महाराष्ट्र में बौद्ध विवाह क़ानून: नवबौद्ध कर रहे स्वागत और विरोध

संजीव चंदन


महाराष्ट्र की भाजपा सरकार द्वारा हिन्दू विवाह क़ानून से अलग बौद्ध विवाह कानून बनाने की पहल 2015 से ही शुरू हो गयी थी, जिसका ड्राफ्ट सरकार ने बुद्धिस्ट मैरेज एक्ट, 2017 के नाम से जारी किया है और लोगों के सुझाव मांगे हैं. इसके साथ ही महाराष्ट्र में इसके समर्थन के साथ-साथ विरोधी स्वर भी आने लगे हैं. बौद्ध महिलाओं ने भी इसका विरोध शुरू कर दिया है. देश भर में 80 लाख के करीब बौद्ध हैं, जो पूरी आबादी के 0.8% होते हैं. 2001 की जनगणना के अनुसार 73% बौद्ध महाराष्ट्र में रहते हैं, जिन्हें नवबौद्ध भी कहा जाता है. यह क़ानून मराठी बौद्धों पर लागू हो जायेगा. 

बौद्ध विवाह कानून के विरोध में आगे आयी  बौद्ध महिलायें


कानून बनाने की जरूरत और तर्क 
बौद्ध विवाह क़ानून के लिए मांग पिछले एक दशक से तीव्र हुआ है. हालांकि आरपीआई के पूर्व सांसद प्रोफेसर जोगेंद्र कवाडे, कांग्रेस के पूर्व विधायक नितिन राउत आदि के अनुसार इस क़ानून की मांग  1957 से ही होने लगी थी, जब बाबा साहेब ने 1956 में लाखों दलित अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. नितिन राउत ने 2007 में ही इस मांग के साथ न सिर्फ भूख हड़ताल की थी बल्कि विधानसभा में बौद्ध विवाह और उतराधिकार क़ानून, 2007 नामक प्राइवेट मेम्बर बिल भी लाया था. कानून बनाने की मांग करने वाले लोगों का मानना रहा है कि चूकी हिन्दू मैरेज एक्ट में सप्तपदी विधि अनिवार्य है और उसके बिना विवाह अमान्य माना जाता है और बौद्ध रीति से विवाह को मान्यता नहीं मिलती इसलिए अलग विवाह क़ानून की जरूरत है. इस तर्क के साथ कानून का मुहीम चलाने वाले लोग विभिन्न न्यायालयों के निर्णयों का हवाला देते हैं. 1973 के शकुन्तला-निकनाथ मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला शकुन्तला के खिलाफ गया था और कोर्ट ने उनके विवाह को वैध न मानते हुए उसे मेंटेनेंस देने से मना कर दिया था. कोर्ट का मानना था  कि विवाह के वक्त वे कानूनी रूप से कन्वर्ट नहीं हुए थे इसलिए वे हिन्दू थे और उन्होंने हिन्दू रीति से शादी नहीं की थी. कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी ऑब्जर्व किया था कि ‘पिछले 10-15 सालों से ऐसे विवाह हो रहे हैं, यानी बौद्ध रीति से, यह काफी नहीं है किसी कस्टम को स्थापित करने के लिए.

बुद्धिस्ट मैरेज एक्ट, 2017 का ड्राफ्ट 
2015 में प्रदेश की नई सरकार ने एक 13 सदस्यीय समिति बनायी थी बौद्ध विवाह और उत्तराधिकार मामले पर राय के लिए. समिति में राज्य के सामाजिक न्याय मंत्री राजकुमार बडोले सहित कुछ अधिकारी, एक रिटायर्ड जज, कुछ क़ानूनविद और बौद्ध समाज के कुछ प्रतिनिधि शामिल थे. सरकार जून के पहले सप्ताह में जिस ड्राफ्ट के साथ सामने आयी है वह बौद्ध रीति से विवाह की मान्यता के लिए कानून जरूर है लेकिन तलाक, मैटेनेंस, उतराधिकार आदि की मामले उसमें शामिल नहीं हैं. यह क़ानून लागू होने पर महाराष्ट्र में रह रहे बौद्ध एवं 1956 में बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ या आबाद में बने बौद्धों पर लागू होगा. इस कानून में दहेज के खिलाफ भी प्रावधान हैं. वर या वधु तलाक होने या किसी एक की मौत होने पर ही दूसरा विवाह कर सकते हैं. यह क़ानून उस दिशा में लागू नहीं होगा, यदि दोनों में से कोई एक बौद्ध धर्म से कन्वर्ट होकर किसी और धर्म में शामिल हो गया हो. गौतलब है कि महाराष्ट्र में पिछले पांच सालों में 20 हजार से अधिक अंतरजातीय विवाह हुए हैं.

क़ानून के विरोध में आयोजित कार्यक्रम में छाया खोब्रागड़े



विरोध के स्वर और कारण 
इस मामले पर महाराष्ट्र का बौद्ध समाज एकमत नहीं है. इसके विरोध में स्वर उठने लगे हैं, गोष्ठियां हो रही हैं. विरोधी अम्बेडकरवादी समूहों के अनुसार ”जरूरत बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुसार ‘सामान नागरिक संहिता’ के लिए मुहीम चलाने की है न कि अलग एक्ट की मांग की.” रिपब्लिकन विचारक रमेश जीवने, सम्बुद्ध महिला संगठन की संयोजक छायाखोब्रागडे इसे एक विभाजनकारी और महिला विरोधी कदम बता रहे हैं.’ हालांकि स्त्रीकाल से बातचीत करते हुए रिपब्लिकन नेता और भारत सरकार के सामाजिक कल्याण राज्य मंत्री रामदास आठवले कहते हैं कि ‘इसकी मांग समाज के भीतर से ही हो रही है. यह मांग पुरानी है.’ जबकि उनकी ही पार्टी के एक नेता अविनाश महत्कर इस पहल की अपेक्षा करते हुए भी  कहते हैं कि ‘तलाक, मेंटेनेंस, निबंधन, अंतरजातीय विवाह, संपत्ति के मसले आदि के प्रावधान के बिना यह कानून अधूरा है. हालांकि कानून के समर्थक विवाह पद्धति के अलावा ‘तलाक, मेंटेनेंस, निबंधन, अंतरजातीय विवाह, संपत्ति के मामले में हिन्दू कानून के अनुसार आचरण की बात कहते हैं. यह निस्संदेह एक विरोधाभासी स्टैंड है.  कुछ वकीलों के अनुसार इस कानून के बाद अदालती मामले बढ़ेंगे.

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