वर्जिन : जयप्रकाश कर्दम की कहानी (आख़िरी क़िस्त)

 जयप्रकाश कर्दम

  घर के बाहर लड़कों का जमावड़ा, शोर और दरवाजा खटखटाने का अर्थ सुनीता की मां समझती थी। इसलिए जब भी शोर कुछ अधिक होता या दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनायी देती, उनका मन बाहर जाकर उन लड़कों की ख़बर लेने को मचलने लगता। लेकिन स्वयं उठकर दरवाज़े तक न जा पाने की लाचारी के कारण वह अपने मन को मसोस कर रह जाती थीं। और अपनी बेटी की जिस सुंदरता पर वह बहुत नाज़ करती थी अब उसकी ओर असहाय दृष्टि से देखती हुई मन ही मन यह बुदबुदाती थी-‘भगवान किसी ग़रीब के झोंपड़े में इतनी सुंदरता न दे कि सुंदरता ही जान की दुश्मन बन जाए। और यदि सुंदरता दे भी तो उसकी हिफ़ाज़त के लिए घर में दो-चार मर्द ज़रूर दे।’ जब दरवाज़ा खटखटाना कुछ ज़्यादा ही हो गया तो सुनीता की मां ने अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे ही अपनी पूरी ताक़त से आवाज़ देनी शुरू कर दी, ‘अरे कौन कुत्ता है ये जो बार-बार दरवाज़े पर अपनी थूँथडी मार रहा है।’ सुनीता की मां की यह आवाज़ सुनने के बाद कुछ देर के लिए दरवाज़ा खटखटाना बंद हो जाता था।

     ज़ोर से बोलने में बहुत ऊर्जा ख़र्च होती थी। इससे उनकी सांसें उखड़ जाती थीं और वह निढाल सी हो जाती थीं। तब सुनीता उनकी कमर को सहलाकर उनकी साँसों को संयत करने की कोशिश करती हुई उनको समझाती, ‘तुम इतनी ज़ोर से मत चीख़ो मां। तुम्हारी तबीयत बिगड़ जाएगी।’

    बहुत ज़्यादा बोलना उनके लिए वैसे भी सम्भव नहीं था। अत: अपने बच्चों को ही समझाते हुए वह बोली, ’अब तुम में से कोई भी जाकर दरवाज़ा मत खोलना, चाहे कोई भी हो।’ उनका स्वर पीड़ा में डूबा हुआ था और उनके शब्दों में चिंता और सतर्कता का मिश्रित भाव था।

       ‘ठीक है माँ। हम अब दरवाज़ा नहीं खोलेंगे।’ सुनीता ने उनको आश्वस्त करते हुए कहा।

       दरवाज़ा खटखटाने पर किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया मिलनी बंद हो गयी तो धीरे-धीरे दरवाज़ा खटखटाना बंद हो गया। लेकिन लड़के अभी भी वहां बैठते या घूमते रहते थे। कुछ लड़के उसके घर की दीवार पर चाक से बड़े-बड़े अक्षरों में ‘आई लव यू सुनीता’ भी लिख देते थे। सुनीता की ओर से विरोध में कोई प्रतिक्रिया न पाकर और मौहल्ले में कहीं से भी उसके समर्थन में कोई आवाज़ उठती नहीं देखकर लड़कों का मनोबल बहुत बढ़ गया था। एक दिन किसी लड़के ने मोटे-मोटे अक्षरों में दीवार पर लिख दिया ‘सुनीता, तुम इतनी ख़ूबसूरत हो, तुम्हारी वो भी कितनी सुंदर होगी।’

सुनीता और संजय जब सुबह को स्कूल जाने के लिए घर से बाहर निकले और दीवार पर ये शब्द लिखे देखे तो सुनीता का दिल दहल कर रह गया। शर्म और क्रोध से वह ज़मीन में गड़ सी गयी। छठी कक्षा में पढ़ने वाला संजय अभी बहुत छोटा था और इस तरह की परिस्थितियों का सामना करने की स्थिति में नहीं था। लेकिन ये शब्द पढ़ते ही उसका ख़ून खोल उठा और वह ग़ुस्से में भरकर बोला, ‘किस कुत्ते ने लिखा है यह। ख़ून कर दूँगा साले का।’

      सुनीता ने अपने दुपट्टे से दीवार पर लिखे उन शब्दों को मिटाया और संजय को चुप कराते हुए उसका हाथ पकड़कर आगे की ओर बढ़ते हुए बोली, ‘चल, स्कूल चल।’

       अशोक ने भी यह सब देखा तो ग़ुस्से से उसका शरीर भी फड़कने लगा। ‘कितने घटिया लोग हैं। क्या उनके परिवार में लड़कियाँ नहीं हैं?’

       सुनीता, लड़कों द्वारा उसके साथ की जा रही बदतमीज़ी और बदनामी से वैसे ही अंदर से काफ़ी दुखी थी, इस बात को तूल देकर वह और किसी तरह का बखेड़ा खड़ा नहीं करना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि अशोक इस बारे में कुछ भी कहे। इससे लोगों को उसके ख़िलाफ़ बात बनाने का एक और मौक़ा मिल सकता था, जिससे उसकी फ़ज़ीहत होने के अलावा और कुछ होने की सम्भावना नहीं थी। इसलिए उसने अशोक को भी शांत करते हुए कहा, ‘सब के घर में बहन-बेटियाँ होती हैं और अपनी बहन-बेटियों की इज़्ज़त-आबरू की परवाह और चिंता भी सबको होती है। लेकिन दूसरों की बहन-बेटियाँ सबको गर्म मास का टुकड़ा लगती हैं। और जिसकी पीठ कमज़ोर हो उस पर हर कोई सवारी गाँठना चाहता है। किस-किस के मुँह लगोगे, किस-किस से लड़ोगे। सारा समाज ही ऐसा है।….. और दलित होना तो और भी बड़ा अभिशाप है इस धरती पर। हर कोई फोकट का माल समझता है।…….. तुम स्कूल चलो। इस सब पर सोचते रहोगे तो स्कूल को देर हो जाएगी।’

     कभी घर की दीवार और कभी सुनीता के चहरे की ओर देख अशोक आश्चर्य से मन ही मन सोचने लगा ‘इतनी बड़ी बात पर भी उसे ग़ुस्सा नहीं आ रहा है और ना ही उसके चेहरे पर कोई तनाव दिखाई दे रहा है। एकदम शांत बनी हुई है। कैसी लड़की है यह। यह हाड़-मास की बनी है या किसी पत्थर की बनी है, जिसके अंदर कोई संवेदना नहीं है।’

सुनीता ने अशोक के चहरे को देखकर यह भांप लिया था कि उसके मन में उथल-पुठल मची है। इससे पहले कि वह कुछ बोल पाता उसकी बाँह पकड़कर आगे की ओर ठेलते हुए सुनीता बोली, ‘चल ना जल्दी से …….।’अशोक हैरत से उसके चेहरे की ओर देखते हुए बिना कुछ कहे आगे की ओर बढ़ गया था।

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     सुनीता स्कूल आ अवश्य गयी थी किंतु उसका मन पढ़ाई में बिलकुल भी नहीं लग रहा था। क्लास के दूसरे बच्चों की हँसी-मज़ाक़ में भी वह शामिल नहीं हो रही थी। कक्षा में क्या हो रहा था, उस ओर उसका कोई ध्यान नहीं था। बच्चे आपस में क्या बात कर रहे थे, कक्षा में कोई अध्यापक कब आया और कब गया, किसने क्या पढ़ाया या नहीं पढ़ाया, उसे कुछ पता नहीं था। पत्थर की बुत सी बनी वह स्वयं में ही खोयी हुई थी। तरह-तरह के विचारों का प्रवाह उसे उद्विग्न कर रहा था। उसका मन, मस्तिष्क और आँखें उसके घर, मां-भाई और ख़ुद पर अटकी हुई थी। कोई छात्र या छात्रा कभी उससे कुछ कहता या कोई बात करने की कोशिश करता भी तो वह केवल हाँ-हूँ, में जवाब देकर फिर से स्वयं में खो जाती थी। उसने कक्षा में किसी को पता नहीं चलने दिया, लेकिन अपनी परेशानियों और भविष्य की आशंकाओं को लेकर वह सारा समय तनाव से घिरी रही। स्कूल से घर आते समय भी वह तनाव से ग्रस्त थी, किंतु अशोक के साथ बोलते-बतियाते वह घर आ गयी थी।

     सुनीता के मुँह से स्कूल न जाने की बात सुनकर अशोक हतप्रभ था। उसके मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था कि ‘कल तो सुनीता को ठीक-ठाक उसके घर के दरवाज़े तक छोड़ा था। तब तक तो उसने ऐसी कोई बात नहीं की थी और ना ही ऐसा कोई संकेत दिया था कि वह आज स्कूल नहीं जाएगी। फिर उसके बाद ऐसी कौन सी बात हो गयी कि वह स्कूल नहीं जा रही हैं?’

      अशोक को सुनीता की मां द्वारा जीवन के व्यावहारिक और तीक्षण अनुभवों के ताप से कही गयी बात अच्छी लग रही थी। उससे भी अधिक उसे उनके मुँह से अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लग रहा था। सुनीता को लेकर उसकी मां के शब्द गहरे दर्द में डूबे थे। वह उनके दर्द को महसूस कर रहा था। लेकिन उनकी बात पर किस तरह वह अपनी प्रतिक्रिया दे, क्या कहे, यह वह नहीं समझ पा रहा था। बिना कुछ शब्द बोले उसने कुछ क्षण उनके चहरे की ओर देखा और फिर ‘क्या कहें आंटी’ कहकर चुप लगा गया। 

      माँ से मिलवाने के बाद सुनीता ने अशोक को परदे के दूसरी ओर अपनी जगह पर लाकर बैठाया और चाय का प्याला उसके हाथों में थमाते हुए बोली, ‘लो चाय पीयो।’

      अशोक ने देखा सुनीता के हाथ में चाय का केवल एक ही प्याला था। उसने जिज्ञासावश पूछा, ‘केवल मेरे लिए? तुम्हारा प्याला कहाँ है?
’‘केवल एक कप चाय ही बनायी थी। सिर्फ़ तुम्हारे लिए।’ सुनीता के बुझे से स्वर में कहा।
‘और तुम? तुम नहीं पियोगी चाय?’ अशोक ने अपने शब्दों पर ज़ोर देते हुए पूछा।
‘नहीं, मेरा मन नहीं है।’ कहते हुए वह अशोक के पास में बैठ गयी।
‘और आंटी?……वह भी नहीं पियेंगी चाय?’

      उनकी बातचीत के शब्द परदे के दूसरी ओर बैठी सुनीता की मां के कानों में भी जा रहे थे। इससे पहले कि अशोक के प्रश्न के जवाब में सुनीता बोल पाती, वह बोली, ‘मैं तो चाय-नास्ता सब कर चुकी हूँ बेटा! मेरा तो अब दवाई का टाइम हो रहा है। मैं तो बस दवाई खाकर लेटूँगी। तुम पियो।’

अशोक से इतना कहकर उन्होंने सुनीता को आवाज़ लगायी, ‘सुनीता, मुझे दवाई खिला दे बेटी। बस यह काम और कर दे, फिर मैं लेट जाऊँगी। तुम लोग अपनी बात करते रहना, मैं बीच में तंग नहीं करूँगी तुमको।’

      ‘हाँ मां, अभी देती हूँ।’ यह कहते हुए सुनीता ने मां के पास जाकर उनको दवाई खिलायी और उनको बिस्तर पर लेटाते हुए बोली, ‘यह लो…… अब तुम आराम करो मां।’

हाथ में चाय का प्याला पकड़े हुए अशोक भी वहाँ आ गया था। सुनीता, मां को बिस्तर पर लेटाने लगी तो अशोक ने उसे टोका, ‘अरे, अभी तो आंटी को बैठाया था तुमनेऔर अभी फिर से लिटा रही हो। कुछ देर तो बैठने दो उनको।’

      ‘मां बहुत देर तक बैठ नहीं पाती हैं। उनकी सपाइन पर ज़ोर पड़ता है। थोड़ी देर में ही उनकी कमर दुखने लगती है। इसलिए उनको थोड़ी देर के बाद ही लेटना पड़ता है। यह भी एक समस्या है मां के साथ।’ यह कहते हुए सुनीता ने मां को बिस्तर पर लेटाया और अशोक के साथ परदे के दूसरी आकर बैठ गयी।

      कुछ देर तक वे दोनों मौन बैठे एक-दूसरे की ओर देखते रहे। बीच-बीच में अशोक चाय के घूँट लेता रहा। बात कैसे और कहाँ से शुरू करे, यह सोचकर सुनीता स्वयं को कुछ असहज महसूस कर रही थी। कभी अशोक की ओर और कभी इधर-उधर देखने लगती थी, लेकिन मुँह से कोई शब्द नहीं बोल पा रही थी। मौन कब तक बैठे रह सकते थे। आख़िर अशोक ने मौन को तोड़ा और चाय का आख़िरी घूँट पीते हुए बोला, ‘अब बताओ क्या हुआ है? क्यों स्कूल नहीं गयी तुम आज?’

      ‘बात केवल आज की नहीं है अशोक। बल्कि अब कभी भी मेरा स्कूल जाना सम्भव नहीं  लगता है।’ सुनीता का स्वर निराशा से भरा था।

      ‘क्यों? ऐसी निराशाजनक और हिम्मत हारने वाली बात क्यों ख रही हो तुम।’ अशोक ने उसका उत्साहवर्धन करते हुए कहा।

      ‘मैं कितनी विकट परिस्थितियों का सामना करते हुए स्कूल जा रही हूँ, यह तुम अच्छी तरह समझते हो। मेरे अंदर किसी तरह की निराशा नहीं है। मैं पढ़ना चाहती हूँ। लेकिन परिस्थितियाँ मुझे घर से बाहर क़दम नहीं रखने को विवश कर रही हैं। मैं क्या करूँ?’ सुनीता अपनी विवशता व्यक्त करते हुए बोली।

       ‘मैं जानता हूँ तुम एक धैर्यवान और बहाद्दुर लड़की हो। प्रतिकूल परिस्थितियों में जितना संघर्ष तुम कर रही हो, यह हर कोई नहीं कर सकता। कोई और लड़की होती तो कभी की हिम्मत हार गयी होती। लेकिन तुमने हार नहीं मानी है। यह कम बड़ी बात नहीं है। अभाव, उत्पीड़न सब कुछ सहते हुए भी तुम अभी तक सारी परिस्थितियों का सामना हिम्मत और दृढ़ता से करते हुए स्कूल जाती रही हो। फिर आज ऐसा क्या नया हो गया है जिसने तुमको स्कूल नहीं जाने के लिए विवश कर दिया है?’ अशोक ने उसकी विवशता को जानने की कोशिश करते हुए पूछा।

     अशोक के इस प्रश्न पर सुनीता अत्यधिक गम्भीर और गमगीन हो गयी थी। उसकी ज़िव्हा और चेहरे पर सहसा एक मौन सा पसर गया था। उसकी आँखें नम हो आयी थीं। उसका मौन और नम आँखें उसके दर्द की कहानी बयान कर रही थीं। अशोक को समझते देर नहीं लगी कि हो न हो सुनीता के साथ कोई गम्भीर हादसा हुआ है, जिसने उसकी हिम्मत को तोड़ दिया है। उसने हाथ में पकडा चाय का प्याला एक ओर रखा और सुनीता के हाथों पर अपने हाथ रख, उसको हिम्मत बँधाता हुआ बोला, ‘तुम चुप क्यों हो सुनीता? बतलाओ ना क्या हुआ है तुम्हारे साथ। देखो, हिम्मत मत हारो और घबराओ मत। चाहे जो भी हुआ हो या होने का डर हो, अपने अंदर मत रोको, बताओ। हिम्मत और धैर्य से किसी भी समस्या और चुनौती से पार पाने का रास्ता अवश्य ढूँढा जा सकता है।’

      अशोक के इन शब्दों से सुनीता को थोड़ी सांत्वना और बल मिला। उसने पलकों में आ गए आँसुओं को अपने दुपट्टे के पल्लू से साफ़ किया और अशोक के हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख उसकी ओर देखते हुए बोली, ‘कल शाम के समय संजय अपने दोस्तों के साथ बाहर खेलने गया हुआ था। मैं रात के लिए खाना बना रही थी। सब्ज़ी का भगोना स्टोव पर चढाया तो ध्यान आया कि घर में नमक नहीं है। नमक के बिना सब्ज़ी नहीं बन सकती थी। संजय का कब तक इंतज़ार करती। यह सोचकर कि दो मिनट की ही तो बात है, मैं तुरंत स्टोव बंद कर नमक लाने के लिए पास की दुकान की ओर चल दी। दुकान से नमक लेकर घर लौट रही थी कि अचानक गली में आ रहे सत्ते पहलवान ने सामने खड़े होकर मेरा रास्ता रोक लिया।’

     सत्ते पहलवान का नाम सुनते ही अशोक भी क्षण भर को भय से अंदर तक काँप उठा। लेकिन शीघ्र ही स्वयं को सहज बनाकर उसने आश्वस्ति के लिए सुनीता से पूछा, ‘कौन सत्ते पहलवान? वह जो शहर का सबसे बड़ा गुंडा है? जिस पर लूटपाट, रंगदारी, हत्या, अपहरण और बलात्कार के बहुत सारे मुक़दमे चल रहे हैं? और जो कई बार जेल हो आया है?’
 ‘हाँ, वही, सत्येंद्र ठाकुर उर्फ़ सत्ते पहलवान।’ कहते हुए सुनीता ने हामी में सिर हिलाया।
‘वह तो बहुत ख़तरनाक आदमी है। ……. लेकिन तुमको क्या पता कि वह सत्ते पहलवान ही था? तुम कैसे पहचानती हो उसे?’

    ‘शहर में कौन नहीं पहचानता सत्ते पहलवान को। आए दिन अख़बारों में उसकी फ़ोटो छपती रहती हैं किसी न किसी अपराध की ख़बर के साथ। कभी-कभी राजनीतिज्ञों के साथ भी उसकी फ़ोटो छपती रहती है, अख़बारों और पोस्टरों में। तुमने भी तो कई बार देखी होंगी उसकी फ़ोटो?’

       सुनीता के यह बताते ही लम्बा क़द, भारी-भरकम डील-ड़ोल, पेचदार मूँछों और मोटी-मोटी लाल आँखों वाले सत्ते पहलवान का ख़ूँख़ार चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया और वह सोचने लगा ‘सुनीता सही कह रही है। वही क्या, शहर का कोई भी आदमी देखेगा तो तुरंत पहचान लेगा कि यह सत्ते पहलवान है।’  

पेंटिंग मानल दीव

       ’हाँ, यह बात तो है’ कहकर कुछ क्षणों के लिए वह ख़ामोश हो गया और उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभर आयीं। वह सोचने लगा ‘सत्ते पहलवान जैसे भेड़िए के चंगुल से बच निकलना आसान नहीं है। या तो उसकी बात मानकर, उसके इशारों पर नाचकर या फिर अपनी जान देकर ही कोई उसके चंगुल से मुक्त हो सकता है, वरना नहीं। क्या होगा सुनीता का अब? वह भेड़िया उसे खाए बिना नहीं छोड़ेगा। तनिक भी चूँ की तो वह सरे आम उसे अपने जबड़े में भरकर ले जाएगा और उसकी बोटी-बोटी नोंचकर खाएगा। वह चीख़ती-चिल्लाती रहेगी, अपनी रक्षा की गुहार लगाएगी। सारा मौहल्ला देखेगा, लेकिन सत्ते पहलवान के सामने आने की हिम्मत कोई नहीं कर सकेगा। ………… तब सत्ते पहलवान के चंगुल से कैसे मुक्त होगी वह?’

     अशोक को चिंतामग्न देख पहले से डरी हुई सुनीता डर से और अधिक सहम गयी। भयभीत और सहमी हुई नज़रों से उसकी ओर देखते हुए बोली, ‘क्या हुआ अशोक? किस चिंता में डूब गए तुम?’

      सुनीता के ये शब्द सुन वह विचार की दुनियाँ से बाहर आया और अपने ख़ामोशी तोड़ते हुए बोला, ‘सत्ते पहलवान के बारे में तो यह विख्यात है कि जिस चीज़ पर उसकी नज़र चढ़ जाती है, वह उसे छोड़ता नहीं है।’

      अशोक के मुँह से यह सुन सुनीता गहरे सन्नाटे में डूब गयी। भय से उसका शरीर काँपने लगा और असहाय नज़रों से वह अशोक की ओर देखने लगी।

 अपने अंदर के डर को दबाकर उसने घटना के बारे में जानने की कोशिश करते हुए सुनीता से पूछा, ’कुछ कहा सत्ते पहलवान ने तुमसे?’

‘हाँ।’ सुनीता ने डरे-सहमे स्वर में जवाब दिया।
‘क्या कहा उसने?’ सुनीता की आँखों में देखते हुए अशोक ने आगे पूछा।

        ‘बिना कुछ कहे उसने धड़धड़ाते हुए मेरा हाथ पकड़ लिया और अपने दूसरे हाथ से मेरे गालों को छूते हुए बोला तू तो सच में बहुत सुंदर है। तेरे बारे में जितना सुना था उससे भी कहीं ज़्यादा सुंदर। मुझे पता चला है कि यहाँ मौहल्ले के लड़के तुझे बहुत परेशान कर रहे हैं। दुखी-पीड़ितों की रक्षा करना मेरा धर्म है। और सत्ते पहलवान जहाँ खड़ा हो जाता है वहाँ कोई और खड़ा नहीं रह सकता। अब सत्ते पहलवान तेरी रक्षा के लिए आ गया है तो तेरे मौहल्ले के सारे गुंडे-बदमाश अपने आप अपने बिलों में घुस जाएँगे। अब तू निश्चिन्त रह, और बिना डरे कहीं भी आ-जा। परेशान करने की तो बात छोड़, अब कोई तेरी ओर नज़र उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं करेगा। तेरे साथ जो कुछ भी करेगा सत्ते पहलवान करेगा।’ इतना कहते-कहते सुनीता की आवाज़ डूबने लगी और शब्द उसके गले में अटकने लगे।

अशोक ने देखा सुनीता बहुत घबरायी हुई थी और घबराहट के कारण उसके माथे पर पसीने की बूँदें उभर आयी थीं। पास में रखे पानी के घड़े से एक गिलास में पानी लेकर सुनीता को देते हुए वह बोला, ‘लो, पहले पानी पियो।’

       सुनीता ने अपने दुपट्टे से माथे पर आए पसीने को पोंछा और दो-तीन घूँट पानी पीकर गिलास को एक ओर रख दिया। अशोक ने उसे कुछ सहज पाया तो बोला, ‘और भी कुछ कहा सत्ते पहलवान ने?’

      ‘हाँ,…..कह रहा था तू बहुत ग़रीब है और अपने परिवार को चलने के लिए बहुत कष्ट उठने पड़ते हैं तुझे। लेकिन अब आगे से तुझे कोई कष्ट उठाना नहीं पड़ेगा। तेरे लिए एक अच्छे घर की व्यवस्था कर दूँगा। कार, ड्राइवर रख दूँगा। रुपए-पैसे की भी कोई कमी नहीं रहेगी तुझे। अपनी मां और भाई के साथ निश्चिन्त होकर सुखी और शान से रहना।’ इतना कहते-कहते वह रुक गयी और अशोक की ओर देखने लगी। उसके लिए अपने मुँह से सत्ते पहलवान का एक-एक शब्द बोलना कठिन लग रहा था। वह महसूस कर रही थी जैसे वह सत्ते पहलवान द्वारा कहे गए शब्द नहीं बोल रही थी, बल्कि हर शब्द के साथ वह ज़हर का घूँट पी रही थी। और उस ज़हर के असर से वह अंदर ही अंदर निर्जीव सी होती जा रही थी। उसका मस्तिष्क और शरीर दोनों शिथिल से हो रहे थे।

सुनीता की मां:स्थिति को भाँपते हुए अशोक भी कुछ क्षण नि:शब्द उसकी ओर देखता रहा। फिर उसके मुँह से सत्ते पहलवान की पूरी बात जानने की जिज्ञासा व्यक्त करता हुआ बोला, ‘इससे आगे?’

      ‘वह बोला मैं शांतिप्रिय आदमी हूँ। मुझे हिंसा और ज़बरदस्ती पसंद नहीं है। इनका सहारा तभी लेना पड़ता है जब कोई मेरी बात नहीं माने। प्यार और अहिंसा की मेरी भाषा समझने वाले लोग मेरी बात ख़ुद ही मान लेते हैं। जो नहीं मानते हैं वे बाद में कुछ भी मानने या ना मानने के लायक नहीं रहते। तुमसे भी प्यार से कह रहा हूँ। मेरी बात चुपचाप मान लो और जब, जहाँ भी तुम्हें बुलाऊँ चुपचाप चली आना। नहीं तो………मेरा नाम सत्ते पहलवान है। इससे आगे मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, समझी…….। इतना कहकर उसने फिर से मेरे गालों को सहलाया और मेरा रास्ता छोड़कर आगे बढ़ गया।’ इतना कहकर सुनीता ने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया और सिर नीचा कर नज़रें ज़मीन पर गड़ा दीं।

       सुनीता के मुँह से यह सब सुन अशोक भी सकते की सी हालत में आ गया। उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या कहे, किस तरह सुनीता को सांत्वना दे। सुनीता के स्कूल नहीं जाने का कारण अब स्पष्ट रूप से उसकी समझ में आ गया था। असहाय दृष्टि से सुनीता की ओर देखते हुए वह गम्भीर सोच में डूब गया।

      सुनीता का मस्तिष्क जैसे ठस्स हो गया था। वह कुछ नहीं सोच पा रही थी। निर्धनता कम बड़ी चुनौती नहीं थी। किंतु निम्न जातीय होना उसके और उसके परिवार के लिएनिर्धनता से भी बड़ी चुनौती और अभिशाप था। जिस सुंदरता को वह अपना एक बड़ा सुखद पक्ष समझती थी और उसकी मां बहुत गर्व से यह कहती थी कि एक से एक अच्छा लड़का मिल जाएगा मेरी सुनीता को शादी के लिए। उसके रिश्ते के लिए मुझे किसी के पास जाने की ज़रूरत नहीं है, लड़के वाले ही मेरे पास आएँगे मेरी बेटी का हाथ माँगने। उसकी वह सुंदरता ही एक दिन उसके लिए इतना बड़ा अभिशाप बन जाएगी, ऐसा उसने कभी किसी बुरे से बुरे सपने में भी नहीं सोचा था।

      बहुत देर तक उसी तरह मौन में डूबे रहने के पश्चात सुनीता ने अपनी गर्दन ऊपर उठायी और अशोक की ओर देखती हुई बोली, ‘मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ। ख़ुद को और अपने परिवार को कैसे बचाऊँ। कल रात से मैं बहुत परेशान हूँ। मेरे मन में एक विचार यह भी आया है कि मैं रात के अंधेरे में मां और भाई को लेकर चुपचाप इस शहर से कहीं दूर चली जाऊँ। लेकिन जाएँगे कहाँ? कौन सहारा देगा हमको? और जब यह पता चलेगा कि हम सत्ते पहलवान से बचने के लिए छिपते फिर रहे हैं तो कोई चाहकर भी सहारा नहीं देगा। और सत्ते पहलवान का साम्राज्य भी तो दूर-दूर तक फैला है। उसके लोग सब जगह हैं। वह हमें ज़रूर ढूँढ निकालेगा और फिर……. मेरा जो होगा वो मैं भुगत लूँगी, लेकिन मेरी मां और मेरा भाई …….? उनके बारे में सोचकर ही मैं काँपने लगती हूँ।’

 सुनीता के विचार के प्रति सहमति में सिर हिलाते हुए वह बोला, ’सोच तो तुम सही रही हो। लेकिन, सवाल तो यह है कि यहाँ से भागकर जाओगी कहाँ तुम?’

सुनीता ने आगे बताया, ’यह भी सोचा कि पुलिस में रिपोर्ट लिखवाकर अपने लिए सुरक्षा माँगूँ। लेकिन पुलिस तो सत्ते पहलवान की जड़ ख़रीद ग़ुलाम है। सिपाहियों की तो बात छोड़िए दरोग़ा और एस.पी. तक सब उसके इशारों पर नाचते हैं। वे शायद रिपोर्ट भी नहीं लिखेंगे। और डर यह भी है कि कहीं कोई कार्रवाई करने या सुरक्षा देने के बजाए पुलिस वाले ख़ुद ही………।’

सुनीता के मन की इस आशंका को समझते हुए वह बोला, ’हाँ, पुलिस होती तो ऐसी ही है। कई किस्से सुने हैं पुलिस के, जिनमें पुलिस के पास अपने शोषण और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ शिकायत लिखवाने गयी स्त्रियों के साथ पुलिस ने ही……..।’
‘तब क्या किया जाए? कुछ उपाय सोचो अशोक। हमारे पास समय बहुत कम है। जो कुछ भे करना है बहुत जल्दी करना है।’ असहाय दृष्टि से अशोक की ओर देखती हुई बोली सुनीता
‘सत्ते पहलवान तो है ही, कहीं ऐसा ना हो कि राजू भैया भी…..?…..’ कहते हुए अशोक ने दूसरी चिंता व्यक्त की.
राजू भैया का नाम सुन सुनीता आश्चर्य से अशोक की ओर देखते हुए बोली, ’ये राजू भैया कौन है? अब किसका नाम लेकर डरा रहे हो मुझे?’

राजू भैया के बारे में बताते हुए अशोक बोला, ’डरा नहीं रहा हूँ, आशंका व्यक्त कर रहा हूँ। राजन पंडित उर्फ़ राजू भैया नया बदमाश है। सत्ते पहलवान की तरह वह भी एक ख़ूँख़ार बदमाश और बड़ा भू-माफ़िया है। अंडरवर्ल्ड की दुनिया में उसने भी अपना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर रखा है और आजकल सत्ते पहलवान को चुनौती दे रहा है। राजनीति में भी उसकी बड़ी गहरी पैठ है। सुना है वह भी औरतों का बहुत शौक़ीन है और रोज़ नई-नई सुंदर लड़कियों को अपने होटल में बुलाता रहता है। जिनको वह लालच से नहीं ख़रीद पाता उनको ज़बरन उठवा लेता है।’

राजू भैया के बारे में यह सब सुन पहले से भयभीत सुनीता का भय और अधिक बढ़ गया। भयभीत स्वर में वह बोली, ’अशोक, मैं पहले ही बहुत डरी हुई हूँ। ऐसा कहकर मेरी जान मत निकलो प्लीज़।’

राजू भैया के बारे में और अधिक जानकारी देते हुए वह बोला, ’मैंने सुना है कि सत्ते पहलवान और राजू भैया दोनों एक-दूसरे के प्रबल प्रतिद्वंदी और जानी दुश्मन बने हुए हैं। कई सम्पत्तियों और स्त्रियों पर क़ब्ज़े को लेकर भी दोनों कई बार आपस में भिड़ चुके हैं। ऐसे लोगों के लिए सुंदर स्त्री सबसे बड़ी युद्ध-भूमि हो सकती है। और अब जब सत्ते पहलवान यहाँ तक आ गया है तो इसकी भनक राजू भैया को भी ज़रूर लग जाएगी और हो सकता है अब तक लग भी गयी हो। देख लेना जल्दी ही राजू भैया या उसका कोई गुर्गा तुम तक ज़रूर पहुँचेगा।’

 अशोक के मुँह से यह सब सुन सुनीता जैसे गहरे, अंधेरे कुएँ में जा पड़ी थी। वहाँ से निकलने का कोई रास्ता उसे नहीं सूझ रहा था। घबराहट से उसका दिल बैठने लगा। उसके मुँह से भी शब्द बाहर निकलने का साहस नहीं कर रहे थे। जैसे-तैसे उसने उसके मुँह से शब्द बाहर निकले, ’यदि ऐसा हुआ तब क्या करूँगी मैं? अभी तक मौहल्ले के आवारा लड़कों और सत्ते पहलवान का ही डर था, ये राजू भैया का एक नया डर बैठा दिया है तुमने। मेरा तो दिमाग़ ही काम नहीं कर रहा है, और सिर पूरी तरह चकरा रहा है। ना भूख-प्यास लग रही है और ना कुछ और सूझ रहा है।’

सुनीता को ढाढ़स बँधाते हुए वह बोला, ’तुम्हारी चिंता समझ रहा हूँ मैं। लेकिन सम्भावित ख़तरे की ओर से आँख बंद कर लेने से तो कोई बात बनने वाली नहीं है। ख़तरे का सामना तो करना पड़ेगा। …….. इन सब से निकलने का मुझे एक उपाय सूझ रहा है। शायद बहुत अच्छा नहीं है, लेकिन तुम्हारी इन परिस्थितियों से उबरने के लिए उससे उपयुक्त कोई अन्य उपाय मुझे दिखाई नहीं दे रहा है। ……….. हाँ, शायद यहाँ से कोई दूसरा रास्ता मिल जाए।’

अशोक के इन शब्दों में सुनीता को आशा की एक किरण दिखायी दी। वह उत्साहित होते हुए बोली, ’क्या सोच रहे हो तुम? क्या उपाय आ रहा है तुम्हारे मस्तिष्क में, जल्दी बताओ अशोक। मैं जल्दी से जल्दी इस चक्रव्यूह से निकलना चाहती हूँ।’

अशोक ने बताया, ’कुछ दिन पहले मैंने इंटरनेट पर एक ख़बर पढ़ी थी। ख़बर दक्षिण अमेरिका के एक छोटे से देश पेरू की थी। वहाँ भी एक लड़की तुम्हारी तरह बहुत सुंदर थी। उसके पिता की मृत्यु भी उसके बचपन में ही हो गयी थी और उसकी मां बीमार रहती थी। अपनी और परिवार की आजीविका और मां की बीमारी का ख़र्च चलाने के लिए वह लड़की पढ़ाई के साथ-साथ मोडलिंग का काम करती थी।’

अशोक की बात में अपने लिए कुछ न पाते हुए वह बोली, ’लेकिन मेरी समस्या केवल आर्थिक अभाव की समस्या नहीं है अशोक। ……… तुम तो जानते हो मेरे पिता चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे और एक सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हुई थी। बहुत कम सेलरी थी उनकी।उसमें ही परिवार की आजीविका आसान नहीं थी। पेंशन तो और भी बहुत कम आती है उनकी। बहुत मुश्किल होता है उससे परिवार का ख़र्च चलाना, लेकिन किसी तरह चला लेते है। मेरी समस्या दूसरी है ……।’

सुनीता के मन की स्थिति को समझते हुए अशोक उसे समझाते हुए बोला, ’हाँ, जानता हूँ सब कुछ। उस लड़की की समस्या भी केवल आर्थिक नहीं थी। तुम्हारी तरह उसकी असली समस्या भी उसकी सुंदरता थी। शहर के लड़कों ने परेशान कर-करके उसका जीना दूभर कर दिया था। लोग उसको तरह-तरह के ओफ़र दे रहे थे। एक तरह से उसकी बोली लगायी जा रही थी। वह भी बहुत तनाव में थी अपनी इस समस्या को लेकर।’

अशोक से यह सुन सुनीता के मन में उस लड़की के बारे में और अधिक जानने की जिज्ञासा पैदा हुई। अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हुए वह बोली, ‘तो क्या रास्ता अपनाया उसने अपनी इस समस्या से निकलने के लिए?’

अशोक ने बताया, ’गुंडों से अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखना सम्भव नहीं है, और बिकना ही एकमात्र विकल्प है तो क्यों न अपनी क़ीमत पर बिका जाए। यह सोचकर उसने एक दिन इंटरनेट पर एक विज्ञापन दे दिया कि ‘मैं अपना कौमार्य बेचना चाहती हूँ। जो भी सबसे अधिक धनराशि देगा मैं उसी को बेचूँगी।’

उस लड़की के बारे में यह सुन सुनीता संशय से भर गयी। अपने मन का संशय व्यक्त करते हुए वह बोली, ’मीडिया पर उसकी फ़ोटो गयी तो उसकी बेज्जती नहीं हुई होगी? कैसे सामना किया होगा उसने इसका?

अशोक ने बताया, ’उसने इसमें कोई बेज्जती महसूस नहीं की, बल्कि साहस से सामना किया। सोसल मीडिया पर जैसे ही उसकी ख़बर और फ़ोटो वायरल हुई वह सबसे हॉट ख़बर बन गयी। मीडिया के लोगों ने उससे सम्पर्क किया। एक मीडियाकर्मी ने उससे पूछा, ‘तुमने यह क़दम क्यों उठाया? क्या यह पैसे के लिए किया है अथवा चर्चा में आने के लिए कोई पब्लिसिटी स्टंट है ताकि उससे तुम्हें कोई बड़ा काम मिल जाए? या कोई अन्य विवशता रही है?’
‘क्या जवाब दिया उस लड़की ने?’ सुनीता ने उत्सुकता से पूछा।

        ‘उसने मीडियाकर्मी से ही पलट कर प्रश्न किया, ‘तुम यदि मेरी तरह एक सुंदर लड़की होते और तुम्हारे साथ ऐसी स्थिति पैदा होती, जैसी मेरे साथ पैदा हुई हैं तो तुम क्या करते ऐसे में, जहाँ चारों ओर आपको नोंचकर खाने के लिए भेड़िए ही भेड़िए हों और कोई रक्षा करने वाला नहीं हो।’ मीडियाकर्मी के पास उसका कोई जवाब नहीं था।’
‘फिर क्या हुआ?’

‘मीडियाकर्मी ने दूसरा प्रश्न पूछा कि यदि कोई बहुत बदसूरत, बूढ़ा या कोई ऐसा व्यक्ति जिसके शरीर से बदबू आती हो, सबसे ऊँची बोली लगाकर तुम्हारा कौमार्य ख़रीदे तो क्या तुम उसको अपना कौमार्य बेच दोगी?’
‘तो इस पर क्या कहा उसने?’ सुनीता ने अपनी जिज्ञासा व्यक्त कराते हुए कहा।
अशोक ने बताया, ’उसने कहा ‘हाँ, मैं उसको अपना कौमार्य बेच दूंगी। वह जो भी होगा, कम से कम वह एक पुरुष होगा, भेड़िया नहीं।’
‘हुम्म्म्म्म, तो तुम चाहते हो कि मैं भी उस लड़की की तरह ख़ुद को ……..?’ कहते हुए सुनीता ने प्रश्नसूचक दृष्टि से अशोक की ओर देखा।

’नहीं, मैं अपने दिल से बिलकुल नहीं चाहूँगा कि तुम ख़ुद को बेचो। लेकिन……सत्ते पहलवान भी तो तुमको ख़रीदने की ही बात कर रहा है ना? और ये तुम्हारी गली के लड़के जो तुमको तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं, ऐसा करके, एक तरह से वे भी तो तुमको ख़रीदने के लिए तुम्हारी बोली ही लगा रहे हैं।तब………? तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई व्यक्ति तुम्हारे शरीर को ज़बरन रोंदे क्या तुम यह पसंद करोगी?’ अपनी बात स्पष्ट करते हुए अशोक ने सुनीता से ही प्रश्न किया। 
सुनीता तुरंत इंकार करते हुए बोली, ’नहीं, बिलकुल नहीं।’

1959 की एक पेंटिंग

सुनीता को यथार्थ का आइना दिखाते हुए वह बोला, ’दुनियाँ के इस बाज़ार में तुम्हारा शरीर तुम्हारा अपना माल है। इससे पहले कि कोई ज़बरदस्ती तुमसे तुम्हारा माल तुमसे लूटे, यह बेहतर है कि तुम इसको किसी उचित ग्राहक को बेच दो। कम से कम इसमें पाशविक हिंसा से बचोगी, और तुम्हारे अंदर लुटने और हारने की पीड़ा नहीं, बल्कि कहीं न कहीं जीतने का अहसास होगा। …….और, एक बार तुम लुटीं तो यह कोई गारंटी नहीं है कि फिर कभी नहीं लुटोगी। वही लुटेरा या कोई अन्य लुटेरा तुम्हें फिर से भी लूट सकता है। तुम बार-बार लूटी जा सकती हो। लेकिन तुमने ख़ुद ही ख़ुद को बेचा तो यह निश्चित है कि कोई तुम्हें तब तक नहीं ख़रीद सकेगा जब तक तुम ख़ुद को बेचना नहीं चाहोगी।’

      सुनीता का मन अशोक की बात को लेकर संशयपूर्ण बना हुआ था। वह बोली, ‘यह बेचना भी तो अपनी इच्छा के विरुद्ध जाना ही हुआ। अपनी ज़िंदगी को अपनी इच्छानुसार जीने का सुख और स्वतंत्रता कहाँ है इसमें भी?’

     अशोक उसके संशय को दूर करते हुए बोला, ’हाँ, मैं तुमसे सहमत हूँ। यह भी अपनी इच्छा के विरुद्ध जाना ही है। लेकिन ख़ुद को बेचना ज़बरन लुटने और नोंचे जाने से कहीं बेहतर विकल्प है।’

     सुनीता का मन अभी भी संशयग्रस्त था। संशय में डूबे स्वर में ही उसने ‘हुम्म्म्म्म’ कहते हुए प्रशंसूचक दृष्टि से अशोक की ओर देखा। अशोक ने आगे कहा, ‘तुम्हारे सामने जिस तरह की परिस्थितियाँ बन गयी हैं, उनमें इस समय यही सर्वाधिक उपयुक्त विकल्प दिखायी दे रहा है। और यह बिना किसी दिक़्क़त या रिस्क के, बहुत सहजता से हो जाएगा। अब पोस्ट डाली और कुछ ही घंटों में दुनियाँ भर में वायरल हो जाएगी और उसके जवाब में ओफ़र आने लगेंगे। मुझे लगता है केवल कुछ दिन के अंदर ही सब कुछ हो जाएगा और तुम इन सब तनाव और दबावों से मुक्त होकर सामान्य रूप से जी सकोगी।’

      अशोक का यह विचार सुनीता को सही लग रहा था। किंतु इसके उपरांत सामाजिक  स्वीकृति और मर्यादा में बंधा उसका मन इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो पा रहा था। सामाजिक मर्यादा का हवाला देते हुए वह बोली, ‘लेकिन तुम जहाँ की बात कर रहे हो, वहाँ के समाज और हमारे यहाँ के समाज में बहुत अंतर है अशोक। यहाँ कोई लड़की ऐसा क़दम उठा ले तो उसे तुरंत वेश्या क़रार दे दिया जाएगा। और कहीं से भी मुँह उठाकर निकलना दूभर हो जाएगा उसका। और केवल लड़की को नहीं उसके समस्त परिवार को बहिष्कृत कर देंगे और ताने दे-देकर मार देंगे लोग। वह लड़की ऐसा बोल्ड क़दम उठा सकती थी, क्योंकि उसके समाज में इसकी गुंजाइश थी। हमारे समाज में यह गुंजाइश कहाँ है?’

      अशोक ने महसूस किया सुनीता के शब्दों में समाज और संस्कृति के घिसे-पिटे सदियों पुराने परम्परागत आदर्श बोल रहे थे। इस आदर्शवाद की सीलन और घुटनभरी कोठरी से बाहर निकलने का रास्ता दिखाते और उसकी चेतना में यथार्थ की खुली हवा का संचार करने की कोशिश करते हुए वह बोला, ‘क्यों नहीं है गुंजाइश? वहाँ पर भी उसी तरह के पुरुष थे, जैसे यहाँ हैं। उन पुरुषों पर भी यौन हिंसा का वैसा ही भूत सवार था। उनके लिए भी स्त्री एक शरीर थी और वे भी स्त्री को अपनी यौन-तृप्ति का साधन समझते थे। क्या अंतर है वहाँ के समाज में और हमारे समाज में? सब जगह पुरुषों के लिए स्त्री नरम और गरम मास का एक टुकड़ा है, जिसे वे चटखारे के साथ खाने को आतुर रहते हैं। …….. स्त्री का शरीर उसका अपना है। वह अपना शरीर किसको दे, पुरुष कौन होता है यह तय करने वाला। उसे किसके साथ अपने शरीर को बाँटना है और किसके साथ नहीं, इस पर सिर्फ़ स्त्री का अधिकार है। वहाँ के और यहाँ के समाज की बात नहीं है, जहाँ कहीं भी स्त्री के प्रति पुरुष का इस तरह का दमनकारी और वर्चस्ववादी दृष्टिकोण हो, वहाँ सब जगह स्त्री द्वारा अपना शरीर या कौमार्य बेचे जाने की गुंजाइश है।’

सुनीता बहुत ध्यान से अशोक की बातें सुन रही थी। अशोक के इन तार्किक शब्दों ने उसको प्रभावित किया। उसके मस्तिष्क पर छाए संशय के बादल एक-एक कर छंटने लगे थे। उसे लगा वह लड़की उसके अंदर उतर आयी है और उस लड़की की चेतना उसके अंदर प्रवाहित हो रही है। और वहएक ऐसे स्थान पर खड़ी है, जहाँ उसके चारों ओर उसके चाहने वालों की अपार भीड़ है, जिसमें हर कोई उसे पाने के लिए प्रतिस्पर्द्धा कर रहा है। किंतु हिंसा और आतंक की शक्ल में नहीं,अपितु सब के सब प्रशंसक और याचक की मुद्रा में खड़े हैं। इस अनुभूति ने उसके अंदर विश्वास का संचार किया। किंतु एक बड़ी दुविधा अभी भी उसके मस्तिष्क में बनी हुई  थी, जो उसे बहुत परेशान कर रही थी। अशोक के समक्ष अपनी दुविधा रखते हुए वह बोली, ‘लेकिन मां को पता चलेगा कि उसकी बेटी अपना कौमार्य बेच रही है तो वह तो जीते जी मर जाएगी।’

सुनीता की इस दुविधा से सहमति व्यक्त करते हुए वह बोला, ‘यह चिंता तो ठीक है तुम्हारी। लेकिन सोचो, यदि सत्ते पहलवान, राजू भैया या कोई और तुम्हारी माँ के सामने से ही तुम्हें ज़बरन उठाकर ले जाए और तुम्हारे साथ बलात्कार करे, तब वह क्या कर लेंगी? क्या तब वह जीते जी नहीं मर जाएँगी?’ यह कहते हुए उसने सुनीता की आँखों में देखा।

   अशोक के मुँह से यह सुन उसका दिल अंदर तक कांप उठा। उसके मुँह पर जैसे ताला सा जड़ गया था। पत्थर की तरह स्थित आँखों से वह अशोक की ओर देखती रह गयी। उसके मन की स्थिति को समझते हुए, अशोक ने यथार्थवादी दृष्टिकोण से सोचने का आग्रह करते हुए उससे कहा, ’सब परिस्थितियाँ तुम्हारे सामने हैं। इसलिए मां के दृष्टिकोण से नहीं अपने दृष्टिकोण से सोचो। ………यह भावुकता का नहीं, जीवन के यथार्थ और उसकी चुनौतियों का दृढ़ता से सामना करने का समय है। इसलिए भावुक होकर नहीं, ठंडे दिमाग़ से सोचो।’

      अशोक ने जिस तरह उसे यथार्थ की ज़मीन पर ला पटका था, उसे लगा अशोक सही कह रहा है। उसने महसूस किया कि सच में यथार्थ की इस चुनौती का सामना भावुक रहकर नहीं किया जा सकता। अशोक के शब्दों से उसे मानसिक बल मिला और उसने आदर्श और भावुकता से बाहर निकल यथार्थ की चुनौतियों का सामना करने के लिए मानसिक रूप से स्वयं को तैयार किया। 

      बात करते हुए अचानक दीवार में टंगी घड़ी की ओर सुनीता की दृष्टि गयी तो देखा साढे दस बज गए थे। उसे याद आया यह तो स्कूल की भी आधी छुट्टी का समय है। वह उठते हुए बोली, ‘अरे, लंच का समय हो गया। तुमको भूख लग आयी होगी। मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने को ले आती हूँ।’

 सुनीता के यह कहते ही अशोक को भी खूख और खाना याद हो आया था। वह तत्काल सुनीता की ओर देखते हुए बोला, ‘अरे हाँ, तुमने अच्छा किया याद दिलाकर।……. मैं तो भूल ही गया था। तुमने कल से कुछ नहीं खाया है।………मैं तो अपना लंच लाया हूँ घर से। तुम अपने लिए लेकर आओ जल्दी से, फिर साथ बैठकर खाएँगे।’

      ‘ठीक है, तुम लाए हो तो अपना लंच तो तुम खा लो। मुझे भूख नहीं है।’ सुनीता ने अनिच्छा व्यक्त करते हुए कहा।

     ‘कब तक नहीं खाओगी, ऐं? कब तक भूखी रहोगी? क्या भूखे रहने से सब ठीक हो जाएगा? बिना खाए, भूखी रहकर इन संघर्ष और चुनौतियों का सामना कैसे करोगी तुम? खाना ज़रूर खाओ सुनीता।………..आओ, मेरे खाने में से ही खाते हैं।’ यह कहते हुए अशोक ने सुनीता का हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया और अपना लंच बॉक्स खोलकर उसके हाथों में थमा दिया। 

     अशोक के आत्मीय आग्रह के आगे सुनीता ना नहीं कर सकी। उसने लंच बाक्स को खोला और रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर हाथ में लेती हुई बोली, ’वैसे तो सच में मेरा कुछ भी खाने का मन नहीं है अशोक, लेकिन तुम कह रहे हो तो………..।’

    अशोक के लंच बाक्स में दो रोटियाँ और अचार था। दोनों ने एक-एक रोटी खायी। खाना खाने के बाद सुनीता ने चाय बनायी और चाय के प्याले लाकर अशोक के पास आकर बैठते हुए बोली, ‘अब बताओ, क्या करना चाहिए?’

      अशोक ने बिना किसी लाग-लपेट के अपना सुझाव दिया, ’मुझे लगता है तुम्हें उस लड़की की तरह इंटरनेट पर अपना विज्ञापन दे देना चाहिए। एक तो इसमें समय बहुत कम लगेगा। दूसरे, सत्ते पहलवान, राजू भैया, तुम्हारे मौहल्ले के लड़के तथा तुम पर इस तरह की नज़र रखने वाले अन्य लोग भी परस्पर प्रतिस्पर्धा करेंगे। ये छुटभइए तो रास्ते से वैसे ही अलग हट जाएँगे। रही सत्ते पहलवान और राजू भैया की बात तो एक-दूसरे को रास्ते से हटाने के लिए वे दोनों आपस में टकराएँगे। इससे तुम्हारी ओर से ध्यान हटकर उनका ध्यान आपसी लड़ाई और प्रतिद्वंदिता पर केंद्रित होगा। इस सब से तुमको कुछ राहत मिलेगी और इस दौरान कोई न कोई दूसरा रास्ता निकल आएगा।‘

      सुनीता को अशोक के सुझावपूर्ण शब्दों में कोई अनुभवी और सुलझा हुआ व्यक्ति बोलता दिखायी दिया। उसके साथ सहमति में सिर हिलाते हुए वह बोली, ’बात तो तुम्हारी ठीक है, लेकिन मैं इंटरनेट पर अपना विज्ञापन दूँगी कैसे। मेरे पास तो ना कम्प्यूटर है ना मोबाइल।’

     ’उसकी चिंता तुम मत करो। मेरे पास मोबाइल है। इसमें इंटरनेट कनेक्शन भी है। इस मोबाइल से अपलोड करेंगे तुम्हारी डिटेल्स और जो भी रेसपोंस आएँगे वो मैं तुमको बता दूँगा।’ यह कहते हुए अशोक ने उसकी चिंता को दूर किया।

      ‘ठीक है। लेकिन सब कुछ तुमको ही हेंडल करना होगा। मुझे कुछ पता नहीं है इस बारे में। मेरा तो दिल अंदर से काँप रहा है। मैं बस तुम्हारे भरोसे यह कर रही हूँ।’ सुनीता अभी भी अंदर से पूरी तरह सहज नहीं थी। 

      अशोक ने उसका मनोबल बढाते हुए कहा, ’तुम निश्चिन्त रहो। …..और देखना तुम्हारी समस्या का कोई न कोई अच्छा समाधान निकलेगा इस रास्ते से।’

      अशोक ने अपनी जेब से मोबाइल निकालकर सबसे पहले सुनीता का एक प्रोफ़ाइल बनाया और बहुत सारे समूहों के साथ उसे जोड़ दिया। फिर उसका एक आकर्षक सा फ़ोटो खींचा, और उस फ़ोटो के साथ केप्शन में लिखा ‘मैं अपना कौमार्य बेचना चाहती हूँ’। केप्शन के नीचे लिखा-उम्र 17 साल, रंग गौरा, क़द 5’3’, सुंदर, स्लिम, आकर्षक, वर्जिन। कौमार्य सबसे ऊँची बोली लगाने वाले किसी भी देश, धर्म, नस्ल, जाति के व्यक्ति को बेचा जा सकेगा। स्वस्थ एवं युवा व्यक्तियों को वरीयता दी जाएगी। इच्छुक व्यक्ति अपनी बोली के साथ नीचे दिए पते पर सम्पर्क करें। संदेश के नीचे ईमेल का पता दिया गया था। सभी समूहों में इस संदेश को भेजने के बाद वह सुनीता से बोला, ‘लो, हो गया। चला गया सारी दुनिया में।’

यह कहते हुए अशोक के चेहरे पर कोई परीक्षा पास करने जैसा उत्साह और विश्वास का भाव था। सुनीता कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही कर पा रही थी।उसके अंदर एक नया द्वंद्व पैदा हो गया था क़ि उसके इस क़दम का क्या परिणाम होगा। क्या इससे सचमुच उसकी दुनियाँ बदल जाएगी या वह दुनियाँ भर में एक विश्व-वेश्या के रूप में बदनाम होकर रह जाएगी। आशा के साथ-साथ एक नई तरह का अंजाना भय भी उसके अंदर बैठता जा रहा था। सहसा एक आवेग से उसने अशोक का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उसकी आँख़ों में देखते हुए बोली, ‘अशोक। मुझे तुम्हारी बहुत ज़रूरत है. …… जो भी हो, जैसा भी हो, तुमको ही संभालना है सब। तुम्हारे बिना मैं एक क़दम भी नहीं चल पाऊँगी।’

अशोक ने उसके हाथों की गर्मी को महसूस किया। उसने अपना दूसरा हाथ सुनीता के हाथों पर रखा और उसे आश्वस्त करते हुए बोला, ’तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हारे साथ हूँ और रहूँगा।’

स्कूल की छुट्टी का समय हो गया था। अशोक ने अपना बैग उठाया और ‘अच्छा, मैं चलता हूं। अपना ध्यान रखना’ कहते हुए सुनीता के घर से बाहर क़दम बढ़ा दिए।

सुनीता ने दरवाज़े तक आकर उसे विदा किया और उसके बाहर निकलते ही दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। 

वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम का दलित साहित्य में खासकर महत्वपूर्ण अवदान है. उनके कई उपन्यास एवं कविता-संग्रह प्रकाशित हैं. संपर्क: jpkardam@hotmail.com

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ISSN 2394-093X
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