प्रतिभा श्री की कविताएं: वर्णमाला व अन्य

प्रतिभा श्री


शिक्षिका, परास्नातक, आजमगढ, सम्पर्क : मोबाईल raseeditikat8179@gmail.com

“वर्णमाला “
वे सिखाते हैं तुम्हें ‘क’ से कन्या
 ‘प’ से पूजा
जबकि,
उनकी वर्णमाला में है
‘क’से कुतिया
 ‘प’ से पगली
वे सिखाते हैं तुम्हें
‘द’ से देवी
‘म’ से ममता
‘त’ से त्याग
दरअसल उनकी वर्णमाला में है
‘द’ से दंड
‘म’ से मजूरन
और
‘त’ से तिरस्कृत
तुम्हारी वर्णमाला और उनकी वर्णमाला में
रह जाता है
सैकड़ों अदृश्य
तुमको पढ़ने ना दी गई
किताबों का फर्क,
जिन्हें पढ़ना होता है ..
तुम्हारी जायज मांगों में
 पिता की सख्त होती
भंगिमा से ,
कॉलेज जाते देख
भाई की तिलमिलाहट से,
उड़ते दुप्पटे संग
लिपटीं अफवाहों से,
देह पर कचोटती चीटियों से
उनकी वर्णमाला समझने में
तुम्हें तोड़ना होगा
तैंतीस लाख व्यंजन
 ग्यारह हजार स्वरों  से
 निर्मित
अभेद्य चक्रव्यूह
बांचना होगा हर रोज
अनगिनत अदृश्य इबारतें
जानना होगा
कि तुम औरत होने के अतिरिक्त
 मनुष्य हो
 सशरीर जीवित प्राणी
जिसे प्राप्त हैं
समस्त
प्रकृति एवं विधि सम्मत
 अधिकार
जो उन्हें
प्राप्त हैं।

मैं कौन
अवनि पर आगमन के तत्क्षण
गर्भनाल  की गांठ पर
लिखा गया
शिलापट्ट
तुम्हारे नाम का
शिशुकाल से
मेरी यात्रा के अनगिनत पड़ावों पर
तत्पर किया गया
तुम्हारी सहधर्मिणी बनने को
उम्र की आधी कड़ियाँ टूटने तक
मैं ढालती रही स्वयं को
तुम्हारे निर्धारित साँचे में
मैं बनी
स्वयं के मन की नहीं
तुम्हारे मनमुताबिक

जो तुमको हो पसन्द वही बात करेंगे
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे

तुम रंच मात्र ना बदले
मैं बदलती रही
मृगनयनी,
चातकी
मोहिनी हुई
कुलटा
कलंकिनी
कलमुँही  कहाई
सौंदर्य ,
असौंदर्य के
 सारे उपमान,
समाहित हो मुझमें
मेरी तलाश  में
भटकते घटाटोप अंधेरों में
थाम तुम्हारे यग्योपवीत का एक धागा
जहाँ हाथ को हाथ सुझाई न दे
करते चक्रण
तुम्हारी नाभि के चतुर्दिक
तुम्हारे
विशाल जगमगाते प्रासादों से
गुप्त अंधेरे कोटरों तक
मैं सहचरी से
अतिरंजित कामनाओं की पूर्ति हेतु वेश्या तक
स्वर्ग की अभीप्सा से नरक के द्वार तक
सोखती रही
तुम्हारी देह का कसैलापन
स्वयं को खोजा
मय में डूबी तुम्हारी आंखों में
हथेलियों के प्रकंपन में
दो देहों के मध्य
घटित विद्युत विध्वंश में
कि ,
किंचित नमक हो
और ,
मुझे ,
मेरे ,
अस्तित्व के स्वाद का भान हो
तुम्हारी तिक्तता से नष्ट होता गया  माधुर्य
तुम्हारी रिक्तता में समाहित हो
मैं शून्य हुई
मुझे ……!
मुझ तक पहुंचाने वाला पथ
  कभी
मुझ तक ना आया ।
जल की खोज में भटकते
पथिक सी
मेरी दौड़ रेत के मैदानों से
मृगमरीचिका तक
मेरे मालिक !
क्या ,
मैं

अभिशापित हूँ ?
तुम्हारी लिप्साओं की पूर्ति हेतु
मेरे उत्सर्ग को
कई युगों से
आज भी
 खड़ी हूँ
तुम्हारी धर्मसभाओं में
वस्त्रहीन
और
तुम्हारा उत्तर है
मौन ।

“भेड़िये”


1
ठीक ठाक याद नहीं उम्र का हिसाब
ना याद है पढ़ाई की कक्षा

बेस्ट फ्रेंड का चेहरा भी याद नहीं
ना याद है सबसे तेज लड़के का नाम
लेकिन
याद है
तुम्हारा छूना
घर के भीतर ही,
देह पर रेंगती लिजलिजी छिपकलियाँ
तेज नुकीले नाखूनों से बोया गया जहर
बेबसी
,छटपटाहट,
आँसू
ठोंक दी गई सभ्यता की कीलों से  बन्द चीखें
मेरा ईश्वर मरा उस दिन
थोड़ी मैं भी मरी
चुप थी
कई दिनों तक
मेरी चुप्पी में ध्वनित रहे अकथनीय प्रश्न
महीनों खुरचती रही देह
 कि उतार सकूँ चमड़ी से लाल काई
जिससे
बची रह सकूँ मैं
मेरे भीतर
थोड़ी-सी
जीवित

2
बाद के दिनों में
एक आदत सी हो गई
जैसा बच्चा सीखता है
बोलना
लड़खड़ाते हुए
 चलना
मैं सीखती गई
बस में,
ऑटो में,
पैदल रास्ते पर,
सीने पर लगे तेज धक्के से
गिरते गिरते सम्हलना
कंधे से नीचे सरकते हाथों को झटकना
पैरों के बीच जगह बनाते पैरों को कुचलना
मेरे साथी
सेफ्टीपिन
नन्हा चाकू
और लंबे नाखून थे।
उम्र घटती गई
बढ़ती गई समझ
और

 

नफरत भी
पुरुष भेड़िया है
उसे पसंद है
लड़कियों का कच्चा मांस
लड़कियों को झुण्ड में रहना चाहिए
ताकि,
भेड़िये नोंच कर खा न सकें

3
तुमने छुआ जब प्रेम में थी
जैसे छूती है मां,
नवजात को
सहेजा ,
जैसा सहेजता हो वंचित अपना धन
निर्द्वन्द रही तुम्हारे संग
जैसे हरे पत्तों पर थिरकती हो
ओस की बूंदे
तुम मुझमें
मैं तुममें समाहित
जैसे गोधूलि में
सूर्य और धरती का आलिंगन
तब जाना
पुरुष
आदमी होता है।
बेहद कमजोर
उसे जीतने की भूख है
हारी हुई औरत उसकी पहली पसंद है।

4
अब छत्तीस की होने तक
 सीख चुकी हूँ
भेड़िये की पहचान
लड़कियों को बताती हूँ
लक्षण के आधार पर
पहचान के तरीके
परन्तु
जानती हूँ
आदमी के बीच
भेड़िये की पहचान
मुश्किल है ।
क्योंकि,
आदमी और भेड़िये के चेहरेअक्सर
गड्डमगड्ड होते हैं।।

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