कम्युनिस्ट महिलाओं, कामगार महिलाओं के विचार सर्वहारा की क्रांति पर ही केंद्रित होना चाहिए: लेनिन

आज से लगभग 100 साल पहले 1920 में मार्क्सवादी स्त्रीवादी क्लारा जेटकिन ने रूसी क्रांति के विराट नेता लेनिन से यह बातचीत की थी. इस बातचीत का एक हिस्सा (बीच का हिस्सा), जो महिला श्रम के सन्दर्भ में है स्त्रीकाल के पाठक 1 मई (मजदूर दिवस) को पहले ही पढ़ चुके हैं, इस लिंक को क्लिक कर पढ़ सकते हैं. 

लेनिन: कम्युनिस्ट नेतृत्व महिलाओं के आन्दोलन के सवाल पर निराशावादी, रुको और देखो वाला रुख अपना लेता है

प्रारम्भ इस लिंक से होता है: भारतीय संतों के हमेशा कुंडलिनी जागरण की तरह हमेशा सेक्स की समस्याओं में उलझे रहने वालों पर भी मैं अविश्वास करता हूं: लेनिन

“मैंने जहां जोड़ा कि जहां निजी सम्पत्ति और बुर्जुआ सामाजिक व्यवस्था है, वहां सेक्स और विवाह ने प्रत्येक सामाजिक वर्ग और स्तर की महिलाओं के लिए जटिल समस्याएं, द्वंद और दुःख ही दिए हैं। जहां तक सेक्स-संबंधों के मसले पर महिलाओं का सवाल है, युद्ध और उसके नतीजों ने पहले से मौजूद टकराहट और दुखों को बहुत बढ़ा दिया है। जो समस्याएं पहले महिलाएं छिपा जाती थी, अब खुलकर प्रगट हो गई है। क्रांति की शुरुआत के माहौल ने इसे बढ़ा दिया है। पुरानी भावना और खयालात टूट रहे हैं। पुराने सामाजिक संबंध ढीले होकर टूट रहे हैं। जनता के बीच नए रिश्ते पैदा होते नजर आ रहे हैं। ये बुर्जुआ  समाज की विरूपताओं और नकलीपन के विरूद्ध एक प्रतिक्रिया भी हैं। इतिहास में विवाह पद्धतियों और परिवारों की बनावट में हुए बदलावों, और इन बदलावों आर्थिक व्यवस्था पर निर्भरता आदि के बारे में जानने पर कामकाजी महिलाओं के मन में, बुर्जुआ  समाज की ‘सनातन’ रहने वाली धारणा भी टूटेगी। इनके प्रति एक ऐतिहासिक आलोचकीय रुख बुर्जुआ समाज के कठोर विश्लेषण की तरफ ले जाएगा और सेक्स के प्रति गलत नैतिकताओं के साथ-साथ इसके मर्म और प्रभावों को खोलकर रख देगा। सभी रास्ते रोम की तरफ जाते हैं। समाज के दार्शनिक ढांचे के एक महत्वपूर्ण अंग विशेष का हर सच्चा मार्क्सवादी विश्लेषण, बुर्जुआ समाज और उसके आधार, यानी निजी सम्पत्ति, के विश्लेषण की तरफ ले जाता है। ये एक ही नतीजे की ओर ले जाता है कि ‘कार्थेज को नष्ट करना ही होगा।’’

लेनिन ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया।

‘’बहुत खूब! तुमने अपनी पार्टी और उसके सदस्यों का एक वकील की तरह बचाव किया। जो कुछ तुमने कहा, बेशक सच है। तो भी जर्मनी में जो गलती की जा चुकी है, यह उसका बचाव नहीं कर सकती। वो गलती तो हो चुकी है। क्या तुम पूरी गम्भीरता के साथ मुझे आश्वस्त कर सकती हो कि उन पाठ और चर्चा गोष्ठियों में परिपक्व और मजबूत ऐतिहासिक भौतिकवादी नजरिए से सेक्स और विवाह के प्रश्नों पर विचार किया गया? इसके लिए भौतिकता की व्यापक, गहन और पूर्णतः मार्क्सवादी पकड़ की जरूरत होगी। इसके लिए अभी क्या तुम्हारे पास जरूरी ताकत है? वो पर्चा जिसके बारे में हमने पहले बात की थी, बांटा गया था तो शाम की पाठ और चर्चाओं में पढ़ाने के काम आया ही होगा। आलोचना के बावजूद। उसे प्रचारित किया गया। इस समस्या पर ऐसा अधूरा और गैर मार्क्सवादी रुख क्यों?  क्योंकि  सेक्स और विवाह को मुख्य सामाजिक समस्या के एक अंग के तौर पर नहीं देखा गया। इसके विपरीत मुख्य सामाजिक समस्या को सेक्स समस्या के एक हिस्से, एक उपांग के तौर पर बताया गया। मुख्य मुद्दा तो कहीं पीछे छूट गया। न सिर्फ यह प्रश्न अस्पष्ट हो गया, बल्कि साधारण तौर पर कामगार महिलाओं के विचार और वर्गीय चेतना भी धीमी पड़ गई।

‘’इसके अलावा, यह कम महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है, जैसा कि सोलोमन का कहना है कि, ‘प्रत्येक काम के लिए एक समय होता है।’ मैं पूछता हूं कि कामगार महिलाओं को ऐसे प्रश्नों- कि कैसे प्यार करें या करवाएं या कैसे प्रेम निवेदन करें या चाहें आदि पर महीनों व्यस्त रखने का क्या यह उचित समय है? और निश्चित ही ये सब ‘भूत, वर्तमान और भविष्य’ तथा विभिन्न नस्लों के परिप्रेक्ष्य में! इसे गर्वपूर्वक ऐतिहासिक भैतिकवाद का स्वरूप दे दिया गया है। अभी, इन दिनों तो कम्युनिस्ट महिलाओं, कामगार महिलाओं के विचार सर्वहारा की क्रांति पर ही केंद्रित होना चाहिए, जो अन्य मसलों के साथ भौतिक और सेक्स संबंधों के सुधार हेतु जरूरी आधार तैयार करेगी। अभी तो हमें इन मसलों पर कि- आस्ट्रेलिया की आदिम जातियों में विवाह कैसे होते थे या प्राचीन काल में भाई-बहनों के बीच विवाह होते थे या नहीं, आदि के बजाय दूसरी समस्याओं को प्राथमिकता देना चाहिए।

जर्मनी के सर्वहारा के लिए तो इस समय- सोवियतों की समस्या, वर्सेल्स का समझौता और उसका महिलाओं के जीवन पर असर, बेरोजगारी की समस्या, वेतन में कमी आना, कर और अन्य ऐसी समस्याएं हैं, जिन पर पहले सोचना होगा। थोड़े में कहूं, तो मेरा मानना है कामगार महिलाओं को सेक्स, विवाह आदि के मसलों की राजनीतिक और सामाजिक शिक्षा देना गलत है। बिल्कुल गलत, तुम इस बारे में चुप कैसे रह सकती हो? तुम्हें इसके खिलाफ अपने प्रभाव का उपयोग करना चाहिए।’’

मैंने अपने उत्साही दोस्त को बताया कि विभिन्न जगहों पर नेतृत्वकारी महिलाओं की आलोचना करने या अपना विरोध दर्ज कराने से मैं पीछे नहीं हटी हूं। पर जैसा कि वो भी जानता है कि किसी भी मसीहा का अपने देश या घर में सम्मान नहीं होता। आलोचना करने से मैं खुद इस शक के दायरे में आ गई कि मेरे दिमाग में सामाजिक-लोकतांत्रिक रुख और पुराने दोमुंहेपन के अंश आज भी मजबूत हैं। हालांकि अंत में मेरी आलोचना कारगर साबित हुई। अब शाम की सभाओं में सेक्स और विवाह चर्चा के मुख्य विषय नहीं है।

लेनिन ने अपनी दलीलों की कड़ी को फिर पकड़ लिया।

‘हाँ, हां, मुझे पता है।’ वो बोले। ‘इस मामले में कई लोग मुझ पर दोमुहा होने का शक करते हैं, हालांकि मेरे लिए ऐसा रुख घृणास्पद है। वे बहुत संकीर्ण सोच और नकलीपन से भरपूर हैं। यूं, मैं इससे उत्तेजित नहीं होता। बुर्जुआओं द्वारा दूषित उनके अण्डों में से जो पीली चोंच वाले पक्षी ताजा-ताजा बाहर आए हैं, बहुत-ही चालाक हैं। हमें अपनी राहों पर इनके बावजूद चलना होगा। सेक्स की समस्या के प्रति ‘आधुनिक’ नजरिए और उस पर जरूरत से ज्यादा रुचि दिखाई जाने से युवा आंदोलन भी प्रभावित हो रहा है।

एक उपहास और निंदापूर्ण हाव-भाव के साथ लेनिन ने ‘आधुनिक’ शब्द पर जोर दिया।

“मुझे यह भी बताया गया है कि तुम्हारे युवा संगठनों में भी सेक्स समस्याएं रुचि का विषय है, जबकि इस विषय पर बहुत व्याख्यान नहीं हुए हैं। ये बेतुकापन युवा आंदोलन के लिए बहुत खतरनाक और नुकसानकारी है। ये सेक्स की अधिकता, सेक्सजीवन के अधिक उपयोग और युवा लोगों की शक्ति और स्वास्थ्य की नष्टता की तरफ जा सकती है। तुम्हें इससे भी जूझना होगा। युवा आंदोलन और महिला आंदोलन के बीच दूरी न हो। हर कहीं हमारी कम्युनिस्ट महिलाओं को युवाओं के साथ सलीके से सहयोग करना चाहिए। यह व्यक्तिगत तौर से हटाकर उसे सामाजिक स्तर तक बढ़ाने वाली मातृत्व की निरन्तरता होगी। महिलाओं के शुरुआती सामाजिक जीवन और गतिविधियों को और भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जिससे कि घर और परिवार पर केंद्रित उनकी संकीर्ण दोमुंहेपन और व्यक्तिवादी मानसिकता से वे बाहर निकल सकें।’’

‘हमारे देश में भी अच्छी संख्या में युवा हैं, जो सेक्स के प्रश्न पर ‘बुर्जुआ  विचारों और नैतिकताओं को संशोधित’ करने में व्यस्त हैं। मैं यह भी बताना चाहूंगा कि इसमें हमारे बेहतरीन लड़के-लड़कियों का, हमारे सचमुच संभावनाशील युवावर्ग का एक अच्छा-खासा हिस्सा शामिल है। ऐसा, जैसा कि तुमने अभी-अभी कहा। युद्ध की समाप्ति के बाद और क्रांति की शुरुआत में जो वातावरण बना है, उसमें पुराने वैचारिक मूल्य अपने आपको एक ऐसे समाज में पाते हैं, जिसका आर्थिक आधार आमूलचूल बदल रहा है। तो वे खत्म होने लगते हैं और अपने नियंत्रण की ताकत को खो देते हैं। संघर्ष में ही नए मूल्य ठोस होते जाते हैं। लोगों के बीच, महिला-पुरुषों के बीच के संबंधों के अनुसार भावनाओं और विचारों में क्रांतिकारी बदलाव आता है। व्यक्ति और समाज के अधिकारों की नई सीमाएं तय होने लगती हैं, जाहिर है कि व्यक्ति के कर्तव्यों की भी। मामला अब भी अधूरा, असमंजसपूर्ण और उत्तेजित है। विविध विरोधाभासी प्रवृत्तियों की दिशा और ताकत अभी भी साफ-साफ नहीं दिख रही है। नष्ट होकर पुनः जीवन में आने की प्रक्रिया बहुत ही धीमी और अक्सर ही तकलीफदेह होती है। ये सारी बाते सेक्स-संबंधों, विवाह और परिवार पर भी लागू होती है। बुर्जुआओ के विवाह के सड़न-गलन, और उसके विघटन, पति के लिए लायसेंस और पत्नी के लिए दासता, और उनकी गलत सेक्स नैतिकता और संबंधों ने बेहतरीन और आध्यात्मिक तौर पर सबसे ज्यादा सक्रिय लोगों को बेहद घृणा से भर दिया है।

बुर्जुआ विवाह में निहित दमन और बुर्जुआ कानून परिवार में बुराई और द्वंद को और भी बढ़ा देते हैं। ये जबरदस्ती और दमन ‘अतिपावन’ होते हैं, जो धनलोलुपता, नीचता और कीचड़ को ‘पवित्रता’ प्रदान करती है। ‘आदरणीय’ बुर्जुआ  समाज का रूढ़ीवादी दम्भ बाकी बातों की व्यवस्था करता है। चली आ रही घृणा और विकृतियों के विरुद्ध लोग विद्रोह कर देते हैं। एक समय में जब शक्तिशाली देश नष्ट किए जा रहे हों, पहले के सत्ता संबंध तोडे़ जा रहे हो, जब एक पूरा सामाजिक संसार गिरता जा रहा हो किसी भी व्यक्ति की भावनाएं तेजी से बदलने लगती हैं। आनंद के विविध रूपों को हासिल करने की इच्छा आसानी से विरोधहीन ताकत बन जाती है। सेक्स और विवाह के मामलों में बुर्जुआ भावनाओं में सुधार काम नहीं करेंगे। यौन संबंधों और विवाह आदि मसलों पर सर्वहारा की क्रांति के साथ एक और क्रांति हो रही है। परिणाम स्वरूप जो जटिल समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं, निश्चित ही महिलाएं और युवा लोग उसमें गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं। यौन-संबंधों की वर्तमान खराब स्थिति से दोनों ही तरह के लोगों पर खासा असर पड़ा है। युवा लोग पूरे जोर से विद्रोह करते हैं, यह स्वाभाविक ही है। युवाओं को मठवासियों की तरह आत्मा-तिरस्कार और मैली बुर्जुआ  नौतिकताओं के उपदेश देने से बड़ी गलती कोई दूसरी नहीं हो सकती। हालांकि यह कोई अच्छी बात नहीं है कि सेक्स, जो कि भौतिक तौर पर विकटता से महसूस किया जाता है, ऐसे समय में युवाओं की मानसिकता में गहरे पैठ गया है। इसके घातक परिणाम होंगे। साथी लीलिना से इस बाबत् पूछो, विभिन्न तरह की शिक्षण संस्थानों में बहुत काम करने के उनके पास अनेक अनुभव हैं। तुम जानती हो कि वे कम्युनिस्ट और सिर्फ कम्युनिस्ट है, उन्हें कोई पूर्वग्रह नहीं है।’’

‘सेक्स के प्रश्न पर युवाओं का बदला हुआ रुख बेशक आधारभूत और थ्योरी पर आधारित है। बहुत सारे लोग इसे ‘क्रांतिकारी’ और ‘कम्युनिस्ट’ कहते हैं। वे गंभीरता से मानते हैं कि ऐसा है भी। मैं एक बूढ़ा व्यक्ति हूं, इस बात को पसन्द नहीं करता। लोकप्रथा के अनुसार मैं एक योगी माना जा सकता हूं, लेकिन युवाओं का और बहुदा बुजुर्गों का भी, यह ‘नया सेक्स जीवन’ मुझे अक्सर पूरा बुर्जुआ महसूस होता है, और पुराने किस्म के बुर्जुआ  वेश्यालय का विस्तार ही लगता है। जैसा कि हम कम्युनिस्ट समझते हैं, इसका ‘मुक्त-प्रेम’ से कुछ लेना-देना नहीं है। बेशक तुमने उस प्रसिद्ध थ्योरी के बारे में सुन रखा होगा, जिसके अनुसार कम्युनिस्ट समाज में सेक्स की इच्छापूर्ति और प्रेम की याचना ‘एक ग्लास पानी पीने’ की तरह सरल और तुच्छ है। इस ‘पानी के ग्लास’ वाली थ्योरी पर हमारे युवाओं का एक वर्ग पागल हो चुका है, पूरा पागल। बहुत से युवा लड़के-लड़कियों के लिए यह घातक साबित हुआ है। इसके अनुयायी कहते हैं कि यह एक मार्क्सवादी थ्योरी है। मुझे इस किस्म के मार्क्सवाद की जरा-सी जरूरत नहीं है जो समाज की वैचारिक अधिरचना की हर प्रक्रिया, हर परिवर्तन में उसके आर्थिक आधार में बुरी तरह से हस्तक्षेप करे। क्योंकि मामला इतना आसान नहीं है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के मामले में फ्रेडरिक एंगेल्स इस बात को बहुत पहले ही स्थापित कर चुके हैं।

भारत विज्ञान समिति द्वारा ‘महिलाओं के मुद्दे’ शीर्षक से प्रकाशित किताब से साभार. हिंदी में अनुवाद मनोज कुलकर्णी ने किया है 

क्रमशः
तस्वीरें गूगल से साभार 

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