पवन करण की कवितायें (तुम जैसी चाहते हो वैसी नही हूं मैं और अन्य)

पवन करण


पवन करण हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि हैं, स्त्री मेरे भीतर, स्त्री शतक आदि काव्य संग्रह प्रकाशित. सम्पर्क: pawankaran64@rediffmail.com

पढ़ें पवन करण की कवितायें. पुरुष रचनाकारों की बहुत कम कवितायें हैं, जहाँ स्त्री को सुकून हो, जहाँ स्त्री को अपना स्पर्श, अपना राग महसूस हो. पवन करण की कवितायें ऐसी हैं, जहाँ स्त्री सुख से नींद लेती है, स्नेहिल माहौल में.  

1. 
तुम जैसी चाहते हो वैसी नही हूं मैं

मुझे इस बात का कोई पश्चताप नहीं है
न ही कोई अपराध बोध मेरे भीतर
हमेशा के लिए उसकी होते समय आज
जैसी वह मुझे चाहता है, वैसी नही हूँ मैं

हमेशा के लिए उसकी होने से पहले
सदा के लिए किसी और की भी थी मैं
हम दोनो की आज पहली मुलाकत जरूर है
लेकिन ऐसी मुलाकात मेरे लिए कोई पहली नही
शायद उसके लिए भी न हो

उसके दोनों हाथों में मिट्टी के घड़े जैसी
कोरी नहीं हूँ मैं, ना ही एकदम अनछुई
मुझे इससे पहले पुरूष के हाथों ने छुआ है
और ठीक-ठीक छुआ है एक रसीले पुरूष ने
बड़ी खामोशी के साथ मेरे अन्तःपुर में
कुछ बार किया है बडे गौरव से प्रवेश

दरअसल कुंआरेपन को मैंने अपने
उस पूंजी की तरह माना ही नहीं
जिसे मुझे हर हाल में रखना था सॅंभालकर
और सौंपना था सिर्फ अपने पति को ही
मैंने उसे बंधन की तरह नही अपने हक की तरह लिया
मैं तो समझ ही नहीं पाई और इसकी बरसात
एक दिन अचानक पड़कर भीतर तक भिगो गई मुझे

मैं उन लडकियों में रही हूं जो अक्सर इसी तरह
इसमें भीगकर जिन्दगी भर गीली बनी रहती है
और कभी इस बारिष में भींगे अपने बदन को
पोंछने की नही करती कोशिश
इससे पहले इस बारे में मैं जब भी सोचती
मुझे सभी पुरूष एक से लगते
सभी का स्वर एक सा देता सुनाई

कि हमें उनसे पहले किसी पुरूष के हाथों ने तो क्या
खुद हमारे हाथों ने भी न छुआ हो
लगता है ये पुरूष भी कितनी भोली उम्मीद रखते है हमसे
हमें पाकर मंत्रमुग्ध हो जाने और सुध-बुध
खो बैठने की जगह पहली मुलाकात में ही ऐसी
खटास को देना चाहते है जन्म
जो जीवन-भर दोनो के बीच बसी रहे उस स्वाद में

हमेशा के लिए आज होते समय उसकी
एक बात जो मेरे हक में जाती है
वो ये कि ऐसे कोई संकेत छूटते ही नही
अगर ऐसे कोई चिन्ह मन के अलावा कहीं और बचते
तब पता नही मुझ जैसी ऐसी कितनी लडकियॉं होती
जो अपनी देह पर घूमता हुआ पति का हाथ रोककर कहतीं
नही जैसी तुम चाहते हो वैसी नही हूं मैं’

2.
एक खूबसूरत बेटी का पिता 

एक खूबसूरत बेटी का पिता हूं मैं
हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं है
इस दुनिया में तमाम पिता हैं जिनकी बेटियां खूबसूरत हैं
फिर बेटी कैसी भी हो वह अपने पिता को
खूबसूरत ही आती है नजर

दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह
मेरा भय भी यही है कि मैं एक खूबसूरत बेटी का पिता हूं
और मेरी बेटी की खूबसूरती चुभती हुई है

क्योंकि मैं उसका पिता हूं इसलिये तमाम बातें ऐसी हैं
जो मैं नहीं कर सकता उससे
लेकिन वे बातें मेरी सोच में रेंगती रहती हैं अक्सर
किसी लड़की को रिझाने उसके घर के चक्कर काटते
किसी लड़के की तरह मेरे भीतर घूमती रहती हैं निरंतर

जिंदगी के सबसे विस्फोटक पंद्रहवे साल में चलती
मैं अपनी बेटी को समझाना चाहता हूं कि उसने खुद को
परेशानी में डाल लेने वाली खूबसूरती पाई है
इसका अर्थ यह नहीं कि जो लड़कियां कम सुंदर होती हैं
उन्हें समझाइश की जरूरत नहीं होती
दरअसल उन लड़कियों पर वैसा दबाव नहीं होता,
जैसा होता है मेरी बेटी जैसी खूबसूरत लड़कियों पर
इसलिये जितना रख सके वह रखे अपने आपको संभालकर
बहुत कच्ची उम्र है यह और यही उम्र है जब
देह पर कच्चापन उसी तरह दमकता है
जैसे पेड़ पर लटकी अमियों पर गाढ़ा हरापन

हालांकि यह बहुत कठिन है फिर भी
ऐसा नहीं कि इससे बचा नहीं जा सके
मैं उससे कहना चाहता हूं वह जितनी हो सके
कोशिश करे उन नजरों से खुद को बचाने की
जो इसी उम्र को अपने तीखेपन से बेधती हैं
और नहीं छोड़तीं कहीं भी पीछा

एक बात यह भी कि दुनिया-भर की खूबसूरत बेटियों के
पिताओं से थोड़ा हटकर पिता मानता हूं मैं खुद को
मैं जानता हूं कि वह लड़की है तो किसी से
प्यार भी करेगी, चाहेगी भी किसी को कोई पसंद भी आयेगा उसे
और मैं भी नहीं चाहता मेरी बेटी किसी से प्रेम नहीं करे,

फिर दुनिया का कोई भी पिता अपनी बेटी को
प्रेम करने से रोक भी नहीं सकता
उसके भीतर पल रहे उस अहसास को
किसी भी तरह नहीं सकता खदेड़
और तमाम प्रयासों के बाद भी अपने
उसके भीतर की गुलाबी दीवार पर चिपके
किसी चित्र को नहीं फैक सकता फाड़कर
और नहीं रोक सकता उसे किसी भी उम्र में करने से प्रेम
प्रेम के लिए क्या पंद्रह और क्या पच्चीस

दरअसल मैं अपनी बेटी से कहना चाहता हूं
वह प्रेम करे तो थोड़ा रूककर
प्रेम करने की सही उम्र नहीं यह,
हालांकि यह भी सच है कि एक यही उम्र है
जिसमें सबसे तेज होती है प्रेम की गति
इसी उम्र में कुए की देह से निकलकर जल
मेड़ के चारों तरफ बगरता है
और मन की कोमल चिड़िया अपनी चोंच में
आकाश से सबसे बड़ा तारा उठा लाती है

दरअसल मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी
कांपते और डरते हुए नहीं, इस डगर पर
संभलकर चलते हुए करे प्रेम,
अपने भीतर अद्भुत स्वाद लिए बैठे प्रेम के इस फल को
वह हड़बड़ी में नहीं धैर्य से नमक के साथ चले
इसकी खुशबू को वह इस तरह अपने भीतर रोपे
कि वह जिंदगी-भर फूटती रहे उसके भीतर

हालांकि प्रेम के बारे में इतना सोचना
इतना गणित प्रेम न करने जैसा ही है
और सभी जानते हैं कि प्रेम का हरा रंग
जब आंखों में बिखरता है आकर
मन बौरा जाता है
एक पागलपन हो जाता है इस पर सवार
और मैं चाहता हूं कि वह इस पागलपन को
अपने पर पूरी तरह से न होने दे हावी,
लेकिन प्रेम के लिए जरूरी इस पागलपन को
वह नकारे भी नहीं पूरी तरह से

प्रेम की तीव्रता एकांत चाहती है और वह
प्रेमाभिव्यक्ति से देहाभिव्यक्ति की ओर बढ़ती है
और प्रेम में यह बढ़ना हो ही जाता है
मैं नहीं कहता कि देह अपवित्र चीज है
लेकिन वह पवित्र भी नहीं उतनी
कि हर समय उसकी चिंता में घुलते रहा जाये
लेकिन मैं कहता हूं कि प्रेम अमूल्य है
उसका अहसास अवर्णनीय
बहुत गहरा संबंध है प्रेम का देह से
दरअसल प्रेम का बचना ही देह का बचना भी है
प्रेम बचा रहता है तो देह भी बची रहती है अपने विश्वास में

सिर्फ भय ही नहीं एक खूबसूरत बेटी का पिता होने का
जो उल्लास होना चाहिये मेरे भीतर
वह मेरे भीतर है और दो गुना है
फिर भी मेरी चिंता में मेरी बेटी की खूबसूरती
शामिल है और शा मिल है यह दृढ़ता
यदि इस सबके बावजूद भी उससे कोई गलती होती है
तो हो जाये उसके पीछे उसे उबारने के लिये मैं खड़ा हूं तत्पर



3. 
स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह

जितनी खामोश वह उतना ही शान्त एक चेहरा
लेता जा रहा उसके भीतर आकार

सहेलियों से घिरी वह सोचती जब मैंने बचा ही लिया
किसी के जादुई स्पर्श से खुद को
तब मैं आराम से तैरूंगी किसी की मीठी झील में,
वह सोचती कैसे बच गई मैं बिना संग के
जबकि मेरी साथिनों से बांट लिए क्षण -विरल

वह सोचती कितना गजब यह किन्हीं हाथों ने
छुआ तक नहीं उसे, भला कोई मानेगा
मगर यह सच जानती वह ही, सुनकर
मन ही मन उसे झूठा कहती सहेलियां
दवा लेंती दांतों तले उंगलियां
जब वह बतलाती कि उसे दिखाकर फेंका गया
पत्थर से लिपटा ऐसा कोई खत नहीं
छोटे-से उसके जीवन में जिसे उठाने
अकेली गई हो वह घर की छत पर

ऐसा नहीं कि वह भीतर से सूखी थी
या अब तक झरना नहीं फूटा था उसके भीतर
या पानी ने षुरू नहीं किया था उसे परेशान करना
या उसे स्वप्न नहीं आते थे, या पसन्द नहीं थे उसे गीत
वह भी सबकी तरह अकेले मे खुद को
देर तक निहारती थी और लजाते हुए
खुद को हाथों से ढांप लेती थी

जब कोई उसे भी कुहनियां जाता वह भी
गुस्से या हंसी को अपने भीतर दबा जाती
सबकी तरह देह को नजरों से बचा पाना
उसके लिये भी असंभव था सो वह लगातार
अपनी नजरों को बचाती, और जब तक उसकी
चालाकी समझ पाता वह फिसल जाती अपने पानी में

हालाकि खुद को प्रेम से बचाने की कोई
निश्चित योजना नहीं थी उसकी लेकिन वह बची हुई थी
सो बची हुई थी और अपने नशे में चुप थी
सब सोचते बड़ी हो रही है कोई तो होगा ?
सबके साथ वह भी सोचती कहीं कोई तो होगा
और जो होगा उसका चेहरा भी होगा एक
अभी तो वह उसके भीतर बे-चेहरा था,

वह कम बोलती लेकिन उससे करने के लिए
वह लगातार अपने भीतर ढेर सारी बातें
करती जा रही थी जमा, उसे अपने रंग में रंगने के लिए
रंगों में रंग मिला-मिलाकर बनाती जा रही थी
नए-नए रंग, उस पर झुक जाने के लिए पेड़ों पर
पत्तियों की शक्ल में उगाती जा रही थी स्वप्न

मगर बाहर खुद को महफूज मानती वह
नहीं रख सकी खुद को घर में महफूज
जिनके बारे में वह कभी सोच भी नहीं सकती थी
ऐसे दो हाथ अचानक आए
और आकर छेड़ गए उसके तारों को
किसी के लिए प्रतीक्षारत उसके भीतर की
साफ सुथरी दुनिया को कर गए अस्त-व्यस्त
अनचाहे ही उसके भीतर आकार ले रहे
एक चेहराविहीन चेहरे पर आकर चिपक गया एक चेहरा

वह स्पर्श जो किसी और को सौंपना चाहती थी वह
उस पर फेर गया अपनी खुरदुरी उंगलियां

4. 
इस जबरन लिख दिये गए को ही 

घर चाहता है इस बारे में किसी से
कुछ नहीं कहा जाये
जहां तक सम्भव हो अपने आपसे से भी
नहीं किया जाये इसका जिक्र

इस सम्बन्ध में कुछ कहने से
कुछ नहीं होने वाला इससे तो बेहतर है
स्लेट पर इस जबरन लिख दिए गए को ही
मिटाने की की जाये कोशिश

इससे अच्छा और क्या होगा
इसने इस बारे में अब तक किसी को
कुछ नहीं बताया चुपचाप चली आई
किसी ने देखा भी नहीं कुछ होते

किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा
तब काहे का बलात्कार ?
कैसा बलात्कार ??
कब किसके साथ बलात्कार ???
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा
देह से मिट जाएंगे खरोचों के निशान
आंखों से लगातार ओझल
होता चला जाएगा वह कामान्ध चेहरा

घर चाहता है वह अपना घाव
किसी को नहीं दिखाए
पोंछ ले अपनी आंखें अच्छी तरह धोले योनि
कुछ दिन नहीं निकले घर से
रही बलात्कारी की बात
उसे दंड देने के लिए ईश्वर है न

5. 
स्त्री-सुबोधिनी

हमें अपने इकलौते लड़के के लिए एक ऐसी बहू चाहिये
जो दुनिया की सबसे अच्छी बहू हो और उसे ये बात
कि वह दुनिया की सबसे अच्छी बहू है पता न हो

जिसे बोलना भले ही आता हो मगर हो वह गूंगी
न इस शब्द को वह पहचानती ही न हो
और हां उसकी जुबान पर दरवाजे के बाहर
हाथ बांधे खड़े नौकर की तरह रहता हो खड़ा

जिसके दोनों पैर तो साबुत हों मगर हो वह लंगड़ी
न वह चलना जानती हो न दौड़ना
नाचना तो उसे बिल्कुल न आता हो
और गुस्से में पैर पटकते तो उसने किसी को देखा ही न हो

जिसके कान भले ही हो मगर उसे सिर्फ
हमारे घर के लोगों की आवाज के
बाहर की कोई आवाज सुनाई न दे
आंखें होने पर उनसे दूर तक देखने लायक होने के बाद भी
उसकी घर से बाहर देखने की इच्छा ही न हो

जिसके पास डिग्रियां तो खूब हों
लेकिन वह पढ़ी-लिखी न हो जरा भी
दस्तखत करने के नाम पर वह आगे कर देती हो
अपने हाथ का स्याही लगा अंगूठा
और अपनी डिग्रियों को महज कागज के टुकड़े मानकर
छोड़ आए पिता के घर अपने

ऐसी कि सब उसे देखते रह जाएं और हमसे बार-बार कहें
टपने लड़के लिए क्या बहू ढूंढकर लाए हैं आप
लेकिन वह न तो अपनी खूबसूरती बार-बार
आईने में देखती हो और नहीं खुद को हमारे घर की
साधारण से चेहरेवाली लड़कियों से अधिक सुन्दर मानकर चले

जिसके पिता के घर के लोग
हमारे घर को समय से बढ़कर
और सच से अधिक मानकर चलें
और यह बात बार-बार कहतें रहें
आपके घर में अपनी लड़की देकर धन्य हो गए हम
हम तो इस लायक थे भी नहीं

जिसे रोना बिल्कुल न आता हो
चीखना तो वह जानती ही न हो
और उसकी पीठ ऐसी हो कि उस पर उभरते ही न हों नीले निशान
उसके गालों पर छपती हीं न हों उंगलियां
और वह पिटते समय बिलखती नहीं, हंसती हो

चेहरे से जिसके पीड़ा झलके नहीं
दुख दिखाई न दे जिसकी आखों में
बातों में जिसकी कष्ट बजें नहीं

जिसे हमें ढूंढने कहीं जाना नहीं पड़ें उसका पिता
नाक रगड़ता निहोरे करता हमारे घर आए
और हम उस पर करते हुए एहसान
बहू के रूप में उसकी बेटी को अपने बेटे के लिए रख लें

तस्वीरें: शीरीन निशात (2 और 3) और लीडा वेलेस्को के आर्ट वर्क (1)

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