प्रधानमंत्री का मां बनना: मातृत्व और राजनीति में महिलाओं की चुनौतियाँ

जया निगम 

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा का उनके कार्यकाल के दौरान मां बनना आजकल सुर्खियों में है. बीबीसी हिंदी की स्टोरी के मुताबिक वह प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान मां बनने वाली दूसरी महिला हैं. यह खबर वाकई एक सुखद आश्चर्य पैदा करती है. किसी महिला का मां बनना समाज में एक सुखद खबर माना जाता है लेकिन बहुतों के लिये इसका खबर बनना एक आश्चर्य है. महिला के लिये मां बनना प्राकृतिक और सहज कर्म है फिर अगर वह प्रधानमंत्री है तो उसका मां बनना एक खबर क्यों है?

जैसिंडा अपने नवजात और पति के साथ एवं उनका ट्वीट

सच तो ये है कि कामकाजी महिलाओं के लिये मातृत्व एक बड़ी चुनौती है. पुरुषसत्ता खासकर किसी कैपिटलिस्ट व्यवस्था में स्त्री का मां बनना हमेशा उसकी काम से बेदखली का वैध कारण माना जाता रहा है क्योंकि व्यवस्था इस दौरान उसके शरीर और श्रम को ‘अनुत्पादक’ मानती है. यही वजह है कि भले ही सरकारी नौकरियों में कामकाजी महिलाओं के लिये वेतन सहित मातृत्व अवकाश मिलता हो लेकिन ज्यादातर प्राइवेट कंपनियां अब भी स्त्रियों को यह मिनिमम सुविधा देने में अब भी परहेज़ करती हैं.

निजी क्षेत्र, कैपिटलिस्ट व्यवस्था को समझने का सच्चा पैमाना है. ग्लोबल दुनिया में कामकाजी महिलाओं की निजी क्षेत्र में स्थिति किसी समाज में उनकी वास्तविक हैसियत तय करने का काम कर रही है. इसके बरक्स किसी धार्मिक समाज में मातृत्व महिलाओं के लिये ज्यादा सहज है. जबकि कैपिटलिस्ट यानी लोकतांत्रिक समाजों में महिलाओं के लिये ये ज्यादा बड़ी चुनौती है क्योंकि वहां मातृत्व का महिमामंडन न करने की परंपरा होती है उसे स्त्री के सहज कर्म की तरह देखा जाता है. इसके बावजूद महिलाओं के लिये यह चुनौती ज्यादा मुश्किल इसलिये हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी नियम-कानूनों से चलती है जहां ज्यादा काम के घंटे ही, व्यवस्था के लिये उपयोगी होने का सबसे ऊंचा पैमाना माना जाता है. कैपिटलिस्ट देशों में राजनेताओं के काम को भी अमूमन इसी वर्क कल्चर से आंका जाता है. मीडिया इसे ‘पॉपुलर कल्चर’ बनाने में सक्रिय भूमिका निभाता है.

राजनीति महिलाओं के लिये पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सबसे टेढ़ी खीर है. किसी देश की राजनीति यानी वहां के नीति नियंताओं की फेरहिस्त में शुमार होना बड़ी व्यक्तिगत उपलब्धि होती है. बतौर महिला राजनेता, यह संघर्ष पुरुष राजनेताओं से हर मामले में बिल्कुल अलग होता है. जैसे बतौर पुरुष राजनेता किसी का उसके कार्यकाल के दौरान पिता बनना उसे उसके सार्वजनिक जीवन से अलग-थलग नहीं करता है. लेकिन महिला का मां बनना उसके सार्ऴजनिक जीवन से बिल्कुल कटाव का समय माना जाता है जबकि आज के तकनीकी युग में यह कटाव बिल्कुल भी संभव नहीं है.

कनाडा की सांसद संसद में स्तनपान कराती हुई

ऐसे में यदि ईरान की संसद में महिला प्रतिनिधियों का चुना जाना एक उपलब्धि है तो विकसित देश यानी कनाडा की संसदीय गतिविधियों के दौरान महिला सांसद का अपने बच्चे को स्तनपान कराना भी एक खबर है और न्यूजीलैंड की महिला प्रधानमंत्री का कार्यकाल के दौरान मां बनना भी सकारात्मक खबर है हालांकि इन व्यक्तिगत उपलब्धियों का महत्व नगण्य हो जाता है यदि नीतियों के स्तर पर कोई महिला राजनेता या प्रतिनिधि आधी आबादी के लिये पुरुषसत्ता के कायदों में बड़ा बदलाव लाने और आम महिलाओं की दिक्कतों को नीतिगत स्तर पर सुलझाने की कोशिश नहीं करती. विकसित देशों में इन दिनों महिला अधिकारों के लिये आंदोलनों की मुहिम चल रही है, बराबर वेतन, यौन उत्पीड़न के खिलाफ खुली अभिव्यक्ति, पीरियड्स के दौरान एक दिन के अवकाश की सुविधा इस तरह के बहुत से आंदोलन अक्सर सोशल मीडिया के जरिये विकासशील देशों की महिलाओं में विचार के स्तर पर लोकप्रियता पाते हैं. हालांकि जैसे ही विकासशील देशों की महिलायें अपने देश की परिस्थितियों और संस्कृति से इसे जोड़ कर देखने और लोकप्रिय बनाने की कोशिश करती हैं वहां के बुद्धिजीवी पर हावी पितृसत्ता  बहुधा ऐसे विचारों को मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा महिलाओं या उच्चवर्गीय विकसित देशों की महिलाओं की मुहिम आदि लेबल देकर खारिज कर देते हैं. जैसा कि स्लट वॉक से लेकर #MeToo  कैंपेन तक में भारत में देखा जा रहा है. हालांकि ऐसे विचार जो शुरुआत में बहुत छोटे और नगण्य दिखते हैं वो थोड़े-थोड़े समय बाद पुनर्जीवित होते रहते हैं और कई बार किसी देश में सालों बाद किसी आंदोलन के रूप में सामने आते हैं. बांग्लादेश में ‘मुक्ति युद्ध’ के दौरान होने वाले बलात्कारों में सालों बाद मिली सजायें इसी प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं.

भारत, पाकिस्तान और तीसरी दुनिया के तमाम देशों में मौजूद महिला शासकों की व्यक्तिगत उपलब्धियों को इस नज़रिये से देखे जाने की जरूरत है कि क्या व्यापक स्तर पर उनकी राजनीति देश की आधी आबादी की जरूरतों और महत्वकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है या महज़ किसी राजनेता का महिला होना ही तीसरी दुनिया की देशों की आधी आबादी के प्रतिनिधित्व के लिये सर्वोच्च पैमाना मान लिया गया है ठीक उसी तरह जैसे ज्यादा काम के घंटे किसी इंसान की उत्पादकता का प्रतीक माना जाता है भले ही उसके परिणाम समाज के लिये विध्वंसक ही क्यों ना साबित हो रहे हों.

जया निगम सामाजिक कार्यकर्ता हैं. संपर्क:jasminenigam@gmail.com

तस्वीरें गूगल से साभार 

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