बोल्गा से गंगा, तुम्हारी क्षय हो के रचयिता ने दी समाज को नई उर्जा: प्रेम कुमार मणि

अरुण नारायण
कला संस्कृति एवं युवा विभाग और पटना संग्रहालय की संयुक्त पहल

‘जब हम युवा थे तो कहा जाता था कि किसी सुदूर गांव में किसी झोंपड़ी में दिया या लालटेन जल रही हो, कोई नौजवान पढ़ रहा हो तो वह राहुल को पढ़ रहा होगा। या उसके इर्द-गिर्द राहुल साहित्य होगा। एक दौर था जब पूरे हिन्दी में राहुलजी सबपर छाये हुए थे। उन्होंने उत्साहित किया पूरे हिन्दी समूह को। हमलोगों ने उन्हें देखा नहीं, लेकिन उनके प्रभाव को नजदीक से ग्रहण किया।

ये बातें हिन्दी चिंतक प्रेमकुमार मणि ने कर्पूरी ठाकुर सभागार, पटना में राहुल सांकृत्यायन की 121वीं जयंती समारोह में बतौर विशिष्ट अतिथि अपने संबोधन में कही। कला संस्कृति एवं युवा विभाग एवं पटना संग्रहालय की संयुक्त पहल पर आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यता सुभाष शर्मा ने की। इस मौके पर खगेन्द्र ठाकुर, अरुण कमल, राहुल जी के पुत्र जेता सांकृत्यायन एवं विजय कुमार चौधरी ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

प्रेमकुमार मणि ने आगे कहा कि बोल्गा से गंगा, तुम्हारी क्षय हो, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दर्शन-दिग्दर्शन जैसी कितनी ही चीजें थीं, जिनसे हिन्दी समाज ने एक नई उर्जा पाई। उन्होंने कहा कि राहुल जी ज्ञान व्याकुल थे। आजमगढ़ के पिछड़े हुए गांव पन्दाहा में नाना के घर उनका जन्म हुआ। नाना सेना में साहब के साथ यात्राएं किया करते थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई एक मदरसे से आरंभ की थी। घूमना उन्होंने अपना धर्म बना लिया। वैचारिक सनातन मठ के स्वामी केदार पांडे, रामउदार साधू बने फिर  आर्य समाजी। 1930 में बौद्ध बने। 1936 में कार्यकर्ता की धज धारण की। फिर कम्युनिस्ट बनते हैं, ऐसे कम्युनिस्ट बनते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी उसे पचा नहीं पातीं। आधुनिक युग के इस तपस्वी ने संस्कृत, पालि और अनेक विदेशी भाषाएं सीखीं। मानव समाज को किसी राष्ट्रीयता, गांव या खंड में बांटकर नहीं देखा। पूरी दुनिया को एक परिवार माना। हमने हजारीबाग जेल में देखी थी उनकी मेज। जिसपर 12-12 घंटे खड़े होकर वह काम करते थे। दर्शन-दिग्दर्शन कौन लिख सकता है? रशेल की दर्शन की किताब में पश्चिम दर्शन है, लेकिन राहुल जी की पुस्तक उससे आगे जाकर पूरब और पश्चिम का समुच्चय प्रस्तुत करती है। उन्होंने कहा कि जर्मन आइडियोलॉजी का संबंध भारतीय ज्ञान परंपरा से बनता है। राहुलजी ने धर्मकीर्ति और दिग्नाग को याद किया। उनके कई लेखों और पुस्तकों में धर्मकीर्ति की यह पंक्ति उद्धृत की जाती रही है। धर्मकीर्ति इंडोनिया के थे 660 में उनका निधन हो गया। उन्होंने वेदों को प्रमाण मानने, ईश्वरवाद में विश्वास करने, जातिवाद का अवलेप धारण करने, स्नान में धर्म की कामना, पाप को खत्म करने के लिए शरीर को कष्ट देने का विरोध किया। लेकिन यह कैसी विडंबना है कि हम धर्मकीर्ति के शिष्य के शिष्य के षिष्य शंकराचार्य को लेकर झूम रहे हैं।

कवि अरुण कमल ने कहा कि राहुलजी की सारी यात्राएं उनके जीवन में घर से भागने से शुरू होती है। उनके नाम यात्रा की तरह ही जीवन और विचारयात्रा के भी विभिन्न पड़ाव हैं। उनका पहला नाम केदारनाथ पांडेय था। वैरागियों के संपर्क में आये तो रामउदार दास हो गए, स्वामी हुए आर्य समाज के प्रभाव में आये लिखने लगे तो गोत्र के हिसाब से रामउदार सांकृत्यायन हो गए। गोत्र का ख्याल आया तो नाम पड़ा राहुल सांकृत्यायन। कम्युनिस्ट हुए तो कॉमरेड राहुल सांकृत्यायन हो गए। काषी के पंडितों की सभा हुई तो उन्हें महापंडित की उपाधि दी गई।

श्री कमल ने कहा कि 4 खंडों की उनकी जीवन यात्रा देश समाज को देखने की एक अलग दृष्टि देती है। आदमी क्यों दुखी है, इसे कैसे दूर किया जा सकता है? संन्यासी, वैरागी क्यां होते हैं अभी भी खत्म क्यों नहीं होते, कौन-सी वृत्ति है जो उन्हें ऐसा करने को प्रेरित करती है आदि कई सवाल राहुल बुद्ध की तरह ऐड्रेस कर रहे थे। उन्होंने अलग तरीके से मार्क्स, बुद्ध और यहां की संत परंपरा को आत्मसात किया। वे बहुत से सवाल अपनी परंपरा से करते हैं। उन्होंने कहा कि गोपीनाथ कविराज, रामवतार शर्मा और राहुल ने भारतीय समाज को अलग तरीके से समझा। राहुल ने परमार्थ दर्शन लिखी। यह वेद वेदांत की समस्त परंपरा का बहुत बड़ा खंडन था। ज्ञान की पिपासा उन्हें श्रीलंका ले गई, जहां वे बौद्ध बने। वहां उन्हें सब कुछ मिला। लेकिन जीवन को बदलने का सामूहिक उपक्रम नहीं मिला। उनका मध्यममार्ग वैरागियों के प्रपंच को देख चुका था। भारतीय राजनीति में उन्होंने कांग्रेस से जुड़कर काम किया। बिहार सोशलिस्ट पार्टी, बिहार कम्युनिस्ट पार्टी और किसान सभा की स्थापना में वे शामिल रहे। प्रलेस, हिन्दी साहित्य सम्मेलन आदि से जुड़े। हर समाज में वे रहे। उनका जीवन ही सन्देश है।

आलोचक खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि भागलपुर के सुल्तानगंज स्थित बनैलीगढ़ में राहुल जी 3 माह ठहरे थे। यह सन 1933  का साल था, जब वहां से शिवपूजन सहाय के संपादन में ‘गंगा’ पत्रिका निकला करती थी। ‘गंगा’ के पुरातत्व विशेषांक की तैयारी चल रही थी। इसी काम के लिए राहुलजी लाये गए थे। बाद में वहां लोगों ने राहुल नगर बसाया। कमला जी उस मुहल्ले को देखने आयीं। श्री ठाकुर ने कहा कि राहुल जी के दर्शन का अवसर मुझे नहीं मिला। लेकिन उनके दार्जिलिंग स्थित कचहरी रोड आवास मैं गया। वे मसूरी में बसना चाहते थे, लेकिन कमला जी को वहीं अध्यापकी मिली सो वह वहीं रह गईं। अंतिम बार 1958 में राहुल जी पटना आये। लेकिन मैं उनसे मिल न सका। अमवारी में उन्होंने किसानों के लिए सत्याग्रह किया। किसानों की ओर से ईख काटने के लिए गए। ईख काटने के लिए जैसे ही हशिया चलाया उनके उपर बरछे की बार की गई। इसी को लक्षित करते हुए कवि मनोरंजन ने लिखा-

‘राहुल के सर से खून गिरे
फिर क्यों न यह खून उबल उठे?
साधू के शोणित से फिर क्यों
सोने की लंका जल न उठे?’

खगेंद्र ठाकुर ने कहा कि राहुल जी की जीवन यात्रा विचार यात्रा भी है। उनकी यात्रा वैष्णववाद से शुरू होती है। धार्मिक, वैचारिक मान्यता से वे वैष्णव हैं। डेढ़ सौ छोटी बड़ी पुस्तकें हैं उनकी। उनके बारे में शिवपूजन सहाय का कहा याद आता है कि राहुल जी को देखकर ऐसा लगता है कि वेद, पुराण सब एक ही आदमी ने लिखी होगी। राहुलजी ने कहा है कि मैं जीवन में क्षण-क्षण का तो नहीं लेकिन मिनट-मिनट का हिसाब दे सकता हूं। हमलोग तो प्रतिदिन का भी हिसाब नहीं दे सकते। 1935 में वे रूस गए। वहां ढाई साल रहे। 1939 में विजया दशमी के दिन 17 लोगों के साथ मिलकर कम्युनिस्ट पार्टी बिहार की स्थापना की। उन्होंने माना कि संपूर्ण भारतीय मनीषा का प्रतिनिधित्व राहुलजी ही करते हैं। खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी ने राहुल जी को पार्टी से निकाला नहीं था। बल्कि उनकी पार्टी सदस्यता का रिन्यूअल नहीं किया था। हुआ यूं था कि हिन्दी सम्मेलन मुम्बई में आयोजित किया गया था जिसमें अपने पर्चे में राहुल जी ने अंग्रेजी के वरअक्स हिन्दी उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं को रखने की बात कही थी। इसपर पार्टी ने उन्हें उर्दू को हटाने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि इस आषय का पर्चा लोगों में बंट गया है इसलिए उचित नहीं होगा। दूसरे दिन पार्टी ने आग्रह किया कि वे मंच से स्वीकार कर लें कि यह उनकी अपनी राय है पार्टी की नहीं। लेकिन उन्होंने यह भी नहीं किया। पार्टी ने उन्हें निकाला नहीं, लेकिन 1955 में उनकी सदस्यता रिन्यूअल कर दी गई।

विकास आयुक्त सुभाष शर्मा ने राहुलजी के बारे में लंबा विवेचनात्मक पर्चा पढ़ा। कहा कि वे एकमात्र विद्वान हैं जिन्हें महापंडित के रूप में जाना गया। हिन्दी की वकालत के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें निकाल दिया। आकाशवाणी में उन्हें कई बार बुलाया गया। वहां जाने से इसलिए इनकार किया कि अनुबंध तब अंग्रेजी में छपे होते थे। उन्होंने 36 भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इनमें से 3 भाषाएं शिक्षकों से सीखी बाकी सभी खुद के प्रयत्नों से। उन्होंने हिन्दी के ज्ञात साहित्येतिहास को दौ सौ वर्ष पहले का सिद्ध किया। सरहप्पा के दोहों को संगृहीत किया। उन्होंने कहा कि इतिहास को इतिहासकारों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि राहुलजी की एशिया का इतिहास प्रोफेशनल इतिहासकारों से भिन्न है। उन्होंने तिब्बत से 17 खच्चरों पर लादकर बौद्ध धर्म से संबंधित कई महत्वपूर्ण दस्तावेज लादकर लाये और उसे पटना म्यूजियम में संरक्षित करवाया। यह दुष्कर कार्य था जिसे उन्होंने संभव कर दिखाया। उन्होंने कई देशों का भ्रमण किया। लोकभाषाओं के महत्व को उचित मान दिया। भोजपुरी के तमाम रूपों की भी बहुत गहरी व्याख्या की है। 9 नाटक भोजपुरी में लिखे। अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को स्थान दिलाने का संघर्ष करते रहे।

विजय कुमार चौधरी ने कहा कि राहुल जी का पूरा लेखन भारतीय परंपरा में निहित था जो उनके अपने ही जीवनानुभवों से सिंचित हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य समाज से भी वे जुड़े। जो स्वयं विरोधाभासों से भरा था। वहां पाखंड था, कर्मकांड था। वह पुराने ग्रंथों में आधुनिकता को ढूंढता है। बुद्ध को उन्होंने महामानव कहा। कहा कि ‘22वीं सदी’ में वे मार्क्स का स्थूल प्रजेंटेशन करते हैं। वे ऐसे लेखकों में थे जिन्होंने हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा को खुलकर प्रकट किया। वे निरंतर विचारों की यात्रा में लगे रहे। अपने को लगातार चैलेंज में लेते रहे।

राहुल सांकृत्यायन के पुत्र जेता सांकृत्यायन ने स्लाइड के जरिये राहुलजी के जीवनक्रम से जुड़े बहुत सारे दुर्लभ फोटोग्राफ और जानकारियां साझा की। उन्होंने राहुलजी के किशोर वय से अंतिम वय तक के ढेर सारे चित्र और विविध घटना संदर्भों की व्याख्या की। सन 1930 से 1963 तक के अनेक संदर्भों को समेटती इन छवियों के माध्यम से राहुलजी जीवंत हो उठे। मसूरी,कुमाउ, नालंदा, कानपुर, अमवारी, दार्जिलिंग, रूस, तिब्बत, नालंदा, श्रीलंका आदि कई जगहां की इन तस्वीरों में उनके जीवन की तरह की वैविध्य नजर आई। कहीं कुमाउ षैली के कुर्ते में हैं तो कहीं, नालंदा बौद्ध भिक्षुओं के साथ छाता लिए। कहीं बौद्ध धर्म का चीवर त्याग संघर्ष को उद्धत हैं। कहीं अध्ययन कक्ष में हैं तो कहीं किसान संघर्ष के मोर्चे पर डंटे हैं। निराला और नेहरू के साथ भी एक अलग दीप्ति के साथ उनकी छवि दीप्त होती दिखी। जेता ने कहा कि यात्रा से कैसे जीवन बनता है इसकी वे मिषाल हैं। प्राचीन आर्य की तरह लगते हैं वे। उन्होंने गरीबी देखी थी, गांव में जन्में थे। आर्य समाज से बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद की अपनी यात्रा में उन्होंने समाज को बहुत कुछ दिया।

उन्होंने कहा कि 1960 में श्रीलंका में दर्षन के आचार्य और डीन का दायित्व संभाला किंतु भारत के किसी वि.वि. ने उनकी प्रतिभा का उपयोग नहीं किया। उन्होंने दो खंडों में तिब्बती हिन्दी शब्दकोष की रचना की जिसके प्रथम खंड का प्रकाषन साहित्य अकादेमी दिल्ली ने किया। उन्होंने तिब्बती संस्कृत कोष की भी रचना की। 1959 में जब उन्हें मध्य एशिया का इतिहास पुस्तक के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान देने की घोषणा की गई तो आरंभ में उन्होंने उसे लेने से इनकार किया। कहा कि झुककर सम्मान नहीं लूंगा लेकिन मां और अंततः पार्टी के कहने पर उसे स्वीकार किया, लेकिन झुककर नहीं। उनके साहित्य का विशिष्ट परिचय उनकी अप्रतिम इतिहास दृष्टि में है। हमलागों ने उनकी स्मृति में एक स्तूप खड़ा किया गया। उनकी चीजों को संरक्षित करने की कोशिश करता रहा, लेकिन यह प्रयास अकेले परिवार के बूते संभव नहीं है। सरकार आये तो उसको बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि धर्मकीर्ति पर बहुत सारा काम हुआ है। राहुल जी ने तिब्बत से उनपर बहुत सारी सामग्री लाई थी जो पटना म्यूजियम में रखी है इसपर नई रोशनी में शोध की जरूरत है।

संपर्कः अरुण नारायण, प्रश्न शाखा, बिहार विधान परिषद्, पटना-800015 मोबाइल 8292253306