कन्हैया कुमार सेक्सिस्ट और जातिवादी हैं (!)

पिछले दिनों बेगुसराय से सीपीआई के उम्मीदवार कन्हैया कुमार द्वारा एक महिला पत्रकार को दिये गये सेक्सिस्ट जवाब, जाति के मसले पर उनकी समझ और आये उनके बयान, जेएनयू के छात्र आन्दोलन में उनकी भूमिका और उनके समर्थकों द्वारा उनके आलोचकों को दी जाने वाली माँ-बहन की गलियों पर उनकी चुप्पी का विश्लेषण करता सरोजकुमार का लेख:

सरोज कुमार

कन्हैया की पॉलिटिक्स क्या है
!“देखिए जो लोग जाति को टिकाए रखना चाहते हैं, वे लोग कहते हैं कि जाति की ही बात न करो. यह करनी भी है तो हमीं करेंगे, अपमानित लोग नहीं करेंगे. यानी जुल्म सहते रहो.”  -मान्यवर कांशी राम

चुनाव लड़ने की घोषणा करते कन्हैया कुमार और दायें उनके समर्थकों द्वारा लेखक को सोशल मीडिया में मिलती धमकियां और गालियाँ

पटना में 15 मार्च को बीबीसी हिन्दी के कॉनक्लेव के युवाओं और राजनीति से संबंधित सत्र में कन्हैया कुमार का स्वागत करते करते हुए संस्थान की पत्रकार रूपा झा ने कहा कि कन्हैया युवा चेहरा हैं और बहुत लोगों के लिए उम्मीद भी लेकर आए हैं. चूंकि उस दिन मान्यवर कांशी राम की जयंती थी, तो कन्हैया कुमार अपने संबोधन की शुरुआत में ही कांशी राम का नाम लेना और फिर न्यूजीलैंड में एक मस्जिद में नमाज पढ़ रहे करीब 40 लोगों की हत्या पर शोक प्रकट करना नहीं भूले. जाहिर है, वे बीते कई महीनों से बेगूसराय में लोकसभा चुनाव की अपनी उम्मीदवारी को लेकर जुटे हुए थे. कथित सेकुलर खेमे की किसी पार्टी के लिए दलित और मुसलमान वोट बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. दलितों के हितैषी होने का दावा तो घोर ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक भगवा बिरादरी भी करती है! खैर, कन्हैया भी इन दोनों तबकों का हितैषी होने का दावा बार-बार करते रहे हैं. लेकिन क्या वाकई ऐसा है या फिर संदेह की कई परतें उनके इर्द-गिर्द मौजूद हैं?

दलित-बहुजन आक्रोश और आंदोलन पर काबिज होने की कवायद

जाहिर है, कन्हैया की ‘बहुत लोगों’ की उम्मीद बनकर उभरने की शुरुआत फरवरी, 2016 के उन्हीं दिनों हुई, जब रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या विमर्श का सबसे प्रमुख मुद्दा था और उसके विरुद्ध देशभर में मोदी सरकार के खिलाफ आक्रोश था. लेकिन 9 फरवरी को जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में क्रिएट किए गए विवाद के बाद मुख्यधारा की मीडिया, राजनीति और यहां तक कि बौद्धिक-अकादमिक तबके में भी जेएनयू अचानक सबसे प्रमुख मुद्दा बना जाता है और रोहित वेमुला संबंधित विमर्शों को परिदृश्य से बाहर करने की कोशिश होती है. कन्हैया कहते हैं (बीबीसी के उस कार्यक्रम में भी) कि रोहित वेमुला हो या फिर हालिया रोस्टर का मामला, जेएनयू इन मुद्दों का केंद्र (प्रतिरोध का) रहा है. जाहिर है, जेएनयू एक अहम संस्थान है और इसने विभिन्न मुद्दों और आंदोलनों-प्रदर्शनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है. लेकिन क्या कोई भी शख्स या संस्थान इतना अहम हो जाता है कि बाकी उसके सामने चीजें गौण हो जाती हैं? क्या यह कोई छुपी हुई बात है कि दरअसल, कोई संस्थान या व्यक्ति नहीं, बल्कि यह दलित-पिछड़े-आदिवासी जैसे बहुजन वर्ग ही हैं, जिन्होंने रोहित वेमुला से लेकर खुद से संबंधित रोस्टर मुद्दे को लेकर आंदोलन खड़ा किया और सरकार को झुकने पर मजबूर कर दिया. रोहित वेमुला के मुद्दे पर आंबेडकर स्टुडेंट्स एसोसिएशन या फिर संस्थान देखें तो हैदराबाद विश्वविद्यालय की भूमिका को कोई नजरअंदाज कर सकता है क्या? या फिर रोस्टर के मुद्दे पर दिल्ली विश्वविद्यालय या इस जैसे अन्य संस्थानों को!  जेएनयू महत्वपूर्ण संस्थान है, लेकिन इसके या किसी भी संस्थान या व्यक्ति के बहाने बहुजन जनता और उनके संघर्ष को हाशिए पर नहीं ढकेला जा सकता. पर कन्हैया ऐसा ही करते नजर आते हैं.

सेक्सिस्ट बोल!

जाति के प्रश्न को लेकर उनकी और उनके समर्थकों की मंशा पर तो पहले से ही सवाल उठते रहे हैं. लेकिन उन्होंने बीबीसी पत्रकार रूपा झा से पलटकर जो सवाल किया, वह उनके सेक्सिस्ट नजरिए को उजागर कर देता है. उनकी लोकप्रियता में उनकी जाति (भूमिहार) का भी फायदा मिला होगा, इस सवाल के जवाब में कन्हैया पलटकर रूपा झा से पूछते हैं ‘आपको मिला है क्या?’ रूपा झा कहती हैं कि कहीं न कहीं मिला ही होगा. तब कन्हैया उनसे कहते हैं, “दस बजे रात में जब आप दिल्ली में निकलेंगी तो जो मनचले हैं क्या आपको बस आपका नाम रुपा झा सुनकर छोड़ देंगे.”

विडंबना कि कार्यक्रम के दर्शकदीर्घा में आपको उत्साहपूर्ण कलरव सुनाई देगा (वीडियो में). जब कन्हैया  इतने ‘पॉपुलर’ नहीं हुए थे, तो जेएनयू विवाद से करीब एक साल पहले उनपर एक लड़की के साथ बदतमीजी करने का आरोप लगा था और जेएनयू प्रशासन ने उनपर जुर्माना भी लगाया था. कन्हैया ने कथित तौर पर खुले में पेशाब करने पर टोकने पर उस लड़की के साथ बदतमीजी की थी. अब उन्होंने एक महिला पत्रकार पर सेक्सिस्ट टिप्पणी की. तो क्या वे अभी तक सेक्सिस्ट नजरिये से बाहर नहीं निकले हैं? वैसे भी, प्रगतिशीलता बस किसी एक समुदाय के प्रति आपकी अच्छी सोच से तो नहीं तय होती, बल्कि हर वंचित तबके, दलित हों या महिलाएं, सबके प्रति आपकी सोच से ही तय होती है. ऐसा तो नहीं चलेगा कि आप किसी के लिए प्रगतिशील रहें और बाकि के लिए संकीर्ण सोच रखें.

यह भी अनायास नहीं है कि बहुत लोगों के कथित ‘उम्मीद’ और युवा ‘नायक’ की महिला पत्रकार पर यह सेक्सिस्ट टिप्पणी कोई मुद्दा नहीं है. वरना सोचिए, शरद यादव की टिप्पणियों पर कितना हंगामा हुआ था. यहां तक कि लेफ्ट की वृंदा करात तक शरद यादव पर हमला बोलती रही हैं, उन्हें माफी मांगने को कहती रही हैं और एनडीटीवी में ‘शरद यादव, माइंड योर लैंग्विज’ जैसे कॉलम लिखती रही हैं. तो क्या युवा उम्मीद को कोई कहेगा कि कन्हैया, माइंड योर लैंग्विज!

रूपा झा को यह कहकर कि आपको झा जानकर कोई मनचला/अपराधी छोड़ देगा क्या, कन्हैया एक और पूर्वग्रह भी दिखाते हैं. ऐसा कहकर वे जताना चाहते हैं कि महिला मानो कोई जातिविहीन तबका है. क्या वे बताएंगे कि मनचलों, बलात्कारियों, हत्यारों का शिकार सबसे ज्यादा कौन-महिलाएं होती हैं? बहुजन महिलाएं क्या जाति की वजह से और आसान शिकार नहीं होतीं. लक्ष्मणपुर बाथे में कुल 58 में 27 महिलाओं, जिनमें कुछ गर्भवती थीं, क्यों भूमिहारों की रणवीर सेना ने क्यों मार डाला था? क्या इसकी वजह जाति नहीं थी! संसद में महिला आरक्षण को लेकर भी बहुजनों की यह तो चिंता है कि अगर महिला आरक्षण लागू हो तो उसमें भी वंचित समूहों की महिलाओं का प्रतिनिधित्व हो.

देखें वह वीडियो जिसमें कन्हैया कुमार बीबीसी की पत्रकार को सेक्सिस्ट जवाब देते हैं. पत्रकार उन्हें जेंडर और जाति की समझ देती है और झिड़कती भी है सवाल के बदले सवाल करने पर

जाति का सवाल

दलित हों या मुसलमान या कोई भी अन्य बहुजन वर्ग, उनका नाम रटना आसान है बल्कि राजनीतिक ‘फायदे’ का सौदा भी लगता है, लेकिन वहीं समुदाय जब प्रतिनिधित्व मांगने लगता है, तो सवर्ण तबके को दिक्कत होने लगती है. मान्यवर कांशी राम ने भी इसी ओर इशारा करते हुए कहा था कि सवर्ण जातियां यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश करती हैं और हमेशा नेतृत्व पर कब्जा करने की कोशिश करती हैं. कन्हैया कांशी राम का नाम लेकर कह रहे थे कि उनके विचारों का समाज बनाने की कोशिश होनी चाहिए. तो फिर नेतृत्व को लेकर हमेशा सजग रहे कांशी राम के विचारों को मानते हुए कन्हैया ने नेतृत्व खुद करने की जिद को त्याग कर क्यों नहीं किसी बहुजन को नेतृत्व करने देने का सोचा?

लेकिन नेतृत्व का मुद्दा कन्हैया की पार्टी से भी स्पष्ट होता है. बिहार में पार्टी की राज्य कार्यकारिणी में मुख्यतया भूमिहार समेत अन्य सवर्ण जातियां हैं. वहीं, बेगूसराय में भी पार्टी में सवर्णों, मुख्यतया भूमिहारों का आधिपत्य है. गृह क्षेत्र होने के आलावा कन्हैया या उनकी पार्टी ने उनकी उम्मीदवारी के लिए बेगूसराय को इसलिए भी चुना है क्योंकि वहां भूमिहारों की अच्छी-खासी आबादी है और कन्हैया उसी समुदाय के हैं.

लेकिन, जाति का सवाल उठाते ही कन्हैया और उनके समर्थकों की ओर से इस तरह के कुछ सपाट जवाब उछाले जा रहे हैं: मसलन, “किसी सवर्ण जाति का होने भर से उन पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए….कन्हैया की जाति देख रहे लोग खुद जातिवाद कर रहे हैं.” कन्हैया ने बीबीसी के कार्यक्रम में खुद ही कहा, “जाति का हम कोई एप्लीकेशन (आवेदन) दिए हैं कि हमारी जाति क्या होगी?…आपकी जाति क्या होगी, इसमें आपकी क्या भूमिका है?” यह बेहद चालाकी भरा और धूर्त जवाब है. जाति की व्यवस्था किस समुदाय ने बनाई थी और इसकी यथास्थिति कौन-बनाए रखना चाहता है?  जातिगत हाइरार्की फायदा कौन समुदाय उठाता आ रहा है. जवाब इसी में है कि क्यों सीपीआइ में नेतृत्व पर भूमिहार जैसे सवर्ण समुदायों का कब्जा है. मिसाल के तौर पर, 2015 में बिहार की पार्टी की राज्य कार्यकारिणी में से करीब दर्जन भर लोगों को हटाया गया और उनमें अधिकतर वंचित बहुजन समुदाय के थे. अगले साल 31 सदस्यीय कार्यकारिणी में करीब 23 सवर्ण समुदाय के पार्टी नेता थे. अब भी ऐसा ही हाल है, जिसका नजारा पटना की प्रेस वार्ता को संबोधित करने वालों में भी दिखा जब उनकी उम्मीदवारी का ऐलान किया गया. और जाहिर है, देश के बाकी संस्थानों के प्रतिनिधित्व में किन जातियों का कब्जा है.

पप्पू यादव के साथ कन्हैया कुमार. पप्पू यादव महागठबंधन के बड़े नेता और विपक्ष की राजनीति को एकजूट करने में लगे शरद यादव के खिलाफ मधेपुरा से चुनाव लड रहे हैं. कन्हैया ने पप्पू यादव का समर्थन किया है

कन्हैया की दावेदारी दिखाती है कि नेतृत्व के मुद्दे को लेकर न तो पार्टी में बदलाव नजर आ रहा है, न ही कन्हैया जैसे सवर्ण नेताओं में. बल्कि उनकी उम्मीदवारी से पुष्ट हो रहा है कि दरअसल, वे लोग यथास्थिति को बनाए रखना चाहते हैं. इसमें सवर्णों से भरी पड़ी मीडिया का भी कम योगदान नहीं है. मीडिया मोदी/भाजपा के सामने भले ही कन्हैया को ‘देशद्रोही’ ठहराए लेकिन वे तेजस्वी/राजद के सामने मीडिया के लिए बहुत ‘अच्छे’ और ‘स्वीकार्य’ हो जाते हैं. यों ही नहीं, बेगूसराय में मीडिया के धड़े कन्हैया और भाजपा नेता गिरीराज सिंह के बीच मुकाबला दिखा रहे हैं और पिछले साल करीब पौने चार लाख वोट पा कर कुछ ही हजार वोट से भाजपा उम्मीदवार भोला सिंह से हारने वाले राजद उम्मीदवार तनवीर हसन को नजरअंदाज कर रहे हैं. जाहिर हैं, जाति का प्रश्न ही है, जो इन सभी के मुखौटों को नोच फेंकता है. यह अनायास नहीं है कि चुनाव लड़ने की घोषणा के समय कन्हैया के साथ बैठे चेहरे सवर्ण ही होते हैं और जब बीबीसी में सवर्णों के लिए 10% आरक्षण का सवाल किया जाता है तो गोलमोल जवाब देते हैं.

कौन हैं कन्हैया के फॉलोवर, और कन्हैया किनके साथ

कन्हैया और उनके कथित प्रगतिशील वाम समर्थक भले ही नकारते हों, लेकिन उनके इर्द-गिर्द सवर्णों और मुख्यतया भूमिहारों की गोलबंदी नजर आती है. यह गोलबंदी अलग-अलग पार्टियों और समूहों से भी नजर आ रही है. यहां तक कि बेगूसराय के पूर्व भाजपा सांसद भोला सिंह ने नवंबर, 2017 में कन्हैया को आज का भगत सिंह बता डाला था. ठीक इसी तरह सवर्ण सेना के प्रमुख भागवत शर्मा ने हाल ही में कन्हैया की तारीफ की और उसे समर्थन दे डाला. इन तीनों में एक समानता यह है कि ये तीनों भूमिहार समुदाय से हैं. वहीं, भाजपा के वर्तमान उम्मीदवार गिरिराज सिंह (भूमिहार) भी बेगूसराय से नहीं लड़ना चाहते थे. इससे भी जाहिर है कि दरअसल वहां कन्हैया और उनके बीच भूमिहार वोट के बंट जाने का खतरा उन्हें लग रहा है, जो उनके लिए नुकसानदायक भी साबित हो सकता है. हालांकि भागवत शर्मा का बयान कुछ और भी संकेत कर रहा है. भागवत कहते हैं कि ‘दरअसल भूमिहारों को भूमिहारों से, सवर्णों को सवर्णों से आपस में लड़ाने का काम, उन्हें तोड़ने का काम पार्टियां कर रही हैं, चाहे एनडीए हो या महागठबंधन.’ जो वे या भूमिहार नहीं चाहते. उदाहरण वे नवादा सीट का देते हैं, जहां से गिरिराज का पत्ता कटा, और चंदन कुमार (भूमिहार) को एनडीए की टिकट दी गई. जहानाबाद के वर्तमान सांसद अरुण कुमार (भूमिहार) भी वहां से लड़ने वाले थे.’ भागवत ने कन्हैया कुमार (भूमिहार) का भी समर्थन किया था. जाहिर है, दरअसल ये लोग चाहते हैं कि भूमिहार-भूमिहार आपस में नहीं भिड़े या कोई नहीं हारे, बल्कि जितना ज्यादा भूमिहार जीत सके, जीते. अरुण कुमार ने इसी रणनीति के तहत नवादा छोड़कर अब फिर जहानाबाद से लड़ने का फैसला लिया है. सो कन्हैया भी इसी समुदाय के नए ऊर्जावान लीडर हैं, जो भूमिहारों/सवर्णों की परंपरागत छवि वालों में ही नहीं बल्कि खुद को प्रगतिशील दिखाने वाले सवर्णों में भी स्वीकार्य हैं, जो लोग सीधे बरमेसर मुखिया टाइप नहीं बोलते. तो असल में यह दरअसल भूमिहार समुदाय के खुद को पुनरुत्थान करने की कोशिश है और कन्हैया पर दांव इसी रणनीति का हिस्सा है.

महागठबंधन के विरोध के लिए पप्पू यादव से समझौता

कन्हैया पहले यह कहते रहे कि उनकी लड़ाई महागठबंधन से नहीं है और वे भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा नहीं करेंगे. लेकिन जाहिर है, महागठबंधन में जगह नहीं मिलने के बाद वे अपनी इसी बात से पलटते नजर आ रहे हैं. बेगूसराय में वे खुद राजद के खिलाफ उतरे ही हैं, वहीं उन्होंने मधेपुरा से पप्पू यादव का भी समर्थन कर दिया. उन्हीं पप्पू यादव पर जिनपर सीपीआइएम के ही नेता अजीत सरकार की हत्या का आरोप लगा था. पप्पू यादव ने राजद से सीट नहीं मिलने के बाद मधेपुरा से पर्चा भरा है, जहां से महागठबंधन की ओर से शरद यादव चुनाव लड़ रहे हैं. जाहिर है, कन्हैया की नजदीकियां भी बहुत कुछ संकेत दे देती हैं.

इसके अलावा क्राउड फंडिंग के जरिये धन जुटाने को लेकर भी कन्हैया सवाले के घेरे में हैं. पप्पू यादव के समर्थन और फिर क्राउड फंडिंग को लेकर वे पार्टी लाइन से इतर जाते भी नजर आते हैं. उनकी पार्टी के नेता अतुल अंजान ने बीबीसी को कहा कि कॉरपोरेट क्राउड फंडिंग का पार्टी समर्थन नहीं करती है. वहीं पप्पू यादव को लेकर भी राज्य नेतृत्व ने अनभिज्ञता जताई. जाहिर है, अपनी पार्टी को ‘कनफ्यूज पार्टी ऑफ इंडिया’ बताने वाले कन्हैया पार्टी से भी ऊपर उठे प्रतीत होते हैं. हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है. जेएनयू में कन्हैया तो प्रेसीडेंट बन गए थे, पर उसके अगले साल उनका संगठन (एआइएसएफ) चुनाव ही नहीं लड़ पाई थी. इसी तरह जेएनयू में 2017 के छात्रसंघ चुनाव में जब अपराजिता राजा अध्यक्ष पद के लिए खड़ी हुईं तो आरोप लगे कि कन्हैया ने कथित तौर पर उनकी बजाए संयुक्त लेफ्ट (जिसमें एआइएसएफ) शामिल नहीं था, उसके उम्मीदवार (
गीता कुमारी) का समर्थन किया था. गौरतलब कि अपराजिता राजा सीपीआइ नेता डी. राजा की बेटी हैं और दलित समुदाय से आती हैं. तो क्या कन्हैया को बस अपने जीतने भर से वास्ता है!

जेएनयू में छात्र आन्दोलन

जेएनयू आंदोलन में कन्हैया की दोहरी भूमिका

जेएनयू में बतौर छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया की कार्यप्रणाली पर भी बहुजन छात्रों ने सवाल उठाए थे. मसलन, कन्हैया पर आरोप हैं कि उन्होंने प्रवेश परीक्षा में द्विस्तरीय आरक्षण को खत्म करने वाले चार्ट पर हस्ताक्षर किए और आरक्षण तथा इन जैसे अन्य मुद्दों को यूजीबीएम में अपने विशेषाधिकार के जरिए चर्चा से रोक दिया. जाहिर है, यह कोई उनकी जाति का सवाल भर नहीं है कि उन्होंने किस जाति में जन्म लिया, बल्कि उनकी आलोचना उनके रवैये, अतीत के क्रियाकलाप और हाल के उनके कदमों को ध्यान में रखते हुए हो रही है. लेकिन, उनके समर्थकों को भला कौन समझाए. भक्त यहां भी हैं. मारने-पीटने की धमकी से लेकर गालियां देने वाले भक्त! मोदी भक्तों की तरह खबरों-बातों को तोड़-मड़ोड़ने वाले, फेक न्यूज फैलाने वाले, प्रोपगेंडा फैलाने वाले भक्त! मसलन, वे कह रहे हैं कि ‘कन्हैया को बेगूसराय से महागठबंधन ने टिकट नहीं दिया गया ताकि वे वहीं फंसे रहें और भाजपा के खिलाफ अन्य जगहों पर प्रचार न करें.’ तो कोई नीतीश कुमार का पुराना वीडियो डालकर वायरल करने की कोशिश कर रहा है कि नीतीश कुमार ने कन्हैया को समर्थन दिया, तो कई जीतन राम मांझी के समर्थन देने की बात फैला रहा है. जाहिर है, तिकड़में वही हैं! 

कुछ ऐसी चुप्पियां भी हैं, जो बहुत शोर करती हैं. मसलन, बरमेसर मुखिया पर, भूमिहारों के बहुजनों पर अपराध पर चुप्पी, खासकर बेगूसराय में. जाहिर है, यकीन कैसे किया जाए!

सरोज कुमार मीडिया-शोधार्थी और फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं.

ये लेखक के निजी विचार हैं. स्त्रीकाल संपादन मंडल की सहमति अनिवार्य नहीं है.

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ISSN 2394-093X
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