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चन्द्रसेन अमेरिका में |
ये मुनीरिका क्या है?
दरअसल मुनिरका, जेएनयू- मुख्य गेट के सामने वाली बस्ती हैं. मतलब ये है कि जो भी जेएनयू से ताल्लुक रखता है उसका मुनिरका से नाता होना लाजिमी है. वैसे इसे ‘जाटलैंड’ भी कहते हैं.
खैर, मेरा भी जेएनयू से एक दशक का नाता रहा है. पिछले वर्ष, जुलाई में पीएचडी जमा किया और मुनिरका में आकर रहने लगा. रूम रेंट की टेंसन, जाटों की छीलने वाली बोली, एडहॉक इंटरव्यू में लगातार असफल प्रयास और घर वालों की तरफ से शादी की जल्दबाजी .ये सब एक साथ शुरू हो गया. मतलब, दिन-रात पोलिटिकल डिबेट की चाशनी में डूबने वाले जेनयू के लालों का दाल रोटी से नाता शुरू हो जाता है.
‘मुनिका या फिर अमेरिका’- ये वाक्य, हम सबका तकियाकलाम बन गया था। क्या पता था, मेरे साथ भी ये सुखद सयोंग घटित होने वाला है . 21 मई को अमेरिका रवाना ही हो गया. मतलब न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क. 22 जून को वापस फिर मुनीरिका में आ गया. और गंगा ढाबा पर दोस्तों के साथ जेनएयू की सदाबहार बहसों में लुप्त हो गया।
आईये पहले मैं आपको 22 मई की सुबह की तरफ ले चलता हूँ .
‘ देवियों और सज्जनों, जॉन ऍफ़ केनेडी एयरपोर्ट पर आप का स्वागत है. सुबह के नौ बजकर 18 मिनट हैं. यहाँ का तापमान 18 डिग्री सेल्सियस है. एयर इंडिया से सफर करने के लिए आपका धन्यवाद ‘. अमेरिका पहुँचने का संदेश हमें इस तरह से मिला.
हवाई जहाज से निकलते ही वह पहली चीज क्या थी जो आभास दिला गई कि अब अमेरिका पहुँच गया हूँ? ‘अमेरिकन ऐक्सेंट’ में इनकी अंग्रेजी. लेकिन दो कदम आगे बढ़ाते ही एक एफ्रो-अमेरिकन मिला जो हाथ में झाड़ू पकड़े खड़ा था. और आगे बढ़ा तो दूसरा मिला जो सामान ढ़ोने की ट्राली लिए चला आ रहा था. चेहरे पर उदासी, आत्मविश्वास गिरा हुआ . काले लोगों को देखकर अचानक भारत के ऐसे ही लोंगो की याद आ गयी जो सदियों से हाथ में झाड़ू पकड़े सफाई के काम में लगे हुए हैं. पहले गाँव में जमींदारों के दुआर, चौपाल और शादी विवाह में जनवास की सफाई की देख रेख करते रहें हैं. वहीँ अब शहर में अस्पताल, स्कूल, रोड की सफाई करते हुए देखे जाते हैं. हाँ, मैं भारत के लगभग 20 करोड़ दलितों की बात कर रहा हूँ. अपने अमरीकी प्रवास के दौरान, मैं हर रोज दलितों को याद इन एफ्रो-अमेरिकन लोगों को देख करता था. वास्तव में मार्टिन लूथर किंग, मैलकॉम एक्स जैसे नेताओं की कुर्बानी के बाद इनको एक सम्मान-जनक जिंदगी जीने का हक़ मिला. लेकिन समाज आज भी रंग के आधार पर बंटा हुआ है. सारी बड़ी पोस्ट पर गोरे और छोटी पोस्ट पर काले आप को मिल जाएंगे. लेकिन इन लोगों ने एक काला राष्ट्रपति (ओबामा) टॉलरेट कर लिया है. क्या भारत एक दलित प्रधानमंत्री टॉलरेट करने को सक्षम है ? मुझे इस पर पूरा संदेह है.
छोड़िये, अब अमेरिका की बात करते हैं.
दूसरी बात जो मुझे अमरीकी समाज की अच्छी लगी वह है इनका टोलरेन्स लेवल. एक लेवल तक ये विभिन्न नस्ल, भाषा, खान-पान, प्यार, मुहब्बत, बर्दाश्त कर लेते हैं. खुला समाज है, पार्क में या सड़क पर इश्क फरमाईये, बीफ खाइये या सुअर। इसको रोकने वाले न एंटी रोमियो स्क्वाड मिलेंगे न ही भक्तों की बेरोजगार फ़ौज.
‘अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठ जाओ, क्लास है घर नहीं , गुरु जी के पैर छुओ’. ये हम सबकी भारतीय स्कूल ट्रेनिंग होती है. लेकिन, अमेरिकी चाल-चलन तो कुछ और ही है भाई. ये पढ़ाते कम, बहस ज्यादा करते हैं, भूख लगी है तो, क्लासरूम में ही खाना शुरू कर देते हैं. बैठे-बैठे थक गए, तो खड़े होकर एक्सरसाइज करने लगते हैं. ये एकदम नया अनुभव था. हलाकि जेएनयू ने कुछ अनुभव पहले ही दे दिए थे. सबसे ज्यादा अचरज तो मैं अपने चीनी दोस्तों से होता था. दो लड़कियां थी, ये अचानक खड़ी होकर कमर में हाथ ऱख कर हिलने-डोलने लगती थीं. पहली बार तो समझ में ही नहीं आया कि इन चीनियों को हुआ क्या है ? बाद में मैं भी कमर में हाथ ऱख कर हिलने डोलने का आदी हो गया. मतलब क्लास-रूम में ही योगासन.
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चन्द्रसेन अपने साथियों के साथ |
अपने बचपन के स्कूल को याद करता हूँ , तो कांप जाता हूँ. पता है, दलितों को आगे बैठने तक की भी इजाजत नहीं होती थी. क्लास में हम दलित सबसे पीछे बैठने को मजबूर रहते थे, न साला सुनायी देता था नहीं दिखाई. डायनामाइट लगाओ ऐसी व्यवस्था को.
खैर, अब अमेरिका की बात करते हैं.
‘अरे लाल बत्ती होने वाली है, गाड़ी भगा. दिखाई नहीं दे रहा है क्या, अभी फाटक बंद हो जायेगा, थोड़ा स्पीड बढ़ा ले’.भारतीय मन और दिमाग में ये शब्द कूट-कूट कर भरे हुए थे . कल्चरल शॉक होना ही था. दूसरे देशों पर बमबारी, हाई स्पीड ट्रेन, फ़ास्ट लाइफ का माहिर अमेरिका, अपनी सड़क पर बहुत स्लो और संभल कर गाडी चलाता है. इन लोगों ने एक सिविक सेन्स पैदा कर लिया है. लाल बत्ती होने से पहले ही गाडी रोक देते हैं, किसी को लाल बत्ती पर कोई जल्दबाजी ही नहीं होती है. यहाँ तक कि अगर कोई रोड क्रॉस भी कर रहा होता है तो अपनी गाडी रोककर उसे जाने को कहते हैं. मतलब पहले-आप, पहले-आप वाला सिस्टम है.
हाँ मैं कल्चरल शॉक की बात कर रहा था. कई मुझे भी मिले. जैसे, हमारी डोरमेट्री में फ्री का कंडोम होना, बाथ-रूम सभी का एक ही होना, गे-लेस्बियन का खुले आम प्रेम करना, पार्क में सनी लियोनी स्टाइल में धूप सेकना इत्यादि. लेकिन जो बात मेरे जेएनयू प्रवास और छात्र राजनीति में नहीं समझ में आयी थी वह वहां जाकर एकदम समझ में आ गयी. आप सैद्धांतिक और दार्शनिक रूप से कितना भी प्रोग्रेसिव हो जाईये लेकिन जब उसे इम्प्लीमेंट करना होता है तो बड़ा कठिन काम लगता है। इसलिए बेचारे सवर्ण मार्क्सवादियों के कथनी और करनी में फरक रहा है। हमेशा जमीन बटवारे की बात करेंगे लेकिन जब अपना बाटने की बारी आयी तो कम्मुनिस्ट पार्टी को ही हाई-जैक कर लिया.
खैर, अब फिर से अमेरिका की बात करते हैं..
एक महीने के प्रवास के दौरान हम लोग वाशिंगटन, न्यूयार्क , ब्रुकलिन और ब्रोंक्स गए. शिक्षण संस्थाओं, मूयूसियम और पुस्तकालयों को देखकर मुझे , ग्रीक, ब्रिटेन की अनायास याद आ गयी. पता है क्यों? यह इसलिए की यूनानियों ने पूरी दुनिया में अपने ज्ञान का डंका बजाया और राज किया, अंग्रेजों, ने दुनिया के महानतम संस्थाएं खोली और दुनिया पर राज किया, अमेरिका भी वही कर रहा है। चीनी अध्ययन का छात्र होने के नाते, मैं ये कह सकता हूँ की अगला नंबर चीनियों का है.
भारत में भी कुछ ऐसा है? हैं न. जिसने शिक्षा और ज्ञान को कंट्रोल किया उसने रूल किया. ब्राह्मणों ने तो यही किया है। पूँजीवाद का क्रूरतम रूप है मजदूरों की छटनी और मशीनों का राज. आप अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में जायेंगें तो कंस्ट्रक्शन साईट पर मजदूर पाएंगे ही नहीं. एक साथ बहुत सारी मशीनें काम करती हुई दिखाई देतीं हैं. लेकिन इन मशीनों का ड्राइवर जरूर एक इंसान होता है. एक उदाहरण से समझिये. अगर आप को अपनी गाडी में गैस भरवाना है तो पंप पर जाइए, पैसा डालिए, गैस भरिए और चलते बनिए. इसलिए मैं अपने गाँव के लौंडों से कहता रहता हूँ कि आने वाले दिनों में तुम सब बेकार हो जाओगे क्योँगे कंपनियों को पढ़े लिखे मजदूर चाहिए न कि तुम्हारे जैसे अंगूठा छाप मजदूर. लेकिन ये लौंडे सुनते कहाँ हैं?
खैर, अब अमेरिका की बात करते हैं. बल्कि बात की इतिश्री करते हैं।
बात मुनीरिका-जेएनयू से शुरू हुई थी. ख़तम भी यही पर होना है.
दोस्तों, ने पूछा कैसा रहा एक महीने का क्लास ?
वास्तव में एक महीने का वहां पर मेथडोलॉजी का क्लास था. आसान भाषा में कहूं तो कैसे रिसर्च करना है उसकी ट्रेनिंग. जैसे ही मेथोडोलॉजी के बारे में पूछा तो जेएनयू , खासकर अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन वाले प्रोफेसरों पर बहुत गुस्सा आया. वास्तव में इनको मेथोडोलॉजी पता ही नहीं है. मजेदार बात बताऊ, यहाँ लोग विकिपीडिया से पढ़कर मेथडोलॉजी पढ़ाते हैं. मेथडोलॉजी मल्टीडिसिप्लिनरी अप्प्रोच की डिमांड करता है और एक प्रोफेसर जो नेपाल या नाइजीरया का एक्सपर्ट है वह अकेले ही पूरा मेथडोलॉजी का ज्ञान बाँट देता है. ये हुनर कहाँ से लाते हो गुरुदेव ?
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चंद्र सेन , इंडिया चाइना इंस्टिट्यूट, द न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी, न्यू यॉर्क, अमेरिका.