़िलाफ़ कारवाई और मसले की न्यायिक जांच इनकी मुख्य मांगें हैं. फैज़ान मुस्तफ़ा ने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों से सीनियर के नाते आह्वान किया है कि “वे अब अपना आन्दोलन वापस ले लें, क्योंकि सरकार ने नर्म रुख अपनाया है और उनकी अधिकांश मांगें मान ले गई हैं.”
इस प्रकरण की एक और पृष्ठभूमि है, जिसे नज़रंदाज़ करने की कोशिश की गई है. 2 मई को जिस दिन यह घटना घटी, भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी विश्वविद्यालय अतिथि गृह में थे. यह अतिथि गृह मुख्य गेट से मात्र 50 से 100 मीटर की दूरी पर है, जहाँ उपद्रवकारी उपद्रव मचाने पहुँच गए थे. पूर्व उपराष्ट्रपति को छात्र संघ की स्थाई सदस्यता देने हेतु आमंत्रित किया गया था. शाम को यह कार्यक्रम होना था और सामाजिक बहुलता जैसे विषय पर महत्वपूर्ण व्यख्यान उन्हें देना था. जब से अंसारी साहेब ने देश में असहिष्णुता के माहौल की बात कही है, वे भाजपा के निशाने पर रहे हैं. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अंसारी साहेब के उक्त कार्यक्रम को न होने देने की नीयत से उपद्रव को अंजाम दिया गया हो. सोचने की बात है कि देश के माननीय पूर्व उपराष्ट्रपति अतिथि गृह में हों, और अलीगढ़ प्रशासन की सुरक्षा व्यवस्था ऐसी हो कि उपद्रवकारी विश्वविद्यालय में प्रवेश कर जाएँ.
देश के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों और शिक्षकों मे वर्तमान सरकार की शिक्षा और छात्र विरोधी नीतियों को लेकर भारी असंतोष और आक्रोश व्याप्त है. सचेत, सार्थक और सकारात्मक युवा आन्दोलन ही देश की शिक्षा व्यवस्था को बचा सकती है. अपने अपने विश्वविद्यालय का स्थानीय संघर्ष तात्कालिक संघर्ष भर बनकर रह जाता है. महत्वपूर्ण यह है कि देश के अन्य वास्तविक मुद्दों के प्रति युवा कितने संवेदनशील हैं? वे इन मुद्दों के प्रति कितने चौकन्ने हैं? जिस दिन देश के युवाओं की सोच में यह बात आ जाएगी कि हम अपने निजी मुद्दों के प्रति जितने सचेत हैं उतना ही सचेत हमें देश के मुद्दे या अन्य विश्विद्यालयों के आन्दोलन के प्रति होना है, तो देश की दशा निश्चित रूप से बदल सकती है. वर्तमान सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ सामूहिक रूप से छात्रों की लामबंदी से ही सकारात्मक नतीजे की संभावना बन सकती है . स्त्रियों के प्रति हो रहे अत्याचार और उनपर लगी सामाजिक पाबंदियों को देश के युवा ही चुनौती दे सकते हैं. संघर्ष और आन्दोलन एक जज़्बा होता है, खूबसूरत सपना होता है, युवाओं की धमनियों में दौड़ते खून सभी तरह के प्रगतिशील आन्दोलन को दिशा देने के लिए मचलता है. चुने हुए संघर्ष से सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं. यथास्थितिवाद से लड़ने और एक मज़बूत सत्तातंत्र को टकराने के लिए युवाओं को अपने संघर्ष और आन्दोलन को व्यापक बनाने की आवश्यकता है. अगर चुनी हुई खामोशियाँ और चुप्पियाँ खतरनाक होती हैं तो चुने हुए संघर्ष का परिणाम भी सीमित और संकुचित होता है. आमजन को साथ लिए बगैर कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता. और आमजन के बीच कोई आन्दोलन तभी विश्वसनीयता अर्जित कर सकता है जब उसका उद्देश्य व्यपाक हो.
तस्वीरें गूगल से साभार
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