बच्चों के यौन उत्पीड़न मामले को दबाने, साक्ष्यों को नष्ट करने की बहुत कोशिश हुई: एडवोकेट अलका वर्मा

मुजफ्फरपुर बिहार के शेल्टर होम में बच्चियों के साथ हुए अमानवीय, बर्बरतापूर्ण यौन-शोषण की घटना और केस से जुड़े सामाजिक, न्यायिक और राजनीतिक पहलुओं पर खुलकर अपनी बात रखी है पटना हाई कोर्ट की वकील व न्यायिक कार्यकर्ता (ज्यूडिशियल एक्टीविस्ट) अलका वर्मा ने. इसकी सीबीआई जांच और जांच का दायरा बढ़ाने की मांग के साथ उन्होंने पीआईएल भी की है. उनसे स्त्रीकाल के लिए  बातचीत की स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सुशील मानव ने.

अलका वर्मा (बायें से पहली) अपने साथी वकीलों के साथ





सबसे पहले तो हमें अपना कुछ परिचय दीजिये कि आप करती क्या हैं और आपके संगठन का क्या नाम है और ये किस तरह का काम करता है।
मेरी कोई संस्था नहीं है। मैं एक एडवोकेट हूँ पटना हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करती हूँ समाजिक सरोकार से जुड़े जो मुद्दे होते हैं उन्हें उठाती रहती हूँ। मैं किसी संस्था से ऐसे तो जुड़ी हुई नहीं हूँ लेकिन जो संस्थाएं सामाजिक सराकारों से जुड़ी हुई हैं उनके लिए मैं लीगल एडवाइजर के तौर पर सेवा देती रहती हूँ।

बतौर लीगल एडवाइजर आप कौन-कौन सी संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं।
अनऑर्गेनाइज्ड बिहार डोमेस्टिक वर्कर्स वेलफेयर, एनसीबीएचआर, ऑल इंडिया दलित मुस्लिम युवा मोर्चा आदि । आई एम ओपेन फॉर ऑल, किसी को भी अपने ऑर्गेनाइजेशन के लिए मेरी कानूनी सलाह चाहिए तो मैं उन लोगो को देती हूँ।जैसे कि बिहार डोमेस्टिक वर्कर्स के लिए बिहार अनआर्गेनाज्ड वर्कर्स सोशल सिक्योरिटी एक्ट 2008 को राज्य में लागू करवाया,  जिसे सेंटर ने इंप्लीमेंट किया था, लेकिन स्टेट ने इंप्लीमेंट नहीं किया था. मैंने पीआईएल फाइल करके उसको इंप्लीमेंट करवाया, बिहार में उसके बोर्ड एंड रूल बनवाये। मैंने एनसीबीएचआर  आदि संस्था, बेसिकली मुद्दों के  समर्पित संस्थाओं   के साथ रह कर ‘प्रॉपर इंप्लीमेंटेशन ऑफ एक्ट’ के लिए काम किया। पीआईएल फाइल की। प्रिजनर्स फर्म में कंसल्टेंट थी तो प्रिजनर्स के लिए बहुत काम किया। कंडीशंस ऑफ प्रिजनर्स, चाइल्ड मैरिज के लिए काम किया। पटना हाईकोर्ट में दो रिटेनर लॉयर हैं, उनमें से एक मैं हूँ। उसमें भी हम लोग मुफ्त कानूनी सलाह देते हैं। मुफ्त में वकील देते हैं।

मुजफ्फरपुर पीआईएल जो डाली है आपने कुछ उसके बारे में बताइए। आपको ऐसा क्यों लगा कि इसमें पीआईएल डालनी चाहिए।या आपने पीआईएल दाखिल की तो इसका कुछ विरोध हुआ क्या?
कोई भी सेंसिटिव सिटीजन होगा तो उसकी अंतरात्मा छटपटाएगी कि 7-13  साल की मासूम बच्चियाँ हैं, उनके साथ में ऐसी घटना घट रही है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के कुछ लोग हैं यहाँ पर, वे मेरे टच में रहते हैं, तो उन्होंने मुझे फर्स्ट हैंड एकाउंट दिया वहाँ का। और फिर मुझे वहाँ का फर्स्ट हैंड एकाउंट बहुत जगह से मिला। फिर मैंने महसूस किया कि इसमें और कुछ हो जाए उससे पहले मैं पीआईएल फाइल करती हूँ। तो मेरे जूनियर हैं नवनीत उनको मैंने पिटीशनर बनाया और मैं वकील रही।और हम लोगो ने इसे सीबीआई इंक्वायरी के लिए फाइल किया। इस मामले की पहली सुनवाई हो चुकी थी,  6 अगस्त को दूसरी थी. लेकिन मैंने सोचा गर इसको इतना मेंशन करके नहीं करूँगी तो कहीं मेरे इवीडेंस हैं, जितने विटनेसेस हैं वो गायब हो जाएंगे। हालाँकि 6 अगस्त को तारीख मिली थी पर उससे पहले ही मैंने मेंशन किया और जब हेडलाइन हुआ कि आज हाईकोर्ट में सुनवाई है सीबीआई वाले मामले की तो, और बाकी जनता और एक्टीविस्ट लोग भी तो प्रेशर बनाए हुए थे, तो, दैट टाइम गवर्नमेंट बकल डाउन यू नो। और साढ़े दस बजे कोर्ट बैठती, हमारा केस पहली ही सुनवाई में था, उससे पाँच मिनट पहले ही कोर्ट में रहने वाले उनके पत्रकारों ने मुझे बताया कि मैडम सीबीआई इन्क्वायरी की अनुशंसा हो गई है। सो इट्स वेल एंड गुड यू नो। अब हमारी कोशिश है कि हाईकोर्ट की निगरानी में जाँच हो। अभी 6 तारीख को हमारा ये मामला फिर सुना जायेगा। सीबीआई इन्क्वायरी का आर्डर हुआ है पर हमारा प्रयत्न ये है कि तमाम शेल्टर होम जो हमारे यहाँ हैं, अक्रास द बिहार शेल्टर होम की जाँच हो। क्योंकि आपने देखा होगा कि अलग-अलग जगह से भी मोतीहारी,भागलपुर, मुंगेर, गया अररिया, अलग जगह से इश्यूज आ रहे हैं। 15 शेल्टर होम को चिन्हित किया हुआ है।एक मुजफ्फरपुर हो गया तो बाकी सब भी मुजफ्फरपुर न बन जाएँ। इट्स ऑलरेडी हैपनिंग। मुजफ्फरपुर में उजागर हो गया बाकी सब में अभी उजागर नहीं हो रहा है। और क्या-क्या घटनाएं घट गई होगीं, एक विजिलेंट सिटीजन के नाते ये हमारा कर्तव्य है कि जब भी हम ऐसा देखते हैं कुछ गलत हो रहा है, और आप सक्षम हैं तो किसी भी फोरम से आप उसको उठाइए और उन्हें न्याय दिलाइए।



बिहार मीडिया की क्या प्रतिक्रिया है, आपको कितना तवज्जो दे रही है इस केस को लेकर।
शुरु में तो बिहार मीडिया बहुत शांत रहा इस मामले में और जो प्रोटेस्ट सडकों पर हुआ मुजफ्फरपुर को लेकर बिहार मीडिया द्वारा उसे अनदेखा कर दिया गया। मैंने देखा कि बहुत सारे संगठनों ने मिलकर प्रोटेस्ट किया तो उसको भी कवरेज नहीं दिया गया। वह तो सोशल मीडिया से हम लोगो को मालूम हो जाता है। सोशल मीडिया हैज बीन रिवोल्यूशनरी थिंग, यू नो अदरवाइज प्रिंट मीडिया पर निर्भर रहते तो आज तक मुजफ्फकपुर के बारे में आम जनता को पता ही नहीं होता। क्योंकि इसको बहुत ही दबाने की कोशिश हुई है मुजफ्फरपुर इंसीडेंट को प्रिंट मीडिया द्वारा। लेकिन बाद में तो फिर इतना प्रेशर बन गया कि प्रिंट मीडिया भी कुछ दिनों बाद खबरें निकालने लग गई। जो भी पेपर्स हैं उन्होंने बहुत अच्छे से फॉलोअप किया है बाद में। किसी मुद्दे को लेकर पेपर सक्रिय रहते हैं कुछ पेपर निष्क्रिय रहते हैं। मीडिया का तो बहुत ही अफरमेटिव रोल है हमारी सोसायटी में। आज से तीस साल पहले जो मीडिया में नैतिकता थी, मीडिया हाउसेसे के बढ़ने से उसमें कमी आई है। पर कुछ हैं जो अपने इथिक्स और नार्म्स को फॉलो कर रहे हैं। कहते हैं यह चौथा स्तम्भ है तो समाज के प्रति इसकी अकाउंटिबिलिटी ज्यादा है। तो इन्हें ये समझना होगा। ऐसा न हो कि लोग टीवी देखना छोड़ दिया, तो पेपेर पढ़ना भी छोड़कर सोशल मीडिया पर ही निर्भर हो जाएं। सो इट्स रिस्पांसिबिलिटी ऑफ होल मीडिया। प्रिंट मीडिया की तो गाँव गाँव घर-घर में पहुँच होती है, तो ये जिम्मेदारी बनती है कि वह सारी ख़बरें ईमानदारी के साथ रखे।


बिहार से बहुत सारे साहित्यकार और बुद्धिजीवी, रंगकर्मी ताल्लुक रखते हैं। पर वे भी चुप्पी ओढ़े हुए हैं। फेसबुक या दूसरे सोशल साइट पर भी उनके द्वारा बहुत कुछ नहीं लिखा कहा गया है।
पता है क्या हुआ है वास्तव में, पहले घटनाएं घटती थीं पर सामने नहीं आती थीं, अब कहीं-कहीं सामने आ रही हैं। लोग बहुत इनसेंसिटिव होते जा रहे हैं प्रतिक्रिया देने में। सीबीआई जांचके लिए जब मैंने पीआईएल किया तो सबने यही सोचा कि मैं सरकार के विरुद्ध में जाकर काम कर रही हूँ। मैंने पीआईएल किया है मुझे इससे मतलब नहीं है कि ये सरकार के पक्ष में है या विपक्ष में । मैं न्याय के पक्ष में खड़ी हूँ ये किसी के पक्ष में जाये, या विपक्ष में इससे मुझे मतलब नहीं है। एडवोकेट जनरल जो हैं, वे भी नाराज होने लगे-सबने कहा कि अब तो तुम्हारा सरकारी पैनल में आना मुश्किल है। मैंने भी कहा (हँसते हुए) रहने दीजिए आए नहीं आएं क्या फर्क पड़ता है। मेरे जीवन का ध्येय है न्याय के लिए लड़ना, उस ध्येय के साथ मुझे कुछ मिलता है तो ठीक है अडरवाइज आई रियली डोंट केयर। इससे पहले भी मैंने जो पीआईएल फाइल की है और करती रहती हूं तो लोग कहते है कि सरकार के विरुद्ध  है। जो भी घटना घट रही है और गलत हो रही है तो सरकार तो कहीं न कहीं से उसमें इनवाल्व रहती ही है ना। यह जिम्मेवारी भी तो सरकार की ही है ना।

स केस में अब नितीश सरकार में भाजपा मंत्री मंजू वर्मा के पति चंद्रेश्वर वर्मा का नाम आया है इसमें और नेता मंत्री विधायक संलिप्त मिल सकते हैं। स्थानीय लोग आगे इस केस में और कई सफेदपोशों के नाम उजागर होने की संभावना जता रहे हैं। जाहिर है ये केस आगे खुलेगा तो कहीं न कहीं उन लोगो की भी गर्दन पकड़ी जायेगी । इस केस में और भी कई चौंकाने वाले लोगों के नाम का खुलासा हो सकता है, जो सत्ता या सत्ता के सहयोगी दल से ताल्लुक रखते हैं।  
देखिए कहते हैं न कि दे आर नाट गिल्टी अन टू प्रूवेन यही बात है। लेकिन जब बात आ  रही है तो तहकीकात तो होनी चाहिए। मैं आपको बात दूँ कि मैं कास्ट और क्लास की बात नहीं करती हमेशा ह्युमन बींग की तरह बात करती हूँ, लेकिन मुझे कुछ लोगो ने बोला कि मैडम हमें मालूम है कि मंजू देवी आप ही की कास्ट की हैं। तो मैंने बोला कि देखिए इससे मेरा सीबीआई जांच कभी हैंपर नहीं होने वाला है। कास्ट का क्या है इसमें मेरे अपने रिश्तेदारा होंगे तब भी नहीं। यह न्याय की बात है। मेरा ध्येय मेरा लक्ष्य सिर्फ जस्टिस है। यही निर्धारित करता है कि मुझे क्या करना है। छोटी छोटी बच्चियाँ, जिनका कोई नहीं है उनके लिए हममें से किसी न किसी को तो आना ही था। इसलिए मैं लड़ी। मैं हमेशा ऐसे लोगों की लड़ाई लडना चाहती हूँ और मैं सबसे कहती भी रहती हूँ कि ऐसे मुद्दे हो तो प्लीज लाइए, मुझे बताइए। जब महिलाएं बहुत सारे मुद्दे लेकर सड़क पर उतरती हैं तो भी मैं उनको कहती हूँ चाहे काट्रैंक्चुअल हों, चाहे आशा वर्कर्स हों, चाहे रसोइयाँ हो, मैं कहती हूँ आप अपना मेमोरेंडम ले आइए मैं आपको कोर्ट से दिलवाती हूँ। तो हम कोर्ट से बहुत सारी चीजे करवा सकते हैं। सड़क पर विद्रोह करना तो एक बहुत अच्छी चीज है कि लोगो को प्रेशराइज करना । लेकिन मैं चाहती हूं कि लोग आएं और मुझसे बोले कि मैं अपने स्तर पर भी भरसक प्रयास करती रहती हूँ।लेकिन मैं चाहती हूँ कि लोग मुझसे जुड़ें । कोर्ट एक पॉवर है, एक शस्त्र है इसका उपयोग होना चाहिए।

न्यायिक लड़ाई के जरिए आप समाज को लेकर आगे बढ़ती हैं जैसा कि ये आपका पेशा भी है। आप जुडिशियरी से ताल्लुक़ भी रखती हैं तो अच्छी तरह समझती हैं, लेकिन इधर विगत कई सालों में न्यायपालिका की छवि धूमिल हुई है, उसकी गरिमा का हनन हुआ है, लोगो का भरोसा कहीं न कहीं न्यायपालिका से कम हुआ है। फिर चाहे वह  सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का प्रेस कान्फ्रेंस करना रहा हो या फिर जज लोया का केस या फिर हाशिमपुरा या फिर बिहार के तमाम जातीय जन संहारों के जो फैंसले आए हैं उनमें कोई दोषी नहीं पाया गया, किसी को सजा नहीं हुई तो न्याय पालिका की खुद की विश्वसनीयता भी कहीं न कहीं कठघरे में खड़ी होती है।

सीबीआई वाले जाँच का जो जिरह करना था उसमें कोर्ट का कहना था कि आप सीबीआई को क्यों केस सौंपना चाहती हैं, क्यों नहीं चाहती कि सरकार करे, बिहार का जो प्रशासन है वह करे। तो मेरा कहना है कि इनवेस्टीगेशन ही मुख्य है। इनवेस्टीगेशन अगर गड़बड़ हो गयी तो न्यायपालिका चाहकर भी आपको न्याय नहीं दे पाएगी। कोर्ट में मेरा प्वाइंट ही यही था कि बाथे-बथानी में इतने लोगो का जनसंहार हुआ लेकिन किसी का कनविक्शन नहीं हुआ। तो हम सब तो न्यायपालिका पर ही उँगली उठाते हैं कि आपने न्याय नहीं किया। पर इन्वेस्टीगेशन गलत होगा तो तथ्यों को कमजोर करेगा। और जब जिरह होगी तो सब चीज कमजोर होते-होते न्याय जिसको मिलना चाहिए उसे न मिलकर दूसरे को मिल जाएगा।  कोर्ट में मेरा प्वाइंट ही यही था कि बाथे-बथाने में गर किसी की कन्विक्शन नहीं हुआ तो मतलब कि इन्वेस्टीगेशन प्रॉपर नहीं हुआ था। और यही बात यहाँ पर हो रहा है इस केस में। अगर इन्वेस्टीगेशन सीबीआई को नहीं सौंपा तो एक दिन बृजेश ठाकुर खुले में घूमता चलेगा। और कहेगा कि देखा हमारा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि एक महीना हो गया रिपोर्ट सबमिट हुए लेकिन एक महीने के बाद हम एफआईआर दर्ज करते हैं। मतलब एक महीने में उनको साक्ष्य गायब करने का मौका मिल गया। तो देर हुई। सोशल जस्टिस डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी से जब देर का कारण जब पूछा गया तो वे कहतें है कि हम मंत्रणा कर रहे थे अपने न्यायिक सलाहकारों से कि क्या होना चाहिए।दिस इज वेरी शेमफुल एंड डिसग्रेसफुल ऑन्सर। क्योंकि यदि आपको लीगल इशूज पर मंत्रणा करनी है तो लीगल ल्युमिनरी हैं हाइकोर्ट में। आपके एडवोकेट जनरल हैं, उनसे बात करते। एक महीना देर कर देना एफआईआर करने में और फिर एफआईआर होने के बाद दो महीने तक आप बृजेश ठाकुर को रिमांड पर नहीं ले रहे हैं। ये सब चीजें हैं। किसी लड़की के साथ में जब पॉक्सों एक्ट लगा हुआ है तो आपको 72 घंटे के अंदर में मेडिकल जाँच करनी हैं। आपने इसमें भी एक महीने एफआईआर करने में,  औरचार सप्ताह यहाँ पर देर कर दी । हरप्रीत कौर, जो एसएसपी है, वह अपने हाथ खड़े कर रही थी, उनसे नहीं हो पा रहा था, वह कह रही थी कि अब मुझे सीआईडी की मदद लेनी पड़ेगी।तो  जब वह कह रही हैं कि मुझे मदद चाहिए, जब वह इंगित कर रही हैं कि मेडिकल इक्जामिनेशन लडकियों का गलत तरीके से हुआ है डॉक्टर के बजाय नर्सों ने किया है। वह मदद माँग रही हैं सीआईडी से और सेंटर मदद दे भी रहा है लेकिन स्टेट मना कर रहा है, समझ जाइए कि दाल में कुछ काला है। वह तो एक्टीविस्ट हैं, जिन्होंने सड़क पर निकलकर हंगामा किया, अलग-अलग पार्टी ने सदन में हंगामा किया सीबीआई की मांग की, हाईकोर्ट सुनवाई पर राजी हुई तो वह इस प्रेशर से बकलडाउन हो करके मान गए वर्ना तो हम हंड्रेड परसेंट स्योर थे कि हाईकोर्ट से सीबीआई जाँच का ऑर्डर लेके रहेंगें। और हाईकोर्ट से सीबीआई जाँच का ऑर्डर हो भी जाता। लेकिन फिर सरकार के पास जनता को दिखानेवाला मुँह नहीँ रहता जल लोग कहते कि हाईकोर्ट ने सीबीआई जाँच का ऑर्डर दिया है सरकार को इन्होंने अपने मन से तो नहीं किया। सब कुछ सोच विचारकर फिर उन्होंने खुद ही अनुशंसा कर दी।



पर खुद सीबीआई की साख भी सवालों के गहरे में है। कठुआ मामले में आम लोगो का भरोसा स्टेट इनवेस्टीगेशन टीम की जाँच के साथ था, जबकि आरोपियों को बचाने के लिए केंद्र की सत्ताधारी दल के लोग सीबीआई इनक्वायरी थोप रहे थे।
जस्टिस लोया वाले मामले में कितना मैशअप हुआ है जानते ही हैं। लेकिन हम गर सीबीआई इनक्वायरी के लिए कह रहे हैं तो हमारे पास कोई और चारा ही नहीं है। सीबीआई इवन्क्वायरी का इधर के वर्षों में ट्रेंड देखें तो वे बहुत सारे मैटर पर किसी नतीजे पर पहुँच ही नहीं पाए हैं। सारे ही आधे-अधूरे करके छोड़ दिए हैं। वो इधर किसी मुकाम पर नहीं पहुँच रहे हैं। तो सीबीआई की साख भी अब वो नहीं रही है लेकिन फिर हमारे पास और कोई विकल्प भी नहीं हैं। लेकिन फिर भी हमें सीबीआई से कुछ निष्पक्षता की उम्मीद है, जबकि सीआईडी भी स्टेटफंक्शनरी या उसके अधीन है तो वो भी स्टेट का हथकंडा बनेगी ही। पर हाँ सीबीआई को गर सेंट्रल गाइड करेगी तो वो अपने पक्ष के लोगो को बचाएगी। तो यही समय है जब सिविल सोसायटी की रिस्पांसबिलिटी बढ़ जाती है उन्हें ऑनेस्ट होना पड़ेगा। तो मेरे पीआईएल में ये भी दर्ख्वास्त है कि शेल्टर होम को मॉनीटर करने के लिए एक एक मॉनीटरिंग समिति होनी चाहिए जिसमें सिविल सोसायटी के सदस्य, जैसे कि डॉक्टर पत्रकार, सायकोट्रिस्ट, लॉयर, एडमिनिस्ट्रेशन, एकैडमेशन और जूडिशियल एकेडमी के लोग को शामिल करके इनकी एक टीम होनी चाहिए। जो कभी भी जाकर औचक निरीक्षण करे। सबकुछ फ्री एंड फेयर होना चाहिए। आप इतना बंद बंद करके रखते हैं और हर महीने जूडिशियल एकेड़मी के लोग जाकर मुआयना करते हैं और सब लीपापोती करके आ जाते हैं। किसी को पता भी नहीं चलता।

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