पारदर्शी अधोवस्त्र में कास्टिंग का आमंत्रण: मर्दवादी कुंठा या स्त्री सेक्सुअलिटी का प्रतीक?

सुशील मानव 

पिछले दिनों कलाकारों के लिए कास्टिंग कॉल के एक विज्ञापन में सिर रहित अधोवस्त्र में स्त्री की तस्वीर पर कुछ रंगकर्मियों, कलकारों, साहित्यकारों ने सवाल उठाये. फिल्म के डायरेक्टर ने अपनी सफाई भी दी. सुशील मानव ने इस विवाद का विश्लेषण किया है: 


यशपाल का एक उपन्यास है दिव्या। उपन्यास में कला को जीवन पूर्ति का साधन मानने वाला मूर्तिकार मॉरिस एक मूर्ति बनाता है। एक औरत की मूर्ति। मूर्ति में सिर्फ वक्ष और योनि है। एक मूर्तिकार की यह डेढ़ हजार साल पहले की स्त्री परिभाषा है। और एक युवा फिल्म निर्देशक हैं पवन के. श्रीवास्तव। बिहार के पवन श्रीवास्तव क्राउड फंडिंग से फिल्म बनाकर चर्चा में आये थे.  इक्कीसवीं सदी के इस युवा निर्देशक की अपनी परिभाषा में भी स्त्री वक्ष और योनि है। माने डेढ़ साल के वक्त में चाहे भले ही दुनिया बदल गई है लेकिन पुरुष की सोच में स्त्री की परिभाषा असका स्वरूप नहीं बदला है।

उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर नई फिल्म की कास्टिंग कॉल के लिए एक इश्तहार दिया है। इश्तहार में उसी मूर्ति की तर्ज पर एक जनान धड़ है बिकिनी पहने हुए, सिर और पाँव विहीन धड़। जिसके बगल में लिखा है 20-35 उम्र की लड़कियां (15) चाहिए। और 20-40 उम्र के आदमी (10) चाहिए। फिल्म के कास्टिंग कॉल के लिए दिए उस इश्तहार की तस्वीर पर ख्यातिलब्ध नाट्यकर्मी और गारी विधा की लोकगायिका विभारानी ने आपत्ति करते हुए अपने फेसबुक वॉल पर लिखा- ‘भाई मेरे। आप कास्टिंग कॉल कर रहे हैं या आपकी मंशा कुछ और है? 20 से 35 साल तक कि लड़कियों की आपकी फ़िल्म में ज़रूरत का मतलब यह तो नही कि लड़कियां ऐसी ही होती हैं । तनिक दिमाग से काम लीजिए।’

कवयित्री मृदुला शुक्ला विभारानी की पोस्ट में कमेंट करते हुए और एक तरह से फिल्म डायरेक्टर को सपोर्ट करते हुए लिखती हैं-‘यह अच्छा तरीका है इस तरह से लड़कियां खुद सोच समझ कर ऑडिशन के लिए जाएंगी यह अच्छा तरीका है इस तरह से लड़कियां खुद सोच समझ कर ऑडिशन के लिए जाएंगी’
वीणा पाठक निर्देशक के सौंदर्यबोध पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कमेंट में लिखती हैं,- ‘दिमाग हो तब न ,यहां तो सिर्फ आंखें हैं ,सौन्दर्यबोध आएगा कहाँ से।’

50 के दशक में कास्टिंग

पत्रकार निराला युवा डायरेक्टर के बहाने प्रगतशीलों और वामपंथियों पर अतिरिक्त निशाना साधते हुए अपनी वॉल पर लिखते हैं,-‘मैम, इनकी इतनी कारगुजारी और हरकत से ही आप चकित हैं? फेहरिश्त लम्बी है। ढेरो किस्से हैं। और यह सब सामाजिक न्याय,जेएनयू की प्रगतिशीलता, वामपंथ, जनपक्षधारिता,सरोकार,सिनेमा आदि का मुलम्मा चढ़ाकर होता है। दिल्ली और दूसरे शहर के भी कुछ फैशनिया-रोमांटिक कामरेड साथी और कुछ सतही सामाजिक न्याय धारी इनका झंडा उठाये फिरते हैं।’

एक पोस्ट से प्रगतिशीलों पर निशाना का कार्य पूरा न होते देख निराला  दूसरा लगाकर लिखते हैं-‘स्त्री को नँगा करने और नँगा कर बेचने से पहले ब्राम्हणवाद को गरियाने और सामाजिक न्याय का छद्म चादर ओढ़ने का नया फैशन चला है। खासकर सिनेमा,साहित्य,कला की दुनिया मे। ऐसे खिलाड़ी एक और तैयारी इसके पहले करते हैं। फैशनिया प्रगतिशीलों,रोमांटिक वामियों और बिना अपनी जानकारी के भेड़चाल चलनेवाले सामाजिक न्याय के सो कॉल्ड बुद्धिजीवियों को अपने साथ करते हैं।
दिल्ली के साथियों को आगाह करनेवाली सूचना है।खासकर पत्रकार साथियों को जो जल्दबाजी में किसी को क्रांतिकारी,प्रगतिशील,सरोकारी,स्त्रीवादी,समाजिकन्यायवादी घोषित और साबित करते हैं। और हां, यह पोस्ट सामान्यीकरण कर न पढ़े। सबको इससे रिलेट न करें।’

मंदाकिनी मिश्रा विभारानी की पोस्ट पर तर्क करते हुए लिखती हैं,-  ‘ लड़के की अंडरवियर में फोटो नहीं डाली लड़की ही क्यूँ, लड़के भी तो चाहिए’।

सामाजिक कार्यकर्ता कवि संपादक और रंगकर्मी राजेश चंद्र ने कमेंट में लिखा है- ‘इन्हें बस जिस्म चाहिये, प्लेट में सजा कर। शर्मनाक।’

एक्टिंग शिक्षक और स्कूल ऑफ एक्टिंग ACTENECT गुड़गाँव में डायरेक्टर महेश वशिष्ठ लड़कियों को ही दोषी ठहराते हुए लिखते हैं- ‘और तकलीफदेह ये कि पहुंच जाती हैं लड़कियां।हमारी लड़कियों को परिपक्वता से काम लेना चाहिए न कि फिल्म में रोल करने की भावनाओं में बह कर।’
विभारानी महेश वशिष्ठ के कमेंट पर मुँहतोड़ जवाब देती हैं,-‘आप फिर किसी दूसरी जगह बात को ले जा रहे हैं और चीजे लड़कियों पर थोप रहे हैं। मेरा कहना है कि लड़कियां हमेशा परोसी जाती हैं। जो परोसने वाले हैं, उन पर बात कीजिए। इस पोस्टर को बनानेवाले की बात कीजिए ना कि लड़कियों पर। क्या लड़कियां फिल्म में काम ना करें? घर में बैठकर चूल्हा-चौका करें और क्या घर में भी ये सुरक्षित रह जाती हैं? हर चीज में लड़कियों पर तोहमत देना बंद कीजिए।’

विभा रानी के कमेंट का समर्थन करते हुए प्रणीता सिंह सीधे महेश वशिष्ठ से मुखातिब होती हैं-‘महेश वशिष्ठ जी मैं आपसे आदरपूर्वक कहना चाहूंगी कि जिस तरह पुरुषों में आगे बढ़ने की इच्छा होती है, अपनी प्रतिभा दिखाने की चाह होती है उसी तरह स्त्रियों में भी आगे बढ़ने की और अपनी प्रतिभा दिखाने की चाह होती है। फिल्मों में काम करना क्या पुरुषों का ही हक है ? आप स्त्रियों की तुलना पशुओं से करना चाहते हैं या मशीन से जो भावना शून्य हो कर पुरुष व परिवार की तीमारदारी करती रहे। उसका अपना कोई वजूद ना रहे।’
तिस पर पर विडंबना ये कि महेश वशिष्ठ जैसे बुजुर्ग शिक्षक ‘वेश्याएं न हों तो समाज गंदा हो’ जैसे मर्दवादी सामंती मुहावरों के तर्ज पर पुनः प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं,- ‘यानि कोई घटिया सोच वाला हमें कीचड़ के गड्ढे में डालने का निमंत्रण दे तो हम बिना सोचे समझे आंख मूंद कर चले जाना चाहिए???’

कास्टिंग डायरेक्टर शानू शर्मा

ऑल इंडिया रेडियो-आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे संस्थानों के लिए जर्नलिज्म करने वाले और नाम के साथ सोशल एक्टीविस्ट जोड़ने वाले बिनय कुमार सिंह अपने सामंती मूल्य को सँजोते हुए लिखते हैं,-‘विभा जी!लड़कियां परोसी नहीं जा रही है,बल्कि वे खुद प्रस्तुत हो रही है। उनके लिए सुख संसाधन और ऐश्वर्या सब कुछ है। यही भूमण्डलीकरण और ग्लोबलाइजेशन है। इसलिए जो जा रहीं हैं वे इस बात से चिंतित नहीं है,आप नाहक परेशान हो रही हैं। यह चलेगा हमारे आपके रोकने से रुकने वाला नहीं है। “जिस्म की बेहया नुमाईश है,गीत जैसे कि उसपे मालिश है।”
सीमा मलिक ने बिनय कुमार को जवाब देते हुए पूछा है कि,-‘क्या महत्वाकांक्षा और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीना सभी का विशेषाधिकार नहीं है?’

आगे बिनय कुमार को ही उत्तर देते हुए संगीत निर्देशक बापी तुतुल लिखते हैं,-‘प्रिय बिनय जी, मैं विभा दीदी के साथ सहमत हूं क्योंकि ये हमारीवो हिंदी फिल्म उद्योग नहीं है, जो होती थी उदाहरण के लिए हमने मीना कुमारी, नर्गिस, इतने सारे कलाकार # महिला #देखेहैं जिन्होंने समाज में इतना योगदान दिया है।जो मैं निजी रूप से नापसंद करता हूं वह है पोस्टर की सामग्री और पोस्टर तस्वीर में अपमानजनक महिलाएं हैं।हां हम बहुत खुले दिमाग के हैं लेकिन यह ऑडिशन कॉल का पिक्चर नहीं है बल्कि एक महिला अंडरगारमेंटबेंचने का विज्ञापन है।’ ‘

मनोज गोयल निर्देशक तस्वीर को जस्टीफाई करते हुए लिखते हैं,- ‘मंशा साफ है प्रोड्यूसर की और उनके विज्ञापन में वह सही अर्थों में दिख रही है। प्रोड्यूसर एक ऐसी फ़िल्म बनाने जा रहे हैं जिसमें अंगप्रदर्शन बहुत ज्यादा होगा। अब इस विज्ञापन को देख कर सिर्फ ऐसे कलाकार ही सम्पर्क करेंगे जो ऐसी फिल्म में सहजता से काम कर सकें। प्रोड्यूसर ने शुरू में ही बता दिया फ़िल्म में यह सब होगा if you are ready to do so then only you welcome’

अंजली बाजपेयी लिखती हैं,- ‘गर इतिहास से लेकर आज तक के आधुनिक जगत पर गौर करे तो हम यही पाएगे की औरत को हमेशा कौमोडिटि समझा गया। जब औरत की बात करते है तो उसकी सुंदरता रूप रंग शारीरिक बनावट की बात जरूर करेगे । जैसे यही पैरामीटर किसी लड़की को योग्य या अयोग्य मानने के। ये बहुत शर्मनाक बात है की आज भी यही हो रहा है। यही वजह है की जब कोई आपसे १० बार कहें की आप बहुत खूबसूरत है तो फूल के कुप्पा होने की बजाय ये जाने की आखिर अगले के मन में चल क्या रहा है।’

पवन श्रीवास्तव

कास्टिंग कॉल के पोस्टर के विरोध में विभारानी के स्टैंड के बाद जिस तरह वर्तमान राजनीति में गुजरात दंगों या मॉब लिंचिंग के बाबत सवाल उठाने पर सत्तापक्ष केराजनेता अश्लील कुतर्क करते हुए 1984 के सिख दंगा का उदाहरण देकर मॉब लिंचिंग को जस्टीफाई करते हैं बिलुकल उसी तर्ज पर कुतर्क करते हुए फिल्म के डायरेक्टर पवन के. श्रीवास्तव तर्क देते हुए दूसरा पोस्ट लिखते हैं कि,- ‘एक फिल्म के कास्टिंग कॉल के लिए मेरे द्वारा पोस्ट की गई तस्वीर पर बहुत अधिक आपत्ति की गई है। मैं आपको बताता हूं कि मैंने कुछ सस्ता प्रचार हासिल करने की कोशिश नहीं की है या महिलाओं को वस्तुकरण नहीं किया है। पोस्टर में उपयोग की गई तस्वीर फिल्म के विषय के अनुसार बहुत उपयुक्त और कलात्मक रूप से सही है। इसका इस्तेमाल फिल्म के विषय के बारे में एक आइडिया देने के लिए किया गया है। मैं कास्टिंग के लिए आने वाले उम्मीदवारों को फिल्म की एक स्पिरिट बताना चाहता था। यह उन्हें गुमराह होने से बचाएगा। महिला का बिकनी में होना ऑब्जेक्टिफिकेशन नहीं हैं। यह सिर्फ एक पोशाक है। मेरी फिल्म महिलाओं और उनकी कामुकता के बारे में है, यह सेक्स के बारे में बात करती है और हां इसमें नग्नता भी है। तो मैं इसे पोस्टर के माध्यम से व्यक्त करना चाहता था। मुझे पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे पता है कि जब हम इस तरह के एक संवेदनशील विषय में हाथ लगाते हैं तो राजनीतिक औचित्य क्या है। मैं आप सभी से अनुरोध करूंगा, इतना जजमेंटल मत बनो, मैं समाज को नुकसान पहुंचाने वाला कुछ भी नहीं कर रहा हूं। मैं एक कलाकार के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी जानता हूँ। कृपया एजेंसी न बनें । मुझे मेरास्पेस दो।’

हो सकता है कि कल पवन के श्रीवास्तव स्त्री की सेक्सुअलिटी पर कोई सार्थक और संवेदनशील फिल्म बना ही लें लेकिन आज उनके द्वारा कास्टिंग कॉल के लिए जारी किये गये पोस्टर की तस्वीर उनकी स्त्री और स्त्री सेक्सुअलिटी की समझ पर सवाल खड़ी करती ही है। स्त्री अपनी सेक्सुअलिटी एक्सप्लोर करते हुए सिर्फ स्तन, नितम्ब और योनि नहीं हो जाती है-उसका सर गायब नहीं हो जाता, उसका व्यक्तिव घुट नहीं जाता। 

क्राउड फंडिंग से बनी पवन की फिल्म: नया पता

फिल्म और सिनेमा अभिव्यक्ति और सामाजिक बदलाव का सबसे सशक्त और कारगर हथियार है जिसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया गया है। समाज में स्त्रियों को चुड़ैल, डायन और नागिन बनाकर स्थापित करने एवं समाज को स्त्रियों के प्रति असंवेदनशील बनाने में सिनेमा का बहुत बड़ा हाथ है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो हिंदी फिल्में हमेशा से ही सामंतवादी मूल्यों की पोषक रही हैं। फिल्मों ने औरतों को अच्छी और बुरी दो कटेगरी में बाँटकर ही समाज में पेश किया है।अपनी सेक्सुअलिटीके प्रति जागरुक और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाली मर्दों के साथ कदमताल मिलाकर चलने वाले औरतों को हिंदी सिनेमा उद्योग वैंप बनाकर और स्त्री की यौनेच्छा को सामाजिक विकृति की तरह उभारकरपेश करता आया है। कुछेक लोगो को छोड़ दें तो हिंदी फिल्मोद्योग में स्त्री की छवि,स्थिति और उपस्थिति आज भी जस की तस है। पूँजीवादी बाजार और समाज में स्त्री के अंडरगार्मेंट्ससिर्फ एक पोशाक भर नहीं पुरुष की शिश्नोत्तेजना का साधन भी है। जिसका हिंदी फिल्में अपनी तरह से पर्दे पर इस्तेमाल करती रही हैं। मुख्यधारा के हिंदी फिल्मोद्योग में स्त्री को एक कमोडिटी से ज्यादा कुछ समझा ही नहीं गया। न कल न आज।

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