‘मुख्यमंत्री, मंत्री और जो राष्ट्रपति हुए सबने किया यौन-शोषण, राजनीति में अस्मिता-हीन औरत की वेश्याओं से भी अधिक दुर्दशा’: रमणिका

रमणिका गुप्ता

स्त्रीकाल के शीघ्र प्रकाश्य मीटू अंक में रमणिका गुप्ता की आत्मकथा ‘आपहुदरी’ से यह अंश प्रकाशित हो रहा है. कांग्रेस के कई मंत्रियों, नेताओं के यौन-व्यवहार पर टिप्पणी करती यह आत्मस्वीकृति स्त्रीवादी नजरिये से पढ़े जाने की मांग करती हैं. रमणिका गुप्ता 26 मार्च 2019 को स्मृतिशेष हो गयीं.

राजनीतिक झूठ से पहला परिचय

(सन् 1962-1964 के बीच)

किसी कवि सम्मेमलन के दौरान मेरी मुलाकात रांची के अनिरुद्ध मिश्रा से हुई, जो रांची यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। उन्हीं की मार्फत मेरी मुलाकात बिहार के राज्य मंत्री  श्री झा से हुई। उसका एक एजेंट था दिलीप झा, जो आनन्दमार्गी था। इन दोनों के हाथों मैंने काफी जिल्लत उठाई। सबसे पहले मेरा राजनीतिक शोषण बिहार के इसी मंत्री ने किया। उन्होंने मुझे झूठ-मूठ बताया कि मुझे केन्द्र सरकार की एक कमेटी का सदस्य बना दिया गया है, जिसके वे चेयरमैन हैं।

केबी सहाय व तत्कालीन अन्य राजनेता

एक दिन अचानक वे मेरे घर आए और कहा, ‘‘मैं आज दिल्ली जा रहा हूं। कमेटी की बैठक है, तुम्हें भी भाग लेना है।’’

‘‘पर चिट्ठी तो मुझे नहीं आई?’’ मैंने पूछा।

‘‘मैं अध्यक्ष हूं, मैं ही तो चिट्ठी देता हूं, मैं ही तुम्हें कह रहा हूं। अब और कौन-सी चिट्ठी चाहिए?’’

मैं बिना सवाल किए उनके साथ दिल्ली जाने को तैयार हो गयी। हम तीनों प्रथम श्रेणी के कूपे में बैठे। काफी देर तक बातें हुईं। फिर अचानक झा जी ने प्रेम प्रदर्शन शुरू कर दिया। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? ट्रेन से कूदा तो नहीं जा सकता था। वे एक नहीं, दो थे। मैंने दिलीप की उपस्थिति पर आपत्ति की, तो उन्होंने कहा हम दोनों में कोई फर्क नहीं। बाद में मुझे रास्ते भर लेक्चर पिलाते गये.’

‘‘राजनीति में आई हो, तो राजनीति के ढंग सीखो। यहां यह सब होना मामूली बात है।’’

हम लोग अगले दिन सवेरे दिल्ली पहुंचे। बिहार भवन में ठहरे।

‘‘मीटिंग कब होगी? कहां जाना होगा हमें?’’ हर रोज़ सुबह उठकर मैं पूछती।

‘‘क्या जल्दी है? होगी न मीटिंग?’’ मुस्कराकर दिलीप झा कहते। मैं तीन दिन तक उस मीटिंग में जाने के लिए इन्तजार करती रही, जो कभी हुई नहीं।

‘‘मीटिंग तो हुई नहीं और हम लौट रहे हैं?’’ मैंने लौटते वक्त पूछा।

‘‘अरे मीटिंग तो की न हम तीनों ने। क्या दरकार है किसी और की? हम तीनों एक साथ रहे, यही मीटिंग है, यही राजनीति है।’’ लोकेश झा विनोदा बाबू (बिहार के मुख्यमंत्री विनोदानंद झा) के मंत्री  मंडल में राज्य मंत्री  थे।

मैं अवाक् और दुखी थी और थी मन ही मन गुस्सा भी, पर धनबाद वापस लौटने तक मैं यह गुस्सा व्यक्त नहीं कर सकती थी क्योंकि मुझे यह आभास मिल गया था वे खतरनाक भी सिद्ध हो सकते हैं। धनबाद में लौटते ही मैंने स्टेशन पर ही अपने मन की भड़ास निकाली और अलग से वाहन लेकर अपने घर पहुंची। मैं ये सारा किस्सा किसे बताउ? समझ नहीं आ रहा था। दिलीप ने मुझे तंग करना शुरू कर दिया। एक दिन वह बिना बताए हमारे घर भी आ टपका। मैंने उसे लताड़कर लौटा दिया, पर उसने धमकियां देनी बंद नहीं कीं। बाद में पता चला कि लोकेश झा एक पूर्व महिला विधायक (बिहार विधान सभा) की बेटी, जो उन्हें स्टेशन पर छोड़ने आई थी, को जबरन ट्रेन में बैठाकर दिल्ली तक भोगते गये थे। मैंने इनकी शिकायत रांची वाले प्रोफेसर अनिरुद्ध मिश्रा से टेलीफोन पर की, तो उन्होंने दोनों को कुछ हिदायतें दीं। दिलीप झा धनबाद में रहता था और आनन्दमार्गी होने के कारण बाद में गिरफ्तार भी हुआ था। ललितनारायण मिश्रा की हत्या में भी आनन्दमार्गियों के हाथ होने की खबर फैली थी।

चीन का युद्ध

(सन् 1962-1964 के बीच)

चीन के साथ युद्ध शुरू हो गया था। देश की रक्षा के लिए पूरा देश उठ खड़ा हुआ था। जनता का हर तबका अपने-अपने स्तर पर लाम पर जाने वाले सैनिकों की मदद के लिए धन जुटाकर सरकारी खजाने में जमा करने के लिए उद्यत था। नौकरशाह, जनता, सत्ता, विपक्ष सब संकट की इस घड़ी में एकजुट हो गये थे। सिविल डिफेंस के लिए अफसर और नागरिक सैनिक-प्रशिक्षण ले रहे थे, ताकि आपातकाल में वे भी शत्राु के खिलाफ मोर्चा सम्भाल सकें।

मेरी समाजसेवा चल रही थी। चीन की लड़ाई में मैंने, प्रकाश और एस.पी. की पत्नी तथा कई मित्रों ने ‘सेल्फ डिफेंस’ की ट्रेनिंग ली थी। मैं तो नागपुर जाकर सिविल डिफेंस का कोर्स भी कर आई थी। मैंने अच्छी तरह बन्दूक चलाने के साथ-साथ जीप चलाना भी सीख लिया था। उस कोर्स में मुझे डिस्टिंक्शन मिली थी।

नागपुर से लौटकर मैं, प्रकाश और एस.पी. की पत्नी तथा अन्य सिविल अधिकारियों की पत्नियों के साथ प्रशिक्षण कैम्प में नियमित रूप से जाने लगी थी। उन दिनों देश-प्रेम की एक लहर उमड़ पड़ी थी। जैसे ही पता चलता कि कोई ट्रेन सैनिकों को लेकर युद्ध के मोर्चे पर जा रही है, स्टेशन पर जनता का सैलाब उमड़ पड़ता। कोई फल, कोई मिठाई तो कोई हाथ से बुना मफलर या स्वेटर लेकर उन्हें उपहार देने के लिए पहुंच जाता। लड़कियां राखी बांधने के लिए कतार में लग जातीं तो स्त्रिायां तिलक लगाने की होड़ लगातीं। जनता और सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए शहर-शहर कवि-गोष्ठियां होने लगीं। इस मुहिम में मैं और प्रकाश भी शामिल हो गये। मेरी कविता ने भी तेवर बदल लिए और मैं हर रोज़ युद्ध को केन्द्र में रखकर कोई-न-कोई कविता लिखने लगी।

चीन के युद्ध में जाने वाले सिपाहियों के लिए मेरी कविता, ‘रंग बिरंगी तोड़ चूड़ियां हाथों में तलवार गहूंगी/ मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी’, काफी मशहूर हुई। जब मैंने कप्तान रंजीत सिंह के साथ रानी झांसी के रूप में डेब्यू (झांकी) किया और धनबाद से झरिया तक यह कविता पढ़ते हुए गयी, तो 60 हजार के करीब चंदा मेरी झोली में आया, जो मैंने सरकारी खजाने में जमा करवा दिया। मैंने काॅलेज की लड़कियों को प्रशिक्षण देकर चंदे के लिए नृत्य शो करवाए, जिससे काफी पैसा जमा हुआ। चीन पर कवि सम्मेलन किया, जिसमें देश-प्रेम एवं शौर्य की कविताएं पढ़ी गयीं।

राजनीति में पहली कामयाब दस्तक

(सन् 1962-1964 के बीच)

इसी मुहिम के दौरान मैं राजनैतिक स्तर पर कांग्रेस से जुड़ गयी। मेरी ख्याति चारों ओर फैल गयी थी। आयोजनों के लिए लोग मुझसे मदद लेने आने लगे। कांग्रेस के कार्यकर्ता मेरे घर पर जुटने लगे। इसी दौरान समाज-सेवी महिलाएं भी मेरे सम्पर्क में आईं। वे सब मुझे अपनी संस्थाओं से जुड़ने के लिए आग्रह करने लगीं। कवि जन तो विशेषकर हमारे यहां जमघट लगाने लगे और एक बड़ा कवि-सम्मेलन करने की योजना बनाने लगे। मुख्यमंत्री  के.बी. सहाय के जन्मदिन पर आयोजन करने के लिए भी सुझाव आए। बस फिर क्या था! मैंने मुख्यमंत्री  के.बी. सहाय के जन्म दिवस पर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजन की घोषणा कर दी। बी.पी. सिन्हा को यह बात बहुत खली। मैंने अपने बल पर भारत भर के कवियों को बुलाया। हमने चंदा करके कवि-सम्मेलन का खर्च स्वयं ही जुटाया। इसमें काका हाथरसी, जानकी वल्लभ शास्त्री , हंस कुमार तिवारी, गोपाल सिंह नेपाली तथा बहुत से युवा कवि आए, जो मंच पर बहुत ही जमे। बी.पी. सिन्हा नाराज थे कि मैंने कैसे उनकी बिना इजाजत के.बी. सहाय को बुलाने की हिम्मत की। के.बी. सहाय तो केवल उन्हीं के बुलाने पर आते थे। खैर मंच से उतरते समय के.बी. सहाय ने मुझे बुलाकर कहा, ‘‘पटना आओ, जो मदद चाहिए, मिलेगी। तुम्हें कुछ काम भी सौंपा जाएगा।’’

सब हतप्रभ थे। कांग्रेसी स्तब्ध थे। एक नयी महिला, जो बिहार की रहने वाली भी नहीं, जो नेताओं के किसी गुट में भी शामिल नहीं, जिसका नामी श्रमिक नेता बी.पी. सिन्हा विरोध करते हैं, उसे मुख्यमंत्री  ने स्वयं पटना आने के लिए कहा… आश्चर्य! मैं अपनी इस नयी पहचान पर मुग्ध थी। राजनीति में यह मेरी पहली कामयाब दस्तक थी।

‘‘ये कल की आई औरत को मुख्यमंत्री  ने कैसे घास डाला? हम तो बरसों से लाइन में हैं? बिना साहब (बी.पी. सिन्हा) के पूछे तो कोई भी मंत्री  किसी नेता से बात नहीं करते थे? ये सीधे बतिया लीं, वह भी मुख्यमंत्री  से!’’ वे बौखला कर कहते।

खैर, कवि सम्मेलन चर्चा का विषय बन गया। उन दिनों श्री धनोआ धनबाद से डिप्टी कमिश्नर थे।

‘‘इस राजनीति में मत पड़ो, खतरा है।’’ श्री धनोआ ने मुझे बुलाकर समझाया।

मैं कुछ समझी, कुछ नहीं समझी और कुछ जानबूझ कर नहीं समझने का नाटक करती रही। मैं जान रही थी मेरा के.बी. सहाय से सीधे बात करना गाॅडफादर को बुरा लगा है। खैर चीन युद्ध के लिए चंदा करने और मुख्यमंत्री  के जन्मदिन का मामला था, लोग ज्यादा दखल नहीं दे पाए।

प्रशंसकों से अधिक मेरे शत्रु बन गये थे, जो प्रशंसकों की बनिस्बत ज्यादा ताकतवर थे।

हां तो कवि सम्मेलन में मुख्यमंत्री  के.बी. सहाय द्वारा मुझे आमंत्रित करने पर धनबाद के गाॅडफादर कहलाने वाले नेता व उनके पिट्ठुओं में हड़कंप मच गया। लगा इंद्र का सिंहासन डोल गया है। मुझ पर कई तरफ से दबाव डलवाने की कोशिश की गयी कि मैं इस पचड़े में न पडूं। मुझे तो विरोध होने पर, विरोध का मुकाबला करने की आदत है, जो हमेशा जिद की हद तक पहुंच जाया करती है। सो उनके विरोध ने मुझमें एक जिद पैदा कर दी और जोखिम को समझते हुए भी मैं पटना जा पहुंची। तब तक मेरी समझ में ये आ चुका था कि राजनीति में आने वाली औरत को जोखिमों के खिलाफ एक सुरक्षा-कवच की जरूरत होती है।

सुरक्षा कवच

(सन् 1962-1964 के बीच)

मैं मुख्यमंत्री  से मिलने पटना पहुंची। वे सवेरे चार बजे उठकर फाइल देखते थे। उसी समय वे अपने खास मिलने वालों को बुलाते थे, जिनमें औरतें भी होती थीं। छह बजे के लगभग वे सैर करने के लिए निकलते थे। रास्ते में पैरवीकार उनसे बातें करते चलते थे। के.बी. सहाय मुख्यमंत्री  के पुराने निवास में ही रहते थे, जहां बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री  श्री कृष्ण सिंह रहा करते थे। वे गम्भीर राजनीतिक वार्ताएं और फैसले भी उसी सैन के दौरान किया करते थे।

रमणिका गुप्ता की आत्मकथा

मैं सवेरे चार बजे मिलने वालों की सूची में थी। मैं गयी। फाइलों से सिर उठाकर उन्होंने सराहना भरी नजर से मुझे देखा।

‘‘तुम्हारा प्रोग्राम तो बहुत अच्छा था।’’ कहते हुए वे उठे। मैं खड़ी थी। उनका पी.ए. जा चुका था।

‘‘बोलो क्या चाहिए, बिहार का मुख्यमंत्री  तुमसे कह रहा है।’’ मेरी तरफ आते हुए वे हाथ फैला कर बोले। मैं स्तब्ध थी।

‘‘महिलाओं के प्रशिक्षण केन्द्र के लिए भवन बनाने के लिए धनबाद में कांग्रेस ऑफिस के बगल वाली ज़मीन चाहिए।’’ एकाएक मेरे मुंह से निकला।

‘‘अर्जी लाई हो?’’ उन्होंने पूछा।

‘‘जी।’’ मैंने कहा।

उन्होंने अर्जी लेकर जमीन आवंटन की प्रक्रिया पूरी करने का आदेश जिला-परिषद के मंत्री  श्री वागे को लिख दिया, जो एक आदिवासी मंत्री  थे। जिला परिषद धनबाद का अध्यक्ष उन दिनों एक कोलियरी का मालिक था, जो वास्तव में एक लठैत बनकर धनबाद आया था। वह मालिक-सह-लेबर लीडर बन गया था। वह राजपूत था। चूंकि मुख्यमंत्री  बी.पी. सिन्हा को, (जो भूमिहार थे) तरजीह देते थे, इसलिए पूरा राजपूत वर्ग उनका भी विरोधी था। बिहार में भूमिहार और राजपूत दोनों ही जमींदार वर्ग के हैं, हालांकि कायस्थों का समझौता बिहार में प्रायः राजपूतों के साथ होता था।

भले बाद में लाल सेना के खिलाफ रणवीर सेना के झंडे तले दोनांे जातियां एक होकर खड़ी होने को मजबूर हो गई थीं, पर आपसी रिश्तों में उनका जातीय बैर आज भी बरकरार है। उक्त नेता जी उसमें अपवाद थे।

‘‘जाओ ये पत्र लेकर राजा बाबू से मिलो, वे तुम्हें बी.पी.सी.सी का सदस्य मनोनीत कर देंगे। तुम कांग्रेस पार्टी का काम करो। मेरा मन तो तुमने जीत ही लिया है।’’ यह कहते हुए उन्होंने मुझे आगोश में लेकर चूम लिया। शायद मैं सपना देख रही थी।

मैं विरोध नहीं कर सकी या शायद मैंने विरोध करना नहीं चाहा। ऐसे भी क्षण आते हैं जीवन में जब अचानक, अनपेक्षित लादे गए अहसानों का अहसास किसी की ऐसी हरकत को नज़रअंदाज़ करने में सहायक बन जाता है। राजनीति में ऐसे ही अहसानों में कमी आने पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चल जाता है। तनावग्रस्त राजनेता महिला कार्यकर्ताओं से शारीरिक सुख पाकर तनाव-मुक्त होने को अहसान के रूप में लेता है, तो राजनीतिक महिलाएं उसके बदले सुरक्षा और वर्चस्व के फैसले अपने पक्ष में हासिल करती हैं। जो महिलाएं राजनीतिक नहीं होतीं, वे पैसे या भौतिक उपहारों से सन्तुष्ट हो जाती हैं या पुरुषों की तरह ही ट्रांसफर-पोस्टिंग से कमाई करती हैं। उनके पति भी इसमें दलाली करते हैं।

अब कहूं कि यह मेरा शोषण था, तो शायद यह गलतबयानी होगी क्योंकि राजनैतिक सीढ़ियों पर चढ़ने वाले प्रायः हर व्यक्ति को, औरत हो या मर्द, सुरक्षा-कवच जरूरी होते हैं। मुझे मुख्यमंत्री  का सुरक्षा कवच मिल रहा था। छद्म नैतिकता की बजाय, शायद ज्यादा भरोसेमंद था यह आश्वासन! यह मुझे राज्यमंत्री  लोकेश झा या दिलीप जैसे दरिन्दों के हाथ में पड़ जाने से बेहतर लग रहा था। इसमें स्नेह भी झलकता था। हो सकता है इसमें दोनों को एक-दूसरे का फायदा नज़र आता हो, पर यह व्यापार तो नहीं ही था। ऐसे रिश्तों में कुछ न कुछ लगाव भी रहता है। लगाव के साथ-साथ कहीं-कहीं लक्ष्य भी एक होता है। इसे व्यावहारिकता भी कहा जा सकता है। शायद इसे समझौता भी कह सकते हैं, पर समझौता किससे? सम्भवतः इसमें दोनों का स्वार्थ भी हो सकता है? पर एक मुख्यमंत्री  का क्या स्वार्थ होगा एक अदना कार्यकर्ता से? जब कोई औरत या पुरुश किसी ऐसे व्यक्तित्व की प्रेमाभिव्यक्ति से अपने को गौरवान्वित समझे, तो उसे मंत्रमुग्धता की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं।

सभ्यता के इतिहास का बड़ा हिस्सा या कहें 99 प्रतिशत भाग, ऐसे ही समझौतों, विरोधों और गौरवानुभूतियों या अपराध-बोधों का दस्तावेज़ है। सवाल है कोई किस पहलू से उस स्थिति को देखता है। मातृसत्ता की समाप्ति के बाद से औरतों की पूरी जिन्दगी इन समझौतों के स्वीकार या नकार की ही रही है। इन समझौतों, नकारों, स्वीकारों और समर्थनों को ढंके-छिपे रखने में जो स्त्रियां कामयाब रहीं, वे असाधारण कहलाईं, जो ऐसा नहीं कर सकीं, वे कुल्टा या छिनाल। ऐसा सम्बन्ध, जहां कोई स्त्री  को सरल-सुलभ प्राप्य वस्तु मात्रा समझ कर फाॅर ग्रान्टेड मानने लगे, स्त्री के स्वाभिमान को ठेस पहुंचता है, इसीलिए स्त्रिायां उसे नकारती हैं। सहमति से बने सम्बन्ध को प्रेम भी कह सकते हैं, भले समाज उन्हें व्यभिचार की श्रेणी में ही क्यों न रखता हो। ऐसे सम्बन्ध प्रायः देवर-भाभी में प्रचलित रहे हैं। इस सन्दर्भ में पंजाब का लोकगीत ही सारी कथा बयां कर देता है।

‘‘जुत्ती नारोवाल दी, नी सितारयां जड़त जड़ी

हाय वे रब्बा जेठानी क्यूं बैर पई।’’

(सितारों से जड़ी है नारोवाल की जूती। हे ईश्वर जेठानी क्यों मेरी बैरी बनी है?)

असहमति से बनाया गया सम्बन्ध बलात्कार बन जाता है।

राजनीति में समझौता या व्यभिचार ज्यादा चलता है और बलात्कार कम। कभी-कभी समझौते की परिस्थितियां बदलने पर भी अपवाद स्वरूप बलात्कार का रूप ले लेती हैं। मैंने स्वयं कई महिलाओं को आमंत्रण देते देखा है। उनके पतियों को बाहर पहरे पर बैठे भी देखा है। ऐसी स्थिति में यह व्यापार बन जाता है, जिसमें लाभ और हानि दोनों होते हैं। पति पत्नी के विकास की सीढ़ी बनने का रोल अदा करता है। वह अपना स्वार्थ पत्नी के माध्यम से सिद्ध करता है।

जबकि ठीक इसके विपरीत एक स्त्री , जब पुरुष के विकास की सीढ़ी बनती है, तो वह अपने अस्तित्व का बड़ा अंश बलिदान करती है।

राजनीति में औरतों के साथ दिक्कत तब होती है, जब उनकी राजनीतिक जरूरत खत्म हो जाती है और उनकी उपेक्षा शुरू हो जाती है अथवा कोई दूसरी स्त्री उनकी जगह ले लेती है। इस उपेक्षा का सेक्स से ज्यादा सम्बन्ध नहीं होता। राजनीतिक पुरुष राजनीति में नयी आई महिलाओं को सेक्स का शिकार बनाते हैं लेकिन अधिकांश पुरानी महिलाएं जो सब अवरोधों के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं, मोर्चे पर डटी रहती हैं, की अस्मिता को भी कालांतर में स्वीकृति मिल जाती है। अस्मिता के नकारे जाने पर ही राजनीतिक महिलाएं क्षुब्ध होती हैं और झगड़े बढ़ते हैं। ऐसे समय में पुरुषों के विभिनन गुट उस महिला को अपना मोहरा बनाकर अपनी शत्रुता साधते हैं। वे विरोधियों का भयादोहन करते हैं या अपनी गोटी फिट करते हैं। शुरू के दिनों में ही यदि कोई औरत अपनी अस्मिता को कायम रखे, तो दिक्कतें कम आती हैं। राजनीति में अस्मिता-हीन औरत की वेश्याओं से भी अधिक दुर्दशा होती है। शुरू में हर औरत एक रुतबा पाती है लेकिन फिर उस पर सौदेबाजी शुरू हो जाती है।

हां, अगर वह किसी नेता की पत्नी, बहन, मां या रखैल हो, तो बाकी मित्रा या नेता उसके साथ दूसरा व्यवहार करते हैं अन्यथा उसे किसी पुरुष के समान ही आड़े हाथों लिया जाता है। औरत होने के नाते उसके चरित्र-हनन की मुहिम, बे सिर-पैर के आरोप और भयादोहन की प्रक्रिया से शुरू हो जाती है। उसकी कमजोरियों का लाभ भी वे उठाते हैं।

खैर! मैं भटक गयी। मुख्यमंत्री का पत्र लेकर मैं राजा बाबू के पास गयी। वे मेरी प्रशंसा पहले ही सुन चुके थे।

‘‘बहुत अच्छा बोलती हो, मुख्यमंत्री  बता रहे थे। आज ही तुम्हें बी.पी.सी.सी. का सदस्य मनोनीत करने का पत्र दे दूंगा। तुम मिलती रहा करो।’’ उन्होंने हाथ पकड़कर स्नेहपूर्वक मुझे अपने पास बैठाते हुए कहा।

फिर अचानक उनके कमरे का दरवाजा बंद हो गया। मैंने एक असफल कोशिश की अपने को बचाने की, पर शायद यह कोशिश तीव्र नहीं रही होगी। शायद मुझे एक सुखदायक आश्वासन के साथ उनकी आंखों में स्नेह-भरा एक सक्षम सहारा भी झांकता दिखा होगा! यह एक दूसरा सुरक्षा कवच था। एक बिहार का शीर्ष नेता मुख्यमंत्री और दूसरा बिहार कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष। एक कायस्थ और एक ब्राह्मण। मुझे ये दोनों, दिलीप झा और उस भूमिहार डी.एस.पी. शर्मा के खिलाफ एक बहुत बड़ी ढाल की तरह शक्तिशाली और समर्थ संरक्षक के रूप में नज़र आने लगे।

मैंने अपनी राजनीतिक-यात्रा शुरू कर दी। तमिल भाषा की कुछ जानकारी होने कारण मुख्यमंत्री  का सन्देश, दिल्ली वाले अध्यक्ष यानी कामराज नाडार तक पहुंचाना भी मेरे काम में शामिल था।

पटना से लौटने पर मुझे राजनैतिक सुरक्षा कवच की जरूरत शिद्दत से महसूस हुई। एक रात एक भूमिहार डीएसपी (सीआईडी) शर्मा मेरे घर में जबरन घुस आया। यह डीएसपी बी.पी. सिन्हा का चहेता अधिकारी था, जो लोगों को डरा-धमका कर उन्हें बी.पी. सिन्हा के गुट में रखता था और उनके विरोधियों को सबक सिखाता था। मुझे काबू में लाने के लिए उसने एक पत्राकार सतीश चन्द्र से कहकर प्रकाश के खिलाफ अखबारों में छपवा दिया था कि प्रकाश की उर्दू शायरी का रिश्ता पाकिस्तान से है और यह भी कि वह अपनी पत्नी को इंश्योरेंस की एजेंसी दिलवा कर मालिकों पर प्रभाव डालकर पत्नी को पालिसी दिलवाता है और पैसा बनाता है। यह सही था कि मैंने इंश्योरेंस की एजेन्सी ली थी, पर प्रकाश के कहने पर नहीं, खुद स्वावलम्बी होने के लिए। तब तक एक भी पालिसी साइन नहीं हो पाई थी। फिर मैंने एजेंसी ही छोड़ दी। प्रकाश के क्लाइंटों से तो मैं कभी बात भी नहीं करती थी। दरअसल यह सब मुझे धमकाने और हासिल करने के लिए किया जा रहा था। धनबाद की संस्कृति में यह आम बात थी। मैंने इसकी शिकायत धनबाद से मनोनीत एक बंगाली राज्यसभा सदस्य और धनबाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रंगलाल चौधरी से कर दी। मुझे यह डर बना रहने लगा कि कहीं वह भूमिहार डी.एस.पी. आधी रात हमारे घर जगजीवन नगर में न आ धमके। इसीलिए मैंने अपने नौकर नेपाल से कह रखा था कि, ‘‘अगर कुछ गड़बड़ हो, तो मेरे आवाज़ देते ही तुम अन्दर आ जाना।’’

पहली बार तो वह कामयाब नहीं हुआ, पर एक दूसरे मौके पर उसने मुझे वश में कर ही लिया। खैर, मैंने उसकी शिकायत सबसे की और यह भी तय किया कि प्रकाश धनबाद से अपना तबादला कहीं अन्यत्रा दूसरे राज्य में करवा ले। उन दिनों प्रकाश श्रम विभाग छोड़ कर वेलफेयर डिपार्टमेंट में को-आॅपरेटिव सोसायटी (जो कोलफील्ड के पूरे कोयला क्षेत्र के लिए बनी थी) का मुख्य अधिकारी बन गया था।

कांग्रेस का जयपुर सम्मेलन

(सन् 1962-1964)

जयपुर में कांग्रेस का सम्मेलन था। मैं बी.पी.सी.पी. की तरफ से गयी थी। तिथियां याद नहीं हैं। उन दिनों इन्दिरा गांधी केन्द्र में मंत्री  थीं। यशपाल कपूर उनके सेक्रेटरी थे। उनसे मेरी मुलाकात हो चुकी थी। वे भी मुझे तरजीह देते थे। उस सम्मेलन के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था, ‘‘रमणिका, युवाओं का जमाना आने वाला है। देखो, आगे-आगे क्या होता है! इन्दिरा जी के हाथ में बागडोर होगी। सभी युवाओं का यही सपना है। यही सपना दिखाओ कार्यकर्ताओं को।’’

राजनीति की गम्भीर-गहन योजना में शीर्ष स्तर पर राजदां बनने पर मैं बहुत खुश थी। यशपाल कपूर मेरे मित्र बन गये। वे युवा थे, हैंडसम और स्मार्ट भी और राजनीति में मुझे आगे बढ़ाने में मददगार भी। कांग्रेस में दिल्ली की राजनीति में वे मेरे संरक्षक थे। उन दिनों राजनीति में आई स्त्रियों से राजनेताओं की मित्रता का अर्थ था दैहिक मित्रता, जो एक साथ कइयों से हो सकती थी। फिल्म उद्योग में भी यही अनिवार्य माना जाता था। दोनों में लक्ष्य सत्ता ही होता है, एक राजनैतिक-सत्ता, दूसरी आर्थिक सत्ता और तीसरी यश-सत्ता। दोनों में ‘जन’ महत्वपूर्ण है यानी जननेता-जननेत्राी, जनप्रिय अभिनेता या जनप्रिय अभिनेत्राी। दोनों ही लोकप्रियता का शार्ट कट रास्ता हैं। दोनों में ग्लैमर है, वैभव है। दोनों में स्त्री  के लिए यौन आकर्षण और अभिव्यक्ति की शक्ति जरूरी है। एक का हथियार राजनीति है, तो दूसरे का हथियार कला। खैर…

जयपुर सम्मेलन में मंत्री गण दो घोड़ों की गाड़ी में मंच से रेस्ट-हाउस आया-जाया करते थे। मैं तमिल बोल सकती थी, इसलिए दक्षिण के प्रतिनिधि और मंत्री  मुझसे अधिक घुल-मिल जाते थे। श्री संजीव रेड्डी उन दिनों कैबिनेट स्तर के केन्द्रीय मंत्री  थे। मैं बोलने के लिए मंच पर अपनी चिट देने गई, तो उन्होंने मुझे मंच पर बिठाए रखा। एक नयी कार्यकर्ता के लिए तो यह बड़ी बात थी। बिहार की बड़ी-बड़ी हस्तियां नीचे प्रतिनिधियों के साथ पंडाल में बैठी थीं और मैं मंच पर लेकिन इसके पीछे की मंशा मुझे मालूम नहीं थी। संजीव रेड्डी से मैं यदाकदा तमिल में बात करती रही। हालांकि वे तेलुगु-भाषी थे, पर तमिल समझते थे। उन दिनों हर दक्षिण वाले को ‘मद्रासी’ कहने का प्रचलन था। उन्होंने मुझे उस सत्र के खत्म होने पर मंच के पीछे घोड़ों वाले रथ के पास आने को कहा। अपने सेक्रेटरी  से कहकर उन्होंने मुझे मंच का पास दिलवा दिया। लंच ब्रेक होने पर सब उठे। मैं भी पीछे गयी, जहां उन्होंने मुझे रथ पर बैठा लिया। घोड़ा-गाड़ी में मैं बड़ी शान से मंत्री  के साथ जा रही थी। वे रास्ते भर मेरी प्रशंसा करते रहे।

बचपन में मुझे घर में बुरा कहा जाता था। इसके सिवा और कुछ सुनने को नहीं मिलता था। प्रशंसा के पुल बंधते देख मैं उन पुलों पर दौड़ने लगी। रेस्ट हाउस पहुंचने पर वे मुझे अपने साथ कमरे में ले गये और बैठने के लिए कह कर बाथरूम चले गये। मैं सोच रही थी कि शायद बाहर आकर वे तुरन्त खाना-वाना मंगवाएंगे। बड़ी जोर से भूख लगी थी। प्रतिनिधियों का निवास-स्थान वहां से बहुत दूर था। हम रोज वहां बस से जाते-आते थे। पंडाल में मैंने खाना नहीं खाया था। मैं रेड्डी जी के आने के इन्तजार में ही थी कि वे पूरी तरह नंगे होकर कमरे में आ गये। मंत्रियों के कमरे के दरवाजे उढ़के भी हों, तो कोई खोलने की हिम्मत नहीं करता, खुले भी हों तो कोई झांकने की जुर्रत नहीं करता और न ही जरूरत समझता है। सभी लोग मंत्रियों की आदतों से परिचित होते हैं।

मैं न बाहर जा सकती थी, न बैठी रह सकती थी। मैं हडबड़ा कर उठ खड़ी हुई, हतप्रभ-सी।

‘‘तुम्हारा मुख्यमंत्री  तो उस नर्स को भेजता है, मेरे पास, अपनी राजनीति ठीक करने के लिए। तुम भी क्या उन्हीं की तरफ से कुछ कहना चाहती हो?’’ मंत्री जी बोले।

‘‘ऐसा कोई काम मुझे आपके लिए सौंपा नहीं गया है। मैं तो बस आपके कामराज नाडार जी जब बिहार आते हैं, तो उनके भाषण को हिन्दी में अनुवाद कर देती हूं या दिल्ली आती हूं, तो उनसे मिलकर मुख्यमंत्री जी का कोई संदेश हुआ तो तमिल में समझा देती हूं। अध्यक्ष जी तो मेरे साथ एकदम बुजुर्ग जैसा व्यवहार करते हैं।’’ मैंने कहा। नर्स से उनका अभिप्राय मधु से था। बाद में के.बी. सहाय ने मधु को एमएलसी भी बना दिया था। सुना है आजकल मधु की पौत्री एक बड़ी फिल्म एक्ट्रेस बन गई है।

इस पर वे बिना कुछ बोले वहीं कालीन पर लेट गये। जो बीता, वह तो बीता ही, पर बड़ी वितृष्णा हुई मुझे। तुरन्त उठकर उन्होंने कपड़े पहने और अपने पी.ए. को बुलाकर गाड़ी में मुझे पंडाल छोड़ देने को कहा। उस विशाल मंडल जैसे भवन में और कोई नहीं था। मेरा विरोध किसी काम का नहीं हो सकता था। मैंने एक ही निश्चय किया कि ‘दोबारा ऐसा मौका उन्हें नहीं हथियाने दूंगी। बाद में वे राष्ट्रपति भी बने।

मुझे लगता है देश के सर्वोपरि पद राष्ट्रपति के चुनाव में इन्दिरा जी ने उनका विरोध सम्भवतः उनके ऐसे ही व्यवहार के कारण किया होगा। वे काफी उद्दंड थे। बाद में मैंने यह भी देखा कि कुछ अपवाद छोड़कर दक्षिण के नेतागण प्रायः सेक्स के अधिक भूखे होते हैं। उनमें नफासत या संवेदना कुछ नहीं होती। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष कामराज नाडार अपवाद थे। तथाकथित निम्न तबके से उच्च स्तर पर पहुंचे व्यक्ति को अपना अतीत अधिक याद रहता है।

शाम को मैं टैक्सी लेकर यशपाल कपूर से मिली और उन्हें पूरी घटना बताई। वे काफी नाराज दिखे। उन्होंने कुछ करने का आश्वासन भी दिया। औरतों के साथ ऐसा घटिया व्यवहार मुझे बहुत अखर रहा था, मैंने ऐसे लोगों का विरोध करने की मन में गांठ बांध ली। इस सम्मेलन में नेहरू जी और शास्त्री  जी दोनों आए थे। नन्दा जी, जगजीवन बाबू और उनकी पुत्री मीरा कुमार भी थीं। मैं उन विशिष्ट हस्तियों की मुरीद (फैन) थी। आजादी की लड़ाई के ये प्रतीक थे और हम उनके अनन्य भक्त। तब इन्दिरा गांधी न तो उतने उफान पर थीं और न ही वे कोई हस्ती बन पाई थीं। वे नेहरू की पुत्री के रूप में ज्यादा जानी जाती थीं, ठीक उसी तरह जैसे नेतृत्व की क्षमता और सामथ्र्य रखने के बावजूद लोग-बाग विजयलक्ष्मी पंडित को नेहरू की बहन के रूप में ज्यादा याद करते हैं, न कि एक विदुषी व कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में।

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