बेड़ियाँ: अरविंद जैन की कहानी

अरविंद जैन
अस्पताल के वार्ड नंबर 13 में घुसते ही अम्माँ दिखाई दे गई। बिस्तर पर बैठी अखबार के पन्ने फाड़-फाड़ कर, किश्तियाँ और हवाई जहाज बना रही है। मुझे देखते ही बोलने लगी ” हो गई तेरी पढ़ाई पूरी (बी.ए… एम.ए… पी.एच डी)….कोई लड़का पसंद हो..किसी भी जात-धर्म का हो.. मुझे बता…डरना मत…तेरे बाप और खाप को मैं देख लूँगी। तुम हाथों में मेहंदी रचाओ.. मैं तुम्हें दहेज में ‘राफेल’ हवाई जहाज दूँगी! मेरे सारे जेवर-कपड़े-रुपये लेकर, हवाई जहाज में बैठ ससुराल जाना, दुनिया घूमना और जब मन हो, मिलने आना”। कहते-कहते सारे हवाई जहाज, हवा में उड़ा दिए और किश्तियाँ पानी के गिलास में । बेहद बेबस सी मैं, अम्माँ को देखती-सुनती रही और हाँ में हाँ मिलाती रही। 
सालों से अम्माँ का स्थायी पता है- “मेडिकल कॉलेज, मानसिक रोग विभाग, वार्ड नंबर 13, बेड नंबर 31”। जीवन ही उल्टा-पल्टा हो गया। बीच-बीच में कभी थोड़ा ठीक होती हैं तो घर ले आते हैं मगर कुछ दिन बाद फिर अस्पताल। अस्पताल में वो अकेली नहीं, उन जैसी बहुत सी स्त्रियाँ हैं। सबकी कथा-कहानी, कमोबेश एक-दूसरे से मिलती-जुलती। डॉक्टर ज्ञान के शब्दों में कहूँ तो “बचपन से मानसिक दबाव-तनाव और रिमोट कंट्रोल” इन्हें सामान्य नहीं रहने देते। यहाँ सब दमित आकाँक्षाएं भर्ती हैं। लछमी..सुरसती..दुर्गेश्वरी..पारो..लाजो.. तुलसी…शांति..! डॉक्टर विद्यासागर के इस मंदिर को, लोग अब ज्ञान का ‘पागलखाना’ कहते हैं।
सोचा था इस बार घर जाते ही अम्माँ को सब कुछ सच-सच बता दूँगी, लेकिन क्या मालूम था कि इस हाल में होगी। ठीक होती तो शायद बता ही देती, अपने ‘ब्रांड न्यू बॉयफ्रेंड’ और समुद्र किनारे बनाये रेशमी रेत के घरौंदों के बारे में। जानती हूँ अम्माँ तो सिर्फ ‘हिज मास्टर’स वॉयस’ है…..पापा ही चाबी भरते रहते हैं “अपनी लाडली को कह देना..बता देना…समझा देना….!”। यूँ अम्माँ और मास्टर जी मुझे बेहद प्यार करते हैं, कितना तो सुनते-मानते हैं..और मैं हूँ कि…!
शादी से साल भर पहले छुट्टियों में आई, तो शाम को छत पर टहलते हुए, अम्माँ बताने लगी “तुम्हारी नानी अक्सर कहती थी सुनो राजकुमारी! पहले कढ़ाई, बुनाई, सिलाई, रसोई, बर्तन-भांडे, कपड़े-लत्ते, झाड़ू-पोछा, साफ-सफाई करना तो सीख ले, फिर करती रहना पढ़ाई-लिखाई!” मैंनें थोड़ा खीझते हुए कहा “अम्माँ! उस समय पढ़ाई-लिखाई के लिए कस्बे में कोई एक ‘कन्या पाठशाला’ होगी, जहाँ अपना नाम, बाप का नाम और घर का अता-पता पढ़ना-लिखना सीख लो-देवनागरी, गुरुमुखी या उर्दू में। कहाँ जाती डॉक्टर बनने?”। 
याद है बीस साल पहले घर के सामने बैंड-बाजा और बारात थे और छोटे चाचा अम्माँ को अस्पताल से एम्बुलेंस में लाए थे। वरमाला, फेरे और विदा के समय गेंदे और गुलाब के फूलों से सजी ‘बीएमडब्लयू’ डोली में बैठने तक, अम्माँ गूंगी गुड़िया सी बैठी रही। मैं रास्ते भर अम्माँ और अपने बारे में सोच-सोच रोती-सुबकती रही।
सासू माँ ने आरता, मुँह दिखाई और रस्म-रिवाज़ के बाद कहा “सुनो बहुरानी! कुछ दिन घूम आओ, ‘हनीमून’ मनाओ”। लौटने के बाद समझाने लगी “बहुत हो गई मौज-मस्ती, आज से रसोई सँभालो और खाना बना कर तो दिखाओ”। अगले हफ्ते फेरा डालने पीहर गई, तो अम्मा गुमसुम सी कमरे में लेटी रही। कितनी कोशिश की मगर पहचाना तक नहीं।
अगले दिन लौटी तो सूचना मिली कि कामवाली गई लंबी छूट्टी पर। आदेश हुआ “कल से  कपड़े-लत्ते, बर्तन-भांडे और झाड़ू-पोछा, साफ-सफाई करो-कराओ”। पीछे से आकाशवाणी “कब तक करेंगे शादी-ब्याह और नई बहू के लाड़-चाव, अब ढंग से अपना घर बसाओ”। 
पतिदेव घावों पर मरहम लगाते “नौकरी करनी है तो सुबह उठ कर, घर का काम निपटाओ और दफ़्तर जाओ”। मुझे लगता नमक छिड़क रहे हैं। सबके लिए समान कानून संहिता “जो भी कमाओ, सास के पास जमा करवाओ”। हाँ!  ‘ख़र्चा-ए-पानदान’ (कम-ज्यादा) हैसियत के हिसाब से ही मिलेगा। ससुर जी (रिटायर्ड बैंक मैनेजर) का स्थायी उपदेश “जो करदा है सेवा, ओहणू मिलदी मेवा”।मन करता पूछूँ “पापा जी! जिसे मेवा खाने का शौक़ ना हो तो…”
साल भर बाद ही पीहर से ससुराल तक में सुन रही हूँ “परिवार बढ़ाओ, ‘हम दो-हमारे दो’ (एक बेटा अनिवार्य!) “। घर से बाहर निकलो तो शहर के हर चौराहे पर बड़े-बड़े बोर्ड लगे हैं “छोटा परिवार,सुखी परिवार”। फोन पर हर कोई रोज नया पाठ पढ़ाते हैं “बच्चे जब तक स्कूल जाने लायक हों, तब तक नौकरी से छूट्टी ले लेना। ना मिले तो छोड़ देना नौकरी, दूसरी ढूँढ लेना। बच्चे की देखभाल (गूं-मूत) कौन करेगा!?” मैं बड़बड़ाती रहती हूँ “सबको घर में, खिलौनें चाहिए खिलौनें! झल्लाती रहती हूँ “मिट्टी भी देह बन कर तो नहीं रह सकती, कोख से कब्र तक के सफर में”।
यूँ होते-होते मैं प्रतिष्ठा एम.ए.(मनोविज्ञान) उर्फ अनाम राजकुमारी उर्फ बहुरानी से मिसरानी, ‘जॉबवाली’, कामवाली और दो बच्चों का ‘गूं-मूत’ ही नहीं, बाथरूम तक साफ करने वाली ‘भंगन’ बन-बना दी गई हूँ। डिग्रियों को दीमक खा रही है और किताबों को चूहे कुतर रहे हैं। जेवर बनते-टूटते रहते हैं और साड़ियाँ संदूक की शोभा बढ़ा रही हैं। 
दोनों बच्चे पढ़ने-लिखने विदेश चले गए और सास-ससुर समय से पहले ही, अंनत यात्रा पर निकल गए। पतिदेव ‘पेट्रोल पंप’ से देर रात खा-पी कर आते हैं और लेटते ही खर्राटे भरने लगते हैं। मायके में अम्माँ हैं, कभी घर और कभी वार्ड नंबर 13 में। अक्सर ऐसा महसूस होता है कि मैं भी अम्माँ की तरह पगला जाऊँगी।अब तो रोज रात एक चीख, सन्नाटे से शून्य तक में गूँजती रहती है।
रात आँखों में मँडराती रही और सुबह से ही मन उचाट है। अम्माँ से मिलने अस्पताल पहुँची तो ‘इमरजेंसी वार्ड’ के सामने से गुजरते हुए इतिहास ने याद दिलाया “आप यहाँ उस दिन-साल पैदा हुई थी, जिस दिन-साल देश में ‘इमरजेंसी’ लगी थी”। वार्ड नंबर 13 पहुँची तो देखा अम्माँ दरवाज़े पर ही, पंचायत की अध्यक्षता कर रही है। एक के बाद एक मुक़दमा सुनती और फैसला सुनाती हुई अम्माँ, साक्षात न्याय की देवी लग रही है। 
मैं दूर बैठी अम्माँ को देख-सुन रही हूँ….”आर्डर! आर्डर! दरोगा जी! इसे बोलना सिखाओ… उसे होस्टल छोड़ कर आओ..इसकी बिल्ली जैसी आँखों वाली मम्मी को बुलाओ..उसके शराबी बाप को ढूँढवाओ.. गुलाब वाटिका में ‘कैक्टस’ उगाओ..और दरोगा! तुम घूस नहीं घास खाओ..सुधर जाओ वरना चूहों वाले पिंजरे में बंद करवा दूँगी…सुन रहे हो ना!!” दरोगा बनी औरत ने हाथ जोड़ सिर झुकाया और कहती रही “यस मैम.. यस!” 

पंचायत खत्म हुई तो मैंनें पूछा “अम्माँ! कैसी हो?” सुनते ही बोली “दिखता नहीं… अंधी हो या नई आई हो? अपने बिस्तर पर जाकर चुपचाप सो जाओ। बिना सोचे बहुत बोलती है.. हूँ!”
डॉक्टर ज्ञान से मिली तो बताने लगे “कल देखने गया तो कहने लगी डॉक्टर साब यह मेरी वसीयत है...सम्भाल कर रखना, किसी को भी मत बताना-दिखाना! मैनें अपनी देह इस अस्पताल को दान कर दी है। मरने के बाद खोपड़ी खोलना, लॉकर की एक चाबी मिलेगी।” 
लौटते समय लगा कि समय की सुनामी में किश्तियां डूब रही हैं और मैं समुद्र किनारे रेशमी रेत के घरौंदे बनाते-बनाते, कागज़ी हवाई जहाज में सवार, सृष्टि के फेरे लगा रही हूँ।

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