जातिरूढ़ सास ‘अनारो’ की भूमिका में मैं अपनी सास को कॉपी कर रही हूँ





स्टार भारत का लोकप्रिय धारवाहिक ‘निमकी मुखिया’ अपनी ड्रैमेटिक सीमाओं के बावजूद ग्रामीण समाज की जाति व्यवस्था और महिला मुखिया के संघर्ष पर बना तुलनात्मक रूप से एक बेहतरीन धारवाहिक है. ‘निमकी मुखिया में ‘अनारो’, दलित नायिका की उच्च जाति की सास, की भूमिका कर रही गरिमा सिंह ने ‘स्त्रीकाल’ से बातचीत करते हुए अपनी इंडस्ट्री, समाज की जाति व्यवस्था, स्त्रियों की स्थिति, खुद सहित अन्य अंतरजातीय विवाहों की मुश्किलों, वर्तमान समय के संकीर्ण हालात तथा खुद के बारे में बेवाक राय रखी. धारवाहिक की अक्खड़, जातिग्रस्त, सामंती मूल्यों में जकड़ी और अनपढ़ ‘अनारो’ की भूमिका कर रही गरिमा की बौद्धिकता और आधुनिक चेतना काबिले तारीफ़ है: स्त्रीकाल के लिए बातचीत संजीव चन्दन ने की है. 

गरिमा सिंह

गरिमा आप एक लोकप्रिय धारवाहिक में महत्वपूर्ण भूमिका कर रही हैं, जिसकी पृष्ठभूमि बिहार के मधुबनी जिले की ग्रामीण व्यस्था है, वहां फैला जातिवाद और स्त्रीविरोधी चेतना, बधाई! इस इंडस्ट्री का अपना अनुभव शेयर करें और इस धारवाहिक से जुड़ने की कहानी भी…
मैं 2005 से इस इंडस्ट्री में हूँ. मैंने शुरुआती दौर में कुछ कॉमेडी किये, कुछ दूसरे किस्म के एपिसोडिक किरदार किये. मेरी बेटी हुई और जब मैं दुबारा काम में वापस लौटी तो मुझे माँ का किरदार ऑफर हुआ-2011 में. तब मैं 30 साल की थी. ‘छोटी बहू’ के दूसरा भाग से शुरुआत हुई, उसके बाद ‘फिर सुबह होगी’. ‘फिर सुबह होगी’ बेड़ियों पर आधारित कहानी थी, जिसमें मैंने एक ‘मामी’ का किरदार किया. लाइफ ओके पर एक और सीरियल में माँ का किरदार किया. अब तक मैं निगेटिव भूमिकाएं करती थी, यहाँ मेरी भूमिका पॉजिटिव थी. उस किरदार को लोगों ने काफी पसंद किया. और अब जमा हबीब साहब द्वारा लिखित ‘निमिकी मुखिया’ में निमकी की सास की भूमिका कर रही हूँ. जमा हबीब साहब से मैं सोशल मीडिया-फेसबुक पर जुडी थी, उनकी सोच से प्रभावित थी और वह मुझसे मिलती भी थी. हबीब साहब कमाल के लेखक हैं, उनके साथ काम करना काफी महत्वपूर्ण है. इमोशनल लेबल पर वे बहुत अच्छा काम करते हैं, हालांकि निमकी मुखिया में इमोशन से ज्यादा ड्रामा है. लेकिन इस धारवाहिक में न्यूआन्सेज को पकड़ने और पेश करने की लेखक की काबिलियत से आप जरूर प्रभावित होंगे. इस प्रोजेक्ट से जुड़ने के पहले मैं बनारस की विधवाओं पर केन्द्रित एक कहानी में माँ का किरदार कर रही थी.

अनारो

हाँ, इस सीरियल की कुछ सीमाओं के बावजूद मैं कहूंगा कि यह अन्य धारवाहिकों से एकदम अलग है, और इसीलिए मेरे जैसा दर्शक भी इसे देखता है. 
अधिकाँश टीवी सीरियल्स के साथ दिक्कत है कि वे बड़े ही फेक पृष्ठभूमि पर होते हैं. वे कहीं भी आपके जीवन से जुड़ते हुए नहीं दिखते हैं. अजीब तरह की कहानी होती है, जिनका निजी जीवन से कोई तालमेल नहीं होता है. मुख्य किरदारों की दो से तीन शादियाँ कर दी जाती हैं. मैं इंडस्ट्री से बाहरी व्यक्ति के तौर पर कहूं तो मैं ऐसे किसी भी सीरियल को देखना पसंद न करूं.


दिक्कत यही है, आप सीरियल्स देखें, काफी लाउड, अतार्किक और महिला-विरोधी होते हैं. हर महिला के कई चेहरे, कई चरित्र…
समस्या ही यह है कि चैनल बैठा हुआ है प्रोड्यूसर के ऊपर. पहले एक दूरदर्शन हुआ करता था. कमलेश्वर जैसे लोग निर्णय की भूमिका में थे. कमलेश्वर की सेंसिवलिटी अलग थी. तब साहित्य ही सोचा जाता था, कहानियाँ जीवन से जुडी होती थीं. गाँव-परिवेश से उनका जुडाव होता था. अब ऐसा नहीं है. लेकिन यहाँ मैं अपने किरदार से खुश हूँ. मेरे किरदार को लेकर बहुत से लोगों के मेसेज आते हैं. वे लोग रिलेट करते हैं खुद को. निमकी मुखिया स्टार भारत का नम्बर वन सीरियल है. हालांकि यह चैनल अपेक्षाकृत नया है. चैनलों की टीआरपी के हिसाब से कलर नम्बर वन पर है, स्टार भारत नम्बर 4 का चैनल है, लेकिन इस सीरियल को देखने वाले लोग अच्छा रिस्पांस दे रहे हैं. ‘निमकी मुखिया’ लोगों को बहुत फेक नहीं दिखता है. हालांकि शुरुआती दिनों में ऐसे कमेन्ट जरूर आते थे कि ‘निमकी मूर्ख क्यों है? वह चीजों को समझ नहीं क्यों सकती है, क्यों वह उसी घर में जाना चाहती है, जहाँ लोग उसे पसंद नहीं करते हैं. हालांकि चीजें अब स्पष्ट भी हो रही हैं, आगे जाकर और स्पष्ट होंगी.

दिक्कत यह है कि इन्डियन सोप ऑपेरा 70 के दशक की फिल्मों से आगे नहीं जा रहा है. फिल्मों में उम्र बरिअर टूट गया है. आज 40 साल की अभिनेत्रियाँ भी लीड भूमिका के साथ फ़िल्में कर रही हैं, जबकि सीरियल्स में 30 की उम्र तक अभिनेत्रियों को माँ की भूमिका के लिए मजबूर किया जाता है. 
दरअसल सीरियल आगे कैसे बढेगा, यहाँ चैनल में बैठे लोग पूछते हैं कि ‘प्रेमचन्द कौन हैं?’ ‘उनका सीवी लेकर आओ’. इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है. अच्छी कहानी करने का माद्दा नहीं है. मैं चैलेन्ज के साथ कह सकती हूँ कि हर सीरियल शुरुआती 10 एपीसोड के बाद एक जैसा मिलेगा-सेट पैटर्न पर. उससे बाहर रिस्क फैक्टर है. प्रोड्यूसर को लेकर चिंता शुरू हो जाती है, उसका दवाब शुरू हो जाता है.  उसके पैसे लगे हैं. हालांकि कम उम्र में माँ की भूमिका में होना काफी चैलेंजिंग भी है एक अभिनेता के तौर पर. मुझे तो दादी भी बना दो तो मुझे अच्छा लगेगा. हालांकि कुछ लड़कियां हैं इंडस्ट्री में जो उम्र के लिहाज से माँ बनना नहीं चाहती हैं.

हाँ लेकिन 30-35 तक लीड भूमिकाओं से हटा दिया जाता है, जबकि अब फिल्मों में 30-35 और उससे ऊपर की लडकियां लीड भूमिका में हैं. खैर, जाति को लेकर आपकी इंडस्ट्री को आप कैसे देखती हैं? 

इंडस्ट्री जाति और रिलीजन से ऊपर है. ये चीजें यहाँ मायने नहीं रखती हैं. रामायण हो, महाभारत हो या महाकाली जैसे सीरियल, उसके ज्यादा से ज्यादा किरदार मुसलमान हैं. कलाकारों की कोई जाति नहीं होती, उन्हें हर किरदार निभाना होता है. मुझे लगता है कि यह कौम ही ऐसा है. हो सकता है पहले ऐसा कभी रहा हो, लेकिन अब तो काफी बदलाव है. हालांकि अभी पिछले पांच साल से विचित्र स्थिति है, अलग माहौल है, फिर भी इसका असर हमारी इंडस्ट्री पर नहीं पड़ा.

शूटिंग के बाद



‘निमकी मुखिया’ की कहानी पर तो आपसब की राय बनती होगी?
शुरुआती दौर में इस पर बात होती थी. जैसे वैसे कलाकार जो बिलकुल शहरों में रहे हैं, मसलन निमकी की भूमिका कर रही भूमिका हो या बब्बू की भूमिका में अभिषेक आश्चर्य करते थे कि ‘ऐसा होता है क्या?’ जिन्होंने गाँव नहीं देखा है, शहरों में रहे हैं उनके लिए यह सब नया है, क्योंकि शहरों में जातिभेद तुलना में कम है. मैं चुकी गाँव से रही हूँ, मैं यह सब समझती हूँ. मैं कायस्थ परिवार की लडकी रही हूँ. मेरे नाना की हवेली थी. मैं देखती थी कि मेरे नाना, नानी वहां बैठे होते तो जो दलित परिवार के लोग उस ओर से गुजरते थे वे चप्पल उठाकर हवेली के एरिया में आते-जाते थे और नाना-नानी को नमस्कार करते. वे अंदर नहीं आ सकते थे. उन्हें बाहर बैठना होता था. इसलिए मैं जानती हूँ कि यह कितना विकट अनुभव हो सकता है. कितना पहाड़ सा अनुभव. यह शहरों के बच्चों को नहीं पता चल सकता है. ऐसी गंदगी उन्हें नहीं पता. मैं उन्हें बताती हूँ कि यह तो कुछ ही नहीं है जो इस सीरियल में दिखा रहे हैं. हो तो बहुत कुछ सकता है, यदि कपड़ा छू जाये, बर्तन छू जाये या शरीर छू जाये तो  कोड़े भी पड़ सकते थे. जमा साहब ने लोगों को बताया अपना अनुभव. हालांकि मैंने ये चीजें तब देखी जब ये ख़त्म हो रही थीं. जब मैंने ऐसा देखा है तो बताइये पहले चीजें कितनी भयावह होंगी. अब ये चीजें फिर से बढ़ रही हैं. हर दिन न्यूज में रहता है कि दलितों को मार दिया गया.

यह सवाल जमा साहब से ज्यादा बनता है कि एक राजनीतिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म में दलित नायिका को एकदम से अभिज्ञ किरदार में ढाला गया है, हालांकि हो सकता है वह आगे जाकर ऐसी न रहे
दरअसल यह लिमिटेड एपिसोड्स का सीरियल नहीं है. कई एपिसोड्स में फैला है, इसलिए टीआरपी भी बहुत हद तक कहानी और करेक्टर की गति को प्रभावित करती है. यदि एपिसोड्स लिमिटेड होते तो कहानी और ज्यादा इंटेंस होती.

हालांकि यह भी दिख रहा है कि एक फ्यूडल घर खंड-खंड हो रहा है. 
हाँ, फ्यूडल वर्चस्व को खंड-खंड किया जा रहा है. जमा साहब अपने क्राफ्ट में भी बेहतरीन हैं. उनका हर किरदार दिखता है. इस सीरियल में भी यह है.

बेटी और पति के साथ गरिमा सिंह

अपने बारे में बतायें
मैंने मास्टर्स तक की पढाई इलहाबाद से की है. रिसर्च भी कर रही थी म्यूजिक से, जिसे पूरा नहीं कर पाई. मेरे माँ-पिताजी देवरिया से हैं. पिताजी इलहाबाद में पोस्टेड थे, माँ हाउस मेकर हैं. उन्होंने एमए-एमएड कर रखा है. मेरी माँ की बदौलत ही मैं आगे कुछ कर पायी. वे पढी-लिखी और सुलझे विचारों वाली हैं. पढाई के अलावा मैं जो कुछ भी कर पायी वह माँ की मदद से ही. मेरा समय इलाहबाद में ही गुजरा है, छुट्टियों में गाँव आया-जाया करती थी. हमलोग एक भाई और एक बहन हैं. बड़ा भाई आईएएस है, जम्मू में पोस्टेड है. मैंने पढाई के दौरान ही थिएटर करना शुरू किया. मेरी मुलाकात उन्हीं दिनों विक्रांत- से हुई, जिनकी पत्नी हूँ मैं. वे लोग थिएटर करते थे. वे और उनके भाई. एक म्यूजिकल नाटक के सिलसिले में उनसे मुलाक़ात हुई. मेरे गुरू जी ने उसके लिए म्यूजिक किया था. पहली बार वहीं से मैं थिएटर के बारे में जान सकी. मैं बीच-बीच में प्रोक्सी करने लगी, यानी कोई किरदार निभाने वाला नहीं हो तो मैंने उसकी जगह पर वह कर लिया. वहीं से हमारी दोस्ती डेवलेप हुई. विक्रांत के बड़े भाई शांतिभूषण जी ने मुझे लीड भूमिका में लेकर एक नाटक किया. विक्रांत का परिवार गाजीपुर का है. हालांकि मेरे पिताजी मेरे थिएटर करने के पक्ष में नहीं थे. लेकिन यह संभव हो पाया. दो-तीन साल थिएटर करते हुए विक्रांत के साथ हमारी अंडरस्टैंडिंग अच्छी बनी और फिर हमने शादी कर ली.

अंतरजातीय विवाह?
शादी में जाति एक मुद्दा बना. मैं कायस्थ थी और विक्रांत राजपूत. कायस्थों के लिए कमाई वाली पढाई मायने रखती है लेकिन विक्रांत पढ़े-लिखे तो बहुत थे लेकिन कमाई वाली पढाई नहीं मानी जाती थी वह. माँ चाहती थी कि मेरी शादी डाक्टर इंजीनियर से हो. लेकिन हम जिद्द पर थे, और आखिरकार यह संभव हो पाया. यह 17 साल पहले की बात थी. जाति इलहाबाद जैसे शहर में बहुत मायने रखती थी. लेकिन मेरे ससुर इस मामले में आगे आये. उन्होंने पिताजी को मनाया. हालांकि यह एक बड़ा संकट भी था कि हम दोनो कुछ नहीं कर रहे थे. उसी दौरान हमने आकाशवाणी का फॉर्म भरा और हम आकाशवाणी में चुन लिये गये.

जाति-भेद को तब खुद भी महसूस किया आपने, है न? 
शादी के बाद जाति का दंश हमने लम्बे अरसे तक झेला. विक्रांत के गाँव ने कहा कि हम जाति-बाहर करेंगे. गाजीपुर के उस गाँव में मैंने बहुत कुछ सहा. औरतें आती थीं और मेरा हाथ-पाँव छू-छू कर देखती थीं, मानो यह कोई दूसरे ग्रह से आयी हुई लडकी तो नहीं है न. ससुर मेरे बहुत प्रोग्रेसिव हैं, बहुत ओपन माइंडेड. उनकी वजह से चीजें आसान हो पायीं. घर की महिलाओं की भूमिका मैं कैसे बताऊँ. मेरी सास जो अब मुझे बहुत मानती हैं, तब बहुत स्ट्रिक्ट थीं.

वे पढी-लिखी हैं? 
नहीं बिलकुल नहीं. उनके लिए बड़ी समस्या थी कि वे अपनी जाति से एक लड़की लाना चाहती थीं और उनके घर में एक ऐसी लडकी आकर बैठ गयी थी जिससे वह बिलकुल सहमत नहीं थीं. वे मेरी तरफ देखती भी नहीं थीं.

माँ-पिता के साथ गरिमा सिंह

महिलाएं कास्ट की विक्टिम भी हैं और कास्ट से लोडेड भी. 
बिलकुल, बिलकुल. और मैं बताऊँ मैं कहीं न कहीं अपने सास की कॉपी करती हूँ. वह सब हमने देखा हुआ है, जो निमकी की सास कर रही है. हालांकि समय के साथ उनमें बड़ा बदलाव आया. आज वे मुझे बहुत प्यार करती हैं और यह अहसास भी करती हैं कि उनकी गलती थी. हालांकि मैं उनकी गलती नहीं मानती हूँ. औरतों का दायरा बहुत छोटा है. मेरी सास ने घूँघट से बाहर अपना चेहरा कभी नहीं निकाला. सडक पर चलते हुए कभी उन्होंने घूँघट नहीं उठायी थी. यानी कभी उन्होंने सूरज नहीं देखा होगा. वह रौशनी नहीं देखी होगी, जो दिन के उजाले में होती है. दरअसल महिलाओं की परवरिश ही ऐसी है.

यानी जाति का दंश आपने झेला जबकि आप दलित नहीं थीं. 
हाँ बिलकुल. हमारा समाज अजब है. कहता है कि लडकियों की कोई जाति नहीं होती फिर भी आप भेद भाव करते हैं. औरतों की कोई जाति नहीं होती, घर नहीं होता है.

जाति होती भी नहीं है और जाति उनसे ही सुरक्षित होती है. 
हाँ, कई लड़ाइयाँ लम्बी होती हैं. मैंने इसके लिए बहुत संघर्ष किया है घर के भीतर भी. यहाँ तक कि घूँघट हटाने के लिए. मैंने खूब सवाल किये. सास के पास कोई जवाब नहीं थे. हालांकि विक्रांत और मेरे ससुर ने मेरा बहुत साथ दिया-वह अकेली लडाई मेरे और मेरे सास के बीच थी. आज बदलाव हुआ है.

इंडस्ट्री में सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन की क्या स्थिति होती है. 
एक्सप्लॉयटेशन होंगे, लेकिन वह दूसरों के अनुभव हो सकते हैं. हालांकि कई मामलों में पीड़ित की इच्छाएं भी काम कर रही होती हैं, अतिरिक्त हासिल की आकांक्षा से प्रेरित. एक्सप्लॉयटेशन जैसी यहाँ है वैसी ही कई संस्थानों में होती है .

संजीव चंदन स्त्रीकाल के सम्पादक हैं 

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