संविधान के हक में नफ़रत के खिलाफ औरतें

सुशील मानव

कल 4 अप्रैल 2019 को 100 से अधिक महिला संगठनों ने मिलकर वूमेन मार्च फॉर चेंज (औरतें उठ्ठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा) का सफल आयोजन किया। दिल्ली में ये महिला मार्च मंडी हाउस से शुरु होकर जंतर-मंतर तक गया, और जंतर मंतर पहुंचकर सभा में तब्दील हो गया। इसमें हर आयु, हर वर्ग, हर जाति और धर्म की छात्राओं, लड़कियों, महिलाओं और ट्रासजेंडर्स ने हजारों की संख्या में भागीदारी निभाई। इसी समय इसके समांतर ही देश के 20 राज्यों में 150 से भी अधिक महिला मार्च निकालकर लोगों से आह्वान किया गया कि पितृसत्तात्मक चौकीदार को उखाड़ फेंकों क्योंकि ये सरकार महिला विरोधी है, नागरिक विरोधी है।

हमसे बात करते हुए ‘एक्शन इंडिया’ एनजीओ की महिला पंचायत में काम करनेवाली संगीता ने बताया कि वो घरेलू हिंसा और उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की काउंसलिंग का काम करती हैं। उन्होंने कहा कि आज हम सड़कों पर इसलिए उतरें हैं क्योंकि सरकार ने लगातार हम महिलाओं के खिलाफ ही काम किया है। ये सरकार हमारी कम्युनिटी की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा नहीं करती। ये सरकार सैनिटरी पैड तक पर जीएसटी लगाती है।

एलजीबीटी समुदाय की रितु कहती हैं- “हम यहां इसलिए खड़े हैं क्योंकि बहुत वायलेंस है, बहुत डिस्क्रिमिनेशन है इस सरकार में। अब हमें ये सरकार नहीं चाहिए। हमें हर जगह इम्पॉवरमेंट चाहिए।”

हमसे बात करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता, एक्टिविस्ट अनीता भारती ने कहा- “आज जिस तरह का माहौल है उसके खिलाफ़ अमन और शांति के लिए हमें सड़कों पर उतरना पड़ा है। हम लोगों को इस चुनाव में ऐसी सरकार चुननी चाहिए जो सबका देखभाल करे, सबको न्याय दिला सके, जो सामाजिक समानता और सबके प्रति इज़्ज़त रखे। वो कहती हैं आज जिन राजनीतिक दलों में औरतें हैं वो भी महिलाओ के 33 प्रतिशत आरक्षण के मुद्दे पर नहीं बोलती हैं। औरतों की एक पोलिटिकल पार्टी की ज़रूरत तो है जो औरतों के मुद्दे को रखे लेकिन इसके लिए हम महिलाओं को धर्म, वर्ग जाति से परे एक साथ आना होगा ताकि हमारा सबका एक कॉमन मुद्दा हो सके तभी औरतों की कोई पोलिटिकल पार्टी बना पाना संभव होगा।”

‘पहचान’ एनजीओ चलाने वाली फरीदा बताती हैं कि वो स्कूल ड्रॉपऑउट लड़कियों के सशक्तिकरण के लिए काम करती हैं। उन्हें जॉब दिलवाती हैं। वो बताती हैं कि लड़कियों द्वारा स्कूल छोड़ने के दो कारण है। एक तो है परिवार की जनसंख्या। मान लीजिए कि किसी परिवार में पांच बच्चे हैं तो आज की महंगाई के समय में परिवार सोचता है कि किसी एक बच्चे को पढ़ा दें। तो उस एक बच्चे में वो लड़कों की पढ़ाई को प्राथमिकता देते हैं ऐसे में लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ता है। और दूसरा कारण है उनकी पितृसत्तात्मक सोच।

फरीदा बताती हैं कि हमारा मकसद लड़कियों को नाम के साथ पहचान दिलाना है। वो हर धर्म वर्ग की लड़कियों के लिए काम करती हैं। वो बताती हैं कि उनके एनजीओ ने पांच साल तो हरियामा के 12 गांवों में लड़कियों के लिए काम किया है। इसके लिए उन्हें वहां के समाज का विरोध भी झेलना पड़ा है। वो कहती हैं ये सब सरकार का काम है, लेकिन सरकार नहीं कर रही है।

जंतर मंतर पर कार्यक्रम के दौरान मायाराव ने पितृसत्ता पर कटाक्ष करता एक मोनोप्ले प्रस्तुत किया। उनके अलावा धातिन, संघवारी ग्रुप, एमसी फ्रीजक, अमन बिरादरी के छात्रों, ने आजादी और समानता पर कई कार्यक्रम पेश किये। लड़कियों ने मार्च के दौरान नुक्कड़ नाटकप्रस्तुत किया। मंच से कई लड़कियों और औरतों ने गीत गाए। राहुल राम और संजय राजोरा ने मोदी सरकार पर तंज करते पैरीडी गाए। कई महिलाओं और महिला संगठनों के प्रतिनिधियों ने मंच से अपनी बातें रखीं।

पत्रकार भाषा सिंह ने कहा –“हम औरतें नफ़रत की राजनीति को ‘नो’ कहती हैं। हम महिलाएं रेप पोलिटिक्स को ‘नो’ कहती हैं। हम मनुवाद को नकारते हैं। मोहन भागवत और उसकी आरएसएस ब्रिगेड कान खोलकर सुन लें जो ये कहते हैं कि औरतें ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें नहीं तो देश संकट में आ जाएगा। हम औरतें बच्चे पैदा करने की मशीन में तब्दील नहीं होंगी। बहुत लंबी लड़ाई लड़कर हमने अपनी आजादी पाई है, इसे हम एक इंच भी गँवाने को तैयार नहीं हैं। हम पीएम की शक्ल में सत्ता में बैठे हिंदू साम्राज्य को नकारते हैं। जो अपनी योजनाओं के जरिए हमारी देह को टायलेट में तब्दील करते हैं जो हमारे अस्तित्व को रसोईगैस में तब्दील करते हैं। जहां इस सत्ता के प्रतिकार की बात आती है मुस्लिम और दलित औरतें सबसे आगे खड़ी होती हैं। सबरीमाला मंदिर मामले में, ट्रांसजेंडर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ये सरकार नकार देती है, ये सरकार खुद को सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर रखती है। हमारे पास कम समय है। आनेवाले चंद महीनों में हमें बूथ बूथ जाकर अपने संविंधान, अपने अधिकार और अपनी आजादी को बचाने के लिए प्रयास करना है। हम बूथ-बूथ जाएंगे और इस सरकार को नकारेंगे। हम यहां इस मंच से मांग करते हैं कि सोमासेन और सुधा भारद्वाज को रिहा करो। उन तमाम पत्रकारों को रिहा करो। आज हमारा यहां से ये रिजोल्यूशन होना चाहिए कि हम इस सरकार को उखाड़ फेंके।”

दलित महिला अंदोलन के एक प्रतिनिधि ने मंच से कहा- “कैसे देश भर में दलित और आदिवासी महिलाओं को सरकार ने विफल कर दिया है। उज्जवला योजना एक स्वांग है, जिन लोगों को इन योजना के तहत गैस कनेक्शन दिया गया है उनके पास इसे महीने में भरवाने के लिए पैसे तक नहीं हैं। देश में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति कैसी है। ग्रामीण भारत में सड़कें अभी भी एम्बुलेंस के लिए अनफिट हैं। स्वास्थ्य देखभाल और अस्पतालों की कमी के कारण रोजाना ग्रामीणों की मौत होती है। ऐसे क्षेत्र बड़े पैमाने पर दलित और आदिवासी बहुल इलाकों में हैं और अगर यह बड़े पैमाने पर भेदभाव को इंगित नहीं करता है, तो यह क्या है?”

भारतीय मुस्लिम महिला अंदोलन की हलीमा ने कहा –“अल्पसंख्यक समुदायों की लड़कियों की स्कूल ड्रापआउट करने की दर खतरनाक स्तर पर है। सरकार ने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए जितने भी वादे किए हैं, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान और बाकी सब वादे देश में विफल हो चुके हैं। सरकार महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए ट्रिपल तालाक और बुर्का प्रतिबंध और इस तरह के बारे में बात कर रही है। वे देश के सबसे दूर के कोनों में अशिक्षा और स्कूलों की अनुपलब्धता के बुनियादी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं।”

जेएनयूएसयू के उपाध्यक्ष, सारिका कहती है- “शहरों की सड़कों से लेकर हमारे देश के गांवों तक, महिलाएं अपनी राजनीतिक चेतना के साथ सामने आएंगी। यह न केवल संविधान को बचाने के लिए बल्कि संविधान को मजबूत करने के लिए भी हमारा संघर्ष है।”

‘सतर्क नागरिक’ की सुमन ने कहा– “विकास के नाम पर हमारे आवासों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। जब भी हम सवाल उठाते हैं और सरकार की जवाबदेही की मांग करते हैं, तो वे हमें हमारे घरों को ध्वस्त करने की धमकी देते हैं। हम बुनियादी अधिकार चाहते हैं।”

नेशनल नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर्स की आरती ने कहा- “राज्य की प्रकृति ऐसी है कि महिलाओं के साथ पूर्ण भेदभाव किया गया है। हम अब उनके झूठे वादों पर विश्वास नहीं करेंगे, हम महिलाओं को अब और मूर्ख नहीं बनाया जाएगा। हम इस सरकार को आगामी चुनावों में खारिज कर देंगे।”

महिला किसान समूह की प्रतिनिधि कुंती ने मंच से कहा– “महिलाओं के श्रम को देश में ठीक से मान्यता नहीं मिली है।” महिलाओं के काम पर किसी का ध्यान नहीं जाता और इसे अनदेखा कर दिया जाता है। महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर काम करने के बाद भी पुरुषों के लिए गौण मानी जाती हैं।”

आखिरी वक्ता के तैर पर बोलते हुए ट्रांसजेंडर पावेल ने कहा- “हमें हमारे अतीत और इतिहास के बारे में बताया जाता है। हम आज भी हमारे इतिहास, हमारे संस्कृति में वहीं खड़े हैं। आज 2019 में भी हमारे साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता है। हम खुद को किसी और से बेहतर जानते हैं। सरकार हमारे साथ बैठने, हमसे संवाद करने और फिर बिल और कानून बनाने से से इनकार क्यों कर देती है। हमसे इस बारे में बात नहीं की जाती है।लेकिन हम खुद के बारे में बात करेंगे।”

औरतें उठ्ठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा की फैक्ट शीट

जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में अभी भी 30 करोड़ से अधिक लोग अभी भी साक्षर नहीं हैं। 40.7 प्रतिशत महिलाएं अभी भी साक्षर नहीं हैं। ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2013-14 के मुताबिक भारत में अभी भी 37% लोग निरक्षर हैं।

अंतरिम केंद्रीय बजट 2019-20 में बजट का 2.7 प्रतिशत शिक्षा के लिए आवंटित किया गया है जो 2012-13 के 3.1% बजट से भी कम है। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा और उच्च शिक्षा पर ध्यान देने की आड़ में हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (HEFA) ने नवंबर 2018 तक आवंटित बजट का सिर्फ 39% ही खर्च किया है।

यूजीसी द्वारा भारतीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में महिला अध्ययन केंद्रों के लिए प्रति वर्ष 35 लाख रुपए की धनराशि निर्धारित की गई है। फंड आवंटन में भारी कटौती की गई है। ये कटौती 12.5 लाख से 40 लाख के बीच है।

यू डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (DISE) डेटा 2016 के मुताबिक कक्षा 1 से 10 तक ड्रॉपआउट दर 19.81 प्रतिशत है। इसमें एससी लड़कियों की ड्रॉपआउट दर 21.9 प्रतिशत, एसटी लड़कियों की ड्रॉपआउट दर 26.5 प्रतिशत और ओबीसी लड़कियों की ड्रॉपआउट दर 20.2 प्रतिशत है। जबकि मुस्लिम लड़कियों की ड्रॉपआउट दर के बारे में कोई जानकारी नहीं है। जो उनके विकास और शैक्षणिक आवश्यकताओं के प्रति इस सरकार की मानसिकता को दर्शाता है।

माँगे

 माध्यमिक शिक्षा को बेहतर किया जाए। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान को माध्यमिक शिक्षा पर ध्यान देने की आवश्यकता है और सर्व शिक्षा अभियान के साथ इसके विलय को निरस्त किया जाए।

आदिवासी, दलित और मुस्लिम लड़कियों पर विशेष ध्यान देने के साथ सभी वर्ग को सार्वभौमिक गुणवत्तापूर्ण माध्यमिक शिक्षा प्रदान करने के लिए एक मजबूत और संकेंद्रित रणनीति तथा योजना विकसित की जाए।

लड़कियों की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए माध्यमिक विद्यालयों के लिए महिला अध्यापकों के एक संवर्ग की तैयारी आवश्यक है। यह एक अपेक्षित क्षेत्र बना हुआ है और तत्काल कार्य करने की आवश्यकता है।

मुसलमान लड़कियों के ड्रॉपआउट  करने की दर से जुड़े DISE आंकड़ों को इकट्ठा करना फिर से शुरु किया जाए।

ग्रामीण महिलाओं में 45% से अधिक निरक्षरता दर और दलित आदिवासी तथा मुस्लिम महिलाओं में 55% से अधिक अशिक्षा दर होने के बावजूद वयस्क महिलाओं की शिक्षा के लिए कोई योजना नहीं है। 3 साल तक धीमी गति से चलने के बाद साक्षर भारत कार्यक्रम वर्ष 2018 में आधिकारिक तौर पर बंद कर दिया गया और भविष्य की कोई योजना नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित एक राष्ट्रीय स्तर की योजना विकसित करना जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की सभी महिलाओं के लिए वयस्क शिक्षा को सक्षम बनाए।

दलित और आदिवासी लड़कियों को मुख्यधारा में लाने में सफलता के बावजूद कुछ ही राज्यों में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (KGBV) को 10वीं कक्षा तक अपग्रेड किया गया है। जबकि सभी राज्यों में KGBV को 10वीं कक्षा तक अपग्रेड किया जाना चाहिए। साथ ही, अगले 2-3 वर्षो के भीतर कक्षा 12 तक KGBV के अपग्रेड करने की स्पष्ट योजना होनी चाहिए।

आरटीई अधिनियम के तहत प्रदान की जाने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (विशेषकर सरकारी क्षेत्र में) के लिए शिक्षा बजट पूरी तरह अपर्याप्त है। इसने विशेष रूप से गरीब और ग्रामीण समुदायों की लड़कियों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। शिक्षा के अधिकार के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 6% की मांग को पूरा करना और सभी के लिए 18 वर्ष की उम्र तक की शिक्षा आरटीई अधिनियम का विस्तार कर लागू करना। बजट में विश्वविद्यालय के छात्रों को गैर-नेट छात्रवृत्ति के लिए आवंटन के बहाल करना।