काश ! ऐसी पत्नियाँ, बहनें समाज का अधिकतम सच हो जायें!

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ज्योति प्रसाद


क्या आपको मदर इण्डिया फिल्म का अंतिम दृश्य याद है? क्या आपको राधा, जिसका किरदार हिंदी सिनेमा की अदाकारा नरगिस ने निभाया था, याद है? महबूब खान द्वारा निर्देशित यह फिल्म सन् 1957 में प्रदर्शित हुई थी. इसी फिल्म से अंग्रेज़ी टर्म ‘मदर इण्डिया’ इतना लोकप्रिय हुआ कि सबकी ज़ुबान पर आज तक मौजूद है. लेकिन अगर कोई ‘मदर इण्डिया’ का अनुवाद ‘भारत माता’ टर्म से करे तो खटका होगा. पर इस फिल्म को अमरीकन लेखिका कैथरीन मायो द्वारा लिखित किताब ”मदर इण्डिया”(1927) के जवाब में यह नाम मिला था. मायो ने भारतीय समाज को निशाना बनाया था. खैर यह शोध का क्षेत्र भी है. इस पर बात आगे कभी होगी.
कोई शक़ नहीं कि इस फिल्म की सफलता का आलम यह है कि मैं इस फिल्म का ज़िक्र आज कर रही हूँ. इस फिल्म को इस समय याद करने के पीछे का कारण एक अमानवीय दुर्घटना है. फिल्म के अंत में मुख्य किरदार राधा की बंदूक से एक गोली निकलती है और एक युवती को उठाकर भाग रहे बेटे के सीने में जाकर अपना ठिकाना पाती है. वास्तव में यह दृश्य उस इंसानियत से जुड़े मूल्य के बारे में भी बताता है, जिसे आजकल के दौर में लोग ठीक से जानते तक नहीं. यहाँ यह स्पष्ट हो कि किसी की जान लेने को इंसानियत नहीं कहा जा रहा.

हालाँकि इस फिल्म में इसी दृश्य की आलोचना भी बहुत हुई है. कुछ आलोचकों का कहना है कि राधा का अपने बेटे को ‘इज्जत’ की बात कहते हुए गोली से मारना यह बताता है कि औरत के शील या सती होने की जो परम्परा है वह बरक़रार रहेगी. इज्जत से ही औरत को चिपका कर रखा जाएगा. और मौजूदा पम्परा यही चाहती भी है. लेकिन इस दृश्य को ऐसे देखे जाने की एक छोटी मांग तो की ही जा सकती है जिसमें गलत को गलत देखा जा रहा है. रेवाड़ी में अमानवीय बलात्कार में पकड़े गए आरोपियों में से एक आरोपी की पत्नी ने कुछ ऐसा ही काम किया है. वह पति का घर छोड़ कर जा चुकी है. उसने अपना सम्बन्ध भी ख़त्म कर लिया है.

गलत और सही की अगर अपनों के बीच ही निशानदेही करनी पड़ जाए तो किसे चुना जाए? आधुनिक समय में लोगों को इसमें कोई ख़ासी मशक्कत करते हुए नहीं देख पा रहे हैं. रिश्तों के पलड़े भारी पड़ ही जाते हैं. दिल्ली में हुई निर्भया घटना पर जब इंडिया’ज़ डॉटर (निर्देशित-लेज़ली उडविन 2015) नामक फिल्म बनाई गई तब अपराधियों के परिवार वालों से फैसले पर बात की गई. तब एक परिवार की युवा (युवती) रिश्तेदार ने कहा कि गलती तो उस लड़की की ही थी. रात में ऐसे कपड़े पहनकर नहीं निकलना चाहिए था. इसके बाद उन्होंने तमाम तर्क दिए अपनी बात को रखने के बाद.

इस युवा युवती या इस तरह की तमाम महिलाओं को अपने बेटे, पति या पिता पर आरोप/अपराध साबित हो जाने के बाद भी बचावकर्ता की भूमिका में देखना बहुत हैरान करने वाला व्यवहार नहीं लगता. यह सोच सिर्फ एक दिन में नहीं बनी है. इस सोच को महिलाओं के दिमागों में बाकायदा गढ़ा गया है. ऐसे बहुत से उदाहरण हैं/होंगे जहां वे विरोध में रही हैं/होंगी. लेकिन इस तरह के उदाहरणों की संख्या कम ही दिखती है जब बात बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की आती है.

रेवाड़ी में युवती से सामूहिक बलात्कार में शामिल एक अभियुक्त (सेना का जवान)  की पत्नी ने पति से अपने रिश्ते को खत्म करते हुए कहा कि उसे कोई भी सज़ा मिले उसे इससे कोई मतलब नहीं. इसी अभियुक्त की बहन ने गिरफ्तारी से पहले पुलिस के सामने समपर्ण करने की बात भी कही थी. यह कई मायनों में साहस का का परिचय है. इसी साहस से मूल्य तय होते हैं. जब कोई कहता है कि गलत तो गलत होता है तब इसका मतलब कठिन हालातों में भी गलत को पहचान कर गलत कहने का साहस है.

आज के समय में क्या इस तरह के बयान हमारे आसपास की अन्य महिलाओं के बर्ताव में दिखते हैं? किसी भी तरह के आरोप में पकड़े जाने पर वकील से पहले बचावकर्ता की भूमिका में परिवार के लोग पहले दिखाई देते हैं. अपने व्यक्ति या रिश्ते के साथ खड़े होना गलत नहीं है. पर यदि रिश्ते से जुड़ा व्यक्ति गलत कर रहा है, यह जानते हुए भी उसके साथ खड़े होना खटकता है.

आज भी टीवी पर जब तब ‘मेरा पति मेरा देवता है टायप की फिल्में रोज़ आती रहती हैं. एक तो गीत भी है. “भला है बुरा है, कैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है..!” वास्तव में यह खतरनाक सोच है. यदि व्यक्ति भला है तो ज़िन्दगी की गाड़ी चल भी सकती है. बुरा होने पर कैसे? यह परम्परा में दिया गया है. माएं, बहनें, बेटियां और पत्नियों के ये सब रिश्ते सामाजिक तौर पर बनाये गए हैं और इनका एक ख़ास तरह का चरित्र गढ़ा गया है. निष्ठा का कोण जोड़ा गया है. किसी भी पत्नी को पति के ख़राब चरित्र को अपनाते हुए साथ रहने के निर्देश दिखाई पड़ते रहते हैं.

मुजफ्फरपुर शेल्टर होम रेप मामले में मुख्य आरोपी की पत्नी और बेटी बचाव की मुद्रा में टीवी पर सरेआम बयान देती दिखाई दे रही थीं. वे दोनों अपने पति और पिता के भरसक बचाव में आकर नाबालिग सरवाईवर लड़कियों को कोसने का मौका नहीं छोड़ रही थीं. यह हैरान कर देने वाला मामला भी था क्योंकि सरकार के नाक के नीचे कम उम्र की बच्चियों का बड़ी संख्या में बलात्कार और शोषण हुआ. इसकी पुष्टि भी हुई. कई बड़े नाम उजागर भी हुए. इस सब के बावजूद आरोपी की बेटी और पत्नी ने टीवी डिबेट में हिस्सा लेते हुए अपने रिश्ते का बचाव किया.

हर बात पर अमरीका का उदाहरण दिया जाता है. लेकिन उसी अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति को उनके ही दफ्तर में काम करने वाली इंटर्न से यौन संबंधों के कारण महाभियोग भी झेलना पड़ा था. उनकी पत्नी और बेटी ने समय समय पर अनुकूल बातें रखीं पर कभी खुलकर स्टैंड नहीं लिया. वहीं दूसरी तरफ युवा इंटर्न युवती को एक ऐसी ज़िन्दगी मिली जहां वह ‘शेम’ को झेलती रहीं. बाद के बयानों में उन्हों ने कहा कि कई बार तो उन्हों ने आत्महत्या करने तक की बात भी सोची थी.

परिवारों में अच्छी बेटी, पत्नी, माँ, बहन बनने के गुर बचपन से सिखाये जाते रहे हैं. यह एक तरह का प्रशिक्षण होता है. लेकिन इस दिशा में बहुत से नैतिक मूल्य कमरे की चटाई में दबा भी दिए जाते हैं या दबाये जा रहे हैं. यह प्रक्रिया लम्बे समय से चल रही है. इसका अंजाम यह है कि कई बार हमारी नज़रों को गलत भी गलत नहीं लगता. पत्नी को कभी स्वतंत्र व्यक्ति जैसे नहीं सोचा जाता. ठीक इसी तरह बहनों, माँ और बेटी को भी. उनकी भूमिका आश्रिताओं की है. उदाहरण के लिए स्कूल, कॉलेजों या दोस्तों के बीच में जब माँ का ज़िक्र आता है तब उनके हाथ के खाने का ज़िक्र किया जाता है. कई बार मैंने दोस्तों के बीच अपनी माँ की जो छवि रखी वह यह- “माँ पढ़ी लिखी नहीं हैं पर घर के खर्चों का न जाने कैसे इतने शानदार तरीके से हिसाब रख लेती हैं!” लेकिन अब यह पंक्ति मुझे चुभती है. क्योंकि उन्हें इस छवि से बहुत समय तक मैंने बाहर देखने की कोई अच्छी कोशिश नहीं की थी. घर और रसोई में कैद कर माँ को पवित्र बना देना एक वैचारिक पाप लगता है.

रेवाड़ी गैंग रेप के अभियुक्त

कस्बों से जब तब उदाहरण लेकर बात को पुख्ता करने से बेहतर शहरों में भी एक नज़र डाल लेनी चाहिए. बहुत पहले किसी साहित्यिक प्रदर्शनी में जाना हुआ था. वहां किसी बड़े सरकारी ओहदे में कार्यरत महिला से मुलाक़ात हुई थी. उनके कपड़ों, विचारों, भाषा से वह बड़े घराने से मालूम लग रही थीं. वह किसी परिचित से मरी हुई ख़ामोशी से एक बात कह रही थीं. जो बात मुझे समझ आई उसे सुनकर दो मिनट मेरा मुंह खुला ही रह गया था. बात यह थी कि उनकी बेटी पढ़ाई के लिए किसी विदेश के विश्वविद्यालय जाना चाह रही थी. लेकिन उनके शौहर इस बात के लिए राज़ी नहीं थे. जबकि वह खुद चाहती थीं कि बेटी को अव्वल दर्जे की तालीम मिले. ऐसा नहीं था कि पिता पढ़े लिखे नहीं थे. उनकी बातों से पता चला कि वे काफी पढ़े लिखे थे और अच्छी पोस्ट पर कार्यरत थे. इस सब के बावजूद वह लड़की को स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने के बजाय बेटी बनाकर घर के आँगन की तुलसी बनाना चाह रहे थे. शहरों और कस्बों में इन फिक्स छवियों में रहने वाली पढ़ी लिखी और न पढ़ी लिखी कई महिलाएं साँस लेती नज़र आ जाएँगी.

इसलिए रेवाड़ी रेप की घटना में अभियुक्त की पत्नी और बहन का बयान वास्तव में इसी फिक्स छवि के खिलाफ़ खड़े मूल्य हैं. खुद को एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में तो वे रख ही रही हैं साथ ही दमदार फैसले लेने से वे अन्यों के सामने उदाहरण भी रख रही हैं. यह हर व्यक्ति के अन्दर का गुण है. वह सही और गलत में फर्क कर सकती/सकता है. गौर कीजिये, हमारे अन्दर प्रकृति ने सही और गलत को अलग करने की एक क्षमता दी है. उदाहरण के लिए अपने शरीर का खयाला रखना या बचाव की मुद्रा में रहना हम खुद से जानते हैं. एक उदहारण यह भी है कि सामने से आते हुए पत्थर को देखकर हम तुरंत अपने को बचाते हैं. क्योंकि हमें यह सेन्स जन्मजात मिला है कि पत्थर लगने से हमें चोट लगेगी. दर्द होगा. खून बहेगा. हमने यहाँ अपने बचाव को सही माना है. इसके उलट अगर हम घायल हो जाते हैं तो हमें उस व्यक्ति या उस कारण पर गुस्सा आता है जिसके चलते यह दुःख मिल रहा है. ऐसा नहीं है कि महिलाएं अपने पुरुष साथी/बेटे/भाई की गलत बातों या हरक़तों को जानती नहीं. वे बखूबी जानती हैं समझती हैं. पर कुछ ही एक स्टैंड लेती हैं. यह गिनती लगातार बढ़ भी रही है.
समय की लम्बी अवधि में हमारे व्यक्तित्व पर व्यवहार से जुड़ी परतें जमाई गई हैं. हम लड़कियों के साथ यही हुआ है. लड़कों में शक्ति के आभास को पूरी तरह से पचाकर रखने और उसके इस्तेमाल की परत चढ़ाई गई है. आज से कुछ ही वर्ष पहले यदि किसी औरत के साथ रेप की जघन्य घटना घट जाती थी तब वह घटना अँधेरे में कहीं ऐसे दफ्ना दी जाती थी जिसका पता ही नहीं चलता था. कारण यह रहता था- “इज्जत का सवाल है. लड़कियां/औरतें इज्जत हुआ करती हैं.” यह पूरा खयाल ही ज़माने की पैदाइश और परवरिश है. आज भी कई केस दर्ज नहीं होते. उसके पीछे मौजूद कई वजहों में से यह एक है-इज्जत!

बहुत पहले मेरा सामना एक ऐसे परिवार से हुआ था जहाँ बेटा/भाई प्रेम विवाह कर के एक घूँघट वाली पत्नी लाया था. लेकिन वही भाई अपनी बहन के प्रेम प्रसंग का ख़याल तो दूर वह दहलीज़ पर खड़े होते हुए भी नहीं देख सकता था. जब माँ से बात हुई तब वह थोड़ा ख़ुशी से ही बोलीं- “अब लड़के की अपनी पसंद है. नया खून है. हम क्या ही लगाम लगाएं!” बहुत दिन बाद जब फिर से इसी माँ से मुलाक़ात हुई तब वह थोड़ा दुखी होती हुई बेटी के संदर्भ में बोलीं- “का बतावे कैसे हैं! लड़की के लिए लड़का ये(पति) खोज खोज कर थक गए. मिल ही नहीं रहा..!” जब मैंने उनकी बेटी पर नज़र डाली तो लगा कि वह बेजान है. जैसे किसी ने उसकी सांस पर कब्ज़ा जमाया हुआ है. माँ, बेटी और घूँघट वाली बहू में एक तार तो जुड़ा ही है. वह यह कि परम्परा में उनके चित्र पहले से ही तैयार हैं. पर इन तैयार चित्रों में विरोध की हलचल कई बार नहीं दिखती. लेकिन इस हलचल की उम्मीद बनी जरुर रहती है.

जब-जब बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाएं हुई हैं तब तब अजीबों गरीब बयानों की बौछार हुई है. कई राजनीतिक दलों ने सत्ता भी इन्हीं दुर्घटनाओं को मुद्दा बनाकर हासिल की है. रात को लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, लौंडे हैं, गलतियाँ हो ही जाती हैं, छोटे छोटे कपड़े पहनकर क्यों बाहर निकलती हैं…ये सब बयान उन लोगों की ओर से आये हैं जिन्हें जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है. पिछले साल ही हरियाणा में एक बड़े अधिकारी की बेटी को रात में चंडीगढ़ में जबरन उठाने की कोशिश की गई. जिन आरोपियों ने यह किया वे नेताओं के बेटे थे. लेकिन हैरानी इस बात की है कि इस सब को जानते हुए भी उनकी माएं या बहनें किसी तरह के विरोध में बयान देने सामने नहीं आईं. पत्नी का बयान एक बहादुरी जैसा ही काम है.

बहुचर्चित केस नितीश कटारा हत्याकांड में परिवार के दबाव में आकर भारती यादव अपने परिवार के लिए ही एक ऐसा बयान दे गईं जो नितांत कमजोर रहा. वे अपने और नितीश के तमाम संबंधों को नकारते हुए सच का साथ नहीं दे पाई. यह भी है कि उन पर उनके परिवार का भावुक दबाव भी रहा होगा. आज नितीश कटारा की माँ अपने एक वक्तव्य में यह कहती भी दिखती हैं कि उन्हें यकीन नहीं होता कि उनके बेटे ने एक कमजोर लड़की को चुना था. भारती यादव ने अपने बयान में कहा था कि वह और नितीश सिर्फ दोस्त थे और उनके खुद के भाई किसी का खून नहीं कर सकते. उनके भाई उनका बहुत ख्याल रखते हैं. इन बयानों के बाद भी उनके भाई को पच्चीस साल की सजा हुई. हालाँकि तस्वीर का दूसरा पहलु यह भी है कि खुद भारती यादव अपने परिवार की शिकार थीं. उन्हें किसी को प्यार करने का या खुद का साथी चुनने का हक भी नहीं था. लेकिन दूसरी तरफ नीलम कटारा और सबरीना लाल जैसे मजबूत उदाहरण भी हैं जिन्होंने अपने लोगों के इंसाफ के लिए सच को थामे रखा और इंसाफ को पाया भी.

रेवाड़ी रेप में शामिल अभियुक्त की शादी पिछले साल ही हुई है. अपने को बलात्कारी पति से अलग कर लेने वाली उसकी पत्नी अब गर्भवती भी है. वह अपने पिता के घर पर है. उसने यह बयान अपने कठिन हालातों में दिया है. उसने यह साफ किया है कि वह कहाँ खड़ी रहना चाहेगी. उसने अपने पति के रिश्ते को ही ख़ारिज कर दिया है. यह बहुत आसान भी नहीं है. क्योंकि शुरू में वह पिता के घर में आश्रिता थी. शादी के बाद पति पर. और अब पति के जेल चले जाने पर वह फिर से पिता के घर में है. दूसरों पर निर्भरता दयनीय अवस्था होती है. इन सब हालातों के बाद भी उसका यह फैसला तारीफ के काबिल है. हालाँकि इसके बाद भी राह आसान नहीं है. अपने आर्थिक आधार की खोज उसे बच्चे के जन्म के बाद से ही शुरू करनी होगी. उसे उस माहौल में आगे गूंजने वाली आवाजों और तानों से भी दो चार होना होगा जो उसे और उसके परिवार को मिलेंगे.

शब्दों के तेजाब उगलता समाज और उसकी जुबान मरने मारने की तैयारी के साथ दिखती है. न्याय की डगर पहले से ही बहुत कठिन है. सरकारों का लचर रवैया ऐसा है कि वे गेस्ट अपिर्यंस देती है. आनन-फानन में जाँच के आदेश दिए जाते हैं. मामला मिडिया में उछला तो कारवाई की टॉफी थमा दी जाती है. सरकार के खुद के अभियान भी ऐसे नाम वाले हैं कि हज़ार साल पीछे चल रहे हैं. वास्तव में “बेटी बचाव बेटी पढ़ो अभियान” की बखिया उधेड़ती यह अमानवीय घटना सभी योजनाओं की पोल खोल देती है. हाल ऐसा नहीं कि संतोष कर के बैठ सकें. पर इस औरत ने सर्ववाइवर की तरफ  खड़ा होना बेहतर समझा बल्कि अपने लिए भी एक स्टैंड लिया. कुछ फैसले कठिन होते हैं. पर वे गलत और झूठ के साथ खड़े होने से लाख गुना बेहतर होते हैं. महिलाओं को ऐसे फैसले लेने ही होंगे. ये जरुरी हैं.

ज्योति प्रसाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं, समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं. 

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