अभिव्यक्ति के खतरे : क्या मोदी दूसरी इंदिरा होंगे!

अरविंद जैन

आपातकालीन कार्यवाही में देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों (लेखक-वकील-पत्रकार) की गिरफ्तारी के साथ अनेक आशंकाएँ और गंभीर सवाल आमने-सामने आ खड़े हुए हैं. क्या देश के करोड़ों गरीबों, दलितों, मजदूरों और महिलाओं के साथ हो रही नाइंसाफी के खिलाफ, नैतिक समर्थन देने वाले वकीलों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को ‘शहरी नक्सली’ कह कर ‘अपराधी’ घोषित किया जाना उचित है? विशेषकर तब जब असली अपराधी (हत्यारे-बलात्कारी) फरार हैं या जमानत पर छुट्टे घूम रहे हैं। क्या ऐसी कार्यवाही देश भर में असहमति और विरोध के अन्य स्वरों को डराने-धमकाने और चुप कराने की पूर्व पीठिका नहीं है? क्या चुनाव में विजय के तमाम पुख़्ता इंतज़ामों में यह सिर्फ एक ‘प्रयोग’ है? धर्म, अपराध और (कॉर्पोरेट) पूँजी के दबाव-तनाव में मौजूदा राजनीति, कल क्या और कैसे-कैसे रूप धारण करेगी या कर सकती है-कहना कठिन है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता व वकील सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, सुजन अब्राहम, पत्रकार क्रांति तेकुला, कवि वरवर राव, फादर स्टेन स्वामी, आनन्द तेलतुंबडे, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंजालविस के घरों की तलाशी  के बाद भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में उन्हें आज ही गिरफ्तार किया गया है। गौतम नवलखा और सुधा भारद्वाज केस में दिल्ली और पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट ने फिलहाल उन्हें पुणे ले जाने पर रोक लगा दी है।

उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा मामले में नागपुर के प्रसिद्ध वकील सुरेन्द्र गाडलिंग, दलित अधिकार कार्यकर्ता व पत्रकार सुधीर धावले, महेश राउत, नागपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सोमा सेन और दिल्ली से मानवाधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन को भी गिरफ्तार किया गया था।
मोदी सरकार का यह पांचवा और आखिरी साल है। चूंकि अब सरकार के पास बहुत कुछ करने के लिए समय नहीं बचा और पिछले 4 सालों में जिस तरह से यह सरकार हर मोर्चे पर विफल हुई है, उसको देखते हुए यह भी नहीं लगता कि इसके नये वायदों पर लोग भरोसा करेंगे, फिर चाहे वो कितने ही आकर्षक क्यों न हो? इस वजह से लगता है कि यह साल बहुत अनप्रिडेक्टेबल और शाकिंग हो सकता है। ऐसा मानने के दो कारण हैं। पहला तो यह कि जिस तरह से यह सरकार पिछले दो तीन सालों से ‘येन-केन-प्रकारेण’ विभिन्न राज्यों की सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश कर रही है, उससे साफ लगता है कि सरकार का इरादा मजबूत केंद्र वाली सत्ता का है। जबकि अभी तक देश में सत्ता का सब कुछ के बावजूद एक किस्म से विकेंद्रीकरण रहा है। शायद इसी वजह से देश में क्षेत्रीय पार्टियों की आज अपनी एक ताकत है।
लेकिन जिस तरह से मौजूदा सरकार ने मेघालय में, गोवा में सरकार बनाया और उत्तराखंड में बनाने की कोशिश की, उससे लगता है कि इसका इरादा हर जगह अपनी या अपने गठबंधन की सरकार देखने का ही है। कर्नाटक इसी सिलसिले का एक सिरा बनने वाला था, लेकिन नहीं बन पाया। यह सब कहीं न कहीं यह दिखा और दर्शा रहा है कि सरकार किस तरह देश को अपने साम्राज्य के रूप में देख रही है। अगर गौर से सुनें तो भाजपा के इन दावों में भी एक किस्म की साम्राज्यवादी गूंज सुनायी पड़ रही है कि अब हमने 20 राज्यों में सरकार बना ली, अब 21वें में या कि देश को कांग्रेस मुक्त बनाना है। इस तमाम शब्दावली में कहीं न कहीं एक इरादे की झलक मौजूद है। पूरे देश पर कब्जा करने वाले इरादे की। सरकार बार-बार यह बताने और दिखाने की कोशिश कर रही है कि पूरे देश में हमारा राज्य, हमारा साम्राज्य है।
लेकिन इस खेल की निरंतता पर कर्नाटक ने कहीं न कहीं विराम लगा दिया है। कर्नाटक में जिस तरह से भाजपा को मुंह की खानी पड़ी, उससे वह तो हताश हुई ही है, कांग्रेस को भी अपने किस्म का सियासी बल हासिल हुआ है। इसके बाद अब दो स्थितियां बनती हैं या तो अब चीजें रूककर फिर से पुराने ढर्रे पर चली जाएं या फिर पलटवार कर दें। केंद्र सरकार कर्नाटक एपीसोड के बाद बैकफुट में भी जा सकती है और आक्रामक रूख भी इख्तियार कर सकती है। हालांकि कर्नाटक पर अगर भाजपा धैर्य से काम लेती तो नतीजा कुछ और ही हो सकता था। उसके लिए कर्नाटक पर कब्जा करना, मेघालय और गोवा से कहीं ज्यादा आसान था। लेकिन भाजपा से गलती यह हो गई कि उसने अपने मिशन को बहुत हड़बड़ी में पूरा करना चाहा। जिस अकड़ और घमंड के साथ नेताओं के बयान आये, भावी मुख्यमंत्री ने बिना किसी की परवाह किये, अपने शपथ ग्रहण समारोह का भी ऐलान कर दिया। उस सबसे देश में भाजपा के खिलाफ माहौल बना और दूसरी जो बड़ी बात हुई वह सुप्रीम कोर्ट के हस्ताक्षेप से संभव हुई।
सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस और जेडीएस की इस मांग पर तो जरा भी ध्यान नहीं दिया कि मुख्यमंत्री को शपथ दिलाने से रोका जाये। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इस बात को भलीभांति जानता था कि उसके अधिकार क्षेत्र से यह बाहर की बात है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी वह राज्यपाल के फैसले पर टांग नहीं अड़ा सकता। इसलिए शपथ ग्रहण समारोह तो होगा ही होगा। फिर प्रोटेम स्पीकर की भी बात आयी, इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने किसी तरह के स्टे से मना कर दिया। क्योंकि यह भी तकनीकी रूप से संभव नहीं था। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में एक ऐसी बात हो गई जिसके चलते भाजपा का सारा खेल बिगड़ गया। जब सुप्रीम कोर्ट से यह कहा गया कि शपथ ग्रहण समारोह की वीडियो रिकार्डिंग तो पहले से ही होती है, इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह और जोड़ दिया कि इस रिकार्डिंग का लाइव प्रसारण किया जाये। लाइव प्रसारण दरअसल वो हथियार था, जिससे सबको सरेंडर करना पड़ा। क्योंकि पूरे प्रदेश और देश की जनता के सामने कोई भी नेता विश्वासघात करते तो नहीं दिख सकता। नतीजतन कोई भी विधायक नहीं टूटा और भाजपा का मिशन अधूरा रह गया।
इन सब बातों को अगर मौजूदा सरकार की उस बात से जोड़कर देखा जाए जिसमें वह पिछले कई सालों से देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनावों की भूमिका बना रही है तो चीजें काफी कुछ शाकिंग दिशा में बढ़ती लग रही हैं। सरकार ने देश में एक साथ चुनाव के लिए नीति आयोग से लेकर, एक स्वतंत्र समिति के सुझावों तक का सहारा ले रही है। सवाल है आखिर मौजूदा केंद्र सरकार राज्यों और लोकसभा का चुनाव एक साथ क्यों करना चाहती है? जाहिर है केंद्र, राज्यों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाना चाहता है।

इसके लिए उसके पास एक नहीं कई तर्क हैं, वह एक सशक्त राष्ट्र के सिद्धांत को साकार करना चाहती है। इसी तरह ‘एक देश, एक कानून, एक चुनाव’ जैसा आक्रामक नारा भी पेश करने की कोशिश में लगी हुई है।
अब सवाल है यह सब कैसे संभव होगा? इसके दो ही तरीके हैं। एक या तो चुनाव हों और इन चुनावों में एक बार फिर से ये जीतकर आएं। फिर चाहे चुनाव चार महीने पहले हों या चार महीने बाद। राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के साथ हों या अलग-अलग हों। यह रास्ता विशुद्ध लोकतांत्रिक है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव जीतकर आना बहुत मुश्किल है; क्योंकि वो काम नहीं किया या कर सके, जो 2014 में कहकर आये थे । क्या अपने वायदों पर खरे उतरे?
देशभर में अफरा-तफरी है, असुरक्षा हैं, महंगाई हैं, बेरोजगारी का जिन्न है। सवाल है क्या इन तमाम बाधाओं के बीच भी, आसानी या परेशानी से दोबारा चुनाव जीत सकते हैं? कर्नाटक काण्ड के बाद विपक्ष पहले से अधिक मज़बूत और एकजुट हो रहा हो? देश-विदेश में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी पैर पसारते जा रहे हैं!
ऐसे में एक दो रास्ते ही बचते हैं या तो पाकिस्तान के साथ, चार-पांच दिन ‘छाया युद्ध’ हो और बिना ज्यादा कुछ गंवाएं जीत का श्रेय मिले या फिर विपक्ष बुरी तरह से बिखर जाए और वर्तमान नायक के अलावा केंद्र में सरकार बनाने के लिए कोई विकल्प ही न दिखे। लेकिन ये दोनो स्थितियां भी इतनी आसान नहीं है। ऐसे में एक और खतरनाक आशंका बनती दिख रही है कि कहीं देश को फिर से ‘आपातकाल’ न देखना पड़े। जी, हां! यह अभी भले अटपटा लग रहा हो, लेकिन अगले कुछ महीनों में ऐसी स्थितियां बन सकती हैं। इसलिए लगता है कि सरकार का यह साल देश के लिए बहुत शाकिंग होगा। अघोषित निर्णय, कभी भी घोषित हो सकते हैं।

पुनश्च: 
#अभिव्यक्ति_के_खतरे!

 

मानवाधिकार कार्यकर्ता व वकील सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा, सुजन अब्राहम, पत्रकार क्रांति तेकुला, कवि वरवर राव, फादर स्टेन स्वामी, आनन्द तेलतुंबडे, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंजालविस के घरों की तलाशी  के बाद भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में पांच को (28 अगस्त)  भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 153ए, 505, 117 और 120 के साथ ही ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) क़ानून,1967  की विभिन्न धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है। 28 अगस्त को ही गौतम और सुधा केस में दिल्ली और पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट ने फिलहाल उन्हें पुणे ले जाने पर रोक लगा दी थी।

जांच मराठी में, इंसाफ अंग्रेज़ी में!
अगले दिन 29 अगस्त को दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति एस मुरलीधर ने सुनवाई के दौरान बार-बार कहा कि जिस मजिस्ट्रेट ने रिमांड दिया, वो मराठी जानता नही और सारे दस्तावेज़ मराठी में है। केस डायरी तक मराठी में है, जो उन्हें (मजिस्ट्रेट) दिखाई ही नहीं गई।तो न्यायिक संतुष्टि, कैसे हो गई या कैसे संभव है।
कहना ना होगा कि जनभाषा और न्याय की भाषा या कानून की भाषा अलग- अलग होने की वजह से ही/भी, अक्सर अन्याय होता (रहा) है। जांच-पड़ताल मराठी (हिंदी, बंगाली आदि) में और इंसाफ अंग्रेज़ी में होता (रहा) है। आखिर ऐसा कब तक! न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर ने बेहद संवेदनशीलता से इस तरफ संकेत किया है। उम्मीद करनी चाहिए कि जनभाषा और न्याय की भाषा के बीच की दूरी कम हो। इस दिशा में एक ना एक दिन गंभीर कदम उठाने अनिवार्य हैं।
महाराष्ट्र पुलिस के वकील अतिरिक्त महाधिवक्ता
अमन लेखी याचिका की तकनीकी खामियों को लेकर तर्क देते रहे, लेकिन अदालत ने नहीं माना। आदेश लिखवाने के दौरान ही सूचना आई कि सुप्रीम कोर्ट ने पांचों के रिमांड आर्डर पर स्थगन आदेश पारिरित कर दिया है। अगली सुनवाई 6 सिंतबर, 2018 को होगी।

विरोध दबाया तो विस्फोट होगा

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने कहा कि ‘लोकतंत्र में असहमति, प्रेसर कुकर के सेफ्टी वॉल्व की तरह है’।”असहमति लोकतंत्र में सेफ़्टी वॉल की तरह है।”  मतलब! असहमति का दबाव-तनाव बढ़े तो उसे निकलने दें, ताकि कोई विस्फोट ना हो। राजनीति में इसे विरोध या असहमति की उपेक्षा का सिद्धांत कहा जाता है।

सुप्रीम कोर्ट में याचिका रोमिला थापर, प्रभात पटनायक व अन्य बुद्धिजीवियों ने दायर की थी और दोनों तरफ से अनेक वरिष्ठ अधिवक्तापेश हुए। जाने-माने बुद्धिजीवी ना होते, तो अदालत का दरवाज़ा कौन खटखटाता! संयोग से यहाँ सभी (गिरफ्तार, याचिकाकर्ता और बचावपक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता) राजधानी समाज के साधन संपन्न वर्ग के प्रभावशाली व्यक्ति हैं।

सवालों के मकड़जाल
यहाँ बहुत से सवाल आ खड़े हुए हैं। क्या इन बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी अन्य लोगों को डराने-धमकाने या चुप कराने का प्रयोग है / था, जो अदालतों को प्रथम दृष्टया ही उचित नहीं लगा। क्या धर्म-अपराध और कॉर्पोरेट पूँजी के दबाव-तनाव में सियासत, अभिव्यक्ति के तमाम लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों का गला घोंटना चाहती है?
क्या यह अगले चुनाव 2019 में किसी भी तरह सत्ता हथियाने के लिए, पुलिस के माध्यम से कानूनी प्रक्रिया का पारदर्शी दुरुपयोग नहीं है? इसके बाद राष्ट्रवादी सिद्धान्तों के मकड़जाल में उलझी राजनीति, क्या-क्या और कैसे-कैसे रूप धारण करेगी-कहना कठिन है। अगर मक़सद सिर्फ चुनाव जीतना ही है, तो साफ है कि चुनाव से पहले सरकारी नीतियों के विरोध को हर संभव तरीके से दबाया-सताया जा सकता है। चुनावी जय-पराजय तक हिंसा और हत्या की घटनाएँ-दुर्घटनाएँ निरंतर बढ़ेंगी। नीतियों का विरोध, व्यक्तिगत आलोचना नहीं होती और ना ही मानी-जानी चाहिए।
मुद्दा यह भी कि दलित-आदिवासी मज़दूरों और महिलाओं के कानूनी अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है! सम्मानित बुद्धजीवियों को अपराधी घोषित करने के परिणाम कितने घातक होंगे, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। दरअसल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दमनात्मक कार्यवाही, अप्रत्यक्ष रूप से मानवाधिकारों पर कुठाराघात सिद्ध होगा।

विचार की हत्या सम्भव नहीं
विचारकों की हत्या से तो विचारों की ही कमी (हत्या) होगी और बिना नए विचारों के राष्ट्र का नव निर्माण कैसे होगा? धार्मिक कट्टरता, हिंसा, घृणा और असहिष्णुता के कलुषित वातावरण में, सिवा आतंक और दहशतगर्दी के कुछ भी पनपना असंभव है। कलम की खामोशी से, दमनचक्र और तेज़ होगा और शासक निरंकुश।

लेखक जाने-माने कानूनविद हैं. उनका पता है-
ARVIND JAIN 
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