एक पत्र जो उसने आत्महत्या का निर्णय टालने के पूर्व लिखा था

एक एड हॉक दलित प्राध्यापिका (दिल्ली विश्वविद्यालय)

डा. पायल तडावी अपनी तीन सीनियर डॉक्टर्स की प्रताड़ना के कारण आत्महत्या कर चुकी हैं. उनकी सांस्थानिक हत्या हुई है. ऐसी स्थितियां और भी अन्य समूहों की महिलाएं झेलती रही हैं. खुद जाति का बर्डन ढोती, अपने लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की व्यवस्था में उपेक्षित ऊंची जाति की महिलाएं अन्य जाति और धार्मिक पहचान वालों के साथ क्रूर और अमानवीय व्यवहार करती हैं. हम इस सीरीज में ऐसे अनुभवों को प्रकाशित कर रहे हैं. यह पत्र/ अनुभव दिल्ली विश्वविद्यालय की एक एड हॉक दलित प्राध्यापिका ने इस शर्त के साथ भेजा है कि उनका नाम जाहिर न किया जाये. आप एक दलित, ओबीसी, आदिवासी, पसमांदा स्त्री के रूप में यदि जातिवाद झेल चुकी हैं तो अपने अनुभव हमें भेजें.

यह पत्र किसी की शिकायत नहीं है बल्कि मेरी मानसिक यातना की अभिव्यक्ति है, मैं कई सालों, महीनों और दिनों से सोचती थी कि कुछ लिखूंगी और यदि आज नहीं लिखती तो मैं शायद फांसी के फन्दे पर झूल रही होती। अपने मन से निकाल कर आज मैं यहां लिख रही हूं।

मैं यह पत्र अभी रात को 2 बजकर 29 मिनट पर लिख रही हूं जब सारी दुनिया चैन की नींद सो रही है और मैं मानसिक यातना से ग्रस्त बेचैन यह पत्र लिख रही हूं । आज मई की आखिरी तारीख है । 1 मई को विश्व मजदूर दिवस मनाया जाता है और आज 31 मई है इस महीने की आखिरी तारीख। मान लीजिए मैं भी एक बंधुआ मजदूर हूं क्योंकि मैं एक कॉलेज में कहने को सहायक प्रवक्ता हूं किन्तु बंधुआ हूं। मेरी पास अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तो है किन्तु जब उसे अभिव्यक्त करती हूं तो चुप करा दिया जाता है ।

आज मैंने विभागाध्यक्ष से बहुत निवेदन किया किन्तु अपनी असमर्थता को जाहिर करते हुए मुझे जून में एडमिशन ड्यूटी के लिए बार-बार बुलाया जा रहा है। इसके लिए मैं पहले से ही अनुरोध कर चुकी थी क्योंकि मुझे अपनी Ph.Dजमा करनी है मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं है।  एडमिशन ड्यूटी को समाप्त करने के बाद मैं पूरे लगन से अपने Ph.D के चैप्टर लिखने में अतिव्यस्त हूं। किसी भी हालत में इसे 15 जुलाई तक समाप्त करना है ताकि कॉलेज के कामों में मैं अपना सहयोग दे सकूं। फिर भी नहीं माना गया और एडमिशन ड्यूटी में मुझे लगा दिया गया। आज मुझे 11AM पर कॉलेज बुलाया गया। मैंने उनसे विनम्र निवेदन किया किन्तु उन्होंने मुझसे लिखित में ले लिया कि तुम अपनी असमर्थता जाहिर कर रही हो। मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की कि मैं पीएच.डी. को जमा करते ही 15 जुलाई से दिन-रात कॉलेज के एडमिशन में सहयोग दूंगी । फिर भी नहीं माना। बोला कि हमारे पास और कोई नहीं है हम तुम्हें कहीं और नहीं लगा सकते क्योंकि “तुम्हें कुछ काम नहीं आते हैं” । (हमारी योग्यता पर ऐसे ही आरोप लगाये जाते हैं)

पढ़ें: हां उनकी नजर में जाति-घृणा थी, वे मेरे दोस्त थे, सहेलियां थीं

कल उनका मैसेज आया था मुझे उन्होंने admission committee में के साथ रखा। मैंने उन्हें मदद देने का मैसेज किया, क्योंकि मुझे 4th  list में बुलाया जा रहा है। मैंने सोचा कि कोशिश यही रहेगी कि पीएच.डी का काम पूरा हो जायेगा तो मदद कर दूंगी। फिर दूसरे दिन मुझे वहां से हटाकर हेल्प डेस्क में रखा गया क्योंकि जिसका नाम वहां दिया गया था, उसके पिता जी की तबियत खराब होने के कारण उसे घर के लिए निकलना पड़ा । मुझे हेल्प डेस्क के लिए फोन आया तो मैंने मना किया कि मैम अभी पीएच.डी. का काम कर रही हूं इसलिए मैं नहीं आ सकती । उन्होंने एडमिशन कंवेनर से बात करने के लिए कहा। मैंने ऐडमिशन कन्वेनर से अपनी समस्या बतायी वे तुरन्त तैयार हो गयी कि बेटा तुम अपना पीएच.डी. लिखो मैं किसी और को हेल्प डेस्क के लिए कह दूंगी । उसके बाद आज मुझे कॉलेज में मिलने के लिए बुलाया गया । घर से निकलने से पहले मैंने उन्हें फोन किया कि मैं बात कर लेती हूं किन्तु फोन नहीं उठाया और न ही कॉल बैक किया । सीनियर टीचर इन्चार्ज होने का अपना स्वाभिमान इसे कहा जा सकता है। मैं वहां पहुंची। मेरी उनसे बात हुई बार-बार निवेदन करने पर भी वो नहीं मानी जिससे मुझे रोना आ रहा था। मेरी आंखों से आंसू निकल रहे थे। मैं रोती जा रही थी किन्तु उन्होंने इस पर भी टिप्पणी की कि हम किसी को इस तरह आंसू गिराते नहीं देखे हैं जो काम नहीं करना चाहता है। मैं इसलिए आंसू नही निकाल रही थी कि मैं काम नहीं करना चाहती हूं बल्कि पीएचडी मेरी अभी अन्तिम दौर में है अगर इसे नहीं जमा कर पाई तो मेरे पूरे पांच साल बर्बाद हो जायेंगे।  इसलिए मुझे यह बहुत दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि एक दलित लड़की जब शिक्षा के लिए अपना कदम बढ़ाती है तो उसे कितना कष्ट सहना पड़ता है। इस पर भी जब वो आर्थिक आजीविका के लिए आत्मनिर्भर होकर अपनी शिक्षा का खर्च स्वयं वहन करती हो और उसके लिए नौकरी करती हो।

शैक्षणिक संस्थाओं में कुछ सवर्ण महिलाओं द्वारा अत्याचार और उत्पीड़न की घटनाएं लोगों को अजीब लग सकती हैं यह भी तब जब स्त्रियों को भी शिक्षा प्राप्त करने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी हो, किन्तु यह एक बड़ा सत्य है।  आज सदियों बाद दलित स्त्रियों की पहली पीढ़ी उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं । घर और बाहर दोनों जगह काम उसे तो करना ही पड़ता है इसके साथ ही साथ उसके साथ जातिगत भेदभाव और उसकी अवमानना निरन्तर होती है। उसकी शिक्षा की प्रगति में बाधक कुछ सवर्ण महिलाएं विभिन्न और अतिरिक्त कार्यभार सौंप देती हैं ताकि वह वहां तक पहुंच ही न पाए। सबसे बड़ी हैरानी की बात यह है कि कई संघर्षों से जूझती हुई एक स्थायी दलित शिक्षिका भी जब दलित स्त्री की समस्या को समझ नहीं पाती है और उसका उत्पीड़न करने में सहायक होती है। हर चीज लिखित में लेकर अपना पूरा दबाव व वर्चस्व कायम करने की कोशिश जारी रहती है। दलित महिलाएं जो अभी-अभी निम्न स्थिति से उठकर आई है कैसे वो एक दलित महिला का दर्द नहीं समझ पाती और सवर्ण महिला के साथ मिलकर उसके उत्पीड़न में भागीदार होती है। यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूं कि सभी सवर्ण महिलाएं ऐसी नहीं होती, कुछ सवर्ण महिलाएं ऐसी भी हैं जो आपकी हर समस्याओं के साथ सहानुभूति और संवेदना जताकर वो आपके साथ खड़ी होती हैं। ये उत्पीड़न सामंती मानसिकता से ग्रस्त लोग करते हैं जिन्हें अपना वर्चस्व हर हाल में बनाये रखना है। इन सभी संदर्भों को समझना होगा। स्त्रियों के साथ यौन हिंसा और शारीरिक हिंसा ही बड़ी हिंसा नहीं है उसे मानसिक प्रताड़ना देना भी बड़ी हिंसा है। हम केवल पुरुषों पर यह आरोप नहीं लगा सकते कि कार्यस्थलों पर महिलाओं के शोषण में उनकी बड़ी भूमिका होती है।

वे सब ऊंची जाति की हिन्दू सहेलियां थीं: मेरे मुसलमान होने की पीड़ा

कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं आम बात है किन्तु महिलाओं द्वारा महिलाओं का शोषण यह लोगों के लिए नई बात हो सकती है। आज जिस मानसिक पीड़ा से मैं गुजर रही हूं इसका खामियाजा मेरे अलावा कौन भुगतेगा? युवा लड़कियों के साथ अधिक उम्र की महिलाएं क्यों गलत व्यवहार करती हैं? काम करने के लिए जिस शान्त और सौहार्द वातावरण की आवश्यकता है उसकी उपलब्धता कौन सुनिश्चित करायेगा ? जिस तरह विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों में रैगिंग के खिलाफ कानून बनाए गयें हैं –एंटी रैगिंग, वैसे ही कार्यस्थलों पर काम करती हुई महिलाओं के साथ हिंसा, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न पहुंचाने वालों के खिलाफ कानून बनने चाहिए। ऐसा कानून जिससे वे अपने ऊपर हो रहे मानसिक उत्पीड़न के लिए आवाज उठा सके। हर काम सुकून और शान्ति से सौहार्द वातावरण में किया जा सके।

आज पूंजीवादी नीतियों द्वारा काम कम हुए हैं। लोग न चाहते हुए भी प्राइवेट और शार्ट टर्म पर काम करने के लिए मजबूर हैं। कहीं स्थायी नियुक्तियां न होने की वजह से वे वहीं पर टिके रहते हैं उन्हें निरन्तर यह कह कर भी डराया-धमकाया जाता है कि उन्हें स्थायी नियुक्ति में नहीं रखा जायेगा। जिसकी वजह से वे कुछ भी बोलने में असमर्थ होते हैं। यदि इसका वे विरोध करते हैं तो उन्हें यह कहकर शिक्षण संस्थानों से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है कि ‘हमारी पहुंच बहुत ऊंची है हम कहीं भी तुम्हारा selection नहीं होने देंगे’। इसका भी बड़ा कारण यह है कि लोगों के पास उच्च शिक्षा और अतिरिक्त योग्यताओं की डिग्रियां तो हैं किन्तु उनके लिए काम कम है जिसकी वजह से वे खाली और निराश बैठ जाते हैं तथा अपने उत्पीड़न के खिलाफ़ चुप रहते हैं। 

अतः हमारे देश की सरकार से यह निवेदन है कि जितनी जल्द स्थायी नियुक्तियां होंगी उतना ही शोषण का पैमाना कम होगा। शिक्षण संस्थानों में सभी समान पदों पर होंगे, कोई किसी से कम नहीं होगा, सभी अपने साथ हुए शोषण के खिलाफ आवाज उठायेंगे और गलत का प्रतिकार करेंगे।

पढ़ें: उस संस्थान में ब्राह्मणों की अहमियत थी

शारीरिक मानसिक पीड़ा के साथ एक स्त्री के साथ हुए जातिगत भेदभाव की पीड़ा बहुत भयानक होती है यही कारण है कि आज युवा आत्महत्या की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। इसका जिम्मेदार कौन होगा वो व्यक्ति जिसने आत्महत्या कर ली है वो या फिर वो जो उसे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा है। इस मानसिक पीड़ा से मैं बहुत बार ग्रसित हुई हूं। कई बार मेरी योग्यता पर सवाल उठाया गया है। कई बार मुझे जे.एन.यू. से कूड़ाकरकट उठ कर गये हैं ऐसा कहकर जलील किया गया है।स्वयं जे.एन.यू. का बताकर यह कहा जाता है कि हम जे.एन.यू. वालों के साथ न्याय करते हैं। यह कैसा न्याय है जो आपको इतना अपमानित करता है कि आप उस मानसिक यातना से उबर नहीं पाते हैं।

यदि मैंने भी आत्महत्या का रास्ता अपना लिया तो क्या मेरे साथ न्याय किया जायेगा ? क्योंकि लोग यही कहेंगे इसे कुछ बोलना चाहिए था, सबसे बात करनी चाहिए थी । जो व्यक्ति इस दुनिया से चला जायेगा उस पर कोई बात ही नहीं करना चाहेगा । सब मुझे ही कायर कहकर ठण्डे पड़ जायेंगे । फिर मामला शान्त हो जायेगा और शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं के साथ ऐसे ही दुर्व्यवहार और मानसिक प्रताड़नाएं जारी रहेंगे । कृप्या इसका संज्ञान लिया जाय । ऐसे मसलों पर कॉलेज की प्रधानाध्यापिका चुप है, हमारे संस्थान-विश्वविद्यालय चुप हैं, टीचर एसोशिएसन (डूटा) चुप है, वाइसचांसलर चुप है, शिक्षा का विभाग संभालने वाला मानवीय केन्द्रीय संसाधन मंत्रालय चुप है । देश का पहला व्यक्ति राष्ट्रपति चुप है, प्रधान मंत्री चुप है, हमारी भारत सरकार चुप है, यहां तक कि महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न की हर घटनाओं का संज्ञान लेने वाला संयुक्त राष्ट्र संघ तक चुप है। कौन करेगा मेरे साथ न्याय ? जबकि मैं अपने दलितपन को छोड़ भी दूं तो सबसे पहले मैं इंसान हूं। मनुष्य किसी भी तरह का अपमान सहन नहीं कर सकता जब उसे बार-बार जलील किया जाता हो ऐसे में उसके पास अपना कीमती जीवन खत्म कर लेने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता।

मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूं कि मुझ पर झूठा आरोप लगाकर कुछ लोगों को अपने पक्ष में खड़ाकर के मुझे गलत सिद्ध किया जायेगा। उनसे अपने पक्ष में लिखित में लेकर कि वो सही हैं और मैं बेबुनियादी बातें कर रहीं हूं, कर लिया जायेगा। मेरे खिलाफ कुछ लोग पत्र लिखने में हिचकेंगे नहीं । क्योंकि मैं अस्थायी शिक्षिका हूं और लोगों को नौकरी चाहिए इसलिए वो मेरे पक्ष में कुछ नहीं बोलेंगे सारा न्याय फिर एक स्थायी व्यक्ति के हित में होगा। इसमें वो लोग भी शामिल होंगे जो बड़े-बड़े भाषणों में सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर स्त्री-मुक्ति के विषय में बहुत कुछ लिखते और बोलते हैं किन्तु व्यवहार में वो उतने ही खोखले लोग हैं। जब आपके साथ अन्याय होता है तो वे चुप्पी साधे होते हैं।

मैं एक दलित हूं इसलिए मुझे इंसाफ मिलेगा इसकी मुझे कोई उम्मीद नहीं है। एक स्त्री भी हूं इसलिए न्याय मिलने में देर लग सकती है। किन्तु मैंने अपने दलित और स्त्री होने के फायदे और नुकसान से यह पत्र नहीं लिखा है। मैंने एक मानसिक यातना से ग्रस्त लड़की और सबसे बड़ा इन्सान होने के नाते अपनी दुःखभरी और यातनादायी अभिव्यक्ति  की है।

अपने इस पत्र के हवाले से मैं उन सभी महिलाओं चाहे वे सवर्ण हों या दलित-आदिवासी, अल्पसंख्यक, ट्रांसजेण्डर के साथ हो रहे कार्य स्थलों पर हर शोषण के विरोध की आवाज बनना चाहती हूं। हो सकता है यह पत्र पोस्ट होते ही मुझे नौकरी से निकाल दिया जाय, कई धमकियां और दी जायं। मुझे कहीं नौकरी न मिले। फिर भी हर शोषण-उत्पीड़न और गलत के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। क्योंकि शोषण सहने वाला सबसे बड़ा अपराधी होता है।

 इस पत्र को अभी मैं कहीं भी पोस्ट करने से बच रही हूं क्योंकि समय बहुत बड़ा होता है और सही समय का इंतजार है मुझे । वही मुझे न्याय दिलायेगा । इसका पूरा भरोसा है मुझे ।