बीएचयू में लड़कियों की आवाज से क्यों परेशान होते हैं दक्षिणपंथी (?)

राजीव सुमन 

पिछले वर्ष 23 सितम्बर 2017 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) में लैंगिग भेदभाव और हिंसा, छेड़खानी, उत्पीड़न व प्रशासन के पितृसत्तात्मक रवैया के खिलाफ समानता के व्यवहार के लिए वहाँ की
छात्राओं ने एक ऐतिहासिक आंदोलन किया था, जिसने पूरे भारत के लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया था और तत्कालीन कुलपति जी.सी. त्रिपाठी को इसके परिणाम भुगतने पड़े थे, उसकी वर्षगांठ मनाने के
लिए 23 सितम्बर 2018 वहां की छात्राओं ने एक शान्ति सभा के साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रम और नुक्कड़ नाटक का आयोजन किया था जिसपर कथित रूप से एबीवीपी के छात्रों व बाहरी तत्वों ने मिलकर हमला
किया.

हमला करने वाले जय श्री राम, भारत माता की जय, वन्दे मातरम के नारे के साथ ही भद्दी गालियाँ दे रहे थे और इस बीच पुलिस और प्राक्टर के लोग तमाशबीन बने रहे. लेकिन जब मामला आगे बढ़ा तो छात्राओं पर कथित तौर पर लाठी चार्ज कर दिया गया जिसमे कई छात्राओं को चोटें आई हैं. इस घटना के विरोध में छात्राएं बीएचयू के महिला महाविद्यालय (एम्.एम्.वी.) की गेट के बाहर ही धरने पर बैठ गयीं, प्रशासन उन्हें लगातार अंदर ले जाने का प्रयास कर रहा .

ये लडकियां न तो जेएनयू दिल्ली की हैं न ही टीस, मुंबई की और न ही हैदराबाद या जाधवपुर विश्वविद्यालय की जहां मामले को वामपंथ का चोगा आसानी से पहनाया जा सकता है. बल्कि ये खुद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के बीएचयू की हैं जो अपने लिए लैंगिक हिंसा-भेदभाद से आजादी की मांग कर रही हैं. मुश्किल यह है कि ब्राह्मणवाद के गढ़ और सांस्कृतिक राजधानी से भाजपा और उसकी छात्र इकाई एबीवीपी का विरोध बीएचयू की छात्राएं अपने ऊपर लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध कर रही हैं जो आगामी चुनाव के लिए विपक्ष को एक अवसर देता है. अभी कुछ दिन पहले ही यूजीसी ने सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक सर्कुलर निकाला था कि सेना द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ किये गए सर्जिकल स्ट्राइक के एक वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में इसे शौर्य स्मृति के रूप में मनाया जाए तो इसका व्यापक पैमाने पर बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध दर्ज किया गया और मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावडेकर को इसपर सफाई देनी पड़ी.
लेकिन जब छात्राओं ने लैंगिक हिंसा के खिलाफ एक वर्ष पूर्व किये गए अपने आन्दोलन की याद में शांति मार्च और नुक्कड़ नाटक का कार्यक्रम रखा तो तथाकथित एबीवीपी के लोगों ने उनपर फिर से लैंगिक हिंसा की और पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया. कई छात्राएं घायल हैं. संघ और बीजेपी की विचारधारा का यह हमला उनके अपने ही गढ़ में किया गया है जो यह साफ़ तौर पर दर्शाता है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’, इस सरकार की मंशा नहीं, बस जुमला भर है.

नाम न बताए जाने की शर्त पर चश्मदीद एक छात्रा ने कहा कि “बीएचयू प्रशासन का महिला विरोधी, छात्र विरोधी रवैया फिर से सामने आया है। सवाल ये है कि जब एक घंटे से ए.बी.वी.पी. व अन्य गुंडो द्वारा कार्यक्रम को रोकने के लिए छात्राओं से हाथापाई की जा रही थी तब गार्ड मूकदर्शक क्यों बने बैठे थे? गुंडो को रोकने के बजाय छात्राओं पे बेरहमी से लाठीचार्ज कैसे किया गया? प्रशासन का ये रवैया दिखाता है कि छात्राओं पर हमला उनके द्वारा ही प्रायोजित था जिसमें उनके द्वारा पाले गए लम्पटों और गुंडो का सहारा लिया गया।”

इस बीच पुलिस ने छात्राओं की शिकायत पर एफ.आई.आर में दस छात्रों तथा एक दर्जन अज्ञात बाहरी लोगों पर आईपीसी की धारा 147, 354, 323, 504 और 506 के तहत नामजद किया है। पुलिस में की गई शिकायत के अनुसार अभियुक्त छात्र जो कथित रूप से एबीवीपी के सदस्य हैं, अन्य बाहरी तत्वों के साथ मिलकर रविवार की शाम को मालवीय गेट पर चल रहे इस कार्यक्रम को बाधित किया और जब छात्राओं ने इसका विरोध किया तो वे आक्रामक हो गए, गन्दी भाषा का प्रयोग किया और हमला करना शुरू कर दिया. वहां की छात्रा अवंतिका तिवारी ने कहा कि  “वे हमारे बढ़ने को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, वे कल की तरह रणनीति के माध्यम से हमें डराना चाहते हैं, लेकिन चुप रहना अब हमारे लिए विकल्प नहीं है।”

लगता है बीएचयू विवाद थमने वाला नहीं है. शुरू से ही बीएचयू दक्षिणपंथ का गढ़ रहा है, वहाँ का प्रशासन और शैक्षणिक वातावरण पितृसत्ता के जड़ मूल्यों से निर्मित है. लैंगिक भेदभाव, हिंसा और जातिवादी सोच वहाँ के चपरासी से लेकर सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों में विद्यमान है. यही कारण है कि शिक्षा के इस सबसे बड़े कैम्पस में लड़किया हमेशा उत्पीडित और लैंगिक हिंसा व भेदभाव का शिकार रही हैं. जातिवाद भी वहाँकी एक बड़ी समस्या है. पिछले वर्ष लड़कियों के लैंगिक हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन ने कुछ ऐसा किया जो पिछले सौ सालों में नहीं हुआ था. इस परिघटना को एक परिवर्तन के रूप में उस समय देखा गया था.

पहली बार बीएचयू में कोई महिला प्राक्टर के पद पर चुनी गई थी. उस समय प्राक्टर रोयोना सिंह भले ही लड़कियों के शराब पीने और मनमुताबिक कपड़े (कथित तंग कपड़े) पहनने की स्वतंत्रता जैसी क्रांतिकारी बातें कर रही थीं लेकिन वहाँ पढने वाली लड़कियां अपनी इस सायंस फैकल्टी पर इसलिए विश्वास नहीं कर पा रहीं थीं कि उनके मुताबिक़ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संचालित विश्वविद्यालय में कोई पदाधिकारी संकुचित दक्षिणपंथ से अलग हो ही नहीं सकता. चाहे वह महिला हो या पुरुष. उनका यह डर ठीक एक साल बाद सच साबित हो गया जब प्राक्टर पुलिस और स्थानीय पुलिस मूक बनी हुई थी.

बीएचयू में लड़कियों का यह प्रदर्शन और विरोध केंद्र की शीर्ष सत्ता के लिए तब भी सिरदर्द बना था और अब भी. क्योंकि पिछली बार देश के प्रधानमन्त्री का दौरा बनारस में उसी वक़्त होने वाला था जिस वक़्त लडकियां आन्दोलनरत थीं. लड़कियों ने बीएचयू के मुख्य द्वार–सिंह द्वार पर ही एक बहुत बड़ा बैनर लगा रखा था जिसमे लिखा था जी.सी., वी.सी. गो बैक और साथ में बेटियों के प्रति नरेन्द्र मोदी और सरकार का बहु-प्रचारित, बहु-प्रसिद्द नारे को व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देता नारा–“बचेगी बेटी तभी तो पढेगी बेटी”-टंगा था. इस बार भी लड़कियों का यह विरोध प्रदर्शन दक्षिण पंथी सामंती मूल्यों के राज्य और सांस्कृतिक नगरी बनारस से उठ रही है. वही बनारस जो प्र.मं. मोदी का संसदीय क्षेत्र रहा है, वही राज्य जिसके योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं. फिर से ये “गन्दी लड़किया” (पिछले साल कई बार आंदोलनरत इन लड़कियों को इसी विशेषण से विश्वविद्यालय प्रशासन के लोग सुशोभित करते रहे थे.) महामना के इस विश्वविद्यालय से केंद्र और राज्य सरकार को उनपर हुए लैंगिक हिंसा और भेदभाव को लेकर मुह चिढा रही हैं.

राजीव सुमन स्त्रीकाल संपादक मंडल सदस्य हैं

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