मैं अमर बेल को गाली नहीं देता और अन्य कविताएं (कवि:एस एस पंवार)

मैं अमरबेल को गाली नहीं देता

एस.एस.पंवार
आजकल, कथेसर एवं दस्तक, कथा समय सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और लेख प्रकाशित।
संपर्क- 9017738638

मुझे तमाम लड़कियों की आंखें तुम्हारी बेटी जैसी लगती हैं
जिनमें उदासियां दर्ज हैं
डरी हुई लम्बी यात्राओं की,
नक़्शे की तरह खौफ़ की सख़्त जमीनें अंकित है
जिनकी आँखों के पथरीले सुर्ख़ धरातल पर

नई उड़ानों में परों के नोच दिए जाने
बिखरने, टूटने का सहमापन
गिर जाने हतोत्साहन
और समंदर के मटमैले से
बेरंग हो जाने का मनहूस ख़ौफ़
बार-बार डरा रहा हो जिसे,

वो खौफ़ जिसकी वजह से
बगीचे सीख जाते हैं हिटलरशाही,
गुलाबों का खिलना जहां कोई रिवाज नहीं
हुक्म होगा महज सत्ताओं का,
पेड़ों का स्वभाव जहां इनकार कर सकता है
लताओं को प्रश्रय देने से

मुझे लगता है कभी-कभी
मुल्क की तमाम किशोर लड़कियों की आंखें उस खौफ़ से भर गई हैं
जो खौफ़ सड़क के दो किनारों पर खड़े होकर
प्रेम में डूबे दो वृक्षों में होता है
किसी ऊंचे वाहन की चोट से क्षतिग्रस्त हो जाने का खौफ़

ये सहमी हुई लड़कियां मुझे
उन वृक्षों पर पलती अमरबेल जैसी लगती है
एक के कट जाने पर
जिसका वजूद खतरे में हो,
ये अमरबेल के लिए गाली नहीं
बल्कि दरख़्तों का सौभाग्य होगा

मैं ख़ाब में देखता हूँ कई दफे
कि सड़क के तमाम एकतरफा दरख़्त काटे जा रहे हैं

छली गई औरतें

परकीय में छली गयी हूं मैं
मैं घोषणा करती हूं कि मुझे अब एक मुक्कमल वेश्या करार दी जाए
हर बार नए सिरे से ये कहती हुई मैं कि
‘मैं और नहीं टूटना चाहती’
‘रोक लो मुझे’
‘तुम्हीं के साथ’
‘ बस तुम्हारे साथ’
‘कि यहीं रुक सकूँ मैं’

कितने अर्जुनों के तीरों से बिधी हूं मैं
इस भ्रम में
कि भीष्म की प्यास बस अर्जुन का तीर बुझा सकता है
कितने भावातिरेकों में कहा मैंने
कि मुझे छोड़ तो नहीं दोगे ना ?
मैं अकेली तो नहीं पड़ जाऊंगी ना?
तुम्हारे जैसा प्रेम
शायद कहीं न मिले मुझे ?

वो जो बन्दरगाह आते हैं छोटे-छोटे
जहां
एक ही गन्तव्य को निकली दोओं में एक नाव ठहर जाती है
और एक ही बढ़ती है आगे
कहीं वो यात्रा तो नहीं है हमारी?

कितनी बार बाज दृष्टियों से महज बेधी जाऊंगी मैं
आखिर कितनी बार,
यौनिक प्रयोगशाला में तब्दील मेरी देह
अब मुक्त होना चाहती है
इस सत्ता से मुक्त
कि मैं अपना घर बना सकूँ

एक उदास चिट्ठी ( एक गुमनाम दोस्त के नाम )

उसके अनुमान संदिग्धता भरे रहे
एक अनजान सी उम्र में उसने जो कमाया उस पर कभी छाप अंकित नहीं करनी चाही

वो बनती रही अमावस की काली रातें
जहां-जहां
वो शाया हुईं
दहाई पृष्ठांको वाले उन अखबारों में नहीं थे
कोई भी लिपीय शब्द

उसने सदैव देखा
सदी के सातवें दशक की खूंटी पर टँगा
तमाम भोली अदाकाराओं में अपना अजीब-सा करेक्टर
उसने पाया
बीते वक्त की तमाम सूनी काली अमावसें
उसकी आंखों पर चुभ गयी हैं,

जब जब उसने नदी बन सागर होना चाहा
तमाम रेगिस्तान
उसकी छातियों पर चिमट गए,
उसने अपने स्तनों के उभार में जो अंतर देखा
कई बरसों के लटकते कैलेंडर उसके आगे से कौंध गए,

समझौतापसन्द नहीं थीं वो,
वो चाहती रही बिल्ली बनकर जिंदा मछलियां खाना,
पैरों का भीग जाना मगर
कभी नहीं रहा उसके स्वभाव में,

कई युवा; जिनके चमकते गाल अब सलवटें लेने लगे थे और
बालों के अवरोही गणित के साथ
जिनकी सफेद दाढ़ियाँ बताने लगी थीं कि वे अब सधे हुए कॉमरेड हैं;
सब उसके साँचें से बाहर होने लगे थे

कितनी ही बार वो मर्लिन मुनरो होते-होते बची और उसने
अपनी दीवार पर नए कैलेंडर टांगे,
एक अस्तित्वहीन मुल्क का समाजशास्त्र
उसे काटता रहा बार-बार

ठुकराई गई औरत

नींद में कुछ नहीं खोया उसने
बीते बसन्त के पत्ते गिने और सकुचाकर दुहरी हो गई
अतृप्त आत्माओं की तरह

भटकती छायाएं डराती है उसे आजकल
सूने एकांत स्थानों पर
देर तक टकटकी जमीनें चीरती हैं
अपनी छातियों के दूध से देव-प्रतिमाएं सींचना अब
कोई सिद्धांत नहीं बुनता…
अपलक आंखें ख़ाब को ख़ाब कहते डरती हैं,
मिटा हुआ द्वंद्व
सूनी छतों पर घूमती काली बिल्लियों से खौफ़ खाता है

तमाम साये किसी धुन की प्रतीक्षा में
हो जाते हैं अचेत…
दर्द की खाईयों से बने डरावने शब्द
गूंजते हैं
बार-बार
सुनसान पत्थरों के बीच…
उसकी कई रचनाएँ जब्त होने से डर रही हैं…

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