ब्राह्मण होने का दंश: कथित पवित्रता की मकड़जाल

श्रीदेवी छत्तीसगढ़ रायपुर में रहती हैं. पिछले एक दशक से अजीम प्रेमजी फाऊंडेशन में शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं.

इस सीरीज में सवर्ण स्त्रियाँ लिखें, जिसमें जाति आधारित अपने अथवा अपने आस-पास के व्यवहारों की स्वीकारोक्ति हो और यह भी कि यह कब से और कितना असंगत प्रतीत होने लगा. आज आप क्या सोचती और व्यवहार करती हैं . ब्राह्मण लोकेशन की श्रीदेवी बता रही हैं कि उनके ब्राह्मण परिवेश में जातिवाद और छुआछूत किस कदर हावी था:

मुम्बई की डॉक्टर पायल तडावी की आत्महत्या के संदर्भ में हम एक सीरीज के तहत यह तथ्य स्त्रीकाल में सामने ला रहे हैं कि खुद जाति का बर्डन ढोती, अपने लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की व्यवस्था में उपेक्षित ऊंची जाति की महिलाएं अन्य जाति और धार्मिक पहचान वालों के साथ क्रूर और अमानवीय व्यवहार करती हैं. हम इस सीरीज में ऐसे अनुभवों को प्रकाशित कर रहे हैं. नाइश हसन और नीतिशा खलखो का अनुभव हम प्रकाशित कर चुके हैं. ये अनुभव सामने आकर एक खुले सत्य ‘ओपन ट्रुथ’ को एक आधार दे रहे हैं-दलित, ओबीसी, आदिवासी, पसमांदा स्त्री के रूप में ऐसे अनुभव के सीरीज जारी रहेंगे.

बचपन मे मैं रेलवे स्कूल मे पढ़ती थी| वहाँ सभी जातियों के बच्चे पढ़ते थे कक्षा मे सब एक साथ बेंच मे अपने तरीके से बैठते| घर आने के बाद मुझे घर मे कोई चीज नही छूना था कपड़े घर के आँगन मे उतार कर नहाना होता फिर घर के कपड़े पहनने पड़ते, ऐसा खेलकर आने के बाद भी करना होता था| नहाने के आलस से मैं स्कूल के अलावा कहीं जाती नही थी| किशोर उम्र तक आते-आते मैंने स्कूल से आने के बाद नहाना छोड़ दिया इसके लिए माँ से रोज बहस भी होती| इसमे उनके दो तर्क निश्चित रूप से होते थे – जाने  किस जाति की लड़की के साथ बेंच मे एक साथ बैठकर आई है| कौन लड़की पीरियड से है तुझे तो मालूम नही है न चलो जाओ नहाकर आओ|

पढ़ें: हां उनकी नजर में जाति-घृणा थी, वे मेरे दोस्त थे, सहेलियां थीं

कुछ दिन बाद से मैंने माँ से कहना शुरू किया, जो तुम किसी के बारे मे नही जानती कौन लड़की किस जाति की है और कौन लड़की पीरियड से है उसके लिए आप घर मे कानून क्यों बना रही हो कि मैं घर आकर नहाऊँ| रोज के नहाने के झंझट से बचने के लिए मैं एक सप्ताह तक स्कूल नही गई| माँ पिताजी की चिंता बढ़ गई नही पढ़ेगी तो क्या होगा? इसलिए फिर घर मे स्कूल से आने का बाद शुचिता के लिए नहाने की रीत बंद हुई, अच्छा तो यह हुआ कि मेरे भाई बहन के पढ़ने तक आते आते ये विचार शिथिल हो गया कि ‘बाहर जाने किस जाती के बच्चों के साथ बैठते और खेलते हो|’

मैं कक्षा पाँच मे पढ़ती थी भाषा की पाठ्यपुस्तक मे एक पाठ था  ‘बाबासाहेब डा भीराव अंबेडकर’ मैंने जब पहली बार उस पाठ को पढ़ा- उसमें वर्णित घटनाओं से मैं रो पड़ी थी, तीन चार दिन तक उदास रही, माँ ने पूछा तो बता दिया मैंने| उस दिन उन्होने कहा था इन सब पर दुखी होने से कुछ नही होता ये सब समाज मे होता है| पापा अक्सर घर मे इन्दिरा गांधी और नेहरू और गांधी की बाते करते पर कभी भी अंबेडकर की बात नही की| उस पाठ को पढ़ने के बाद मैंने उनसे पूछ लिया, पापा अंबेडकर तो कितने अच्छे थे उन्होने भारत का संविधान बनाया और बहुत सारे सामाजिक बुराईयों को कम करने के लिए काम किया| इस पर उनका सीधा जवाब था उनके बारे मे बात मत करो उनके कारण ही हमारी आज यह हालत है आरक्षण नही होता मेरा डिपार्टमेंटल प्रमोशन कब का हो गया होता|

हमारे घर मे मेरे बचपन से एक भैया आए थे काम खोजने के लिए वो किसी और जाति के थे पर साथ मे हम सब आराम से रहते थे| माँ ने कभी भोजन के लिए उनके साथ भेदभाव नही किया जो हम खाते वो भी वही खाते और वो साथ भी बैठते थे पर माँ ने कभी भी उनकी खाई हुई थाली को धोया नही हम सब के बर्तन माँ धोती थी पर भैया को अपनी थाली खुद धोनी होती थी| ये केवल मेरा अवलोकन है जब तक मैं इस पर सवाल करती तब तक भैया अपने काम मे लग गए उनकी शादी हो गई और उनका अलग घर बन गया| उनकी शादी के बाद भाभी अक्सर हमारे घर आती उन्होने सारा काम माँ से सीखा एक बार बातों बातों मे बताया की वे घर मे हमेशा ब्राह्मण जिस शैली मे भोजन बनाते है वैसा ही बनाती है क्योंकि भैया को वही पसंद है| दूसरा भाभी पूजा मे हमेशा ब्राह्मण महिलाओं को प्राथमिकता देता |भैया ने भी जितना मैंने उन्हे देखा है ब्राह्मण परिवारों से ही निकटता रखी है|


पढ़ें: उस संस्थान में ब्राह्मणों की अहमियत थी

शिक्षकों के साथ एससीईआरटी मे विभिन्न प्रशिक्षणों के दौरान काम करते हुए कई बार जाती पूछी गई दक्षिण भारत मे (आंध्र प्रदेश) उस समुदाय या उस क्षेत्र विशेष के लोग ही आपको चिन्हित कर पाते हैं| मैं छत्तीसगढ़ मे रहती हूँ तो जब तक मैं स्वयम से होकर लोगो को अपनी जाति नहीं बताती तब तक पता नही होता| मेरे नाम में मैंने अपना उपनाम कभी नही लिखा संयोग से विद्यालय मे भी मेरा केवल नाम ही रह गया उपनाम किसी तरह से छूट गया| यह छूटना बचपन मे बुरा लगा था क्योंकि भाई और बहन के नाम मे उपनाम लगा हुआ था| पर आज यह अच्छा लगता है| किसी भी संस्था मे काम करते हुए मुझसे किसी ने भी जाति नही पूछी और न मुझे बताना पड़ा |कभी मेरे सामने ऐसे सवाल कोई पूछता तो मैं यही कहती ‘जाती न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान’ इस पर भी एक दो बार लोगो ने यह कहा इतना तो समझ मे आता है जिस तरह से अपनी बात के लिए आप तर्क देती हैं आप तो ब्राह्मण ही होंगी|

मेरे बुआ की एक बेटी ने अपनी पसंद से प्रेम विवाह किया। मुझे याद है इसके लिए घर मे कितनी गरम बहसें हुई थी परिवार के कुछ सदस्यों ने उसे मृत मान लिया, उसका विवाह बहुत ही दुखी मन से उसके माता पिता ने कराया। उनके बहन की शादी मे वे गई तो उसने कहा मेरे शादी आपने ऐसे क्यों नही की यही जवाब था तुमने ब्राह्मण से शादी नही की इसलिए किस मुंह से तुम्हारी शादी इस तरह से करते। घर मे जब कोई विशेष देवी की पूजा होती तो उसे उस पूजा का हिस्सा आज भी नही बनाया जाता है |

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