औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जायेगा (भारती वत्स) की कविताएं

भारती वत्स

औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढता जायेगा

भारती वत्स
मरी जायें मल्हारें
गायें (प्रकाशित पुस्तक).
पहल सहित विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में रचनायें, आलेख
प्रकाशित. संपर्क: bhartivts@gmail.com

औरतें निकली हैं
सडक़ पर
आज
गलबहियां
बदल गई है
तनी हुई मुठी में
मर्दानगी की
निर्लज्जताओँ का
सलेटी पहाड
डहाने अपने मन
की तहोँ से
पौरुष की चमकती मछलियों के
मोहजाल से मुक्त
औरत की चाँद सी गोलाइयों
से मुक्त
ये तनी मुठ्ठियाँ
वर्जनाओं की तख्तियोँ
को पलटना चाहती हैँ
हर बँद दरवाजे के
मुहाने से
बेखौफ़
मुखर…।
मिटाना चाहती हैं
अवहेलनाओँ के
राग से उपजी
बेचारगी के
बेसुरेपन को..
मुक्त होना चाहती हैँ
कमतरी की भाषा के सँजाल से
जहाँ गिरफ्त हैँ
उसकी आजादी
उसके सपने
और वो…
सडक पर निकली है
वो औरत जो
लडना चाहती है
खुद से खुद के खिलाफ
अपने थोपे अकेलेपन के
खिलाफ,जिसे
भरती रही है वो
अबतक
आचार/मुरब्बे/पापड/बडी
के कलात्मक साझेपन मेँ
अब भरना चाहती है
मन के उन खँडोँ को
अपनी आल्हादित
आद्रताओँ से
फैला देना चाहती है
भीँगी रात की नमी को
रँगीन कागजों की सतह पर
रँगोँ से सराबोर
चाय के साथ किताब के
इस समय हीन समय
के रुपक से
अनुपस्थित
औरत
उपस्थित होना चाहती है…।

बरी होना चाहते हो

तुम
अपनी निरँकुशताओँ की
उन कार्यवाहियों से
जिनकी बहुत भारी कीमत
चुकाई है
उन लोगों ने
जिन्होंने खडे होने का साहस
किया था
तुम्हारे विरुद्ध
और अकस्मात
पड़ गये थे
निपट अकेले
जैसे तप्ते सूर्य
के चमकीले कुहासे मेँ
आबद्ध हो जाता है
कोई राहगीर
पूरा ब्रम्हांड डूब जाता
हो जैसे उस
अभेद्य,सघन
विस्तार मेँ
बिना अता पता दिये
तुम बरी होना चाहते हो
मौत के उस
विकल्पहीन
समय से
जब तुमने
पूरी नग्नता के साथ उघाड दी थी
स्त्री की देह
उस अनाव्रृत स्त्री की
आँखों से बही तरलताओँ
मेँ यदि तुम बह जाते
उस रोज
तो इतिहास मेँ तुम भी
होते शामिल
एक इँसान की तरह
सडक पर निर्वस्त्र घूमती
मैं
पृथ्वी हो गई थी
जो उर्वर थी
आन्न्ददायिनी थी
मेरे अनाव्रृत स्तन
तुम्हें रोमाँचित कर रहे होँगे
पर मैं
उस दुधमुंहे बच्चे मेँ
तब्दील होते
तुम्हें देख रही थी
निरँतर
जो तुम होना नहीं चाहते थे
किसी कीमत पर
तुम्हारे हाथ
आँखें,शरीर
बदल गये थे
नुकीले स्याह नाखूनों मेँ
क्या तुमने देखा है
कभी अपना
प्रतिबिंब
ठँडी शाँत लहरों मेँ
तुमने मुझे
देहमुक्त कर दिया
उस ठहरे समय मेँ
और मैँ
आगे बढ गई
कई युग-युगान्तर
जहाँ तक तुम्हारे नाखूनों की
पहुंच सँभव ही नहीं थी
तुम बरी होना चाहते हो
उन खौफनाक इरादों से
जो रोप दिये हैँ
तुम्हारे अंदर
औरत के विरुद्ध
और
रहने किया है बाध्य
विकल्प हीन दुनिया मेँ
तुम्हारे मन मेँ बसी
वो अन्तरंग बेचैनियाँ
जो कभी खीँचती होँगी
तुम्हें
स्नेहसिक्त आलिँगन की ओर
और
पराजित होती रही हैँ
तुम्हारे नाखूनों से
तुम्हारे इरादों से
तुम्हारी निर्विकल्पताओँ से
जो तुमने चुनी नहीं
तुम तो
आखेट हो
उन अदृश्य
हवाओं मेँ तैरते
नपुंसक विजेताओं के
जिनकी
साँवली परतों मेँ रुँधी
विषैली साँसों से
अवरुद्ध हैँ
तुम्हारे वो दरवाजे
जहाँ प्रतीक्षा है
एक दस्तक
प्यार की
बन जाओ न भरे हुये बादल
इस चमकीले -कुहासे मेँ
तुम हो जाओगे बरी…।

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