हिंदी साहित्य में आदिवासी महिलाओं का योगदान

 गंगा सहाय मीणा

हिंदी साहित्य में आदिवासी महिलाओं के योगदान का मूल्यांकन किया जाना दिलचस्प है क्योंकि आदिवासी लेखन में स्त्री का स्वर प्राथमिक स्वर में शामिल है। बल्कि कहना चाहिए कि समाज की तरह साहित्य  में भी आदिवासी स्त्रियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा् लिया है और ले रही हैं।  हिंदी में आदिवासी लेखन प्रमुखता से पिछले दो दशकों में आया है लेकिन इसकी शुरूआत काफी पहले हो चुकी थी। हिंदी में सबसे पहली आदिवासी कविता किसी पुरुष द्वारा नहीं, सुशीला सामद द्वारा 40 के दशक में लिखी गई। उनका पहला काव्य संकलन 1934 में ‘प्रलाप’ नाम से छपा। हिंदी में आदिवासी कथा लेखन की शुरूआत भी एलिस एक्का द्वारा आजादी के बाद के दशक में की गई। अन्य‘विधाओं में भी आदिवासी महिलाएं सक्रिय हैं। आइए इनकी रचनाओं का संक्षेप में परिचय प्राप्त  करते हैं।

कविता
निर्मला पुतुल की कविताओं के माध्यम से आदिवासी कविता का बाहरी पाठकों से पहला विधिवत संवाद हुआ। हिंदी में उनके तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- ‘अपने घर की तलाश में’, ‘नगाड़े की तरह बजते शब्दि’ और ‘बेघर सपने’। ये सभी काव्य  संग्रह 21वीं सदी के पहले दशक में प्रकाशित हुए। इन्हीं  की मदद से निर्मला पुतुल आज हिंदी पाठकों के लिए जाना पहचाना नाम है। उनकी कविताएं बड़े पैमाने पर अनूदित हुई हैं और विभिन्नं भाषा-साहित्योंज के पाठ्यक्रम का हिस्सां बनी हैं। निर्मला पुतुल अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए ‘मेरे एकांत का प्रवेश द्वार’ में लिखती हैं,
‘यह कविता नहीं
मेरे एकांत का प्रवेश द्वार है
यहीं आकर सुस्ताती हूँ
टिकाती हूं यहीं अपना सिर
जिंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर
जब भी लौटती हूं यहां
आहिस्ताी से खुलता है
इसके भीतर का एक द्वार
जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं
तलाशती हूं अपना निजी एकांत।’1
पहली नजर में यह कविता आदिवासी दृष्टि से देखने पर थोड़ी अटपटी लगती है क्योंकि वहां पारंपरिक रूप से एकांत के लिए कोई जगह नहीं है। सब कुछ सामूहिक है। यहीं से हम आदिवासी कविता में समकालीनता की पहचान कर सकते हैं या बाहरी आधुनिकता का प्रभाव देख सकते हैं जब एक रचनाकार सृजन के लिए एकांत में जाना चाहती हैं। यह हिंदी में लिखने का असर भी कहा जा सकता है। यानी जब एक आदिवासी रचनाकार अपनी मातृभाषा (निर्मला पुतुल – संथाली) को छोड़कर किसी अन्य भाषा में लिखता है तो उसे अपने मूल्यों में भी बदलाव करना पड़ता है। अच्छी  बात यह है कि निर्मला पुतुल की कविताओं में जगह-जगह पर इस एकांत का अतिक्रमण भी साफ देखा जा सकता है।
निर्मला पुतुल के माध्यिम से पहली बार आदिवासी स्त्री  की पीड़ा साहित्य में अभिव्यक्त़ हुई है। उनकी कविता ‘क्या हूं मैं तुम्हारे लिए’ पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय है जिसमें वे तमाम स्त्रियों की प्रतिनिधि बनकर पुरुषों से सवाल कर रही हैं कि-
‘क्या- हूं मैं तुम्हारे लिए
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया
और सिर टिका दिया
……
कोई डायरी
कि जब चाहा
कुछ न कुछ लिख दिया
खामोश खड़ी दीवार
कि जब जहां चाहा
कील ठोक दी
कोई गेंद
कि जब तक
जैसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहां जैसे-तैसे
ओढ़-बिछा ली?’2
यह सिर्फ आदिवासी स्त्री की व्यथा नहीं है, बल्कि स्त्री मात्र के बुनियादी सरोकार इस कविता में शामिल हैं। इस मायने में निर्मला पुतुल नारीवाद से भी एक कदम आगे निकल जाती हैं। इसी तरह वे अपनी एक कविता ‘बिटिया मुर्मू के लिए’ में आदिवासी स्त्री को आगाह करते हुए लिखती हैं,
‘वे दबे-पांव आते हैं तुम्हारी संस्कृति में
वे तुम्हारे नृत्य की बडाई करते हैं
वे तुम्हारी आंखों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते हैं
वे कौन हैं ?
सौदागर हैं वे… समझो!
पहचानो उन्हें बिटिया मुर्मू… पहचानो!
पहाड़ों पर आग वे ही लगाते हैं
उन्हीं की दुकानों पर तुम्हारे बच्चों का
बचपन चीत्कारता है
उन्हीं की गाडि़यों पर
तुम्हारी लड़कियां सब्ज बाग देखने
कलकत्ता और नेपाल के बाजारों में उतरती हैं’3
शायद यही चेतना निर्मला पुतुल की कविताओं के लोकप्रिय होने का राज है। वे न केवल आदिवासी समाज के लोगों को चेताती है, बल्कि उनकी कविताओं में विकास के पूंजीवादी मॉडल का सीधा नकार भी स्पष्ट देखा जा सकता है-
‘नहीं चाहिए हमें उनका अहसान
उठा ले जाएं वे अपनी व्यवस्था
ऐसा विकास नहीं चाहिए हमें
नहीं चाहिए ऐसा बदलाव
नहीं चाहिए!!’4
यह देखना दिलचस्प! होगा कि आखिर निर्मला पुतुल अपनी कविताओं के माध्यम से कैसे समाज का निर्माण करना चाहती हैं, उनका विजन क्या है! वे लिखती हैं, ‘उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़े और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुख बांटने तक
चुनना वर ऐसा
जो बजाता हो बांसुरी सुरीली
और ढोल-मांदल बजाने में हो पारंगत
बसंत के दिनों में ला सके जो रोज
मेरे जूड़े के खातिर पलाश के फूल।’5
इस तरह हम देखते हैं कि निर्मला पुतुल अपनी कविताओं के माध्यम से आदिवासी जीवन के विभिन्न पक्षों को सामने लेकर आती हैं। उनकी कविताओं पर हिंदी कविताओं का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है, शायद इसीलिए ही हिंदी के पाठकों के बीच वे सर्वाधिक लोकप्रिय हैं ।
आदिवासी कवयित्री सरिता बड़ाइक भी पिछले कुछ समय से नागपुरी और हिंदी में बेहतरीन कविताएं लिख रही हैं- एकदम नए अंदाज की कविताएं। रोज केरकेट्टा, निर्मला पुतुल, ग्रेस कुजूर आदि की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली सरिता अपने कविता संग्रह ‘नन्हें सपनों का सुख’ के माध्यम से आदिवासी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
संग्रह के पहले भाग में सरिता की नागपुरी कविताएं हैं, जिनका कवयित्री ने स्वयं ही हिंदी अनुवाद भी साथ दिया है। आर्यभाषा परिवार की भाषा होने के कारण नागपुरी समझने में भी पाठकों को इतनी दिक्कत नहीं होती, बल्कि अधिकांश कविताओं के मर्म तक नागपुरी संस्करण के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है। जैसे,
‘छूछा के केउ नइ पूछा’,
‘नागपुरिया बोलबे तो
बनबे गंवरिया
एहे तहे छांटली इंगलिस शहरिया’,
‘सोचे थे बाबु बोलेक ले
नागपुरिया
लजाते बाबू कहायक ले
झारखंडिया’6
स्पखष्ट है कि मातृभाषा में ही बेहतर अभिव्ययक्ति संभव है। आदिवासी संदर्भ में यह और भी प्रासंगिक है। सरिता की कविताओं में झारखंड के सपनों के झारखंड से हकीकत के झारखंड तक की मार्मिक दास्तान देखी जा सकती है। कवयित्री पुराने झारखंड से भी संतुष्ट नहीं थी, इसलिए झारखंड के गठन को लेकर उसके सपने थे, लेकिन नया झारखंड बनने के बाद तमाम झारखंडियों की तरह कवयित्री के सपने भी चूर-चूर हो गए-
‘झारखंड के सपनों को करने के लिए
साकार
जिसने छोड़ा अपना
जमीन-अधिकार
उन्हीं को नक्शे से मिटाने की साजिश
बहुमंजिला इमारतों में
सियासी दांव-पेंच लेन-देन
रिंग रोड और पावर प्लांट के नाम पर
जमीनों की लूट
योजनाओं के नाम पर
जमीनों की भूख!’7  (सपनों का छोटानागपुर-दो)
पूंजीवादी मुनाफे और लूट की भूख ने झारखंड के सपनों को चकनाचूर किया है- इसमें गैर-आदिवासियों के साथ आदिवासी भी शामिल है और यह पीड़ा हर संवेदनशील झारखंडी को बहुत आहत करती है। जिसके पास संपत्ति नहीं है, उसे कोई नहीं पूछता- यह सपनों के झारखंड की विशेषता नहीं है, लेकिन आज के झारखंड की हकीकत है और कवयित्री पूरी मार्मिकता के साथ इसे अभिव्यीक्तझ करती है।
सरिता बड़ाइक की कविताओं में इंसानी रिश्तों से लेकर प्रकृति तक से आदिवासियों के गहरे संबंध की झलक कदम-कदम पर देखी जा सकती है। कभी वे ‘आजी’ पर कविता लिखती हैं, कभी नानी पर, तो कभी ‘बेटी’ पर। दादी-नानी से लेकर बेटी तक के जीवन संघर्ष को एक कड़ी में रखते हुए सरिता आदिवासी स्त्री के प्रतिरोध की परंपरा से पाठकों को रूबरू कराती हैं। ‘बेटी’ कविता में सरिता बेटी को जीवन के गुर सिखाती हैं, वहीं ‘बेटी सहजन’ में बेटी के बढने की सहजन के पेड़ से तुलना करती हुई कहती हैं-
‘बढेगी यही
सहजन के पेड़-सी
फूल-पत्तेक, डंठल-जड़, बढेंगे सभी
होगी विदा एक दिन’।8
सरिता की कविता में उन आदिवासी बेटियों की पीड़ा भी शामिल है जो मेलों में से उठा ली जाती हैं,
‘पर उस शाम
वह घर नहीं लौटी
अब तक नहीं लौटी
लौटी है उसकी
शांत-निष्प्राण
देह!’ (सुगिया)
आदिवासी स्त्री को देहमात्र समझने वाले समाज को सरिता अपनी कविताओं के माध्यम से चुनौती देती हैं। वे ‘घासवाली’ कविता में कह उठती हैं, ‘मैं घास बेचती हूं बाबू देह नहीं’। आदिवासी स्त्री  की पीड़ा सरिता की कविताओं में केन्द्री य विषय-वस्तु के रूप में बार-बार दस्तंक दे ही देती है। प्रसव पीड़ा में चल बसी बुधनी की पीड़ा को सरिता इन शब्दों  में बयान करती हैं-
‘श्मशान जाने से पहले
नागफनी कांटे से
भेदे गये हथेली और पांव
अरवा-सुतरी से बांधी गई बेटी
सरसों छींटी गई
घर से श्मशान तक
कांटे चुभे पांव से सरसों न चुन सकें
हाथ
और वापस न आ सके बेटी अपने
गांव!’9  (बेटी और नागफनी)

स्त्री शोषण के विभिन्न रूपों का खुलासा करने के बाद सरिता झारखंड की स्त्रियों से आह्वान करती हैं-
‘आना होगा।।
तुम्हें आना होगा आगे
झारखंड की नारी’।10 (आना होगा आगे)
सरिता की कविता आदिवासी स्त्री की रूढ छवि को तोड़ते हुए इस ओर इशारा करती है कि आदिवासी समाज पितृसत्ता से मुक्त नहीं है।
सरिता की कविताएं संवेदना से लेकर भाषा तक साहित्य में एक नए संसार का सृजन करती दिखती हैं। ‘ऐसे शब्द, जो उड़ती कल्पना, गहरी सोच, भागते सपनों की गति को बांधकर उनकी कविता में अपने आप कतार में लगते चले जाते हैं। नन्हें-नन्हें सपनों, नन्हीं–नन्हीं अपेक्षाओं और नन्हें-नन्हें सुखों में भागीदारी करने को आमंत्रित करती उनकी कविताएं जहां एक अद्भुत सुख से सराबोर करती हैं, वहीं मन के किसी कोने को कचोट भी जाती हैं।’11
आदिवासी अस्मिता और अस्तित्वो के सवालों को उठाते हुए आदिवासी स्त्री की चिंताओं को केन्द्र में रखकर आदिवासी जीवन की मार्मिक प्रस्तुति के रुप में सरिता बड़ाइक की एक सार्थक पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके पात्र, परिवेश और प्रकृति, इसका ढांचा, संवेदना और मूल्य  इसके मूल्यांकन के लिए नए सौंदर्यशास्त्र की मांग करते हैं।
वंदना टेटे ने लगभग सभी विधाओं में लेखन किया है। आदिवासी साहित्यक की सैद्धांतिकी निर्माण की प्रक्रिया में भी वे लगातार सक्रिय हैं। उनका हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘कोनजोगा’ आदिवासी टोन और आदिवासियत लिये हुए है। वे अपनी कविताओं के बारे में कहती हैं कि ‘’मैंने कभी ये सोचा नहीं कि लिखी गई कविता ‘अच्छी’ है या नहीं। कविता है भी या कि नहीं। मुझे लगता है जैसे पेड़-पौधों पर नैसर्गिक रूप से फूल खिलते हैं, आसमान में सूरज, चांद-सितारे और बादल मनोहारी कलाएं रचते हैं, वैसे ही व्यक्ति की भावनाएं और विचार शब्दों  के जरिए कोरे पन्नोंत पर टंग जाया करते हैं। कविता के प्रतिमान कैसे होने चाहिए या काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कविता में किन-किन लक्षणों का होना जरूरी है, ये सब वर्चस्वतवादी बाधाएं हैं।’’ 12
वंदना टेटे प्रकृति के सहज सौंदर्य और भावों को अपनी कविताओं में पिरोती हैं। वे चिंतित हैं कि धीरे-धीरे यह सहजता खत्म  होती जा रही है-
‘चिंतित हूं और उदास भी
कि छूट रही है मेरे बच्चों से
बहुत सारी चीजें
बहुत बड़ी दुनिया
जिन्हें वे शायद ही जान पाएं।’13
कवयित्री आदिवासी जीवन के नैसर्गिक मूल्यों और सहज उल्लास के खत्म हो जाने से दुखी हैं। वे उस हर चीज को बचाना चाहती हैं जिससे मिलकर आदिवासी दर्शन बनता है। आदिवासी दर्शन का बचना ही पूरी सृष्टि का बचना है। वे बारिश के बिंब के माध्यसम से मनुष्य की उसी सहजता को बचाना चाहती हैं-
‘मैं बारिश में थी
और बारिश मुझमें
मेरे पंख भींग रहे थे
देह नदी हो गई थी
शब्द पानी-पानी हो रहे थे
हंसी झरने की तरह
शोर कर रहे थे
बदमाश बादल मेरे पीछे पड़ा था
किसी आवारा शोहदे की तरह।’14
वंदना टेटे आदिवासी जीवन की इस सहजता से आगे बढ़कर स्त्री- जीवन के विविध पहलुओं को भी अपनी कविता का विषय बनाती हैं। वे ‘बेदखल होती स्त्री ’के साथ खड़ी होकर लिखती हैं-
‘उपनामों का बोझ ढोये
खड़ी है जबरन अपनी जमीन पर
हां, बड़ी उद्दंडता से
क्योंकि फतवा जारी है
उसके खिलाफ
और वह
हुक्मरानों के लरियाये मुंह
और कुत्तोंसे तीखे दांतों
के खिलाफ।’15
वंदना टेटे पूंजीवादी विकास के मॉडल के प्रति भी सजग हैं और आदिवासी दृष्टि से उससे अपने अलगाव को स्पवष्टब करते हुए कहती हैं-
‘तुम्हारे विकास का गणित
मेरी समझ में नहीं आता
मेरी आंखें वर्तमान के अंधेरे
में कुछ ढूंढती रह जाती हैं
और मेरे पांव टिकने की
जगह ढूंढते।’16
वंदना टेटे अपनी कविताओं में आदिवासी पुरखों के जीवन संघर्ष को भी प्रस्तुति करती हैं। इस प्रकार उन्होंने आदिवासी जीवन और दर्शन की सहज अभिव्यक्ति के लिए कविता की विधा का सदुपयोग किया है।
ग्रेस कुजूर वरिष्ठ् आदिवासी साहित्यकार हैं। हालांकि उनका कोई काव्य-संकलन नहीं प्रकाशित हुआ लेकिन पिछले लगभग तीन दशकों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं प्रकाशित होती रही हैं। उनकी कविता ‘कलम को तीर होने दो’हिंदी की सबसे लोकप्रिय आदिवासी कविताओं में शामिल है। इसमें वे तमाम आदिवासियों की ओर से यह आह्वान करती हैं कि
‘धरती उजड़ी, जंगल उजड़े
रह गया क्या शेष?
झाडि़यां हो गईं कमान, सब बिरवे तीर
देखना बाकी है कलम को तीर होने दो।’17
ऐसा लगता है मानो ग्रेस कुजूर की इस कविता के बाद तमाम आदिवासी रचनाकार अपनी कलम को तीर बनाने में लग गए हों। एक के बाद एक बेहतरीन संकलन आदिवासी कविताओं के आ रहे हैं। ग्रेस कुजूर की कविताओं में आदिवासी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता परिलक्षित होती है- सहजता के साथ अधिकार-बोध। आदिवासी अपनी सरलता की वजह से बाहरी समाज द्वारा ठगे जाते रहे हैं। आदिवासी जीवन में बाहरी लोगों के बढ़ते दखल के प्रति आदिवासी रचनाकार सजग हैं और आश्याकता पड़ने पर उन बाहरी आतताइयों से लोहा लेने के लिए भी अपने समाज को जागरूक कर रहे हैं। उदाहरणार्थ ग्रेस कुजूर लिखती हैं,
हे संगी!
तानो अपना तरकस
नहीं हुआ है भोथरा अब तक
‘बिरसा आबा का तीर’
कस कर थामो टहनी पर अटके हुए
सूरज के लाल ‘गोढ़ा’ को
गला दो उसे अपनी हथेलियों
की गर्मी से
और फैला दो झारखंड की फुनगियों पर
भिनसरिया में उजास’।18
सहजता के बीच यह आह्वान दिलचस्पन बनाता है आदिवासी कविता को। एक तरफ प्रकृति और प्रेम के पारंपरिक मनोहर गीत हैं, दूसरी तरफ उन्हीं के बीच से अन्याय के खिलाफ लड़ने की यह चेतना।

कहानी
जहां तक कहानी का सवाल है, यूं तो पुरखा साहित्य में भी कथाएं मिलती हैं लेकिन समकालीन आदिवासी कहानी का इतिहास लगभग आधी सदी पूरी कर रहा है। पहली आदिवासी कहानीकार एलिस एक्काक बीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक में सक्रिय थीं। उनकी कहानियों को वंदना टेटे ने संकलित कर पुनः प्रकाशित कराया है। एलिस एक्‍का 60 के दशक में कहानियां लिख रही थीं जब हिंदी में आदिवासी विमर्श और साहित्य  की कोई अनुगूंज नहीं थी। इसके बावजूद उनका विजन, उनका दर्शन स्पंष्टि है। उनकी कहानी ‘दुर्गी के बच्चे और एल्मा की कल्पीनाएं’ में दुर्गी की दुर्दशा तो अभिव्यिक्त  हुई ही है, एल्मा  की कल्प्नाओं के माध्यम से वह विजन भी देखा जा सकता है जो पूरे आदिवासी दर्शन का विजन है। सफाई का काम करने वाली दुर्गी असमय बूढी हो चुकी है। उसे अपना जीवन चलाने के लिए एक के बाद एक चार पुरुषों के साथ रहना पड़ता है। इसके बावजूद उसके बच्चे फटेहाल बचपन जीने को मजबूर हैं। उसकी स्थिति देखकर एल्मा सोचती है, ‘’हाय री दुनिया! एक ही सृष्टिकर्ता परमात्मा की संतानों में इतना फर्क! कोई हिंडोले पर झूलता है और कोई सिर पर मैला की बाल्टीन लेकर घर-घर डोलता है! हाय विधाता, क्यां तुम्हारा यही न्याय है?’’19  और फिर यह है एल्मा की कल्पनाओं का भारत, ‘’आजाद भारत के कोने-कोने बिल्कु ल साफ-सुथरे हो जाते! … सभी अपनी सफाई का काम आप कर लेते!’’20  यहां दो बातें दृष्टव्य है, पहली, हिंदी दलित साहित्य  के आंदोलन से भी काफी पहले आदिवासी लेखिका मैला ढोने की प्रथा पर कहानी लिखती है और उसका खात्मा चाहती है, दूसरी, इसमें मैले की समस्या का कोई काल्पनिक समाधान नहीं, बल्कि व्यवहारिक व ठोस समाधान है कि जब लोग अपनी गंदगी खुद साफ करेंगे तभी समुदाय विशेष को इससे मुक्ति मिल पाएगी। वंदना टेटे के अनुसार ‘’यह सामूहिक अनुभूति की कहानी है। जिसमें कहने वाली और जिसकी कहानी है, दोनों एक तल पर खड़े हैं, एक बराबरी के साथ।’’21
संग्रह में एलिस एक्का  की ‘वन्य’ कन्या’, ‘सलगी, जुगनी और अंबा गाछ’,‘कोयल की लाड़ली सुमरी’, ’15 अगस्त, विलचो और रामू’ तथा ‘धरती लहलहायेगी… झालो नाचेगी… गाएगी’ कहानियां भी संकलित हैं। इन कहानियों में जहां एक तरफ आदिवासियों के प्रकृति से सहज रिश्तेय को दिखाया गया है, वहीं विभिन्ने पात्रों के माध्यगम से आदिवासियों के असमय खत्म होते चले जाने की नियति को भी चित्रित किया है। एलिस एक्का। आदिवासी समाज में घर करती बुराईयों के प्रति भी सचेत हैं। ‘कोयल की लाड़ली सुमरू’ में सुमरू की अपने अजन्मे बच्चे के साथ त्रासद मौत के लिए जितना बाहरी समाज जिम्मेदार है, उतना आदिवासी समाज भी। एलिस एक्का की लगभग सभी कहानियों में स्त्री पात्र केन्द्रे में है। ‘प्रकृति के नैसर्गिक परिवेश और पुरखों द्वारा अर्जित संस्कृसति में रची-बसी ये औरतें श्रमशील हैं, सृजनशील हैं और अपने-अपने ढंग से बिना कोई कोलाहल किये संघर्षरत हैं।’22  यह पूरे आदिवासी साहित्य की विशेषता भी है कि यहां स्त्रियां और उनके मुद्दे शुरू से साहित्य में शामिल रहे हैं इसलिए अलग से ‘दलित नारीवाद’ जैसा आंदोलन चलाने की कोई जरूरत नहीं पड़ी है। वंदना टेटे द्वारा संपादित संग्रह के अंत में एलिस एक्का द्वारा अनुदित खलील जिब्रान की रचनाएं भी शामिल की गई हैं। ये तमाम कहानियां और अनुवाद ‘आदिवासी’ पत्रिका में प्रकाशित हुए थे। इससे पता चलता है कि एलिस एक्काल उन दिनों में साहित्या के क्षेत्र में काफी सक्रिय रही होंगी। एलिस एक्का की भाषा भी बिना किसी लाग-लपेट की, सहज सुंदर भाषा है। शायद आदिवासियत की बात सबसे जोरदार ढंग से ऐसी ही भाषा में कही जा सकती है।
रोज केरकेट्टा वरिष्ठ आदिवासी साहित्यहकार हैं। उनके दो संग्रह आ चुके हैं। नए संग्रह की शीर्षक कहानी ‘बिरुवार गमछा’ आदिवासी पहचान की कहानी है। कहानी में बिरुवार गमछा जो आदिवासियों की पहचान है, गोधरा दंगों के समय उनकी हिफाजत करता है। लेखिका का विजन स्पष्ट  है। आदिवासियत ही आदिवासी को बचा सकती है। रोज केरकेट्टा का पहला संग्रह ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो’ (2009) हिंदी पाठकों के बीच लोकप्रिय है। संग्रह की ‘भंवर’ कहानी एक ऐसी विधवा की कहानी है जिसके बेटा नहीं है, केवल बेटियां हैं। उसका अपनी जमीन पर हक है- समाज के नियमों के अनुसार भी और कानूनानुसार भी। लेकिन समाज में पितृसत्ताट किस कदर घर कर चुकी है, इसका जीता-जागता उदाहरण कहानी में है। विधवा और उसकी बेटियों पर अंधेरी रात में हमला होता है जिसमें विधवा और उसकी एक बेटी को हमलावर रातभर नोचते रहे और जाते वक्तय फरसे और गंडासे से टुकड़े-टुकड़े कर गए। छोटी बेटी छिपकर भागने में सफल रही लेकिन इस घटना पर गवाहों के अभाव में कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हो सकी। छोटी बेटी मंजरी पांच साल बाद फिर कोर्ट में हाजिर हुई लेकिन उसके सामने सवालों का भंवर था। हमने आदिवासी समाज के बारे में एक स्टी रियोटाइप बना लिया है कि वहां स्त्री -पुरुष एकदम समान है। जबकि आज सच्चाई उससे काफी भिन्न है। रोज केरकेट्टा अपनी कहानियों में ऐसी जोखिम भरी सच्चाई को प्रकट करने का साहस करती हैं। हां, श्रम में भागीदारी के कारण आदिवासी स्त्री निर्णय लेने में शामिल रही है और उसके अंदर प्रतिरोध की चेतना भी मुखर है। यह स्वयं रोज केरकेट्टा की कहानियों में भी देखा जा सकता है। उनकी ‘गंध’कहानी की नायिका छेड़खानी पर बदतमीज यात्री पर हाथ उठाती देखी जा सकती है। इसी तरह उनकी कहानी ‘घाना लोहार का’ की नायिका अपने अधिकारों के न मिलने पर हथियार उठाकर हमला भी करती है। जगत सिंघ का सिर और चंदरू का हाथ काट देती है।
मूलतः शांत प्रकृति के आदिवासियों में इस तरह की हिंसा के दृ‍श्य पाठकों को परेशान अवश्य करते हैं लेकिन यह हिंसा आत्म रक्षा और स्वाभिमान के लिए है, अपने अधिकारों और अस्तित्व- रक्षा के लिए है, इसलिए आरोपित नहीं लगती। रोज केरकेट्टा की कथा-शैली सहज है। वे किसी ‘वाद’ के बोझ तले दबकर नहीं, आदिवासी जीवन के सच को आधार बनाकर लिखती हैं।

आलोचना
आदिवासी आलोचना की दिशा में कुछ काम हुए भी हैं जिनमें सबसे महत्वापूर्ण काम है वंदना टेटे का। वंदना टेटे की ‘पुरखा लड़ाके’, ‘आदिवासी साहित्य : परंपरा और प्रयोजन’, ‘वाचिकता’, ‘आदिवासी दर्शन और साहित्य’, ‘पुरखा झारखंडी साहित्यखकार और नए साक्षात्कार’ आदि पुस्तकें आदिवासी दर्शन और साहित्य को समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम है उनकी पुस्तक- ‘आदिवासी साहित्यी : परंपरा और प्रयोजन’। झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृ‍ति अखड़ा की संयोजक वंदना टेटे साहित्य, कला, महिला, शिक्षा, स्वास्थय , साक्षरता आदि मुद्दों पर आदिवासी क्षेत्रों में पिछले दो दशक से अधिक समय से सक्रिय हैं। वे आदिवासी साहित्य की प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में भी चर्चित हैं। आदिवासी साहित्य के संवर्द्धन के लिए निजी प्रयासों से संचालित प्यारा केरकेट्टा फाउण्डेशन से 2013 में प्रकाशित यह पुस्तक आदिवासी जीवन, भाषा, कला, संस्कृति और साहित्य के बारे में फैलाये जा रहे भ्रमों को तोड़ते आदिवासी नजरिए से आदिवासी साहित्य और आदिवासी विश्व-दृष्टि के बारे में सही समझ विकसित करने की दिशा में सार्थक हस्तक्षेप है।
वंदना टेटे की मूल चिंता गैर-आदिवासी प्रतिमानों द्वारा आदिवासी साहित्य के मूल्यांकन को लेकर है। उनका शुरूआती सवाल है- ‘’आदिवासी विश्व और शेष विश्व में जीवन-दर्शन और संस्कृति के स्तर पर कोई साम्य नहीं है तथा दोनों दो सामाजिक-आर्थिक अवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं, फिर अभिव्यक्ति और साहित्य के स्वरूप और अवधारणाएं कैसे एक हो सकती हैं!’’23
वंदना टेटे बताती हैं कि आदिवासी विश्व दृष्टि में साहित्य शेष कला माध्येमों से श्रेष्ठ और स्वायत्त इकाई नहीं है। उनके अनुसार ‘’आदिवासी कला परंपराओं में लेखक-गीतकार, संगीतकार, नर्तक और गायक अलग-अलग स्वातंत्र इकाइयां न पहले थीं, न आज हैं। मुख्यतः आदिवासी कला परंपरा विविध कला रूपों का एक समुच्चय है जिसमें सभी कला विधाओं के साथ-साथ प्रकृति की भी एक प्रमुख और सुनिश्चित भूमिका होती है।’’24 यानी वहां एक कला रूप का दूसरे से अन्योन्याश्रित संबंध होता है। सहअस्तित्व और सहभागिता के बिना किसी एक रूप का उद्घाटन संभव नहीं है। वंदना टेटे जोर देकर रेखांकित करती हैं कि हर समाज के पास अपनी कलात्मवक अभिव्यक्तियां होती हैं, अपने प्रतिमान होते हैं, इसलिए अन्यद समाजों की अभिव्यक्तियों और प्रतिमानों के आधार पर उनका मूल्यांकन  नहीं होना चाहिए।
आदिवासी विश्व दृष्टि का यह पार्थक्य जीवन-जगत के बारे में बुनियादी समझदारी से ही शुरू हो जाता है। ‘’गैर-आदिवासी विश्व के धर्म और विश्वास का मनुष्य इस दंभ से भरा है कि वह 84 लाख योनियों में सबसे श्रेष्ठ- है। लेकिन आदिवासी विश्वास श्रेष्ठता के इस दंभ से असहमति रखता है। वह मानता है कि इस समूची सृष्टि में वह भी महज एक प्राणी है।’’25 इसलिए आदिवासी जीवनदृष्टि में मनुष्य  का जितना महत्व है, उतना ही पशु-पक्षियों, नदियों-पहाड़ों और प्रकृति की हर रचना का है।
आदिवासी साहित्य संबंधी भ्रमों के निवारण और अवधारणा निर्माण की दृष्टि से पुस्तक का ‘आदिवासी साहित्य प्रतिरोधी नहीं रचाव-बसाव का साहित्य’ अध्याय सबसे महत्व पूर्ण है। इसमें वंदना टेटे आदिवासी साहित्य संबंधी प्रचलित तीन धारणाओं- उसके लोक साहित्यत होने, अनगढ़ होने और प्रतिरोध का साहित्य होने का खंडन करती हैं तथा आदिवासी संस्कृति, जीवन-दर्शन व उनके विश्वदृष्टिकोण के प्रति एक नई अंतरंग दृष्टि की मांग करती हैं। वे लोक का संबंध हिंदू मिथक और संस्कृति से बताते हुए कहती हैं, ‘’प्रकृति-पूजक और बोंगा को मानने वाले आदिवासियों के साहित्य को हिंदू धर्म की शब्दावली ‘लोक’ में बांध कर संकीर्ण करना धार्मिक असहिष्णुता तो है ही, सांस्कृातिक अतिक्रमण भी है।’’26  वे लोक और शिष्ट के विभाजन से भी अपनी असहमति दर्ज कराती हैं। इसी तरह आदिवासी साहित्यऔ और कलाओं को हिंदी आलोचकों द्वारा अनगढ़ बताने को सीधे-सीधे आदिवासी सा‍मूहिकता, सहजीविता ओर सहअस्तित्व  के दर्शन को वैचारिक रूप से नकारना मानती हैं।
पुस्तक में वंदना टेटे की सबसे महत्विपूर्ण स्थापना है कि आदिवासी साहित्य दलित साहित्य की तरह वेदना और प्रतिरोध का साहित्य नहीं है। वे लिखती हैं, ‘’आदिवासी साहित्य  मूलतः सृजनात्मकता का साहित्य है। यह इंसान के उस दर्शन को अभिव्यिक्त करने वाला साहित्य है जो मानता है कि प्रकृति सृष्टि में जो कुछ भी है, जड़-चेतन, सभी कुछ सुंदर है…. वह दुनिया को बचाने के लिए सृजन कर रहा है।’’27  वंदना टेटे कहती हैं कि प्रतिरोध का साहित्य वर्तमान सत्ता के खिलाफ लड़ने वालों की सत्ता स्थहपित करना चाहता है लेकिन आदिवासी साहित्य में ऐसी कोई कामना दूर-दूर तक नहीं है।
इस पुस्तल में वंदना टेटे ने आदिवासी साहित्य  की परंपरा में हजारों सालों की लंबी विरासत को पुरखोती  के रूप में लिया है, मौखिक परंपरा के साथ जिसका कुछ हिस्सा  डब्यूपरा . सी. आर्चर जैसे विद्वानों द्वारा संकलित भी किया गया है। ले‍खिका ने आदिवासी भाषाओं में रचित इस पूरी परंपरा को आदिवासी साहित्यर का मूलाधार माना है और अपनी पुस्त्क में संताली, मुंडारी, खडि़या, कुडुख, हो आदि भाषाओं का संक्षिप्त साहित्यिक इतिहास प्रस्तु‍त किया है। पुस्तय में आदिवासी साहित्य में सक्रिय कुछ प्रमुख आदिवासी महिला रचनाकारों का भी संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है जिनमें प्रमुख नाम हैं- सुषमा असुर, दमयंती सिंकू, रोज केरकेट्टा, मेरी स्को्लास्टिका सोरेंग, फ्रांसिस्का  कुजूर, शांति खलखो, निर्मला पुतुल, कुमारी बासंती आदि हैं। आदिवासी स्त्री संघर्ष के समर्थ संताली कथाकार कृष्ण,चंद्र टुडु पर एक स्व्तंत्र अध्याय है। पूरी किताब में आदिवासी भाषाओं का सवाल भी साहित्य के साथ-साथ चलता है।
इस तरह अपने कलेवर में छोटी होने के बावजूद वंदना टेटे की यह पुस्तक आदिवासी भाषा, साहित्य और विश्वदृष्टि के बारे में पाठकों की समझ बनाने की दिशा में सार्थक हस्तक्षेप और प्रस्थान बिंदु की तरह है।
वंदना टेटे की संपादित पुस्त क ‘आदिवासी दर्शन और साहित्य’ (2015) भी आदिवासी आलोचना को आगे बढाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें दर्जनों आदिवासी लेखकों के आदिवासी साहित्य संबंधी विविध पहलुओं पर आलोचनात् क लेख शामिल हैं। पुस्त‍क में डॉ. रामदयाल मुंडा ने संस्कृत साहित्य में आदिवासियों की खोज कर भारतीय संस्कृति को उनकी देन पर प्रकाश डाला है। स्वरयं वंदना टेटे अपने लेख में ‘बाहरी समाज को देखने की पुरखादृष्टि’ का विश्लेषण करती हैं, जो कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। वरिष्ठ साहित्यकार रोज केरकेट्टा ने ‘आदिवासी जीवन दर्शन और साहित्ये‘पर लिखा है, जिसमें वे कहती हैं, ‘आदिवासी साहित्य को किसी दूसरे साहित्य के सांचे में ढालकर क्यों देखा जाए?… जरूरत यह भी है कि हम आदिवासी साहित्य  का अपने ढंग का एक अलग सांचा खड़ा करें और उसे आदिवासीपन के साथ विकसित करें।’’  यह पुस्तसक इसी दिशा में एक कदम मानी जा सकती है। इसीलिए जोवाकिम तोपनो भी अपने लेख में घोषणा कर देते हैं कि ‘आदिवासी साहित्द सृजन के लिए हमें दिकू चश्मा नहीं चाहिए’। और फिर निष्कर्ष गंगा सहाय मीणा के शब्दों में इस प्रकार सामने आता है, ‘आदिवासी साहित्य की कसौटी आदिवासी दर्शन ही है।’
पुस्तक में शामिल ग्लैडसन डुंगडुंग अपने लेख में दावा करते हैं कि ‘आदिवासी दर्शन के पास ही दुनिया को लौटना है’। सावित्री बड़ाइक और अनुज लुगुन ने आदिवासी कविताओं पर लिखा है और रेमिस कंडुलना ने आदिवासी गीतों पर। वाल्टर भेंगरा तरुण ने ‘हिंदी की राजनीति और आदिवासी’पर अपनी टिप्पणी लिखी है। पुस्तक में जयपाल सिंह मुंडा, हेरॉल्डत एस. तोपनो और रोस्केी मार्टिनेज के लेख भी शामिल किये गए हैं। संपादित होने के बावजूद यह पुस्तकक आदिवासी दर्शन और साहित्यड संबंधी चिंतन को आगे बढाने की दिशा में अत्यंत महत्व पूर्ण है।
वंदना टेटे की एक तीसरी किताब है- ‘वाचिकता : आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध’। 2016 में प्रकाशित यह सैद्धांतिक आलोचना की पुस्तक है, जिसमें आदिवासी साहित्य संबंधी विभिन्न अवधारणात्मक चीजों पर बात की गई है, जैसे, आदिवासी साहित्य क्या है, आदिवासी दर्शन क्या है, आदिवासी वाचिकता या ऑरेचर क्या है, वाचिकता का स्त्रियों से क्या संबंध है, आदिवासी साहित्य का अनुवाद और पत्रकारिता से क्या संबंध है, भाषा-संस्कृति के सवालों का आदिवासी साहित्य से क्या संबंध है आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदिवासी सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में वंदना टेटे का कार्य सर्वाधिक उल्लेखनीय है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि अपनी लेखनी के माध्यम से आदिवासी महिलाओं ने हिंदी साहित्य को काफी समृद्ध किया है। उपन्यास लेखन के क्षेत्र में आदिवासी महिलाओं की उपस्थिति नगण्य  है। शेष विधाओं में उन्होंने जमकर कलम चलाई है। उपन्यास आदिवासी लेखन की कोई मुख्य विधा है भी नही। इसकी वजहें हैं। आदिवासी लेखन का मूल आदिवासी दर्शन है। आदिवासी जीवन और दर्शन में उस तरह की मध्ययवर्गीय जटिलताएं नहीं हैं जो उपन्यांस के उदय और विकास का आधार तैयार करती हैं। कविता और कहानी जनसामान्य‍ की विधाएं हैं और इनमें आदिवासी महिलाओं ने अपना अलग स्थान बनाया है। अपनी रचनाओं में वे केवल अपना दुख नहीं कहतीं, आदिवासी जीवन का सच प्रमुखता से रखती हैं। उनका विजन आदिवासी दर्शन पर आधारित बेहतर दुनिया का निर्माण है।

संदर्भ :
1. नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृष्ठ -88
2. नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृष्ठ -28
3. नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृष्ठ -15-16
4.नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृष्ठ -35
5. नगाड़े की तरह बजते शब्द, पृष्ठ  51-52
6. नन्हें सपनों का सुख, पृष्ठ-22
7. नन्हें सपनों का सुख, पृष्ठ-92
8. नन्हें सपनों का सुख, पृष्ठ-17
9. नन्हें सपनों का सुख, पृष्ठ-119
10. नन्हें सपनों का सुख, पृष्ठ-113
11. नन्हें सपनों का सुख, भूमिका से.
12. कोनजोगा, भूमिका, पृष्ठ-6
13. कोनजोगा, पृष्ठ-11
14. कोनजोगा, पृष्ठ -23
15. कोनजोगा, पृष्ठ -41
16. वही, पृष्ठृ-70
17. कलम को तीर होने दो, पृष्ठ-102
18. वही, पृष्ठ 100-101
19. एलिस एक्का की कहानियां, पृष्ठ-49
20. एलिस एक्का की कहानियां, पृष्ठ-50
21. एलिस एक्का की कहानियां, पृष्ठ-29
22. एलिस एक्का की कहानियां, पृष्ठ-32
23. आदिवासी साहित्य : परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ5-9
24. आदिवासी साहित्य  : परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ5-15
25. आदिवासी साहित्य  : परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ5-89
26. आदिवासी साहित्य  : परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ5-84
27. आदिवासी साहित्य  : परंपरा और प्रयोजन, पृष्ठ5-87-88

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गंगा सहाय मीणा भारतीय भाषा केन्द्र्, जेएनयू, में एसोशिएट प्रोफेसर, संपर्क- 1315, पूर्वांचल, जेएनयू, नई दिल्ली -67