शक्ति स्वरूपा नहीं मानवी समझने की जरूरत

सवालों के घेरे में खड़ी पितृ सत्ता इन दिनों स्त्री के नौ रूपों की उपासन करते हुए उसके चरणों में नतमस्तक गा रही है…या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता और मेरे दिमाग मेंं मृदंग के नाद पर सवालों का तांडव नर्तन होने लगता है।सबसे बड़ा जो सवाल है वह यह कि शक्ति का सबसे सशक्त रूप सत्ता है,क्या स्त्री सत्ता के क्षेत्र में पुरुषों के समानांतर खड़ी है?यदि नही,तो क्यों नहीं है?आजादी के सात दसक बीतने के बाद भी क्यों नहीं कोई सरकार महिला आरक्षण बिल पास करा पाई?रातों -रात कानून में संसोधन करने वाली सरकार भी महिला आरक्षण की अनदेखी करके निकलती रहीं।

मंथन करते हुए पाती हूँ कि अब वक्त आ चुका है कि औरतें छाती कूट विलाप छोड़ ,हसिया लहराते राजनीति के मैदान में उतरें बिना किसी क्षेत्र में समानता का अधिकार पाने से रही।मैं और मेरे सवाल देश के आमोखास महिलाओं तक पहुँचे और शुरू हुआ मंथन महिला मुद्दों पर।यह स्टोरी एक कोलाज है विचारों का,इसे पढ़ कर स्थिति आईनें की तरह साफ हो जाती है कि मानव सभ्यता को पालने -पोसने वाली स्त्री आज भी वहीं खड़ी है जहाँ से आदम सभ्यता शुरू होती है।यौनिकता से इतर उसके अस्तित्व को पितृ सत्ता स्वीकारने को तैयार नहीं और उसके मनुष्य रूप में स्थापित होने का समर अभी शेष है.

सोनी पाण्डेय, लेखिका
बिना लड़े नहीं मिलेगा अधिकार….

सोनी पाण्डेय

जब तक औरतें रोती-धोती रहेंगी,अधिकार नहीं मिलेगा।दलितों ने लड़ कर कानूनी तौर पर अधिकार ले लिया,अब सवाल यह है कि हमें क्यों नहीं मिला?औरतों को दबा कर रखने वाला पुरूष समाज कब चाहेगा कि वह उसके बराबरी में शासन सत्ता में दखल रखे।जब तक औरतों की दखल शासन सत्ता में  नहीं बढ़ेगी, जब तक औरतें आगे बढ़ कर अपने हक की आवाज बुलन्द नहीं करतीं,जब तक वह संसद में नहीं पहुँचती पुरूषों के मुकाबले,महिला सशक्तिकरण के सारे वादे खोखले हैं।आप कितनी भी योजनाएं लाएँ बेटी बचाओ की बेटियाँ असुरक्षित रहेंगी तब तक जब तक सजग नहीं होतीं,दुनिया को देखने का अपना नजरिया विकसित नहीं करतीं ।

मैं युवा लेखिकाओं से कहती हूँ कि ब्रा और सेनेट्री नैपकिन पर लिखना बन्द करें,पुरूष लेखक और बाजार यही चाहता है कि वह यौनिकता पर अटकी रहें और ज़मीन की वास्तविक लड़ाई, जैसे- संपत्ति में अधिकार,संसद में तैतीस प्रतिशत आरक्षण जैसे मुद्दे साहित्य से बाहर रहें।जब आर्थिक समानता मिलेगा तो बाकी हिस्से तो खुद-ब-खुद मिल जाएँगे।

मेरी इतनी चाहत है कि सामने खेल का मैदान है और औरतें हार/जीत के भय से सिमटी हैं।मैं मानती हूँ चुनौतिया बहुत हैं किन्तु यह भी सत्य है कि बिना आहुति के कुछ संभव नहीं।


संगीता तिवारी, सदस्य, राज्य महिला आयोग(उत्तर प्रदेश)
स्त्री हिंसा पर हो सख्त कार्यवाही

संगीता तिवारी

राज्य महिला आयोग की सदस्य रहते हुए मैं जिस रूप में महिला हिंसा की वारदात देख /सुन रही हूँ,वह अत्यंत दुखद है।अपराधियों का मनोबल इतना बढ़ चुका है कि वह वरदात करके वीडियो बनाते हैं और सोसल मीडिया में शेयर करते हैं।हम एक बीमार मानसिकता वाले समाज की ओर कहीं न कहीं बढ़ रहे हैं जहाँँ औरत को देखने की निगाह बस देह भर है।हमारी छोटी -छोटी बच्चियाँ असुरक्षित हैं,औरतें तमाम लानत-मलानत सहते कूटती -पिटती सदियों से सहने को अभिशप्त हैं ।

इस पूरे परिदृश्य को यदि बदलना है तो महिलाओं को लोकसभा से लेकर राज्यसभा तक,गाँव की प्रधानी हो या नगर निकाओं के चुनाव हों,अपनी मजबूत धमक प्रस्तुत करनी होगी।बिना सत्ता में जगह बनाए औरतें मात्र कहने और पूजने को देवी रहेंगी ,जैसे युगों से चली आ रही है स्त्री जीवन की त्रासदी, चलती रहेगी।भारतीय संस्कृति समतामूलक रही है,स्त्रियों को बराबरी का दर्जा रहा है,किन्तु आज यह बातें कोरी किताबी बातें है।स्त्रियों को पूजनेवाली पितृसत्ता बराबरी में लेकर चलने में कतराती है।उसे जी sजी रटने वाली मिट्ठू तोता स्त्रियाँ चाहिए, तनी हुई मुट्ठियों वाली औरतें नहीं।इन सब के बावजूद औरतों की संख्या तेजी से विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ रही है और वह मजबूत शक्ति के रूप में उभर रही हैं।

आभा बोधिसत्व, लेखिका
प्रकृति ने दिया शक्ति रुप

आभा बोधिसत्व

प्रकृति ने स्त्री को शक्ति स्वरुपा बनाया। क्योंकि उसे सृष्टि का भार नौ महीने अपने गर्भ में रक्षित करना था और है। दूसरी ओर  हमारी मनुवादी भारतीय संस्कृति  यानि पुरुष प्रधान समाज ने उसकी शक्ति का दुरुपयोग कर,उसे दोयम दर्जे में धकेल, उसे अबला- दुखियारी बनाने के पीछे, कोई सबक बाकी नहीं छोड़ा। कोख में मार कर। अनपढ़ जाहिल रख कर।दासी बना कर या स्त्री की देह का सौदा कर पुरुष की इच्छाओं की पूर्ति की एक गुड़िया भर समझने वाला यह समाज! जो बदलाव स्पष्ट देख रहा है ।

वह यह कि आज इक्कीसवीं सदी में इन सारे अपमानों को धता बताई हुई देवी स्वरुपा स्त्री ने समाज को अपने होने और अपने अस्तित्व के एहसास को बताने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। यानि स्त्री ने प्रतिकार दिया। और माकूल प्रतिकार दिया! इस कहावत को चरितार्थ करती हुई कि हे पुरुष देवता तुम डाल -डाल तो हम पात पात यानि हम हार मारने वाले नहीं।हर हाल में अपने को सामने इस तरह खड़ा करके दिखाऊंगी कि मुझे आगे बढ़ने से कोई  रोक नहीं  सकता। 

हम- मैं इस संसार की निर्मात्री और मुझे ही धता  बताकर आप इस संसार को सुचारू रुप से कैसे चला सकते हैं !

नौ दिन देवी बना कर पूजने वाला हमारा समाज क्यों स्त्रियों, बच्चियों को बधवा मजदूर समझता है। इन देवियों -बच्चियों की  जिंदगी भी घर के मालिक यानि पुरुष के हाथ में है।यानि यदि गर्भ में बेटी पल रही है, तो वह घर को मान और शान देने वाली नहीं है! यह सोच आज खंडित हो रही है। जहाँ मालिक गर्भवति स्त्री को गर्भ में ही मार डालने वाला मालिकाना हक रखते हैं और 

थे और सदियों से यह मालिकाना हक रखते आए थे।आज यहाँ बदलाव स्पष्ट दिख रहा है।  यह वह बदलाव है कि स्त्रियाँ अपने जीवन के फैसलों के प्रति जागरूक हुई है।वे मालिक को उनकी हैसियत बताने में नहीं हिचकती,यह कहते हुए कि मेरे पेट में पल रही बच्ची की ममता का सौदा करने वाले,या उसे जन्म से पहले ही मृत्यु देने वाले आप होते कौन हैं?

ध्यान देने योग्य बात है कि इस देवी ने अपना स्वरुप अपने इसी तरह के आत्मविश्वास द्वारा अपने बेटियों  जन्म दे रही हैं। उन्हें शिक्षित कर आगे बड़ा रही हैं। बेटियाँ देवी के साथ -साथ पुरुष से कंधे से कंधा मिलाती हुई बराबरी के लिए चुनौती बन खड़ी हो रही हैं।यहीं तो है स्त्री का आत्मविश्वासी देवी स्वरूपा सरस्वती रुप, दुर्गा रुप और इस आगे न बढ़ने देने के रास्ते में रोड़ा बनते, पुरुष समाज को चुनौती देती काली बन खड़ी हैं,हार नहीं मानने की हर चुनौती को स्वीकारती देवी, स्त्री आज की यानि इक्कीसवीं सदी की देवी -स्त्री यही तो है

चन्द्रकला त्रिपाठी, आलोचक
महिलाओं के सामने नई चुनौतियाँ

चन्द्रकला त्रिपाठी

महिला सशक्तिकरण के लिए आज परिवेश पहले से ज्यादा मजबूत है । शिक्षा रोजगार और बाहरी दुनिया में आवाजाही सबकी स्थिति दुरुस्त है पहले से। नई चुनौतियों का संघर्षों का आगाज़ है। यह तय है कि संघर्ष ही मनुष्य की क्षमता को निखारते हैं , खासकर वे संघर्ष जो खुद के बल पर लड़े जाएं।स्त्री के लिए समाज की पुरुषवर्चस्ववादी संरचनाओं ने एक संरक्षणवादी तरीक़ा तय कर दिया था जिसके बहुत सारे निशान अभी बाक़ी हैं। घर की चीजों की तरह परिभाषित हुई वह।घर की औरत की तरह अवरुद्ध। यहीं से तमाम विसंगतियां जारी हुईं। उसका रहना सहना वेश भूषा व्यवहार जाने आने की जगहें बोलना सुनना सब तय किया जाता रहा है। यह एक क़ैद है। बहुतेरी जगहों पर आज भी जारी है यह क़ैद।अब सोचिए जिस पर इतने पहरे हों जिसके पैरों में इतने अवरोध बंधे हों जिस पर इतनी निगरानियां हों वह कहां से आज़ाद अनुभव करे। सशक्तता के लिए जरूरी संघर्ष का साहस कैसे हासिल करे। कुल मिलाकर सबसे बड़ा मसला वह समाज है जिसमें स्त्री की आजादी मजबूती और गति के लिए अनुकुलताएं निर्मित करने का माद्दा नहीं है। जिसमें नया होने की जद्दोजहद नहीं है। इसीलिए कई बार उसे साहस से ज्यादा दुस्साहस की जरूरत हुई है क्यो कि इस कठोर कवच से बाहर आने की लड़ाई लहूलुहान करने वाली भी है। अपनी पुरानी छवियों से बाहर आई स्त्री कई बार बहुत अकेली हुई है। दुनिया के लिए और ज्यादा अचरज का सामान। उसकी बौद्धिक अस्मिता के प्रति समाज अक्सर सहज नहीं है।उसकी क्षमताओं के प्रति भी बहुत असंग है। इसलिए सशक्तता से जुड़ी उसकी चुनौतियां जितनी बाहर हैं उससे ज्यादा भीतर। अपनी घरेलू स्थितियों में अदृश्य रही आई वह बड़ी से बड़ी अपनी सफलता के बावजूद उसी सीमित संदर्भ के साथ परखी जाती है।जो घर उसके श्रम से बनते हैं उन पर परचम पुरुष का लहराता है।तो उसकी मजबूतियों का सबसे जरुरी सवाल तो यह है कि वह अपने वजूद में दिखाई दे। मनुष्य होकर साबित हो। बोलती बरतती हासिल करने की सहजताओं में परिभाषित हो। एक बेबाक नज़रिया हो ऐसा संभव हो रहा है, एक बड़ी दुनिया अब उसका संदर्भ है । संरक्षण की हदों से मुक्त होने मजबूत होने की जरूरत समझ रही है वह। दुनिया उसके बदलने के प्रति अब काफ़ी सहज है।हर जगह वह साबित कर रही है खुद को। सबसे बड़ी बात यह है कि अब वह खुद को शर्म की तरह नहीं लेती।सामान की तरह नहीं समझती। अपनी रुचि अपना चुनाव और अपना हक़ जानने लगी है और बोलने लगी है:


हिम्मत तो देखो
ये बोलने लगी हैं
ये जानते हुए भी कि नक्कारखाने का शोर बढ़ाना हमारे बाएं हाथ का खेल है बोलने लगी हैं
उधेड़ने लगी हैं असलियत तमाम
रोचक लगती रही अश्लीलताओं के खिलाफ
तेवर में हैं
स्त्री पुरुष नहीं 
लंपट स्त्री पुरुषों के मंसूबे बेनकाब कर रही हैं
छिपे हुए खेल तमाम 
इनके कंधे और
उनकी बंदूक वाले 
ये देखो ये रहे
वो देखो वो रहे तमाशाई
ज्यादातर तमाशाई क्योंकि
मज़ाक हमेशा कमज़ोर का उड़ाया जाता है
भाषा में ऐसे तड़के की 
गुंजाइशें क्या नई ठहरीं
इनकी हिम्मत तो देखो
कितना साफ दिखा गई  हैं 
एक एक रेशा उधेड़ कर

अनामिका सिंह पालीवाल, सामाजिक कार्यकर्ता
ग्रामीण महिलाओं की पराधीनता

अनामिका सिंह पालीवाल

महिलाओं के बीच काम करते हुए लगातार देख रही हूँ कि गाँव की औरतों के पास न अपनी भाषा है न अपनी जबान।वह वही कहती हैं जो मर्द कहलवाते हैं,वह वही सुनती हैं जिसे पुरूष समाज सुनाना चाहती है।इन औरतों का शोषण सबसे ज्यादा अशिक्षा के कारण है।वह कागजों में भले साक्षर हैं पर दस्तखत से ज्यादा उन्हें लिखना-पढ़ना बहुत कम आता है।कितना दुखद है नौ दिन में स्त्री नौ रूपों में पूजी जाती है।विद्या की देवी है किन्तु शिक्षा के अगले पायदानों से वंचित है।जब तक गाँव की औरत सजग नहीं होगी,आत्मनिर्भर नहीं होगी ,औरत की शक्ति रूप में स्थापना संभव ही नहीं।इन भोली -भाली औरतों को सामजिक बन्धनों के खूँटे में बाँधकर चराती हुई पितृसत्ता का यह स्त्री का देवी पूजन मुझे ढ़ोंग लगता है।यदि यही सम्मान उसे समगज और परिवार में मिले तब नौरात्रि में देवी पूजन सार्थक हो।औरत की मूर्ति की नहीं उसके साकार रूप का भी सम्मान हो तो बात बने।

रोहिणी अग्रवाल, आलोचक
धर्म और संस्कृति की बेड़ियों से मुक्ति जरूरी

रोहिणी अग्रवाल

स्त्री शक्तिस्वरूपा नहीं, स्वयं शक्ति है, लेकिन विडंबना है कि अपने भीतर निहित शक्ति के अजस्र स्रोत को भूलकर वह कभी सतीत्व के महिमामंडन में आत्मप्रवंचना का सुख पाने लगती है, तो कभी अपने अबलापन पर आंसू बहा कर शहादत का आनंद उठाती है। स्त्री को पराजित पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं करती, इस व्यवस्था के प्रति स्त्री की मौन सहमति करती है. अन्यथा क्यों पीढ़ी दर पीढ़ी जेंडर की समाज-संरचना में उलझ कर वह बेटी को स्त्री (शिकार) और बेटे को मर्द (शिकारी) बनाने का प्रशिक्षण देती चलती? नवरात्रों के दिनों में स्त्री के दायित्व गहरे और दोगुने हो जाते हैं. यह अवसर उसे दुर्गा का भुलावा देकर सांस्कृतिक-छलनाओं को समय का सच बना देने का उत्सव है. स्तुतियों पर फूल कर कुप्पा हो जाना मानसिक-वैचारिक अपरिपक्वता की निशानी हो सकती है, अपनी जड़ों को मजबूती से नई जमीन में रोप देने की वैचारिक सन्नद्धता नहीं. यह वह समय है जब कन्या-पूजन के रिचुअल का पालन करते हुए लड़कियों को प्रसाद (भोजन) और दक्षिणा (हाथ-खर्च) देकर उनके आत्मसम्मान को तोड़ने की सांस्कृतिक साजिश भारतीय परंपरा की ताकत बन जाती है और स्त्री-पुरुष को ग्रहीता-दाता के विरोधी युग्म में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है. राजनीति में हो या परिवार-समाज में, स्त्री सशक्तीकरण तभी संभव है जब स्त्री  धर्म एवं संस्कृति की बेड़ियों से मुक्त होकर ज़ेहनी आजादी पा लेगी. शिक्षा की औपचारिक डिग्रियां और नौकरी अर्जित आर्थिक स्वतंत्रता उससे बाहरी तौर पर कितना ही आधुनिक और गतिशील क्यों न बना दे, स्त्री-पराधीनता को सुनिश्चित करने वाली सांस्कृतिक ताकतों और समाजशास्त्रीय व्यवस्था को उसे स्वयं अपने अनुभव, संवेदना और तार्किकता से समझकर चुनौती देना होगा.।

अनामिका, कवयित्री
अपनी आत्म शक्ति पर ही ठट लेती है स्त्री पूरी मानव सभ्यता को

अनामिका

आत्मा की शक्ति से ठट लेती है स्त्री तमाम अवहेलनाओं को।स्त्री सभ्यता की पुरखिनों ने एक सहअस्तित्व का भाव विकसित किया जिसे आज हम बहिनापा कहते हैं।वह गाती रहीं कि …आग में भी परिहों तो गावें मल्लहार…,यह अलग सी बात है कि स्त्रियाँ भ्रमर गीत की गोपियों की तरह अब प्रतिरोध भी दर्ज करने लगीं हैं,वह बहुत तो नहीं किन्तु बदलाव की बड़ी बयार का वाहक जरूर है।

इन नौ दिनों के कन्या पूजन ,देवी उपासना का कोई फायदा नहीं जब स्त्री आज भी समाज के हाशिये पर खड़ी हो।समाज में बेटी को समानता का अधिकार नहीं, लोग दूसरी बेटी सन्तान चाहते नहीं, ऐसे में हम किस ओर जा रहे हैं,एक गम्भीर सवाल है।दुनिया भर के महिला सशक्तिकरण की योजनाओं का क्या हासिल है जब मासूम बच्चियों को हम यौन हिंसा जैसे घृणित अपराध से बचा नहीं पा रहे।जब तक औरतें सत्ता में मजबूत पकड़ नहीं बनातीं,शक्ति रूप में वास्तविक स्थापना से वंचित ही रहेंगी।

अनिता द्विवेदी , सामाजिक कार्यकर्ता
देश की आधी आबादी आज भी हाशिये पर है

अनिता द्विवेदी

आज जिस तरह से भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं जिन छोटी छोटी बच्चियों को माता के रूप में हम पूजते हैं उनके खिलाफ होने वाले अति भयानक शोषणों में वृद्धि हो गई है.

जितना सम्मान जितनी आस्था हम माता की मूर्तियों में रखते हैं ।उतना ही सम्मान अगर नारी शक्ति और शक्ति रुपी कन्याओं को दिया जाए तो वास्तव में शक्ति स्वरूपा मां की आराधना होगी आज हम खुद भी अपने भीतर मौजूद “स्त्री शक्ति “के सांकेतिक रूप काली, दुर्गा और पार्वती को  पहचानने का प्रयास करें ।

देश में आधी आबादी आज भी हाशिए पर है। यह दुर्भाग्य ही है ।इससे ज्यादा अफसोस इस बात का होता है कि राष्ट्रीय पार्टियां भी 10 15 फ़ीसदी से ज्यादा अधिक महिलाओं को लोकसभा चुनाव लड़ने का टिकट नहीं देती। इसका कारण भी शायद पुरुषवादी सोच का है हमारी महिलाएं आज भी मतदान परिवार के पुरुषों की राय पर ही करती हैं ।लेकिन बढ़ते शहरीकरण और शिक्षा के कारण महिलाएं स्वतंत्र निर्णय लेने लगी हैं ।हमारे देश में स्त्रियों को लेकर एक दुविधा बनी रहती है कि इनको कितनी आजादी दी जाए जो पितृसत्ता के खिलाफ ना हो ।थोड़े बहुत बदलाव को लेकर या छोड़ कर निर्णय लेने का अधिकार आज भी पितृसत्ता के हाथों महफूज है ।जो बड़े ही करीने से अपना खेल खेल रहा है।

डा. स्वस्ति सिंह, स्त्री रोग विशेषज्ञ
समाज की सोच बदलनी जरूरी है

डा स्वस्ति सिंह

एक डॉक्टर की निगाह से जब स्त्री जीवन को देखती हूँ तो पाती हूँ कि जिस देश की परिकल्पना ही भारत माँ जैसे पवित्र रूप में हुई है वहाँ क्या वास्तव में औरतें उतनी ही पवित्र निगाह से देखी जाती हैं?मेरे पास ढ़ेरों सवाल हैं-क्या औरतों को समानता का अधिकार वास्तव में आम औरतों को भारतीय लोकतंत्र में मिला?संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिला? हम एक भयभीत समाज में रहते हैं,एक डॉक्टर की हैसीयत से जब दूसरी कन्या संतान के जन्म की सूचना हम घरवालों को देते हैं तो उनके चेहरे पर मातमी सन्नाटा छा जाता है।शहरों में जहा लोग दूसरी कन्या संतान को जन्म ही नहीं देना चाहते वहीं गाँवों का हाल बहुत बुरा है…वह बिलख उठते हैं,कहते हैं जो लड़का न हुआ लोग हमारी जायदाद हड़प लेंगे।लोग ताने देंगे कि अब इसका वंश कैसे चलेगा,जब तक समाज की यह सोच नहीं बदलती कि बेटा हो या बेटी दोनों समान हैं और माता-पिता बेटी के घर भी निःसंकोच जरूरत पड़ने पर रहने नहीं आने लगते ,यह शक्ति उपासन बेमानी है।

अरुंधति सिंह, गृहिणी
स्त्री अबला नहीं है

अरुंधति सिंह

नव दिन शक्ति के रूपों की पूजा पूरा जग करता है। महिला को हम देवी का रूप मानते हैं लेकिन समाज में हो रही घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि देवी के प्रति श्रद्धा सिर्फ मंदिरों तक सीमित है। महिला सशक्तिकरण की तमाम बातें होती हैं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज की सोच में कोई व्यापक परिवर्तन स्त्री के प्रति नहीं दिखता।आज भी घर से बाहर पढ़ने या नौकरी करने जाने वाली बेटी जब तक घर वापस नहीं आ जाती चिंता बनी रहती है। तमाम चुनौतियों और समस्याओं के झेलने के बाद भी सुखद यह है कि बेटियां पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं और समाज को संदेश दे रही हैं कि अब अबला नहीं है।

ममता कालिया लेखिका
स्त्री को मनुष्य मानना जरूरी

ममता कालिया

नौ दिन नौरात्रों में स्त्री के देवी रूप की उपासना की सार्थकता तब मानूं, जब इस बीच किसी मासूम बच्ची के साथ बलात्कार की घटना न हो।किसी औरत या लड़की पर एसिड अटैक न हो।कोई स्त्री तेल डाल कर जलाई न जाए।किन्तु अफसोस के साथ कहना पड़ता है मुझे कि जिस देश में स्त्री शक्ति के रूप में पूजी जाती है ,वहीं वह शोषण की हद दर्जे तक शिकार है।

      इन दिनों तो शोषक और चालाक हो गया है।वह बलात्कार के बाद हत्या कर साक्ष्य मिटा देता है।वह कन्या भ्रूण को गर्भ में ही मार देता है।वह इन्जेक्शन से टैबलेट्स देकर खामोश नींद सुला देता है और स्त्री कोई प्रतिरोध दर्ज नहीं कर पाती।कितना विरोधाभास है,एक तरफ माँ के रूप में नौ दिन उपासना तो दूसरी तरफ हर रूप में प्रताड़ना।जब तक स्त्री अतिन्द्रिय रहेगी उसका पराशक्ति रूप बेमानी है।उसे मनुष्य मान लें ,उसे देवी रूप से अधिक मनुष्य माने जाने की आवश्यकता है।

रुचि भल्ला , लेखिका
आशा शक्ति का नाम है स्त्री

रुचि भल्ला

रत्ना-  एक छोटे भाई की बड़ी बहन । माँ-पापा की लाडली । घर का नाम – कुकी । स्टेट गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ने वाली । हिन्दी में बतियाने वाली एक गोरी -चिट्टी लड़की थी। चट मंगनी पट शादी हो गई उसकी पैसे वाले घर में । एक रोज़ पति के दोस्त घर आए और भाभी से मुलाकात की फ़रमाइश हुई । परदे के पीछे खड़ी कुकी ने सुना ….पति उसकी तारीफ में कह रहे थे – My wife can’t talk in English. उसे सुन कर दुख हुआ और हैरत भी ….पर ज़िन्दगी आगे चलती रही । इस बीच पिता रिटायर हो चुके थे और छोटा पढ़ा -लिखा भाई डिप्लोमा होल्डर सिज़ियोफ़्रेनिया का पूरा शिकार हो चुका था। कुकी ने भाई को पति की फैक्ट्री में कह कर नौकरी दिलवायी । उनके पति ने रहम खाकर छोटी सी एक नौकरी तो दी और साथ में अपनी गाड़ियों की सफाई का काम भी उसके जिम्मे कर दिया। कुकी चुप रही। अपने मायके की हालत देखती रही। माँ -पापा बूढ़े और असहाय होते जा रहे थे और भाई बिल्कुल बीमार। एक दिन कुकी ने पति से कहा, ” हमारा घर बहुत बड़ा है , मैं अपने माँ -पिता को अपने साथ रखना चाहती हूँ। भाई का इलाज़ कराना चाहती हूँ। “पति ने साफ मना कर दिया। कुकी ने फ़िर कहा, ” हमारे घर में इतने सारे pets रह सकते हैं तो ये लोग यहाँ क्यों नहीं रह सकते ?” सुनते ही उसके पति ने कहा , “pets तो बहुत काम के हैं, तुम्हारा भाई किसी काम का भी नहीं । इन सब को यहाँ बुलाने से अच्छा तुम ही इनके पास चली जाओ। साथ रहो और जीवन भर सेवा करो।” और कुकी ने फ़िर यही चुना। अपने बच्चों को साथ लेकर उसने वह घर छोड़ दिया । कड़ी मेहनत की । अपनी खुद की फ़ैक्ट्री खड़ी की और अपना सारा जीवन समाज सेवा को अर्पण कर दिया। सिज़ियोफ़्रेनिया से पीड़ित लोगों के लिए सन् 90 में मद्रास में

समाज -सेवी संस्था “आशा” खोली । आशा संस्था ने उन लोगों को नव -जीवन दिया, आत्मविश्वास दिया और रोजगार दिया। कुकी ने कितने घर सँवारे….कोई गिनती नहीं । कुकी दीदी को हमारी लाल काॅलोनी और इलाहाबाद का ही सलाम नहीं, सत्यमेव जयते का मंच भी रत्ना छिब्बर को सलाम करता है। वह गर्व हैं हिन्दोस्तान का… ।

सपना सिंह, लेखिका
कितनी है शक्ति स्वरूपा स्त्री इस दौर  में

सपना सिंह

भारतीय संस्कृति मे स्त्री को शक्ति स्वरुपा माना गया है। किंतु यथार्थ में आज 21वीं सदी के अंत मे भी स्त्री को एक मनुष्य होने के अधिकार के लिए  भी संघर्ष करना पड़ रहा है। एक तरफ हम बच्चियों देवी रूप मे पूजते हैं दूसरी तरफ आये दिन बच्चियों से दुष्कर्म के मामले अखबारों मे पढ़ते हैं। स्त्री जब घर से लेकर सड़क तक कहीं भी सुरक्षित नहीं तो उसके शक्तिस्वरुपा होने की बात करना मानना महज अपने भुलावे मे रखना है। 

आज भी परिवार मे, समाज में उसकी स्थिति दोयम है। लाखों के पैकेज पर बाहर काम करने वाली  स्त्रियों से भी परिवार, समाज की अपेक्षा यही होती है कि वे शालीन सुघढ़ गृहणी का रोल बखूबी निभायें। स्त्री को ये समझने की जरुरत है कि, उसे अगर सचमुच सशक्त बनना है तो अपने पेट के लिए अन्न, तन के लिए  वस्त्र और रहने के लिए  आवास की व्यवस्था स्वयं करनी होगी। उसके लिए रोटी कपड़ा और मकान अगर कोई अन्य जुटाता है तो स्त्री सशक्तिकरण की सारी बातें महज लंतरानी है। पृतसत्ता स्त्री को देवी बनाकर पूज सकती है पर अपने बराबर का मनुष्य मानने मे हमेशा कतराती है। आज की सचेत स्त्री का सारा संघर्ष अपनी इसी पहचान को पाने के लिए है। मनुष्य होने की गरिमा के साथ जीवन गुजारने की क्षमता का अर्जन करने वाली स्त्री ही सही मायने मे शक्ति स्वरुपा कहलाने की अधिकारिणी है। 

गीताश्री

गीता श्री, लेखिका
पितृसत्ता की पहचान कर चुकी स्त्रियाँ, विस्फोट शेष है

मौजूदा वक़्त स्त्री समय है। कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर. वो इसलिए कि स्त्रियों ने ही खुद को अभी ठीक से समझा नहीं. अपनी ताक़त ठीक से नहीं पहचाना है. राजनीति को देखकर तो ऐसा ही लगता है. बाक़ी क्षेत्रों में स्त्रियाँ बहुत आगे बढ़ गई हैं. निर्णायक भूमिका के लिए तैयार हैं और वो उसके योग्य भी बन गई हैं. अपनी उच्च शिक्षा के दमखम पर।

अपने हौसले और हिम्मत के बलबूते, मगर राजनीति में उनकी राहें बहुत कठिन हैं,वे वहाँ पर शक्ति स्वरूपा नज़र नहीं आती,वहाँ अभी भी वे निर्भर हैं,एक तो उनकी संख्या बहुत कम है।उन्हें सपोर्ट कम है।राजनीति की छल भरी खुरदरी ज़मीन उन्हें रास नहीं आती, ऐसा नहीं कि स्त्रियाँ राजनीति में रुचि नहीं रखतीं.,या उनमें योग्यता नहीं है, स्त्रियाँ बेहतर राजनेता हो सकती हैं, वे ज़्यादा संख्या में आए तो वे राजनीति का चेहरा बदल सकती हैं। ज़्यादा संवेदनशील बना देंगी राजनीति को।मेल डॉमिनेटिंग राजनीति चाहती नहीं कि स्त्रियों की दखल यहाँ बढें। हम औरतें टकराव नहीं चाहती और एक दशक से महिला आरक्षण बिल का इंतज़ार कर रही हैं। 

स्त्रियो को उनकी जगह ईमानदारी से मिल जाए फिर वे साबित कर देंगी कि उनमें कितनी ताक़त है समाज और देश बदलने की।कमसेकम आज से बेहतर ही होगी दुनिया,औरतों के हाथ में पावर देकर देखो,लेकिन औरतों की प्रतिभा और क्षमता से घबराया हुआ पैट्रियार्की कभी मौक़ा नहीं देगा कि स्त्रियाँ उनसे बेहतर साबित हो.

 स्त्री मतलब शक्ति है. भारतीय मिथकों के अनुसार बिना शक्ति के शिव नहीं. यानी बिना शक्ति के कल्याण की अवधारणा बेकार होती है. स्त्री शक्ति इस समय अपने बेहतरीन परफ़ॉर्मेंस के लिए तैयार है. बस उसे मौक़े झपटना नहीं आता. उसे छल छद्म नहीं आता। स्त्रियाँ जानती हैं कि मौजूदा षड्यंत्रकारी , पाखंडपूर्ण व्यवस्था का हिस्सा बनने के बजाय उसे ध्वस्त कर देना चाहती हैं. स्त्री की शक्ति उसके भीतर के साहस से उपजती है. शक्ति बाह्य चीज नहीं कि किसी पर थोपी जाए. स्त्री- पुरुष दोनों में शक्ति होती है. दोनों अलग अलग शक्ति का प्रदर्शन और इस्तेमाल करते हैं. स्त्री के भीतर शक्ति का जो अक्षय भंडार छुपा था, आज उसका ख़ुलासा हो चुका है, पहचान कर चुकी है. इसी पहचान ने, ख़ुलासे ने उसे साहस से भर दिया है।स्त्री इसलिए भी वर्तमान समय में शक्ति स्वरूपा हुई है कि उसे समझ में आ गया है कि इस उपयोगितावादी दुनिया में न कुछ पाप है न अनैतिक. पुराने मूल्य भरभरा कर गिर गए हैं. उसने नये मूल्यों को बनते देखा है। जिस सत्य को पितृसत्ता कई शताब्दियों से जानती थी, उसे उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जानने मानने लगीं थी स्त्रियाँ. जिसका विस्फोट मौजूदा शताब्दी में दिख रहा है।

जनसंदेश से साभार

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ISSN 2394-093X
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