मेरी माँ मेरा आदर्श..!

चारूलता टोकस

(कांग्रेस की टिकट पर महाराष्ट्र के वर्धा से लोकसभा की उम्मीदवार चारुलता टोकस ने अपनी मां दिवगंत राज्यपाल प्रभा राव को याद करते हुए यह आलेख 26 अप्रैल 2010 को उनके दिवगंत होने के पूर्व स्त्रीकाल के लिए लिखा था. यह लेख राजनीति से परे माँ बेटी के प्यार, देख-भाल और अनुशासन के उस पक्ष को उजागर करती है जो दिग्गज राजनीतिज्ञों के सन्दर्भ में जनता से लगभग अछूता रह जाता है. प्रभा राव कांग्रेस की वरिष्ठ नेत्री तो रही ही हैं, लेकिन उनकी बेटी चारुलता ने अपनी राजनीति की शुरुआत स्थानीय स्तर से की…. )

किसी भी व्यक्ति की जिंदगी पर सबसे ज्यादा प्रभाव उसके माता-पिता का पड़ता है और मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ. आज अपनी जिंदगी में मैं उन्हीं के दिए गए संस्कारों,दिशा निर्देशों, कमजोर समय में उनके दिए गये हौसले और ऊँचाईयां तय करते वक्त उनके प्रोत्साहन द्वारा ही विभिन्न सफल किरदार निभा रही हूँ.

महाराष्ट्र के वर्धा से कांग्रेस की उम्मीदवार चारुलता टोकस

मेरी माँ महामहिम प्रभाताई राव, जो वर्तमान में राजस्थान की राज्यपाल हैं, राजनीति का बड़ा लंबा सफर तय करके आज इस मुकाम पर पहुँची हैं. उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत 1962 में वर्धा जिला परिषद् व पंचायत समिति की सदस्या के रूप में हुई. वे वर्धा जिला मध्यवर्ती बैंक तथा भूविकास बैंक की संचालिका भी रहीं. 1965 में उन्होंने भूविकास बैंक की अध्यक्षा का पद सुशोभीत किया. 1972 में पहली बार कांग्रेस की टिकट पर देवली-पुलगांव विधान सभा क्षेत्र से निर्वाचित हुईं. उसके बाद कई साल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रही, फिर विपक्ष की नेता बनी, महिला आयोग की अध्यक्षा भी रहीं. 1999 में वे लोकसभा की सांसद निर्वाचित हुई और दो बार महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा रहीं. 2000 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस की महासचिव रहीं. अपने उपरोक्त सभी पदभारों का सुचारू रूप से व स्वच्छ तरीके से निर्वाह करने के बाद वे, 2008 में हिमाचल प्रदेश की राज्यपाल बनीं और जनवरी 2010 से उन्होंने राजस्थान की राज्यपाल का पद ग्रहण किया है.

दिग्गज कांग्रेस नेता प्रभा राव

आज जब मुझसे मेरी माँ और मेरे बीच के रिश्तों की व्याख्या करने को कहा गया तो काफी सोचने के बाद भी मुझे लगा कि हमदोनों का रिश्ता एक आम माँ-बेटी जैसा ही है, शायद ही कहीं कोई फर्क है. मेरी और मेरी बड़ी बहन की शिक्षा के लिए हमलोग देवली तहसील के कोल्हापुर (राव) गाँव से मुंबई रहने चले आये. हमदोनो बहनों को मुंबई के ‘सेंट कोलंबा’ स्कूल में दाखिला दिलाया गया. अपने व्यस्त जीवनचर्या से समय निकाल कर हमारा गृहकार्य देखतीं. दिन में समय नहीं मिलता तो बहुत सवेरे उठकर (सुबह चार बजे उठना उनकी आदत थी) हमारा काम पूरा कराती थीं. मुझे याद है मैं कई बार प्रश्न-उतर, कभी चित्रकारी, बुनाई-कढ़ाई या गणित के प्रश्न लेकर सुबह पांच बजे उनके कमरे में पहुंच जाती थी. मुझे देखकर अपनी फाइलें अलग रखकर मेरा काम पूरा करने में मदद करती थीं.

मुझे खेलकूद का बचपन से ही बहुत शौक था और इसका श्रेय भी शायद उन्हीं को जाता है क्योंकि अपने कॉलेज के दिनों में वे एक बहुत अच्छी एथलीट रही हैं. जब उन्होंने मेरी निशानेबाजी की रूची को जाना तो मुझे बहुत प्रोत्साहित किया. जिस वजह से मैंने कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लिया और महाराष्ट्र प्रदेश का प्रतिष्ठित ‘छत्रपति पुरस्कार’ प्राप्त किया.

माँ ने समाजशास्त्र के साथ-साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत में भी एम. ए. किया है, इसलिए वे हमें संगीत सीखने को भी प्रेरित करती थी, किन्तु हमारा रूझान खेलों की तरफ ज्यादा रहा.

त्योहारों, पारिवारिक समारोहों पर हमेशा उनकी कोशिश रहती थी कि वे हमारे साथ मौजूद रहें. एक बार उनकी बेहद व्यस्तता के दौरान मेरा जन्मदिन पड़ा. शाम को वक्त से थोड़ा पहले ही वे घर पहुँच गई, किंतु मुझे नाराज पाया. क्योंकि मेरा नया फ्रॉक तो आया ही नहीं था. वे तुरंत मुझे लेकर बाजार गई और फ्रॉक दिलवाया, जिसे मैंने पहन कर खूब उछल-कूद मचाई. आज मुझे लगता है कि उनपर वह मेरा इमोशनल अत्याचार था.

लाड़-प्यार के साथ-साथ उनकी हमेशा कोशिश रही कि हम अनुशासित रहें. उनके कुछ नियम और सिद्धांत थे, जिनका हमें पालन करना होता था. हमें स्कूल आने-जाने के लिए हमेशा बस इस्तेमाल करने को कहा गया ताकि हम आम बच्चों के साथ मिलजुल कर रहें और विशिष्ट बच्चों की श्रेणी से दूर रहें. इस तरह के कई कारण और भी है जिन्हें आज भी अनुकूल-प्रतिकूल माहौल में मैं सहज ही महसूस करती हूँ. हर छूट मिलती थी मुझे, किन्तु उसके साथ एक हद बंधी होती थी, जिसको पार करने की हिम्मत न उस वक्त थी और शायद आज भी नहीं है. आज यह डर नहीं है, बल्कि संस्कार है, जो आत्मसात हो गया है.

छुट्टियों के दौरान माँ और पिताजी हमें कहीं न कहीं घुमाने जरूर लेकर जाते थे. उनका सोचना था कि आप जितना सफर करोगे, उतनी ज्यादा अच्छी तरह आप दुनिया को समझ सकोगे. हां घूमने की जगह अपना बजट देखकर निर्धारित की जाती थी. जब उनको विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला तो एक बार मुझे और एक बार मेरी बहन को अपने खर्चे पर विदेश लेकर गईं.

माँ के जीवन में कई उतार चढ़ाव आये. माँ बसु परिवार से हैं, जिनका इतिहास सामाजिक आंदोलनों और स्वतंत्रता आंदोलन से सम्बंधित है. हमारे नाना श्री गुलाबराव बसु ने ग्लासगो यूनिवर्सिटी की इंजीनियरिंग की अपनी डिग्री त्याग दी और गांधी जी के साथ उनके नॉन को-ऑपरेशन मूवमेंट में शामिल हो गये. हमारी नानी डॉ. मनुभाई बसु ने अपना अस्पताल कस्तूरबा गांधी ट्रस्ट को समर्पित कर दिया था. माता-पिता के त्याग, बलिदान, साहस और आत्मविश्वास के गुण मेरी माँ ने आत्मसात किये और मेरे पिताजी का साथ उनको हरकदम पर मिला. हर चुनौती का सामना वे सहजता से कर लेती हैं. अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए वे निरंतर अध्ययन भी करती रहती हैं. उन्हीं से प्रेरणा लेकर मेरे बच्चे भी किताबें पढ़ने की रूची रखते हैं.

इंदिरा जी के प्रोत्साहन और विश्वास के कारण माँ ने उनके विश्वसनीय लोगों में जगह बना ली थी. उन्हें संगठनात्मक कार्यों की जिम्मेदारी सबसे पहले इंदिरा जी ने ही सौंपी थी. सारी जिम्मेदारियों को काबिलियत से निभाते देख इंदिरा जी ने माँ को मंत्री बनाया तथा देश-विदेश की विभिन्न कांफ्रेंस में भारत का नेतृत्व दिया है. इंदिरा जी सत्ता में नहीं थी तब भी माँ लगातार उनके साथ रही. किसी भी प्रदेश में इंदिरा जी के दौरे के दौरान वे हमेशा उनके साथ ही रहती थीं. एक बार मदुरै के दौरे में विरोधी पक्ष ने इंदिरा जी पर हमला कर दिया तब माँ और निर्मला देशपांडे जी ने उनके ऊपर लेटकर उन्हें लाठियों के आघात से बचाया था. हमले की बात सुनकर हम माँ से मिलने गये, तब उनके शरीर पर घाव देखकर मैं रो पड़ी, किंतु वे मुस्कुरा कर मुझे समझाती रहीं. आज पुरानी कई घटनाओं को याद करते हुए मुझे उन पर और अधिक गर्व हो रहा है.

इंदिरा जी के इस कथन से सीख लेते हुए कि “राजनीति में अगर रहना है तो टीका-टिप्पणी, निंदा, सहन करने की और पचाने की क्षमता होनी चाहिए” माँ ने जीवन के कटु-अनुभवों से सिख लेते हुए हर स्थिति का सामना करने की शक्ति प्राप्त की. जब मैं जिला परिषद् की अध्यक्षा बनी तो भी उन्होंने मुझे यही समझाया कि ‘किसी का बुरा मत करना. नेकी कर दरिया में डाल’ उनका कहना है कि गरीब के सेवा से ही भगवान की पूजा हो जाती है. श्री कोटेश्वर महाराज में उनका बहुत विश्वास है.

संक्षेप में अगर उनका वर्णन करूँ तो वे एक कुशल गृहणी हैं जिन्हें मालूम है कि घर के किस कोने को और किस व्यक्ति को किस वक्त उनकी कितनी जरूरत है. आज भी घर के रख-रखाव सफाई, साज सज्जा में उनकी पूरी भागीदारी है. सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ अपना पारिवारिक जीवन भी भरपूर जीती हैं. नाती, नातिनों के खान-पान की आदतों पर भी उनकी नजर रहती है और उन्हें पौष्टिक भोजन खाने के फायदे बताती हैं. पचहतर वर्ष की उम्र में भी नियमित व्यायाम, संतुलित आहार लेते हुए और बारह घंटे काम करते हुए वो आज भी हमारी ‘रोल-मॉडल’ हैं. मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि उनको अच्छा स्वास्थ, ढेर सारी खुशियाँ और दीर्घ आयु प्रदान करें.

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ISSN 2394-093X
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