देहसत्ता का रहस्य (पहली क़िस्त)

प्रमीला केपी

 प्राध्यापिका, श्रीशंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय,
कालडी, केरल
प्रोफेसर . संपर्क :prameelakp2011@gmail.com

पितृसत्ता और पुंसवाद की समस्त कारगुजारियों को देखने से यह समझना आसान है कि उनमें सबसे अधिक निजी एवं रहस्यमय स्वभाव रखनेवाला संस्थागत स्वरूप यौनता का है। दूसरे विषयों के समान इसपर सार्वजनिक बयान, वार्ता, चर्चा या संवाद नहीं होता है। दूसरी छोर से देखा जाता है तो यह एक ऐसी सनातन और सार्वजनिक बात है जिसके बिना प्राणिवर्ग का सांसारिक अतिजीवन संभव नहीं है। यौनता जीविवर्ग का नैसर्गिक या जैविक गुण है। यह पुनरूद्पादन का बुनियाद भी है। जानवरों में यह सिर्फ स्वाभाविक देहमिलन है, पर विवेकी सामाजिक जीव मनुष्य केलिए यह उससे ज्यादा बहुतकुछ है। दो व्यक्तियों का समागम, दैहिक मिलन के अलावा उनके व्यक्तित्व, पारस्पर्य, सामाजिक-पारिवारिक रिश्ता, आपसी भरोसा, तदाकारिता, सदाचार अदि अनेकों वैयक्तिक व सामाजिक तत्वों की पहचान भी करा देता  है। जेन रूट के मतानुसार किसी की यौनचेष्टा में इस तरह के कई सामाजिक व सांस्कृतिक अर्थ समाहित रहते हैं।1  अति-यौनेच्छा, यौनेच्छा का अभाव, यौनापभ्रंश, यौन-उच्छृंखलता आदि सबकी कारगुजारियों को सामान्यतया यौनता की परिधि में लिया जाता है। यौनोन्मुखता या विमुखता के नाम पर समाजों में किसी व्यक्ति को हाशिए में डालने की रीतियॉ भी व्यवहृत हैं। अतः यौनता को लेकर कई बनी-बनाए नियम हर समाज में चालू हैं, जो इसको परिभाषित एवं निश्चित रखने में सहायक हैं। इनमें कोई एक सार्वजनिक या सार्वकालिक स्वरूप नहीं है। पर इनके स्वीकृत-व्यवहृत नियमों व रीतिरिवाजों में बडा परिवर्तन जल्दी आता भी नहीं है। हर समुदाय या कबील के अपने नैतिक मापदंड होते हैं, जिनके अनुसार उसके सदस्यों को अपनी यौनवृत्तियॉ संभालनी है। रूचिकर यह है कि विविध समुदायों के इस तरह स्वीकृत यौनिक-मापदंडों में कोई समानता नहीं है। माने संस्थागत रूप में यौनता संबन्धी विधानों व अनुशासनों के व्यवहारों में विविध समुदायों में एकरूपता नहीं है। सबके बावजूद लोग, विविधढंगी यौनता या एक दूसरे से भिन्न यौनरूचियॉ दिखाते भी हैं। फिर भी सामान्य रूप से यह बताना आसान है कि संसार भर में व्यवहृत पितृदायकता में यौनता, पुंसवर्ग की रूचियों व प्राथमिकताओं के अनुसार ही प्रवृत्त होता रहता है।

प्राणिवर्ग की जैविक वृत्ति या मनुष्य के संवेदी अनुभव के रूप में यौनता का इतिहास मनुष्य के इतिहास के बराबर है। लेकिन लैंगिकता या यौनिकता के शब्दों में उस अनुभव का आधुनिक प्रकाशन उन्नीसवीं शती के अंतिम दशकों से ही होने लगा था।2  यद्यपि श्रृंगारी साहित्य में यौनता प्रमुख विषय है, सबसे पुराने साहित्यकार कालिदास से लेकर इस विषयक प्रतिपादन की भाषिक कडियॉ मिलती हैं, तथापि उन सबमें पुंसदृष्टिपूर्ण यौनता प्रकाशित हुई। एक दृष्टि से भारतीय परंपरा एवं इतिहास के विविध कला-सांस्कृतिक समयों में इस विषय का आविष्कारमूलक प्रतिपादन कोई बुरी बात नहीं थी। धीरे धीरे आधुनिक पितृदायकता के अनुरूप यौनता, पुंसकेन्द्रित होती गई। फूको की मान्यता है कि विक्टोरियन समय से लेकर यौनता संबन्धी धारणाएं रूढ, गूढ एवं नियन्त्रित हो गई। 3 इस समय से लेकर यौनता को नैतिक नियमों के बल पर परिवार के भीतर सीमित रखे जाने लगा। परिवार के भीतर सीमित रखी यौनता पर पाबंतियॉ सख्त थोपी गई और उसकी परिभाषा संतानोद्पादन मात्र सूचित रखी गई।4  परिवार के भीतर और बाहर इस विषय पर चर्चा नहीं होती है। परिवार का स्वामी पुरूष है, इसलिए स्त्रियों पर थोपी गई यौन-पाबंयितॉ पुंसानुरूप निर्णीत होती गई। इसी समय में श्रृंगारी साहित्य का चेहरा बदलने लगा, लोग उसे अश्लील मानने-समझने लगे।5  राष्ट्र्रूपायन, नवजागरण तथा औपनिवेशिक शिक्षा के नैतिक मापदंडों के आधार पर स्त्रियॉ यौनता की ही नहीं, दैहिक वृत्तियों पर भी सार्वजनिक बात छोड देती हैं। यहॉ से स्त्रीदेह ढकने और यौनता  छुपाने की दिशा में सदाचार की रीतियॉ स्वीकृत हुई।

पर पिछली सदी के साठ के दशक से लेकर इस पुंसदृष्टिपूर्ण यौनरूचि की लोकतंत्रीय दृष्टि से टक्कर होने लगी और स्त्रीपक्षीय यौनदृष्टि पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक ध्यान आकर्षित हो गया। आरंभिक समय से ही स्त्रीयौनता समाज एवं संसार को अचंभित करती रही। क्यों कि तबतक उसपर कोई ऐसी अलग या विशिष्ट स्त्रीपक्षीय दृष्टि मूर्त नहीं थी। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का बोलना ही मना था। यौनता वर्जित विषय है। अर्थात् यौनता पर स्त्री का बोलना पुंसदायक समाज एवं सत्ता केलिए असमंजसदायक था।

परंपरागत समाजों में यौनाधिकार पुरूष को स्वायत्त है। स्वाभाविक रूप में उन समाजों में स्त्रियों की यौनता दबाई जाती है, दैहिक कामनाओं पर स्त्री का बोलना या उसे स्पष्ट सूचित करना अतिरेक माना जाता है। सामान्यतया इसपर घोर सामाजिक अन्याय के नाते असभ्यवर्षा होती है। छोटी बच्चियों व लडकियों द्वारा अपने यौनावयवों पर प्रकट की जानेवाली शंकाओं पर यातो उपेक्षा की जाती है नहीं तो उन्हें टालने का कोई ’सभ्य’ कारण ढूंढा और बताया जाता है। अपनी इच्छा या परिभाषा के अनुसार पुरूषसमाज उसे वाचित कर रखता है। स्त्रीयौनता को खतरनाक घोषित करने का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रयास विविध धर्म एवं इतिहासग्रंथों में दर्शनीय है। उसे पुरूषों को अशक्त और मोक्ष से वंचित रखनेवाला पाप बताया जाता था।6  स्त्री के लिंग-अवयवों तथा तत्संबन्धी देह-संवेदनाओं के प्रकटीकरण को खतरा, अशुद्ध, अश्लील और उपहास के विषय रखे गए।

चिंतनीय बात यह है कि विज्ञान एवं युक्तिपूर्ण चिंतन-मनन के आधुनिक युग में भी स्त्री यौनता संबन्धी हेय विचारों में बडा सुधार नहीं आया। इतिहास एवं धर्म के ग्रंथों व निष्कर्षों के समान आधुनिक चिकित्साशास्त्र तक की किताबों ने भी कई बातों में स्त्रीदेह की उपेक्षा की। कई समुदायों में आज भी वयसंधि, आर्तव, विवाह, प्रजनन, मातृत्व आदि संबन्धी रीतिरिवाज, युक्तिहीन, निराधार एवं स्त्रीविरोधी चलते रहते हैं। सबसे बडा उलझन यह है कि स्त्रियों के देहानुभव संबन्धी विषय-विवरण भी पुरूष करते रहे हैं और इन पुंसविवरणों में कई ऐसी धारणाएं रूढ होती गई जो स्त्रीस्नेही नहीं हैं। यहॉ तक मानसिक अनुकूलन में पडी स्त्रियों ने भी उसी का अनुकरण एवं अनुसरण किया। फलस्वरूप स्त्री-यौनता गलत बात बन गई, उसका उद्घाटन गलत काम बन गया। यौनता का अर्थ ही हवस या वासना सूचित होता गया। पुसंस्थापनाओं से नियन्त्रित परिवार के संस्थागत स्वरूप के भीतर प्रवृत्त यौनता को ही स्त्रीयौनता समझी जाती है। साहित्य व संस्कृति के रंगों में रंग मिलानेवाली कलाओं में प्रकाशित स्त्रीयौनता इस प्रकार तय होती रही है। खुद स्त्रियॉ उसे ढकती हैं, छुपाती हैं, जहॉ तक संभव है, अप्रत्यक्ष बयान करती हैं। वेन्डी फॉकनेर के मतानुसार परंपरागत समाजों में स्त्रियॉ मेधावी विचारधारा से नियन्त्रित एवं अनुकूलित होकर ही खुद की यौनता को देखती हैं। यह सिर्फ फिल्म या विज्ञापन जगत तक सीमित नहीं हैं, यह जीवन, साहित्य एवं संस्कृति के हर पक्ष में प्रचालित पुंसवादी रवैया है। साहित्यिक परंपरा हो या चिकित्साशास्त्रीय किताबें, सबमें स्त्री देह व उसकी संवेदनाओं का पुंस-विश्लेषण मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्रीसंवदेनाओं का एकोन्मुखी प्रतिपादन और मेधावी प्रतिस्थापन इनसे संभव हुआ। अर्थात् स्त्रियों की नजर में स्त्रीसंवेदना, विशेषकर यौनता का प्रतिपादन इतिहास एवं परंपरा में नगण्य रहा। पुंसदृष्टिकोण से युक्त संस्थागत यौनता के रूप में स्त्रियों के देहकार्यांर् को देखने की रीतियॉ प्रचलित हुई। नतीजतन वैज्ञानिक रूप में बेमतलब व अयुक्तिपूर्ण बताए जाने पर भी, स्त्रीयौनता सीमित है, संतुलित रही है। मसलन् पुंसयौनता अति-उत्साही है। तदनुसार परंपरा एवं सामाजिक सख्तियॉ स्त्रियों को आदेश देती हैं कि उन्हें पुंसयौनता की वन्यता के आगे सहिष्णू रहना है। अपनी आग्रहपूर्ति में उसे कभी कुछ नहीं करना चाहिए, निर्णय या चयन की बात सोचना भी नहीं चाहिए। यहॉ तक प्रजनन का भय थोपकर, सार्वजनिक जगहों पर स्वतन्त्र आवाजाही की बुनियादी स्वतन्त्रता से उन्हें वंचित रखा जाता है और नागरिका के रूप में, उसके जीवनभर को दोहरे स्थान पर धकेला जाता है।

दुर्भाग्यपूर्ण समस्या यह है कि स्त्रीदेह संबन्धी ज्ञान और परिभाषाएं, पुंसनिर्मित एवं व्याख्यायित हैं। वात्सायन का ’कामसूत्र’ इसका मूलग्रंथ है। फिर इसकी श्रेणीगत ऐतिहासिक कडियॉ अनन्तिम लिखी जा रही हैं। आधुनिक अणुकुटुम्बव्यवस्था के कायम होने पर यौनता संबन्धी नियम फिर वर्चस्वपूर्ण नैतिक सख्तियों में बिंध गए। पुरूष संसार को सही, माने खून का वारिस मिलने केलिए स्त्रीयौनता को एक पुरूष, माने पति की परिधि में कैद करना अनिवार्य था। इस पद्धति के अनुसार, स्त्री को अपने पतिमात्र से देहमिलन रखना चाहिए। यह नैतिक शर्त है। भर्ता की प्रीति व उसकी संतानों के उत्पादन से उसे खुश होना-रहना चाहिए। इस नैतिक विश्वास के अमल में आते ही स्त्रियॉ अपनी देह पर फैसला लेने की सुविधा से वंचित रह गई और वे देह से अन्य एवं अ-लग रह गई, उसकी देह किसी और के निर्णयों के अनुसार उपकृत व उपयुक्त करनेवाली चीज बन गई। विपर्यय यह है कि यह नियम कभी पुरूष पर लागू नहीं किया गया। यदि नियम में ऐसे सुस्वभाव की सम्मिलित दृष्टि है, तो भी समाजों व देशों में व्याप्त देहव्यापार इसका सही चित्र एवं चरित्र बताता है कि वह कितना खोखला और आधारहीन है। देहविपणन के जगत्विराट व्यवसाय में पुंसवादी दुनिया का ही योगदान है। देहव्यापार पूर्णतः स्त्रीविरोधी व मनुष्य विरोधी काम है और उस दृष्टि से उसे पुंसनिर्मित सामाजिक षडयन्त्र मान लेना है।

इस तरह घर के बाहर-भीतर स्त्रीयौनता संबन्धी जो ज्ञान-विज्ञान मिलते हैं, सब में स्त्री की अन्यता तय होती जा रही है। अधिकार एवं वर्चस्व के आगे अपने देहानुभवों का प्रस्तुतीकरण स्त्री केलिए असंभव-सा हो जाता है। प्रतिकार एवं प्रतिरोध के श्रम में वह कुछ लिखती है, तो भी पुंसदुनिया के भाषा-शब्द एवं शैली-संरचना उसके पक्ष में उतर नहीं आती हैं। अपनी आकांक्षाओं-उत्कंठाओं तथा आत्मनिर्णयों केलिए स्त्रीस्नेही अभिव्यक्तिजन्य स्वरूप के अभाव पाकर, वे यातो पिछड बैठती हैं, नहीं तो आधे व अधूरे प्रयोगों व शैलियों में उतारने का क्लेश उठाती हैं। पुंसभाषा प्रयोगों में वह अपने को ठीक तरह से उतार नहीं पाती है। उूपर से स्त्री के देह-खोल वर्णनों पर आज भी मनाही है। स्त्रीयौनता के प्रकाशन पर सदाचार, अश्लीलता, विपणन तथा निषेध के कोडे पडते हैं। इसलिए जब स्त्री अपनी यौनता पर समाजसिद्ध शब्दों में ही बोलती है, तो भी उसका बयान पुंसरंजक और स्त्रीविरोधी हो जाता है। अभिधात्मक बोलने के बजाय अक्सर स्त्रियॉ अपनी देह व यौनता के प्रकाशनार्थ व्यंजना या लक्षणा का उपयोग करती हैं। गद्यविधाओं में जैसे, उपन्यास व कहानियों के अभिधात्मक प्रयोगों व वर्णनों को देखा जाता है तो यह स्पष्ट होता हैं कि अपनी यौनता एवं देहावयवों पर उपलब्ध स्त्रीलेखन भी कई मायनों पर पुरूषोपयोगी व पुरूषमनोरंजनकारी है। स्त्रीदेह के स्वरूप को पुरूषमनोरंजनकारी सज्जित व उपयुक्त रखनेवाली दुनियादारी में स्त्रीपक्षीय देहविखंडन दूभर कार्य है। कहने का अर्थ यह है कि स्त्री को जब यौनता एवं देहसंवेदना पर लिखना है तब उसे पुंस-यौनाधिपत्य के साथ साहित्य व संस्कृतिक जगत में व्याप्त पुंस-प्रवृत्तियों तथा भाषाशैली के विवेचनात्मक रवैयों से भी भिडंत करना पडता है। संदेह नहीं कि विविध आयामी उलझनों व विपरीतों के बीच ही स्त्री, यौनता एवं देहावयवों की अभिव्यंजना का साहस उठाती है। चारों ओर व्याप्त स्त्रीदेह संबन्धी पुंसफान्टसियों से लडना उसे मुश्किल लगता है। अपने सच एवं संवेदना को उतारने केलिए ठान लेनेवाली लेखिका को यह सिद्ध करना होता है कि देहव्यापार एवं यौनविपणन स्त्री स्वेच्छया नहीं करती है, ऐसे यौनप्रसंग में स्त्री का अनुभव ही अलग है। दुनिया के वर्चस्व के आगे वह अपने को छुपा कर ही प्रस्तुत कर सकती थी, जिस केलिए जिम्मेवार मेधावी पुंसदुनिया है। युगयुगों से होनेवाले इस स्त्रीविरोधी-मनुष्यत्वविरोधी अन्याय से कोई सामाजिक हाथ धो नहीं सकता है। स्त्रीदेहविपणन को लेकर न्याय, नीति व नियम की आंखें पुंसपोषक हैं, जो मात्र स्त्री को पापिनी या बदचलन मानती हैं। अपने मनपसंद पुरूष के ऐन बिंब के रूप में ’कृष्ण’ को प्रतिष्ठापित करती हुई साहित्यरचना में तल्लीन स्त्रियों की बहुभाषापंक्ति यही बताती है कि पुसांधिपत्यवाले संसार में उन्हें कभी ऐसा साथी स्वयत्त नहीं होता है, जो उसे समान हैसियत देता है। इसलिए वे समान साथीपन की कल्पना कृष्ण के रूपकीय संदर्भों में वितरित करती हैं। कुंवारी हो या विधवा, पत्नी हो या प्रेमिका, स्त्रियों की भावना में कृष्ण के रसरंजक साथीपन की अमिट छाप बनी रहती है। जाहिर है इन स्त्रियों में पुरूषविरोध नहीं है। जिसने सदियों से स्त्री का शोषण किया है, कल्पना के रास्ते में ही सही, उससे प्रेमपूर्ण मिलन, साथीपन एवं और आत्मीयता बांटने की आकाक्षाएं तथा कामनाएं वह प्रस्तुत करती है। उनके मिलन के इस काल्पनिक संदर्भों पर अधिकार या यौनता की पाबंतियॉ नहीं हैं। यौनता पर व्यवहृत समस्त पाबंतियों को खोलकर, स्त्री-पुरूष समागम में समजीवियों की जैविकता  स्थापित करने की कामना कृष्णबिंब के प्रति स्त्रियों के आकर्षण के मूल में है। बताना नहीं होगा कि यथार्थ जीवन में स्त्रियों को ऐसा अवसर स्वायत्त नहीं है, इसलिए वह कल्पना में समान दुनिया का संकल्प जुटाती है, जिसमें स्त्रैण्ता के साथ यौनता का भी सही आदर संभव है,  लोकतंत्रीय स्वाधीनताबोध संभव है।

कृष्ण संबन्धी प्रेम-मिथक के उपयोग व चित्रण में स्त्री व पुरूष साहित्यकारों व कलाकारों में अंतर है। अतिभौतिक ईश्वरीय सत्ता में औरतों की रक्षा करनेवाले संरक्षक के रूप में कृष्ण का वर्णन पुंस-बयानों में मिलता है। रसरंजक एवं प्रेमी के रूप में भी कृष्ण का वर्णन है जिसमें वही लीलालोलुप है। ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है तो आधुनिक महिलालेखन के समय में कृष्ण का उपर्युक्त रूप, समस्तरीय साथी में परिणत हो जाता है। उसकी लीलाओं में परिणीता या प्रेमिका की समान साझेदारी है। आदर्श मानक मानने के बदले, यथार्थ दुनिया में जीवित पुरूष को कृष्ण स्वरूप में मानने का दिशात्मक विपरीत स्त्रीपक्षीय लेखिकाओं द्वारा संभव किया गया है। माधविक्कुट्टि या कमलादास इसका उम्दा उदाहरण है। उनकी कहानियों में स्त्री से प्रेम करनेवाला हर पुरूष उसका साथी है, कृष्ण है। उनकी पंक्तियों में उस साथी से देहमिलन का ताप तरंगायित होता है। पारिवारिक यौनता की यन्त्रणात्मक रीतियों पर विभक्ति तथा चयनित यौनता पर अभिभूतता माधविक्कुट्टि के लेखन की खासियतें हैं।

पर यह बताना होगा कि परवर्ती स्त्रीलेखन में यह प्रवृत्ति क्षीण हो गई, इसके कई कारण हैं। यौनता पर बोलना ही परंपरागत समाज में हिम्मतवालियों का कार्य रहा है। उस स्त्री पर कुलच्छनी या कुलटा का आरोप लग जाता है जो अपनी या पात्र की यौनता का बयान करती है। उसे परिवार या समाज से कटुनिंदा और देशनिकाला का सामना करना पडता है। उपर्युक्त लेखिका ने इस संबन्ध में भुगते आत्मसंकटों का खुलासा किया भी है। किंचित अतिवादी या अतियथार्थवादी बयानों व कलात्मक विवरणों को छोडें तो सामान्यतया स्त्री, जीवन तथा लेखन में पुरूष से साथीपन, स्नेह, पारस्पर्य और सहभागीपन ही चाहती है। उसकेलिए यौनपूर्ति सबके बाद में आनेवाली बात है। इस कारण से लेखिकाओं में, कई मायनों पर सामान्य औरतों में भी, साहित्य या कला के साथ जीवन के भी अधिकाधिक संदर्भों पर यौनोन्मुख वृत्तियों के प्रकाशन की तुलना में यौनविमुखता जबरदस्त बाहर आती है। जबतक वह खुली यौनता नहीं चाहती है, वह उसकी प्राथमिकताओं में आगे नहीं आती है, उसके चयन में भी ऐसी बात नहीं है, तब तक उसे यौन-सदाचार एवं परंपरागत यौन-निष्कर्षों से रचनात्मक भिडंत रचने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। लोग इसे कुलस्त्रियों का सदाचार मान बैठते हैं। मगर यह कुलवधु का आचार-आग्रह थोडा ही है। अपने को चयनित, स्वतन्त्र और स्वाश्रयी रखनेवाला स्त्रीत्व यौनता के प्रसंग में भी खुद को संभाल लेती है। उसे कोई अतिक्रमण या आक्रमण की जरूरत नहीं है। दुनियादारी जब उसे चयन व निर्णय से वंचित रखती है तब वह दुनियादारी से प्रतिशोध लेने का साहस जुटाती है और वह साहस कभी कभी खुद को दॉव पर लगाने तक जाता भी है। अतः घरेलू जगह पर हो या प्रेम में, यौनता पर स्त्रियों की चुप्पी का यह अर्थ नहीं है कि वे पुंससंस्था के नियमों के अधीन रहती हैं, न वे तथाकथित त्यागमहिमा को दायर करती हैं। कोई स्त्री देह के साथ अपने को नष्ट करने के आत्मपतन का रास्ता कभी नहीं चुनती है। चारों ंओर व्याप्त खतरों में उसका हर निर्णय सतर्कता पर आधृत है। देह की पण्यता, जश्न और अतिक्रमणों की खबरें व्यापारीयुग के मनुष्यविरोधी एवं अतिवादी कारामतों का परिचय देती हैं, जो पुंस दुनिया में पलनेवालों के रतिभ्रंश का नतीजा हैं।

परंपरावादी समाज में स्त्रियों के दैहिक व यौनिक कार्यों का सदैव अतिप्रतिपादन होता रहता है, क्योंकि उसमें यौनता बिकने का विषय है। अप्रत्यक्ष सूचनाएं देकर लोगों को आकर्षित किया जाता है, जो सर्वथा बाजार में स्वीकृत पद्धति है। खुले में वहॉ पर यौनावयवों व कार्यकलापों का प्रत्यक्षीकरण असभ्य या अश्लील है, अपराध है। इसलिए लेखन में हो या कला में नग्नता संबन्धी सभी प्रकरणों पर विवाद उठ खडा होता है। पाठ से अतिपाठ निर्माण का यह कौशल, कला एवं साहित्य का गुण है। यौनता के विषय में इसका पूरा लाभ पुंसदुनिया को मिलता है। स्त्रियों के लेखन या कलात्मक आविष्कारों को देखें, फिल्म तथा फैशन की चकाचौंध भरी दुनिया में कार्यरत अभिनेत्रियॉ बाजार के दबाव में देहोद्घाटन करती हैं। इनमें कई की जीवनियॉ यही बताती हैं कि कलात्मक जीवन के अतिप्रभावी अनुभवों के बावजूद आत्मनिंदा के मारे वे आत्माहुति कर लेती हैं। कला-साहित्य के अतिवादी कार्य के सिलसिले में वे दैहिक-जश्न प्रस्तुत करती हैं, पर अंतर ही अंतर अकेलापन व असुरक्षा के अहसासों में तिल तिल टूटती हैं। पुंसव्यवस्था के चेहरे पर थूकती हुई वे देहत्याग भी कर देती हैं।
यौनता की पारिवारिक परिधि टूटने का भय समाज के साथ हर पारिवर को भी है। इसलिए परिवार के लोग कलंकबोध के मारे होकर यौनता को, विशेषकर स्त्रीयौनता को नियन्त्रित रखते हैं। अपनी देह पर लगनेवाला कलंक परिवार एवं समाज में व्याप्त होता हुआ पाकर लडकी देहविरोधिन बन जाती है और विविध संदर्भों पर देहत्याग केलिए तैयार होती है। विविध ऐतिहासिक प्रसंगों पर कलात्मक दुनिया में आत्मनिंदा में डूबकर प्राणत्याग करनेवाली महिलाएं हैं। बलात्कार का पाप मिटाने केलिए ब्याह रचने की वार्ताएं सामाजिक नैतिकता को ही नहीं, न्यायव्यवस्था पर भी प्रश्नचिह्न लगाती हैं। परिघटनाओं की जांच कर लेती है तो समस्या यह नजर आती है कि हर संदर्भ की कार्रवाईयों में स्त्रीत्व को ही समझौता करना पडता है। स्त्री की समस्त संवेदनाएं वहॉ पर दॉव पर लग जाती हैं। अस्तित्व, भूख व प्राणरक्षा की खातिर उसे यौनता सहित सभी संवेदनाओं को पीछे छोडना पडता है। फिल्मी दुनिया से इसके ऐतिहासिक उदाहरणों को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं।

देह पर अत्याचार या उत्पीडन सहनेवाली लडकी पूरे जीवन में पापबोध से ग्रस्त रहती है। साहित्य एवं कला में इसका प्रतिपादन कई दफा एकरसतापूर्ण मौजूद है। इसलिए आजकल साहित्य में प्रतिपादित यौनता की आलोचना की जाती है। पर दूसरी छोर से देखा जाता है तो देह पर अत्याचार की खबरें सामाजिक जगह पर स्त्रीत्व की अन्यता को स्थापित रखती हैं। यहॉ पर स्त्रीलेखन का ऐतिहासिक कार्य दर्ज है। अमृता प्रीतम, माधविक्कुट्टि, इस्मत चुगताई, कृष्णा सोबती जैसों का इस विषयक लेखन सीमित एवं निर्मित पापबोध से औरतों को मुक्त करने में सहायक है। इनका लेखन स्त्रीयौनता के वैविध्यों व वैषम्यों को उजागर करने का प्रयास करता है, जिससे यौनता का पितृदायक व संस्थागत स्वरूप खंडित होता है।

देह स्त्री का अभिमान और अत्मसम्मान का कारक भी है। देहबिना न आत्मा होती है, न स्वत्व। न हैसियत होती है, न गरिमा। पर उसका बाहरी स्वरूप, रंग-ढंग या चमकदमक, आकारसौष्ठव आदि पर रूपायित-व्यवहृत पुंसमानकों के आधार पर स्त्रीदेह की व्याख्या और सौन्दर्य प्रतिपादन किया जाता है तो फिर एक बार वह पुंसनिर्णीत बन जाती है। उपर्युक्त महिला कहानीकारों के लेखन में देहानुभवों के वर्णन द्वारा स्त्रीदेहस्थापना संपन्न होती है। देहानुभव को ये स्त्रीदृष्टि में व्याख्यायित करती हैं। देह को मानना और देहानुभवों की उपस्थिति दर्ज करना परंपरागत समाज में आत्मविमोचन का शक्तिशाली कार्य है, मुक्तिचेतना का प्रकटीकरण उससे संभव होता है। अर्थात् स्त्री देह को भोगवस्तु, पण्यवस्तु तथा मनोरंजनवस्तु बनानेवाले समाज में कोई स्त्री जब अपनी देह से प्यार और प्रेम जाहिर करती है तब वह स्त्रीपक्षीय देहराजनीति का कार्य बन जाता है। यह स्त्रीपक्षीय लेखिका का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कर्तव्य भी है। आत्मप्रेम के विवरणों से स्त्रीजाति की अन्यता को दूर करने का जिद् मर्दवादी समाज के विरोध में जानेवाला का स्त्रीवादी रवैया है। सजग स्त्री का आविष्कार स्त्रीविरोधी राजनीति को खंडित करके जीवित स्त्री के शरीर संबन्धी नवार्थों को समाज के सामने रख देता है।
सन्दर्भ:
1.  Root,
Jane.1984, Pictures of Women, London:
Pandora Press,p.10
2.  Heath, Stephen.1982,The Sexual Fix, London:Macmillian, p11
3. Foucault, Michel.1948, The History of Sexuality vol I,Harmondsworth:Penguin,p.3
4. Gupta, Charu.2012, Sexuality, Obscenity, Community Women, Muslims, and the Hindu Public in Colonial India,    Delhi: Permanent Black, p.8
5. Banerjee, Sumanta.1987, ‘Bogey and Bawdy.Changing concept of Obscenity, in 19th century Bengali Literature’ in E&P Weekly, 22-29 July.p.1197-1206

6. Kitzinger, Sheila.1983, Woman’s Experience of Sex, Newyork: G P Putnam’s sons,p.17

तस्वीरें गूगल से साभार 
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