आदिवासी गरीब स्त्रियों का ‘शिकार’ करके भी जनवादी कहलाने वाले कलाकार की आत्मकथा (!)

 मंजू शर्मा


हिन्दी की शिक्षिका,  सोशल मीडिया में सक्रिय. सम्पर्क:  manjubksc@gmail.com



रामशरण जोशी जी आप साहित्य की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज नहीं।यूँ भी अपनी आत्मकथा लिखने के लिए एक साहित्यकार तभी सोचता है जब उसे जान पड़ता है कि उसे अब वे सारे मुकाम मिल गए हैं जिसकी उसे चाह रही थी। खैर यूँ भी यहाँ मैं आपका कोई परिचय देने के लिहाज से कुछ भी लिख नहीं रही हूँ। बस कुछ बातें जो निरन्तर कचोटती रही आपकी आत्मकथा पढ़ते हुए कि आपने कोशिश तो बहुत की है कि सेलेक्टिव होकर आप बस वही लिखे जो आपको ‘समय के बोन्साई’ के रूप में स्थापित करे ।

आप बोन्साई नहीं हो सकते हैं।एक बोन्साई के पौधे को तो पूरी तरह-से बढ़ने और फैलने का अवसर तक नहीं दिया जाता है।समय से पहले ही साजो-सज्जा के नाम पर उसे काट-छाँटकर ऐसा बना दिया जाता है जो उतनी ही भूमि और मिट्टी में पनपना सीख जाए जो उसे उसका मालिक दे और वह पौधा फलने-फूलने तक से वन्चित रह जाता है।बेचारे बोन्साई के पौधे से आपने अपनी तुलना कर दी है, आप अपनी आत्मकथा के शीर्षक(मैं बोन्साई अपने समय का:कथा एक आत्मभन्जक की) के साथ आरंभ से ही खुद को जस्टीफाई करने की जुगत में लग जाते हैं और फिर तो आप अपनी छवि को उदात्त कर ले जाने को अधीर हो जाते हैं। अपनी ही आत्मस्वीकृतियों को आप बड़े ही घाघ तरीके-से एडिट कर देते हैं जिसपर पहले आपकी आलोचना हुई थी और आप आलोचकों को आत्मकथा में बड़ी लानत-मलानत करते हैं, आपको लगा कि आत्मकथा लिखते हुए उन अंशों को एडिट कर देना पुन: छवि को बोन्साई व्यक्तित्व प्रदान करने में कारगर सिद्ध होगा। आपने भी सोच लिया होगा कि कम-से-कम वर्तमान नई पीढ़ी के पाठकों को तो आपकी करतूतों को जानने से वंचित करके अपने लिए ही आत्मभंजक विशेषण की उपाधि देकर भरपूर सहानुभूति तो बटोरी ही जा सकती है।
आपने अपने आलोचकों को खूब लानत भेजी है इस आत्मकथा में पर चूक आपसे यह हो गई अपने आपको बोन्साई कहते हुए कि छ्पी हुई सामग्री कितनी भी पुरानी हो कहीं-न-कहीं से लोगों को पढ़ने को मिल ही जाती है(विशेषकर उनलोगों को जो इस आत्मकथा को पढ़ते हुए और अधिक आपको जानने और समझने हेतु इच्छुक हैं)।

रामशरण जोशी

दरअसल आप तो उन अतितुष्ट व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने खुद ही स्वीकारा भी है कि मेरे भीतर अनेक ‘मैं’ है।आप सच्चे न तब थे न हीं आज और अब हैं मान्यवर!


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इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि आप स्त्री-मनोविज्ञान के ज्ञाता न होकर भी स्वयं को बार-बार स्त्री को जानने-समझने का ढोंग करते हैं।हकीकत तो यह है कि आपको लेशमात्र भी स्त्री के मनोविज्ञान का भान नहीं है।तीन स्त्रियों के जीवन में आने के बाद भी आपने स्त्री को महज सामान से ज्यादा कुछ समझा ही नहीं। शायद तभी यह बताने तक में भी आपने परहेज नहीं किया कि मैत्रेयी पुष्पा जी ने स्वीकार किया था कि औरत पुरुष को रिझाने के लिए ‘श्रृंगार’ के हथियार का इस्तेमाल करती है।मुझे भान होता है कि आप सम्पूर्ण स्त्री जाति की इसी प्रवृ्त्ति को उभारना चाहते हैं ।यह भी हो सकता था कि इसे केवल एक वाकये या एक सामान्य-से वक्तव्य के रूप में आपने इसे देखा होता तो इसे अपनी आत्मस्वीकृतियाँ में न लिखते और यह स्त्रियों के लिए एक आम राय तो कम-से-कम आप निर्धारित करने की गलती कत्तई नहीं करते।यह मानकर चलते तो आपकी इज़्ज़त कई गुना बढ़ जाती हम स्त्रियों की निगाहों में कि यह केवल एक स्त्री-विशेष की अपनी आत्माभियक्ति या स्वीकारोक्ति हो सकती है सभी स्त्रियों को उसी साँचे में नहीं रखा जा सकता है।सबके अपने जुदा-जुदा व्यक्तित्व और राग-बिराग भी हो सकते हैं,पर नहीं जोशी जी यह आपने नहीं किया यही वज़ह है कि आपके परसेप्शन स्त्रियोँ को लेकर हरेक जगह पर लगभग बायस्ड ही होते चले गए।

वह हिस्सा जो आत्मकथा से हटा दिया गया है: 

बात केवल इतनी भी होती तो शायद मन को कुछ कम कचोटता!ज़ाहिर-सी बात है कि बात निकली है तो दूर तलक जाने से भी इसे न रोका जा सकेगा।हंस के दोनों अंकों की स्वीकारोक्ति में आपने अपने किसी नृतत्वशास्त्री मित्र का उल्लेख किया है जो बस्तर किसी शोध के सिलसिले में पहुँचा हुआ है नृतत्वशास्त्री(Antrhropology) मित्र का नाम लेने से आप बचते रहें ,जानें क्यों आप बचते रहे यह भी समझ से परे ही है कि आखिर क्यों आपने ऐसे महान मित्र को बचाने की कोशिश करते हैं जिसकी वज़ह से आप उस गर्त में धकेल दिए जाते हैं जिसमें आपकी चाह गिरने की नहीं थी। सुधि पाठकों को मिथ्या भ्रमित करने की चाह आपकी तब अधूरी रह जाती है जब आप सांड-मित्र (या कि मित्र-सांड कहने से क्या फर्क पड़ता है) के बनाए हुए सोकॉल्ड हवन-कुंड में अपनी दैहिक क्षुधा को भी शांत कर ही ली। जोशीजी,मेरा मानना है कि मित्र लगभग समान स्वभाव वाले दो लोग ही बनते हैं,आर्थिक समानता बेशक न हो पर वैचारिक धरातल पर बहुत हद तक समानता तो होनी ही चाहिए।खैर, बहती गंगा में हाथ धोने के बाद उसका मुआवज़ा आपने तयशुदा राशि से पाँच रुपये अधिक दिये।कितनी मेहरबानी की आपने और आपके मित्र-सांड ने उस आदिवासी औरत पर और स्त्री को भोग्या वस्तु और कमोडिटी बनाने में तनिक भी परहेज़ नहीं किया। अच्छा किया कि आपने अपनी आत्मकथा मैं अपने समय का बोन्साई लिखी है जिससे हम जैसे लोग जो हंस के उस अंक में आपकी आत्मस्वीकृतियों को तब न पढ़ पाए थे कम-से-कम अब पढ़ लिया। आजकल बहुत सारे अलग-अलग टैलेंट हंट अलग-अलग चैनलों द्वारा प्रायोजित किए जाते हैं जिसमें सबकुछ पूर्व-प्रायोजित ही होता है। अब देखिए आपकी तरह ही एक विषय को छोडकर दूसरे विषय पर फुदकना(आपकी विक्षनरी से लिया हुआ एक विशेष शब्द) एब्सर्ड लग सकता है सो यहाँ टैलेंट हंट की बात करनी पड़ी है क्योंकि एक और हंट तब आप और आपके मित्र अयोजित करते थे और यह हंट था बस्तर क्षेत्र की आदिवासी, मासूम और गरीब स्त्रियों का । उफ़ क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ कुछ दु:खी हो जाती हूँ!उस वाकये को पढ़ते हुए तो लगा कि आप भी अपने उसी मित्र-सांड की तरह स्त्रियों के शिकार में एकदम उस्ताद थे तभी तो आपकी भाषा भी स्त्री के लिए एक सामान की तरह प्रतीत होती है।मान्यवर,यह ‘विजिबल भूगोल’ शब्द स्त्री के लिए आपने जब लिख ही दिया था तो बाकी के आख्यानों की कहाँ ज़रूरत थी?औरत को देखने का नज़रिया तो आपका इतना वाहियात है कि उचित शब्द तक नहीं मिले आपको,कभी क्रिकेट की मैदान के पिच तो कभी भौगौलिक ढाँचे से तुलना करके स्त्री-अस्मिता की जो धज्जियाँ आपने उड़ाई है न आपकी वो भाषा वाकई में हम स्त्रियों को बताती है कि पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था के आप सबसे चिर-परिचित प्रतिनिधि और वाहक हैं जो इस व्यवस्था को कभी तोड़ना नहीं चाहेंगे।


वह हिस्सा जो आत्मकथा से हटा दिया गया है: 

सच कहूँ तो आपके साहित्यकार होने तक-से मुझे शर्मिंदगी और कोफ़्त होती है आज क्योंकि अगर साहित्यकारों की भाषा ऐसी होती है जिससे एक जुगुप्सा की भावना उत्पन्न होने लगे और वह भी स्त्रियों के लिए प्रयुक्त भाषा आपकी इतनी महान है कि साहित्य में भी सर्टिफिकेट जारी होने ही चाहिए थे-मसलन ‘सी’ ग्रेड(इससे अधिक के हकदार नहीं हैं माननीय)! मान्यवर,आपकी तमाम भाषा जो आपने अपनी दोनों अंकों की आत्मस्वीकृतियों में स्त्रियों के लिए अपनी ही बनाई विक्षनरी से लिया है उससे मुझे स्त्री होने के नाते गुरेज़ है-लखनपाल,स्त्रियों के शिकार,लपको-माल ताज़ा है,उरोज सम्हाले नहीं सम्हल रहे हैं,उछल.……उछल,फुदक फुदक,रसीले पयोधर!रसीले गोल-मटोल आम्र से पयोधर…………………………कई और हैं और साहित्यिक मर्यादित भाषाई सीमाओं का उल्लंघन होते और पढ़ते हुए किस दु:ख से दो-चार हुई हूँ वह भी अपनी ही प्रजाति के लिए नहीं लिख सकती हूँ।

देखिए तो,आज के सम्मानित समाज के लेखक और लेखिकाओं के कितने ही लेख पढ़ चुकी हूँ फेसबुक पर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर कि ‘वीरे द वेडिंग’ बड़ी ही वाहियात फिल्म है स्वरा भास्कर और उसके दोस्तों की फिल्म में दी गई गालियों को लेकर भी कितनी ही आपत्तियों से भरे हुए लेख भी पढ़ने को मिले कि इससे वाहियात फिल्म नहीं हो सकती है।खैर मुझे सोकॉल्ड वाहियात फिल्म की चर्चा यहाँ इसलिए करनी पड़ी क्योंकि मुझे लगा कि क्या सचमुच सभी लोग हंस के दोनों अंकों में आपकी भाषा को भूल गए हैं या भूलना चाहते हैं ज्ञात नहीं होता। यह भी हो सकता है कि आज का साहित्य ही मिथ्याजगत है जहाँ सच को सच कहने का साहस बहुत ही कम लोगों में रह गया है।जोशीजी,आपसे इस फिल्म की गालियों की तुलना करूँ तो मर्यादित भाषा का जिम्मा तो केवल स्त्रियों का ही होना चाहिए,ढँके-छिपे हुए शरीर की तरह उसके दोनों होंठ भी बस चिपके होने चाहिए,उसे कभी भी नहीं खुलने का अधिकार है,गालियों के लिए तो कत्तई नहीं,तभी तो इस फिल्म में नायिकाओं का गाली देना तनिक भी न सुहाया। चाहे कितनी भी कुंठा भीतर दबी हुई हो,बेचैनी हो और उनकी भी इच्छाएँ होती होगी चीख-चीख कर सबकुछ सबको बताने की या मर्दजात को गालियाँ देने की, पर हमारा यह सुशिक्षित समाज आपकी तरह ही शायद सोचता है जहाँ उसके गुस्से में भी उसके मुँह से फूल झरने चाहिए पर आपकी भाषा जब-से मैं पढ़ी हूँ तब-से मर्यादित भाषाओं को लेकर नासमझ हो गई हूँ और सभी साहित्यकार मित्रों से अब जानना चाहती हूँ कि अनुचित भाषा किसे कहते हैं?

हाँ एक विरोधाभास और जो मुझे कचोटती है कि आप जबकि स्वयं ही स्वीकारते रहे हैं कि विनाश के बचाव के लिए मेरे जीवन में ‘इस्केप रूट्स’ हमेशा रहे हैं(पृष्ठ संख्या-26 नवंबर,2004) तो क्या उसी स्वभाव के वशीभूत होकर आपने हंस के कुछ खास अंशों को एडिट करवाया होगा! जब इस्केप करने का हुनर आप जानते हैं तब आप बोन्साई कैसे हो सकते हैं क्योंकि उसको कतरने-छाँटने का काम तो कोई दूसरा ही करता है।
भला कौन वह बेचारा होगा जो चाहेगा इस ज़माने में बोन्साई बनकर ताउम्र जीना
जिसके लिए मुकर्रर किया जाता है बस कहीं सजावट के लिए एक छोटा-सा कोना।

पढ़ें : लेखकीय नैतिकता और पाठकों से विश्वासघात!

सारे सुखों को जीने,भोगने,आदिवासी गरीब स्त्रियों का शिकार करके भी अपने को जनवादी  कहने वाले (और-तो-और आप साहित्य की दुनिया में संवेदनशील भी जाने जाते हैं), आप इस विद्रूप समय के बोन्साई नहीं हो सकते हैं,कत्तई नहीं। यूँ भी आपका परिचय तो एक व्यक्ति के रूप में नहीं एक संस्था के रूप में दिया जाता है तब आप बोन्साई कैसे हुए नहीं समझ में आता है।

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