बेगूसराय में मार्क्सवाद का अस्थि-पंजर:कन्हैया सिंड्रोम

मनीष कुमार

दिवंगत भाजपा सांसद और पूर्व में सीपीआई के नेता रहे भोला सिंह के माल्यार्पण के साथ कन्हैया कुमार के नामांकन की प्रक्रिया पूरी हुयी। गनीमत है कि बेगुसराय में आदिवासियों की आबादी नहीं है नही तो वोट के लिए छतीसगढ़ में पूर्व के सीपीआई विधायक और बाद में सलवा जुड़ुम के नेता रहे महेन्द्र कर्मा को माल्यार्पण करते हुए कन्हैया को शर्मिंदा होना पड़ता। महेन्द्र कर्मा भी पहले सीपीआई के ही विधायक रहे थे। बिहार में संसदीय चुनाव में पूरे देश में सबसे अधिक चर्चा वाली सीट बेगुसराय बन गयाहै। संसदीय वामपंथियों के एक बड़े धड़े ने एक तरफ यह माहौल बनाया है कि कन्हैया वामपंथियों के प्रवक्ता हैं तो दूसरी तरफ ‘उदार’ सवर्णों के एक बड़े धड़े ने यह हर संभव स्थापित करने की कोशिश की है कि संसद में भाजपा सरकार को जवाब देने की काबिलियत केवल कन्हैया में ही है इसलिए कन्हैया को संसद भेजा जाना जरूरी है। कल तक के घोर मार्क्सवादी विरोधी भी आज अचानक मार्क्सवादियों के हितैषी बन गए हैं। कन्हैया भी टीवी चैनलों पर यह कहते हुए फूले नहीं समा रहे कि हमने आजादी के अपने एजेंडे पर सभी पार्टियों को खींच कर लाया है। क्या सच में कन्हैया मार्क्सवादियों के प्रवक्ता हैं? क्सा सच में कन्हैया ने कोई राजनीतिक प्रयोग किया है? इन सवालों के जवाब में ही कन्हैया की पूरी राजनीति छिपी है।

तेजस्वी यादव के साथ कन्हैया कुमार

इस बात में कोई शक नहीं है कि जेएनयू में कन्हैया को गलत तरीके से एक ऐसे आरोप में फंसाया गया और देशद्रोह का मुकदमा लगाया गया जिसमें वे कहीं से भी भागीदार नहीं थे। जाहिर तौर पर कन्हैया राजकीय दमन के शिकार हुए लेकिन यह समूचे देश के लिए कोई अलग-थलग घटना नहीं थी। देश में सबसे गरीब हजारों लोग वर्षों से ऐसे ही आरोपों में जेलों में कैद हैं। लेकिन जेएनयू के छात्र होने की वजह से कन्हैया का मामला देश के उन हजारों लोगों के मामलों से अलग एक क्लासिक मामला बन गया और एक भुक्तभोगी रातों-रात देश का नायक बन गया। देशद्रोह का मुकदमा अबतक आम जनता के ऊपर एक अभियोग था लेकिन अब कन्हैया ही देशद्रोह के मुकदमे के ऊपर एक अभियोग बन गया। अब कन्हैया की हर राजनीति को ही भारतीय राजनीति में नौजवानों की राजनीति माना जाने लगा। लेकिन यहां बुनियादी सवाल यह है कि क्या कन्हैया की राजनीति सच में नौजवानों की प्रतिनिधी राजनीति थी? इस लिहाज से कन्हैया की राजनीति पर गौर किया जाना जरूरी है।

जेल से लौटने के बाद कन्हैया ने अपनी वही पहचान ओढ़ ली जिसकी वजह से उन्हें भुक्तभोगी बनाया गया था। लेकिन इसमें कश्मीरियों के आजादी के बुनियादी नारे से उसने असल में कश्मीरियों की आजादी को निकाल कर उसे अपना नारा बना लिया। इसी दौरान उसने जय भीम-लाल सलाम के नारे की चर्चा की। देश  के तथाकथित उदारवादियों ने इसे प्रचारित किया कि कन्हैया देश  में एक नयी राजनीति गढ़ रहा है। यह न केवल देश  के राजनीतिक इतिहास के साथ धोखागढ़ी थी बल्कि उन हजारों लोगों की यातनाओं और कुर्बानियों का भी अपमान था जिन्होंने अपने संघर्षों से उन नारों को गढ़ा था। आजादी का नारा जहां दश कों में कश्मीरियों के संघर्षों का एक गान बन गया था वहीं जय भीम-लाल सलाम का नारा 1970 के दश क में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में दलित पैंथर के लोगों नें अपने संघर्षों की राजनीति से गढ़ा था। ये नारे महज नारे नहीं थे बल्कि इनकी एक राजनीति थी। कन्हैया नें उनके संघर्षों की राजनीति से उन्हें अलग करके इसे अपना मौलिक नारा बना दिया। अब इसे देश  के उदारवादी तबके नें भी हाथों-हाथ लिया। जो लोग अबतक इन नारों को गढ़ने वालों का चुपचाप नरसंहार देख रहे थे अब वे भी इन नारों का प्रवक्ता बन गये। इसलिए कि अब नारों को उनकी राजनीति से अलग कर दिया गया था। यह ठीक वैसे ही था जैसे बौद्धों का नरसंहार करनेवाले लागों ने ही बाद में बुद्ध को विष्णु का अवतार बना दिया। यह न केवल उन संघर्षों के साथ धोखाघड़ी थी बल्कि उनके राजनीतिक अंतर्वस्तु को ही निकाल देने की साजिश  थी।

पूरी दुनिया के इतिहास में उदारवादी मुक्त व्यापार की सैद्धांतिक उपज रहे हैं। यह मुक्त व्यापार हमेंशा  से संभ्रात लोगों और सत्ताओं का मेहनत करने वाली जनता को अपने हित के लिए गोलबंद करने का एक राजनीतिक औजार रहा है। बाद में बाजार के विस्तार के साथ इसने बुनियादी रूप से ‘इच्छाओं की आजादी’ पर खुद को केन्द्रित किया। इस तरह उदारवादियों ने जीवन के मुलभूत सवालों से इच्छाओं की आजादी को मूल सवाल बना दिया। कन्हैया का आजादी दरअसल मार्क्सवादियों के आजादी के बजाये यही उदारवादियों की इच्छाओं की आजादी है। यह उदारवाद दरअसल अपने अंतर्वस्तु में मार्क्सवादविरोधी रहा है। दक्षिणपंथियों के उभार से पहले तक दरअसल में कांग्रेस के अंदर यही तबका प्रभावी भूमिका में रहा था। हालांकि कांग्रेस के अंदर भी इन उदारवादी और दक्षिणपंथी धड़े के बीच प्रभुत्व की लडाई सर्वव्यापी रही है। 1990 में बाजार अर्थवयव्स्था के उभार के बाद से कांग्रेस के अंदर के दक्षिणपंथियों ने धीरे-धीरे भाजपा का रूख कर लिया। 1990 के दश क में बाजार अर्थव्यवस्था में लूट का एक बड़ा हिस्सा इन उदारवादियों को भी मिला है। बाजार अर्थव्यवस्था के दौर में हाशिये पर जीने वाली जनता के गुस्से को एक निकास द्वार के जरिए बाहर करने का जिम्मा सीविल सोसाइटी के जिम्मे दिया गया। दरअसल यह सिविल सोसाइटी देश के उदारवादियों से ही बनता था। इसके लिए फंड भी बाजार ने ही उपलब्ध कराये। इस तरह एक नए तरह के वेतनभोगी समाजसेवियों का उभार हुआ। ये समाजसेवा के नाम पर जनता के बीच बाजार के प्रति एक सकारात्मक माहौल पैदा कर रहे थे जिसके लिए संसाधन भी बाजार की शक्तियां ही उपलब्ध करा रहीं थीं। इसी दौर में भाजपा का व्यापक उभार हुआ। नए हालत में उदारवादियों का सत्ता में प्रभुत्व घटता गया। जब यह दक्षिणपंथियों का मुकाबला करने में नाकाम होने लगा तब इसे भी नए प्रतीकों और नारों की जरूरत थी। इस माहौल में कन्हैया उसे बने बनाए औजार के रूप में मिल गया। अपने नारों की वैधता के लिए यह तर्क गढ़ा गया कि इससे माक्र्सवादी राजनीति को संरचनात्मक बनाया जा रहा है। इसने यह भी स्थापित करने की कोशिश  की कि उदारवादी अपने चरित्र में सांप्रदायिकता विरोधी है जबकि इनके पास इन सवालों के कोई जवाब नहीं हैं कि जब कांगे्रसी राज में आतंकवाकद के नाम पर सैंकड़ों मुसलमानों को कैद किया जा रहा था तब यह उदारवादी राजनीति कहां थी? जब कांग्रेस सरकार आतंकवाद निरोधक कानून के नाम पर यूएपीए ला रही थी तब यह उदारवादी राजनीति के प्रवक्ता कहां थे? कांग्रेस द्वारा बनाये गए यूएपीए कानून के तहत सैंकड़ों आदिवासी और मुसलमान जेलों में वर्षों से जेलों में कैद हैं। दरअसल बुनियादी बात यह है कि जब उदारवादी राजनीति के प्रवक्ता दक्षिणपंथियों के हाथों अपना राजनीतिक प्रभुत्व गंवा रहे हैं तब ये मार्क्सवाद को रचनात्मक बनाने के नाम पर जनता के दुख, तकलीफों और उनपर अत्याचार से पैदा हुए संवेदनाओं और गुस्से का इस्तेमाल कर रहे है। आज देश  में पैदा हुए दक्षिणपंथी उभार और सरकारी दमन में कांग्रेसी उदारवादी भी बराबर के हिस्सेदार है। इन उदारवादियों ने पहले ही यह स्थापित करने की कोशिश  की अब संघर्षों का कोई मतलब नहीं रह गया बल्कि वोट ही हमारा हथियार है। इन्होंने जनता में बदलाव की ताकत के बजाए संसदीय मोल-जोल की ताकत को ही स्थापित करने की कोशिश  की। इस तरह इन्होंने जनता के अंदर से संघर्ष की ताकत को निकालकर महज एक वोट मे्रं बदल दिया। 2017 में इरोम शर्मिला जब चुनाव हार गईं तब सिविल सोसाइटी के बड़े तबके ने मणिपुरी जनता को जमकर कोसा। दरअसल वो नहीं समझ पा रहे थे की इरोम का संघर्ष व्यापक मणिपुरी जनता के संघर्ष से अलग नहीं था। लेकिन वहाँ की जनता इरोम की कुर्बानी को वहाँ के आम जनता की कुर्बानी से अलग करके नहीं देखती थी। इरोम और वहाँ की आम जनता दोनों को अपना राजनीतिक पक्ष चुनने की आज़ादी थी। इरोम की संसदीय राजनीति के साथ जाने के लिए वहाँ की आम जनता जाने के लिए तैयार नहीं थी। जनता की कुर्बानियों और संघर्षों से खुद की भूमिका को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना दरअसल विशेषाधिकार के बोध से ग्रसित खुद को नेतृत्वकारी घोषित कर देने के पुराने सामंती बोध से ही ग्रसित है जिसमे जनता की भूमिका को महज नायकों के पीछे चलने वाले की तरह स्वीकार की जाती है। इस तरहकन्हैया माक्र्सवादियों के प्रवक्ता होने के बजाये उदारवादियों के ही प्रवक्ता हैं जो दरअसल दक्षिपंथियों के हाथों अपना राजनीतिक प्रभुत्व गंवा बैठा है।

बेगुसराय की राजनीति और कन्हैया

कन्हैया बेगुसराय से संसदीय चुनाव लड़ रहे हैं। उनको लगता है कि उनकी पहचान और कद के लिहाज से भाजपा के खिलाफ तमाम पार्टियों को उन्हें अपना समर्थन देना चाहिए था। उनको लगता है कि वे भाजपा के खिलाफ संघर्ष के असली प्रतिनिधि वे ही हैं इसलिए भाजपा के खिलाफ संसदीय लड़ाई पर पहला हक उनका ही बनता है। चूंकि उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है इसलिए इसपर कोई बहस की गुंजाइश  ही नहीं है। दरअसल इस राजनीतिक व्यवहार का केन्द्र जेएनयू ब्रांड की राजनीति में रही है। वह अपने निजी हितों के लिए संघर्ष को भी ऐसे प्रचारित करता हो मानों वही देश  की छात्रों की लड़ाई हो। हम सबने ‘सेव जेएनयू’ सुना है लेकिन कभी भी कोई दूसरी यूनिवर्सिटी बचाने की बात नहीं सुनी। 1990 के दश क के बाद से राज्य के अलग-अलग क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों को तहस-नहस कर दिया गया लेकिन कभी यह एजेंडे पर नहीं आया। राज्य के विश्वद्यालयों मे छात्रवृति और छात्रावास का सवाल तो छोड़ दें पढ़ाई का सवाल भी कभी राष्ट्रीय विमर्शों मे शामिल नहीं हो पाया। लेकिन जब इस बर्बादी का निशाना जेएनयू बना तभी देश  की शिक्षा व्यवस्था पर खतरा सामने आया। कन्हैया की राजनीति भी इस विशेषाधिकार के बोध से अलग नहीं है। हमें समझाया जा रहा है कि कन्हैया चूंकि जेएनयू की राजनीतिक उपज हैं इसलिए उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। वे तो तमाम संसदीय तिकड़मों से इतर हैं। लेकिन इसकी हवा तभी निकल गयी जब महागठबंधन से समर्थन नहीं मिलने के बाद उसने सीपीएम के नेता अजीत सरकार की हत्या के आरोपी पप्पू यादव के समर्थन देने के बदले समर्थन करने की घोषणा की। इस मसले पर सीपीएम नेता सुभाषिनी अली ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यह भी कहा कि अजीत सरकार के हत्या के आरोपी से हाथ मिलाना कन्हैया का अवसरवाद ही है। इतना ही नहीं यादव जाति के लोगों का वोट हासिल करने के लिए भाजपा के साथ जाने के आरोप में राजद से निष्कासित खगड़िया के दबंग की पत्नी के साथ न केवल सौदेबाजी की बल्कि उसे खगड़िया से चुनाव लड़ाने का सीपीआई ने आॅफर तक दे दिया। हम नहीं जानते की भाजपा के तत्कालीन दिवंगत सांसद भोला सिंह को श हीद का दर्जा देने के पिछे सीपीआई के उम्मीदवार की क्या बाध्यता रही होगी। हमें लगता है कि इन सारे सवालों का जवाब एक दिन आम जनता को सीपीआई जरूर देगी। जेएनयू के कुछ बुद्धिजीवी सवाल उठा रहे हैं कि जिस दिन कन्हैया आजादी का सवाल उठा रहे थे तब सारे लोग उनकी तारीफ कर रहे थे लेकिन आज कन्हैया की जाति पुछी जा रही है। दरअसल इन बुद्धिजिवियों की यही समस्या यही है कि उनको लगता है कि जिन जनवादी सवालों के पक्ष में वे खड़े हो रहे हैं उसके एवज में जनता को उन्हें अपना प्रतिनिधि मान लेना चाहिए। दरअसल ये बुद्धिजीवि समझते हैं कि जनवादी सवालों के पक्ष में खड़े होकर वे व्यापक जनता पर रहम कर रहे हैं। ठीक यही मामला सवर्णों पर भी लागु होता है। उनको लगता है कि ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था पर सवाल उठाकर वे बहुत ही क्रांतिकारी काम और समाज पर उपकार कर रहे हैं।

सच तो यह है कि उपकार का यह सोंच दरअसल उसी विशे षाधिकार के अधिकार से पनपता है। महाश य! आप जातिय प्रभुत्व पर सवाल उठाकर उपकार नहीं करते बल्कि अपना खुद का मानसिक इलाज करते हैं। ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था के खिलाफ लड़ाई इससे निर्धारित नहीं हो जाती की आप कितने जातिविरोधी हैं बल्कि इससे निर्धारित होती है कि आपने किस हद तक जातीय विशेषाधिकारों का त्याग है। यह सच है कि कोई अर्जी देकर तो पैदा नहीं होता कि उसे किस जाति में पैदा होना है लेकिन पैदा होने के बाद की जातीय व्यवस्था उसके भविष्य का निर्धारण जरूर कर देती है। हम किसी खास जाति में पैदा होकर उस जाति का विशे षाधिकार या फिर सामाजिक उत्पीड़न का हकदार बन जाते हैं। कन्हैया से भी यह पूछा ही जायेगा कि आपको अपने जीवन में किसी जातिय विशे षाधिकार का फायदा मिला है या नहीं या फिर आप उसका फायदा उठा रहे हैं या नहीं? और अगर आपको भी उन विशेषाधिकारों का फायदा मिला है तब केवल रोहित वेमुला का नाम लेकर आपको वंचितों का मुक्तिदाता नहीं बनना चाहिए। हरेक समाज अपने संघर्षों से मुक्तिदाता पैदा करता रहा है और इतिहास में किसी भी वंचित समुदायों को मुक्तिदाता की जरूरत नहीं रही है। ब्राह्मणवाद संसाधनों पर वर्चस्वादी जातियों के सबसे पहले अधिकार की गारंटी करता है। आज भी जो लोग सुविधाओं पर काबिलियत के नाम पर विशेषाधिकारों का दावा कर रहे हैं उन्हें ब्राह्मणवाद विरोधी और जनता के स्वयंभू प्रतितिधि होने का मुगालता नहीं पालना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि भाजपाई सांसद को माल्यापर्ण करने के बाद भी कन्हैया धूर भाजपा विरोधी बने हुए हैं? क्या कारण है कि जो लोग कल तक भाजपा के पैदल सैनिक बने थे वही अब कन्हैया के संसद में जाने के जरूरतों के बारे में बात कर रहे हैं। कन्हैया अगर इतने की लोकप्रिय और प्रभावी हैं तब क्या ये ज्यादा बेहतर नहीं है कि संसद में जाने के बजाये उन्हें संगठन बनाने के काम में रहना चाहिए? आज न कल सीपीआई को भी इन सवालों का जवाब देना ही होगा कि जब वामपंथ के उद्धार के नाम पर यह सब किया जा रहा था तब पार्टी कहां थी? या फिर पार्टी ही ऐसी ही थी?

लेखक पटना विश्वविद्यालय के छात्र हैं.