स्त्री-छवियाँ बदली हैं लेकिन आदिवासी स्त्रियाँ आज भी अपने पुरखिन जैसी

अश्विनी पंकज

मानव विकास के इतिहास में औरतों की हैसियत क्या थी इसका पता हमें उन गुफा शैल चित्रों और पाषाण कलाकृतियों से मिलता है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने लाखों-हजारों साल पहले बनाया है।

पुरातत्वविदों और इतिहासकारों के अनुसार भारत के मध्यप्रदेश स्थित भानपुर के ‘दर की चट्टान’ के ‘कपमार्क्स’ और ‘भीमबैठका’ के ‘रॉक पेंटिंग’ दुनिया के सबसे पुराने गुफा शैल चित्र हैं। लगभग दो से पांच लाख साल पुराने। 

भीमबैठका के गुफा चित्रों में स्त्री का रेखांकन एक संपूर्ण इंसान के रूप में हुआ है। वहां के चित्रों में हम स्त्री को वे सारे काम करते हुए देखते हैं जो जीवन और समाज के लिए जरूरी हैं। जैसे अपने लिए पुरुष साथी चुनना, शिकार करना, पशु पालना और युद्ध करना। 

स्त्री की इस सामान्य छवि में बदलाव 40 हजार साल पहले होता है। जब इंसानी समाज का एक हिस्सा प्राकृतिक गुफा-कंदराओं को छोड़कर खेती और ग्राम व्यवस्था के आरंभिक चरण में प्रवेश करता है। जो सिर्फ पत्थरों से औजार ही नहीं बल्कि मूर्तियां भी बनाता है।

इंसानी इतिहास में कला का यह दूसरा रूप, जो पाषाण शिल्प है, हमें एक भिन्न तरह के सामाजिक अवस्था की सूचना देता है। क्योंकि पाषाण शिल्प की कलाकृतियां गुफाओं में मिले रॉक पेंटिंग से बिल्कुल अलग हैं। यानी दोनों का बनाने वाला समाज एक नहीं है। दो तरह के समाज हैं।

गुफा शैल चित्रों का इंसानी समाज पूर्णतः शिकारी अवस्था में और सामूहिक दिखायी देता है। जिसमें स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। उनका समाज सामूहिक है और स्त्री-पुरुष एकसमान हैं। जीने और खुद को बचाए रखने के लिए दोनों शिकार और युद्ध साथ-साथ करते हैं। 

लेकिन पत्थर से मूर्तियां बनाने वाला समाज व्यक्ति केंद्रित है। उसकी सामूहिकता खंडित हो चुकी है। क्योंकि उसकी पाषाण कृतियां एकल मनुष्य की हैं। यह व्यक्तिवादी मनुष्य स्त्री और पुरुष में भेद करता है। उसके लिए स्त्री सिर्फ उपभोग की वस्तु है। 

इसीलिए पाषाणशिल्प की अधिकांश कलाकृतियां केवल औरतों की हैं। दैहिक सुंदरता का प्रदर्शन करती हुई औरतों का। सुंदरता और भोग की वस्तु बन गई स्त्री का।

जर्मनी में मिली वीनस ऑफ होहले फेल्स (Venus of Hohle Fels) नामक प्रागैतिहासिक स्त्री कलाकृति 38 हजार साल पुरानी है। जिसमें सिर्फ नारी अंगों को प्रमुखता दी गई है। जिस तरह से यह दोनों हाथों को कमर पकड़े खड़ी है उससे लगता है मानो वह अपनी देह का प्रदर्शन कर रही है।

1988 में ऑस्ट्रिया में मिली स्त्री आकृति टमदने व (Venus of Galgenberg) इससे भी ज्यादा ‘प्रदर्शनीय’ है। संपूर्णता में पाई जाने वाली यह दुनिया की पहली स्त्री मूर्ति है। क्योंकि इसके पहले मिली सभी चारों स्त्री आकृतियां आधी अधूरी प्राप्त हुई हैं।

पुरातत्वविदों ने इसे ‘आलंकारिक आकृति’ ( Strategic Figurine) और ‘विशिष्ट योनी’ (Distinct Vulva) नाम दिया है। किसी मॉडल की तरह देह को परोसती हुई यह स्त्री आकृति 30 हजार साल पहले की है।

स्त्री देह के प्रदर्शन का जो सिलसिला 40 हजार साल पहले की पाषाण कृति से शुरू होता है, वह रुकता नहीं है। हम पाते हैं कि 40 हजार साल के कालखंडों में अलग-अलग समय में बनाई गई प्रायः सभी स्त्री आकृतियां एक जैसी हैं। सभी में स्त्री की एक जैसी मुद्रा है। 

पाषाण शिल्प की औरतें खेती-किसानी का कोई काम नहीं करतीं। गुफा और शैल चित्र के स्त्रियों की तरह वे न तो शिकार में जाती हैं और न ही युद्ध करती हैं। सिर्फ सजी-धजी गुड़िया की तरह खड़ी मर्द के हुक्म या आमंत्रण का इंतजार करती है। 

हड़प्पा काल की स्त्री नर्तकी है। पुरुषों के इशारे पर नाचती हुई स्त्री। 

पाषाण शिल्प वाले समाज की स्त्री हड़प्पा के बाद, मात्र हजार सालों के भीतर ‘नगरवधु’ (आम्रपाली) बना दी जाती है। जिसे दीक्षा और संघ में प्रवेश देने के लिए बुद्ध भी राजी नहीं हैं। क्योंकि स्त्री का काम तो केवल कुल के मरदों के लिए नाचती हुई देह का समर्पण करना है।

पहली सदी में पुरुषवादी सत्ता धर्म के सहारे स्त्री को देवी बना देता है। ताकि मरदों के लिए वह अपनी योनी को ‘पवित्र’ बनाए रखे। सीता-सावित्री के किस्से इसी दौर में गढ़े जाते हैं। 

गुप्त काल में, जो हिंदुओं का स्वर्णकाल है, स्त्री पूरी तरह से यौन कुंठा का साधन बन जाती है। अब वह पूरी तरह से गुलाम है। मर्द उसका स्वामी और परमेश्वर है।  

छठी शताब्दी में संस्कृत में रचा गया वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ और खजुराहों में पत्थरों से बनाई गई कलाकृतियां ‘सभ्य’ समाज के यौन कुंठाओं के प्रमुख उदाहरण हैं। 

इनसे पता चलता है कि इंसानी समूह के एक वर्ग में, पिछले 40 हजार सालों के दौरान स्त्रियों का क्या हश्र हुआ है। उनकी सामाजिक अवस्था का किस प्रकार से और किस हद तक अवमूल्यन किया गया है। 

अफसोस की बात है कि सभ्य समाज ‘कामसूत्र’ को ‘काम-कला’ का उत्कृष्ट और क्लासिक ग्रंथ मानता है। अप्राकृतिक यौन क्रियाओं, कुंठित काम वासनाओं और स्त्री उत्पीड़न से भरे खजुराहों के पाषाण शिल्प को मनुष्यता की विश्व धरोहर घोषित करता है।

वहीं हम देखते हैं कि गुफा और शैल चित्रों वाले इंसानी समूह में, जिसके वंशज ‘सभ्यता के इतिहास’ के हर दौर में ‘असभ्य’ माने जाते हैं, जंगली और आदिवासी कहे जाते हैं, औरतों की सामाजिक हैसियत आज भी वही है, जो दो लाख साल पहले थी। 

पवित्रता और अपवित्रता की धार्मिक-सामाजिक अवधारणा से परे। उन्मुक्त और आजाद। पुरुष के साथ सहभागी और समाज के साथ सामुदायिक। हर स्तर पर सहजीवी। चाहे मामला साथी चुनने का, शिकार का या फिर दुश्मन से युद्ध करने का हो। धरती और जीवन के रचाव, बचाव और संघर्ष … सभी मोर्चे पर आदिवासी स्त्रियां आज भी लाखों साल पहले के पुरखा औरतों जैसी हैं।

साहित्यकार, रंगकर्मी अश्विनी पंकज आदिवासी अधिकार के प्रवक्ता एवं उसके लिए संघर्षरत एक्टिविस्ट हैं.

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ISSN 2394-093X
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