संसद के वे दिन: जब मैं झांसी से चुनकर आयी

सुशीला नायर/अनु. सुधीर जिन्दे

भारत की द्वितीय स्वास्थ्य मंत्री (प्रथम राजकुमारी अमृत कौर), डॉ. सुशीला नायर, महात्मा गांधी के निजी सचिव श्री प्यारे लाल नायर की छोटी बहन थी तथा महात्मा गांधी की निजी फिजीशियन थीं। उन्होंने 1944 में एक छोटा अस्पताल सेवाग्राम आश्रम में प्रारंभ किया। 1945 में यह छोटा-सा अस्पताल कस्तूरबा अस्पताल के रूप में विकसित हुआ, जो आज महात्मा गांधी इंस्ट्टियूट ऑफ मेडिकल कॉलेज के नाम से देश के चुनिंदे अस्पतालों में शामिल है। सुशीला जी का संसदीय राजनीतिक सफर 1952 में शुरू हो गया था जब वे लेजिस्लेटिव असेम्बली, दिल्ली में चुनकर आयीं.

डा. सुशीला नायर

1957 में पहली बार मुझे लोकसभा में जाने का मौका मिला। 1957 इसलिए भी महत्वपूर्ण था इसी वर्ष भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को सौ वर्ष पूर्ण हुए जिसे ब्रिटिशों ने ‘सिपॉय न्युटीनी’ कहा था। 1857 के उठाव में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने महत्वपूर्ण योगदान दिया और ब्रिटिशों की सेना से लड़ते हुए वह देश के लिए शहीद हुईं। एक ब्रिटिश जनरल, जिन्होंने उनका विरोध किया था, ने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘वह शूर थी और 1857 के युद्ध में जिन्होंने संघर्ष किया उनमें वह सर्वोत्तम थी। उन्हीं से प्रेरणा लेकर झांसी के लोगों ने यह निश्चय किया कि उनके सम्मान में लोकसभा में महिला प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा झांसी क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए मुझे कहा गया।

मैंने गुड़गांव चुनाव क्षेत्र के लिए टिकट हेतु आवेदन किया था। वहां मेरे भाइयों की कुछ जमीन भी थी। दिल्ली से गुड़गांव ज्यादा दूर नहीं था, जहां पाकिस्तान का घर छोड़ने के बाद हम रह रहे थे। परंतु मौलाना अजाद की गुड़गांव से खड़े रहने की इच्छा थी। मुझे झांसी भेजना सभी दृष्टि से सुविधाजनक था। मैंने झांसी की जमनी पर कभी पैर भी नहीं रखा था। मैंने कांग्रेस के अध्यक्ष देवर भाई को लिखा कि मुझे झांसी चुनाव क्षेत्र से न लड़ने की अनुमति दें, क्योंकि वहां के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। वह और श्री लाल बहादुर शास्त्री दोनों ही दिल्ली के बाहर थे और उनके ही हाथों में उत्तर प्रदेश के चुनाव का भार था। चार या पांच दिनों के पश्चात अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के जंतर मंतर रोड पर के कार्यालय में श्री लाल बहादुर शास्त्री ने मुझे बुलाया। उन्होंने कहा कि उन्होंने मेरा पत्र पढ़ा और झांसी में मेरी उम्मीदवारी के स्वागत में आये हुए पत्रों को मुझे दिया। उन्होंने कहा, ‘‘सभी संगटनों ने तुम्हारी उम्मीदवारी का स्वागत किया है, जाओ घबराओ मत और झांसी से चुनाव लड़ो। लेकिन मैंने उन्हें इस बात से वाकिफ किया कि उनमें से किसी को मैं नहीं जानती। लेकिन मेरा भ्रम तब टूटा जब उन्होंने मुझे बताया कि वहां सब मुझे जानते थे।

मैं वापस आयी। उसी रात श्रीमती सूरजमुखी शर्मा, जो झांसी चुनावक्षेत्र की एक आवेदक थीं मुझे झांसी ले गयीं। उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि मैं चुनाव लड़ सकती हूं, जिससे मुझे काफी अच्छा लगा। राष्ट्रकवि स्वर्गीय मैथिलीशरण गुप्त जो कि राज्यसभा सदस्य थे, सिविल लाइन्स के उनके बंगले पर चुनाव की तैयारी के लिए रुकी। मुझे उनका व्यवहार काफी अच्छा लगा।

झांसी में मुझे उस बंगले में तीन कमरे मिले। मेरा कमरा सबसे आखिर में था लेकिन स्नानगृह पास होने के कारण मैंने वह चुना। बचे दो कमरों में चुनाव के लिए काम करने वाली महिलाएं रहने वाली थीं जो मेरे ही साथ दिल्ली से आयी थीं। मेरे साथ आये हुए पुरुष कर्मचारी भी उनके पास ही कमरे में रहते थे। उसी कमरे का उपयोग कार्यालय के रूप में भी किया जाना था। राष्ट्रकवि का लड़का और भतीजा, जो कि कॉलेज में पढ़ते थे, हमारी देखभाल करते थे, हमारे लिए भोजन लाते थे तथा अन्य सहायता भी करते थे।

मुझे उपन्यास सम्राट वृंदावनलाल वर्मा से मिलने ले जाया गया। जिनकी ‘झांसी की रानी’ किताब को मेरी पुस्तक ‘बापू की कारावास की कहानी’ के साथ 1951 (1952) में राष्ट्रकवि पुरस्कार मिला था। मैं श्री बोधराज साहनी से भी मिली। वह झांसी के प्रमुख वकील थे, जिन्होंने ऐच्छिक निवृत्ति के बाद अपना पूरा समय आर्य समाज के कार्य के लिए समर्पित किया। श्री धुलेकर जो कि मेरे पर्वूवर्ती हैं, 1952 में झांसी से चुनाव के बाद अपने सहकारी को पदभार प्रदान करते समय आनंदित थे, जिस प्रकार से 1929 में मोतीलाल नेहरू को जवाहरलाल नेहरू को प्रदान करते समय हुआ। श्री धुलेकर काका सभी विधानसभा क्षेत्र में मुझे लेकर गए। एक पिता की तरह उन्होंने मुझे मार्गदर्शन किया। एक दिन जब मैंने चुनाव प्रचार के दरम्यान खाना खाने से मना किया तब उन्होंने मुझे बहुत डांटा और खाना खाने के लिए कहा।

उन्होंने कहा कि अगर मतदाताओं के भोजन को तुम इन्कार करती हो तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हें जितना खना है उतना खा लो परंतु मना मत करो। पान से तो मैं और मेरा ड्राइवर दोनों ही ऊब गए थे। गारोठा को छोड़कर ललितपुर और मौहानीपुर तहसील के साथ-साथ सभी जिले मेरे चुनाव क्षेत्र में आते थे। मौरानीपुर और ललितपुर यह दो विधान सभा क्षेत्र झांसी सांसदीय क्षेत्र से विभक्त किया गया था। सभी को इस चुनाव क्षेत्र में जाने के लिए दोनों दिशाओं में 180 किमी और 100 किमी तक घूमना पड़ता था तभी पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण किया जा सकता था।

रास्ते काफी खराब थे। उस समय झांसी और ललितपुर के बीच केवल एक पक्की सड़क थी। ललितपुर और मौरनीपुर जाते समय बेतवा नदी रास्ते में ही पड़ती थी। ललितपुर के किनारे इस नदी में कम पानी था इसलिए गाड़ियां रेत और पथरीली रास्ते से जा सकती थी। सर्दियों में थोड़ा बहुत पानी इसमें रहता था। लेकिन मौरनीपुर से झांसी जाते समय रास्ते में डॅम होने के वजह से नाव से ही जाना पड़ता था, उसमें भी हवा का रुख बदलने तक कई घंटों तक राह देखनी पड़ती थी। एक रात रामनगर रिप्ता को ढूंढने हम रास्ता खो गए। इस कारणवश हमें जंगल में रुकना पड़ा। रात होने की वजह से नाव से भी चला नहीं जा सकता था। दूसरे दिन हवा का रुख ठीक से होने के कारण मुझे दो घंटों तक राह देखनी पड़ी। और तीसरी बार मौसम की खरबी के कारण में पूर्वनियोजित सभा को नहीं जा सकी। मुझे बड़ा दुख हुआ। मुझे इसका बड़ा अफसोस हुआ कि इन दो चार दिनों में ही मैं इतनी निराश हुई तो ये लोग, जो इस तरह का जीवन रोज जीते हैं उन्हें कैसा महसूस होता होगा? इस नदी पर पुल होना ही चाहिए।

चुनाव जीतने के बाद मुझे इस मसले को स्पष्ट करने के लिए एक तो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकार के पास जाना था तो दूसरी तरफ भारत सरकार के पास भी जाना था। इन वर्षों में इस नदी को पार करना बड़ा ही आनंदपूर्ण था। सरकार ने इस पुल पर से गुजरने वाले वाहनों पर टैक्स भी जारी किया था। कुछ लोगों ने इसे न होने के लिए आवेदन भी चलाया। मैंने उन्हें याद दिलाया कि यह टैक्स उस नाव तथा उन सभी असुविधाओं के बदले बहुत ही कम है। मैंने उनसे कहा कि अमरीका में जब मैं एक विद्यार्थी थी तब मुझसे कहा गया था कि अमरीकन लोगों ने जॉर्ज वाशिंग्टन ब्रीज की कीमत से साठ गुना कीमत अदा की है फिर भी वे अभी भी टैक्स जमा करते हैं। क्योंकि इन पैसों से नये पुलों का निर्माण किया जाता था। आंदोलनों के नेताओं ने बात को समझा और अपनी मांगें वापस लीं।

लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद मैंने देखा कि वहां महिला सदस्यों की संख्या काफी कम थी जबकि भारत की आवादी में 50 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है। वहां श्रीमती उमा नेहरू भी थीं, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मेरी मां के लाहौर जेल में रही थीं।

दो को छोड़कर बाकी सारी महिलाएं मुझसे बड़ी थीं। उस समय सांसदों के लिए कोई भी वैधकीय सुविधाएं नहीं थीं। इनमें से कई महिलाएं मेरी मरीज थीं। उत्तर प्रदेश की श्रीमती शकुंतला अनीमिया की रुग्ण थीं और मध्य प्रदेश के आदिवासियों की प्रतिनिध के रूप में श्रीमती मिनीमाता को मैं जानती हूं, जिन का दिल्ली के करीब हवाई दुर्घटना में देहान्त हुआ।

श्रीमती उमा नेहरू मेरी मां समान थी। वह हमेशा सरोजनी नायडू और मेरी मां के साथ के लाहौर जेल के अनुभव मुझे बतातीं। हम साथ ही पेपर पढ़ते थे और महिला कक्ष में काफी का लुत्फ भी उठाते थे।

श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा भी हमारे साथ थीं और श्री कुमारमंगलम की पुत्री पार्वती क्रिश्चिन और रेणु चक्रवर्ती, दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टी में थी। श्रीमती अमू स्वामीनाथन, जिनकी बेटी डॉ. लक्ष्मी सहगल नेताजी के इंडियन नेशनल आर्मी में थीं और पंजाब के श्री सहगल से शादी की थी वह भी हमारे साथ वहां थीं। कर्नाटक की उत्कृष्ट कलाकार, हिन्दी की कई पुस्तकों की लेखिका तथा हिन्दी की विद्वान सरोजिनी माहिशी भी वहां थीं। राजकुमारी अमृत कौर उस समय राज्य सभा सदस्य थीं। 1952 में वह शिमला से लोकसभा के लिए चुनी गई थीं। और 1946 से 1957 में वह जब जागतिक स्वास्थ्य संगठन की बैठक के लिए जिनेवा गयीं, तब नेहरूजी ने मंत्रीमंडल का पुनर्गठन कर श्री डी.पी. करमकर की केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री का पद सौंपा। वह इंडियन रेड क्रॉस और सेंट-जॉन अम्ब्यूलन्स कार्पस् की चेअरमेन भी रहीं। भारतीय क्षयरोग अशोसिएशन तथा ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडीकल साईंस के कार्यकारी मंडल की वह अध्यक्षा भी रहीं। वह इंडियन कॉन्सिल ऑफ चाई वेलफेलअर एशोसिएशन की अध्यक्ष रहने के साथ-साथ ऑल इंडिया वीमेन्स कांग्रेस (।प्ॅब्) और यंग वीमेन्स क्रिश्चियन एशोसिएशन (ल्ॅब्।) में सक्रिय रहीं। 1964 में हृदय विकार मृत्यु के समय तक उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया। संसद के केन्द्रीय सभागृह में ही वह अपना ज्यादातर समय बिताती थीं।

श्रीमती सुचेता कृपलानी भी लोकसभा सदस्य थीं। उनके पति आचार्य कृपलानी कांग्रेस छोड़कर मध्य-चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार के खिलाफ खड़े हुए। चुनाव के दौरान उन्होंने अपने पति की काफी देखभाल की। श्री सी.बी. गुप्ता जो कि उत्तर प्रदेश के पूर्वनियोजित मुख्यमंत्री थी, राज्यविधानसभा के चुनाव हार जाने के कारण उन्होंने सुचेता जी को मुख्यमंत्री के पद को संभालने के लिए आमंत्रित किया। इसलिए उन्होंने लोकसभा से अपना इस्तीफा दिया।

प्रश्नकाल का समय सबसे रोचक रहता था। प्रश्नकाल के बाद सभी सदस्य सेन्ट्रल हॉल कॉफी का मजा लेते थे। प्रश्नकाल के दौरान स्पीकर अध्यक्षीय स्थान पर होते थे। इस बीच कोई भोजन अवकाश नहीं होता था।

शून्यकाल आज की तरह गर्म नहीं रहता था। शून्यकाल के बाद भोजन की व्यवस्था की जाती थी। मुझे ऐसा लगता है कि सदन ने हमेशा ही अनुशासन रहता था।

श्री एन. अनंतश्यायानाम अयंगर लोकसभा के अध्यक्ष थे और सरदार हुकुम सिंह उपप्रवक्ता। 1955 और 1956 में दिल्ली विधानसभा की अध्यक्ष होने के कारण मुझे चेयरमैन पैनल में रखा गया था। दादा साहेब मालवंकर ने सदन के भीतर काफी अच्छी परंपरा डाली थी। मध्यान्ह भोजन के बाद अध्यक्ष बहुत कम ही सदन में आते थे।

अध्यक्ष के बारे में हमेशा यह कहा जाता है कि वह कभी अपना वक्तव्य नहीं देते। लेकिन अनंत श्यायानाम अयंगर बोलने का कोई भी मौका नहीं गंवाते थे। उनके द्वारा दी गई टिप्पणियों में उनकी विद्वता और संस्कृत पर उनकी पकड़ साफ जाहिर होती है। मजाक से लोग उन्हें अनंत वचनम् कहा करते थे। सरदार हुकुम सिंह बहुत ही सौम्य स्वभाव के एक शिक्षित रिटायर्ड न्यायाधीश थे। मध्यान्ह के बाद सामान्यतः उपाध्यक्ष और पैनल ऑफ चेअरपर्सन्स प्रवक्ता के रूप में काम करते थे।

पंडितजी दोनों ही सदनों में हमेशा उपस्थित रहते थे। वह हमेशा अपने मंत्रियों का हौसला बढ़ाने के लिए वहां आते थे। मुझे याद है वह दिन, जब मैं अध्यक्ष का काम देख रही थी, और एक महत्वपूर्ण चर्चा सत्रा चल रहा था। पंडित जी भी वहां उपस्थित थे। वह खड़े हुए और कुछ बोलने के लिए इजाजत मांगी। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य ने हाथ उठाकर उन्हें रोकना चाहा, और उन्होंने भी एक सदस्य के रूप में अपनी बात रखने की इजाजत मांगी। लेकिन मैंने कहा कि वह उनकी बात नहीं रख सकते हैं, आदरणीय पंडितजी ने खड़े होकर सवाल किया कि क्यों वह अपनी बात नहीं रख सकते। मेरे इस उत्तर ने कि वह केवल मंत्रा के रूप में ही अपनी बात रख सकते हैं, पंडित जी शांत हुए और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी।

एस्टीमेट कमेटी और पब्लिक अकाउन्ट कमिटी, यह दो महत्वपूर्ण सांसदीय समितियां थीं जो अध्यक्ष सदस्यों के सरकारी व्ययों पर देखरेख करने का अधिकार देती थीं। उन दिनों में कोई भी व्यक्ति गलत सूचना देने का ख्वाब भी नहीं देख पाता था। समिति के दौरे बहुत ही शैक्षणिक होते थे। हम राजस्थान के दौरे पर गए थे। हम ट्रेन में ही रहे जो हमें जगह-जगह ले जाती थी हमारा खाने-सोने की व्यवस्था सभी ट्रेन में ही थी। यह यात्रा काफी मजेदार रही। इन दो समितियों के बाद अन्य विभिन्न समितियों को भी समाविष्ट किया गया। पब्लिक सेक्टर में बढ़ोत्तरी के कारण सभी कामों पर नजर रखना समिति के लिए कठिन काम था।

प्रश्नकाल के बाद हम पंडितजी के कक्ष में जाकर मिलते थे। उनके पास सदस्यों से मिलने के लिए समय रहता था। 1962 के चुनाव के बाद मुझे उनके मंत्रीमंडल में सदस्य के रूप में सेवा करने का मौका मिला। कोई भी अपनी समस्या को लेकर उनके पास जा सकता था खासकर संसदीय प्रश्न। वह हमेशा अपने मंत्रियों के पक्ष में खड़े रहते थे।

प्रेस के लोग भी मित्र की तरह रहते थे। उनमें से कुछ ने हमारे साथ स्वतंत्रता संग्राम में काम किया था। हम सारे लोग सेन्ट्रल हॉल में कॉफी के लिए मिले। भारत के स्वतंत्र होने की भावना अभी भी लोगों में कायम थी। स्वतंत्रता के समय का आदर्शवाद और एक दूसरे के प्रति सम्मान और प्रेम की भावना, चाहे विरोधी पार्टी के लोग ही क्यों न हों मौजूद थी।

एक बार श्री नाथ पाई ने पंडित जी की पुस्तक को प्रकाशित और वितरित करने के लिए अपने मंत्रियों पर टिप्पणी की। जब मेरी बारी आयी, तब मैंने इसका विरोध करते हुए कहा कि पंडितजी भारत सरकार के एक महान नेता हैं और एक महान स्वतंत्रता संग्रामी भी हैं। इसके साथ-साथ वह एक महान साहित्यिक भी हैं जिससे कि उसके पुस्तक प्रकाशन आपत्ति दर्शाने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

मेरे वक्तव्य के बाद पंडितजी ने इस मसले पर अपनी प्रतिक्रिया दी। मंत्रियों के द्वारा अपनी पुस्तक के प्रकाशन के कार्य को उन्होंने गलत बताया।

 1950, 60 और 1970 में हम महिलाओं के सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर प्रमुख तौर पर काम करने लगे। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में महिलाओं के प्रति पुरुषों के विचारों में काफी परिवर्तन देखने को मिला। और उमा भारती जैसी महिला के आने के बाद ऐसा लगा कि संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अच्छी तरह से उभर के आया। इसका कारण यह है कि महिलाएं जिन-जिन समाज से आई थीं उस समाज की परिस्थितियां उन्होंने संसद के सामने रखीं। लेकिन महिलाएं पुरुषों के मुकाबले ज्यादा बदल रही हैं और उन्होंने घरेलू जीवन से सार्वजनिक जीवन में हिस्सा लेने के लिए शुरुआत की है। अगर उन परिवार के द्वारा दबाव न डाला जाये तो वे अविवाहित रहने के लिए भी तैयार होंगी, लेकिन महिलाओं के द्वारा दिखाये गए इतने आत्मविश्वास के बाद भी संसद में उनकी स्थिति निराशाजनक ही थी।

आज की महिला सांसद महिलाओं के सामूहिक आवाज को बुलंद करने में असक्षम हुईं, जो उनकी नैतिक धैर्य की हार को ही दिखाती है। मेरे कार्यकाल में वरिष्ठ महिला सांसदों द्वारा कनिष्ठ सांसदों को चुप किया जाता था। लेकिन बाद में इसमें बदलाव आया।

लेकिन पूर्व तथा वर्तमान महिला सांसदों को इस बात का अवलोकन करना चाहिए कि अंत में उन्हें कानून, सार्वजनिक स्वतंत्रता और जीवन के अन्य क्षेत्रों में से क्या हासिल हुआ जिससे कि समाज में वह सम्मान पा सके। 40 साल के सांसदीय काल में अभी भी कानून ने महिलाओं को घर में कानूनी अधिकार नहीं दिये। आज भी यह अधिकार पुरुष को ही प्राप्त है। महिलाओं को नहीं।

हिंदू कानून के अनुसार आज भी पुरुष ही कर्ता हो सकता है। महिला ने अगर संपत्ति भी अर्जित की तब भी वह परिवार का हिस्सा होने के कारण उसे वह अधिकार प्राप्त नहीं। क्यों हम सांसद के कानून को बदलने में असक्षम हुए? क्यों सभी तरफ पुरुषों को स्थान है, महिलाओं को क्यों नहीं? उस समय महिला सदस्यों में राजकीय चेतना थी, लेकिन अब कहीं न कहीं राजकीय चेतना कम देखने को मिलती है। उनमें बाध्य चेतना तो है लेकिन अंतःचेतना का अभाव है। फिर भी हम उतने ही प्रामाणिक भी हैं। रेणुका चौधरी, जयंती नटराजन के राज्यसभा और शीला कौल और उमा भारती के लोक सभा के कार्य से हमें यह प्रतीत होता है। मुझे ऐसा लगता है कि आज की महिला राजकीय दृष्टि से और सामाजिक दृष्टि से जागरूक है।

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ISSN 2394-093X
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