उस संस्थान में ब्राह्मणों की अहमियत थी

इस नयी सीरीज में सवर्ण स्त्रियाँ लिखें, जिसमें जाति आधारित अपने अथवा अपने आस-पास के व्यवहारों की स्वीकारोक्ति हो और यह भी कि यह कब से और कितना असंगत प्रतीत होने लगा. आज आप क्या सोचती और व्यवहार करती हैं . पहली क़िस्त में पुणे से स्वरांगी साने लिख रही हैं. पुणे जहाँ जातिवाद सबसे क्रूर रूप में रहा है. पेशवाओं के जमाने से अबतक. हाल की एक घटना रही थी जिसमें एक डॉक्टर ने अपनी खाने बनाने वाली सहायिका पर मुकदमा इसलिए कर दिया था कि उसने नौकरी पाने के लिए खुद को ब्राहमण बताया था जिससे डॉक्टर का परिवेश अछूत हो गया था. वहां से ही ब्राह्मण लोकेशन की स्वरांगी बता रही हैं कि उनके परिवेश में स्पष्ट ब्राह्मणवाद तो नहीं है लेकिन उसका सूक्ष्म लेयर मौजूद है:

मुम्बई की डॉक्टर पायल तडावी की आत्महत्या के संदर्भ में हम एक सीरीज के तहत यह तथ्य स्त्रीकाल में सामने ला रहे हैं कि खुद जाति का बर्डन ढोती, अपने लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की व्यवस्था में उपेक्षित ऊंची जाति की महिलाएं अन्य जाति और धार्मिक पहचान वालों के साथ क्रूर और अमानवीय व्यवहार करती हैं. हम इस सीरीज में ऐसे अनुभवों को प्रकाशित कर रहे हैं. नाइश हसन और नीतिशा खलखो का अनुभव हम प्रकाशित कर चुके हैं. ये अनुभव सामने आकर एक खुले सत्य ‘ओपन ट्रुथ’ को एक आधार दे रहे हैं-दलित, ओबीसी, आदिवासी, पसमांदा स्त्री के रूप में ऐसे अनुभव के सीरीज जारी रहेंगे.


मैं दलित नहीं हूँ, इसलिए मेरे पास वह अनुभव न हो कि दलित होने की पीड़ा क्या होती है,मैं ब्राह्मण हूँ, लेकिन सच मानिए मेरे पास कभी वैसा अनुभव भी नहीं था कि ब्राह्मण होना क्या होता है?

मेरी परवरिश जिस वातावरण में हुई वहाँ ‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ को महत्व दिया जाता था…या हो सकता है मुझे ऐसा लगता रहा हो या मेरे सामने वैसा चित्र उभरकर आया था। जब समझ में आया कि मैं ब्राह्मण हूँ तब फ्लैशबैक में बचपन की, किशोरावस्था की और कॉलेज के दिनों की भी सारी छवियाँ उभरीं कि कब-कब मुझे लगा था कि मैं ब्राह्मण हूँ या नहीं हूँ। स्कूल से घर पैदल चलकर आते थे, घर दूर था और बीच में जिस सहेली का घर लगता था उसके यहाँ मटके का ठंडा पानी पीते थे, उसके घर में पंखे के नीचे बैठते थे और फिर आगे बढ़ते थे। मेरे साथ बर्वे उपनाम की दूसरी लड़की थी और जिसके घर रुकते थे वह खरे थी..बर्वे नारमदेव (नर्मदा किनारे रहने वाले) ब्राह्मण थी और खरे दलित थी। खरे ने खुद बताया था बड़े नाज़ से, क्योंकि उसकी वह काली हिरण जैसी चमकीली आँखें मुझे आज भी याद हैं, जब उसने कहा था कि वह ‘हरिजन’ है और यह श्रेणी महात्मा गाँधी ने उन्हें दी है। मैंने घर पर आकर बताया भी था कि वह हरिजन है लेकिन उसके हरिजन होने से न हमारी मित्रता में कोई फर्क आया न उसके घर जाने पर किसी तरह की रोक-टोक हुई। बर्वे और मैं उसके घर जाते रहे, पानी पीते रहे और स्कूल में भी साथ में पढ़ते-खाते-खेलते-गपियाते रहे।

कुछ बड़ी कक्षाओं में जब स्कूल के फॉर्म हम खुद भरने लगे तो जाति का सर्टिफिकेट लगाने की बात आई और मुझे वह सर्टिफिकेट नहीं लगाना था, तब पता चला कि अच्छा यह कुछ ‘खास जातियों’के लिए ही लगता है, लेकिन तब भी मन में किसी तरह का और कोई भाव नहीं था, वह एक दिन होता था जब फॉर्म भरे जाते और अपनी-अपनी जातियाँ लिखी जाती थीं, तमाम दूसरी औपचारिकताओं की तरह। लेकिन तब ये जरूर लगता कि फॉर्म में ये कॉलम नहीं होना चाहिए…न ये कॉलम होता न हमें हमारी जातियाँ पता चलतीं। बड़े स्कूल में स्कूल की बस से आना-जाना शुरू हुआ तो पता चला कि मेरे साथ जो बैठती है वह बौद्ध है। पर मुझे वह और उसे मैं उतनी ही पसंद थी, जितनी स्कूली सहेलियों की दोस्ती होती है। फिर एक और ओबीसी सहेली, जो अब पुलिस इंस्पेक्टर बन गई है…उससे अभी तक उसी तरह की दोस्ती है। जिला स्तर पर साक्षरता कार्यक्रम में स्कूली दिनों में ही जत्था कलाकार की तरह जाती थी और वहाँ एक सहेली बन गई थी तिवड़े। उसने एक दिन मेरा हाथ छूकर कहा, तुम्हारा हाथ कितना मुलायम है। तब भी मुझे यह अहसास नहीं हुआ था कि हाथ के मुलायम होने का जाति से कोई संबंध है, मुझे लगा चूँकि उसे बर्तन अधिक माँजने पड़ते हैं इसलिए उसका हाथ सख्त हो गया है। मैं यह सब इसलिए नहीं कह रही कि मैं अपना भोलापन दिखाना चाहती हूँ, मैं इसलिए कह रही हूँ कि सामाजिक परिवेश का असर आप पर बहुत अधिक होता है। जहाँ सामाजिक परिवेश में असमानता नहीं होती वहाँ उस तरह की वितृष्णा दोनों ओर से नहीं होती।

स्वरांगी साने की एक यादगार तस्वीर: उनके फेसबुक से

तुमी बामन्या न

तो, मुझे कब पता चला कि मैं ब्राह्मण हूँ। अर्थात् ही यह उस तरह से पता चलने वाली बात नहीं कह रही जो मुझे मेरे जन्म से मेरे गोत्र आदि के साथ पता थी, यह सामाजिक संदर्भ में पता चलने वाली बात कर रही हूँ। तो पुणे आने पर मेरे लिए यह अनुभव अलग किस्म की असहज अनुभूति लेकर आया। पहली बार ही जो कचरा उठाने आती थी, उसने बेल बजाई, मैंने कचरा बाहर रखा और ऐसे ही मुस्कराई…बेवजह..उससे नजर मिल गई तो मुस्करा दी, मेरे मन में सच में और कोई भाव नहीं था, लेकिन उसने मुझसे हँसकर कह दिया- ‘ताई तुमी बामन्या न (दीदी आप ब्राह्मण न?)’, मैं औचक रह गई। उसने जिस तरह से ‘बामन्या’ कहा उसमें एक तरह का वह भाव था जो मुझे कह रहा था कि उसमें और मुझमें भेद है। फिर यह भेद तो यहाँ लगातार मुझे महसूस होता रहा…। मेरी पिछली जिंदगी में हमने कभी किसी से उसकी जाति-धर्म के नाम पर बात नहीं की थी, मजाक नहीं उड़ाया था, टिप्पणी या उपहास नहीं किया था…दोनों ओर से नहीं। लेकिन यहाँ बहुत बहुत पक्के मित्र भी इसलिए पक्के थे कि वे जानते थे कि हम ब्राह्मण हैं और वे केवल ब्राह्मणों से दोस्ती रखते हैं। या दूसरी वजह भी यही थी कि हम ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणों से दोस्ती रखना स्टेटस की बात होती है। यहाँ आकर जो पहली नौकरी मैंने की वहाँ मुझे एक अलग बात पता चली, जब एक ने कहा कि तुम्हें कोई नौकरी से नहीं निकालेगा, तुम खुद छोड़ना चाहो तो छोड़ देना, मैंने हैरत से पूछा क्यों? उसका जवाब था तुम ब्राह्मण हो न और ब्राह्मणों के स्टाफ में होने से संस्थान की अहमियत बढ़ती है इसलिए यहाँ ब्राह्मणों को नहीं हटाते। मैं हठात् थी, सच में हठात् थी, उसके पहले भी अपने पहले शहर में नौकरियाँ की थीं, लेकिन तब मेरी शैक्षणिक गुणवत्ता या कार्यानुभव मायने रखता था..पर मैं चकित थी कि ब्राह्मण होना भी क्या कोई पैमाना हो सकता है? अब यहाँ अन्य जातियों के मित्र-सहेलियाँ, परिचित, पड़ोसी, मिलने-जुलने वाले कोई भी ब्राह्मण होने के आधार पर ही कैटगराइज़ कर बात करते हैं। पहले असहज होती थी, कि केवल नाम बताने से काम नहीं चलता, उन्हें उपनाम भी बताना होता है और उपनाम बताते ही वे कह पड़ते हैं ब्राह्मण न? मैं हाँ में गर्दन हिलाती हूँ..पर उस प्रश्न का कोई संदर्भ, औचित्य नहीं समझ पाती। कुछ संबंध प्रगाढ़ होते हैं तो ब्राह्मणों के ढेरों किस्से उनके पास (गैर ब्राह्मण) होते हैं और वे समवेत हँसते हैं, फिर कहते हैं अरे नहीं तू वैसी नहीं, हम तो बस यूँ ही। मैं हैरत में पड़ जाती हूँ, और मैं कर भी क्या सकती हूँ।

खुद को गौण क्यों करवा रहे हो?

मराठी परिवारों में सुहागनों को किन्हीं विशेष अवसरों पर बुलाकर ‘हल्दी-कुमकुम’ लगाया जाता है, एक तरह का गेट-टूगेदर कह सकते हैं। उसमें भी मुझे अनुभव यह आया कि अरे ब्राह्मण हूँ इसलिए व्यर्थ भाव मत दो, यदि मेरी प्रतिभा, मेरी दोस्ती के कायल हो, तो बात है, लेकिन वे घूम-फिरकर मेरे ब्राह्मण होने पर आ जाते हैं और लगता है जैसे मेरी उनके प्रति की सारी सदाशयता, मित्रता वैसे कोई मायने नहीं रखती, मतलब मैं भली न भी होती तब भी वे उस दिन मुझे मान देते ही। तो अनुभव यह है कि जब मैं दूसरी नौकरी करने लगी तब मैं देर रात घर लौटती थी, हल्दी-कुमकुम जैसे कार्यक्रम शाम को होते हैं तो मैं कई बार नहीं जा पाती थी। दो-तीन बार अनुभव आया कि एक महिला मुझे उसके यहाँ हल्दी-कुमकुम में एक दिन पहले से कई बार याद दिलाती, दूसरे दिन में कहती कि मैं दोपहर को ऑफिस जाने से पहले उसके यहाँ चली जाऊँ। मुझे लगता कि चूँकि मैं नहीं जा पाती इसलिए वह ऐसा कहती होगी, लेकिन एक बार वह बोल पड़ी- ‘तुम ब्राह्मण हो न, तुमसे शुरुआत हो जाती है तो अच्छा रहता है। दोपहर में ही सही लेकिन पहला मान तुम्हारा।’ अरे मत करो न ऐसा, क्यों कर रहे हो, खुद ही अपने आप को कम आँक रहे हो। हम सभी समान हैं और समानता की लड़ाई है न ये, तो इसमें दूसरे को अपने से श्रेष्ठ कह खुद को गौण क्यों करवा रहे हो।  

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और गहरा दर्द

एक घटना तो मेरे जीवन में ऐसी हो गई कि उसकी टीस आज भी चुभती है। मेरी बहुत अच्छी सहेली बन गई थी। मेरी हमउम्र थी, हम आते-जाते थे, बच्चे साथ में खेला करते थे। सब सही चल रहा था। उसके यहाँ ‘हल्दी कुमकुम’ होता तो वह मुझे बुलाती और मेरे यहाँ होता तो मैं उसे। पर उसे न जाने कैसी और कौन-सी बीमारी लग गई। एक महीने के भीतर बुखार क्या आया और वह चल बसी। हम सभी के लिए वह बहुत त्रासद था, क्योंकि उसके छोटे बच्चे हमारी आँखों के सामने थे, जैसे ही खबर मिली, हम चार-पाँच सहेलियाँ उसके घर पहुँचीं…अस्पताल से वह आ गई थी, बर्फ की मानिंद ठंडी पड़ गई थी उसकी देह। हम सब रो रहे थे, उसकी माँ भी रो रही थी आखिर उसकी तो बेटी थी, उसका पति भी..क्यों न रोता उसकी जीवनसाथी थी, बच्चे तो माँ के बिना बिलख-बिलख रो रहे थे। घर के कोई बड़े-बुजुर्ग थे, वे कह रहे थे यह सुहागन गई है, इसे सुहागन की तरह सजाओ…इसकी शादी की साड़ी लाओ.. दुल्हन की तरह तैयार करो (इस पर अलग से बात होगी कि हमारे यहाँ अब भी सुहागन और विधवाओं के साथ कैसे भेदभाव होता है)..होना तो यह चाहिए था कि उसकी माँ-बहनें, सास-ननद या उनके परिवार में से कोई यह सब करता लेकिन सब मुझे कहने लगे कि मैं करूँ…तब तक भी मैं नहीं समझी, मुझे लगा कि मैं उसकी खास सहेली थी इसलिए मुझे कह रहे हैं। लेकिन उसकी माँ ने कहा- ‘तुम ब्राह्मण हो न, तुम्हारे हाथ से इसका सब होगा तो इसका अगला जन्म तर जाएगा’। उस गहन शोक की घड़ी में भी मेरा ब्राह्मण होना जैसे मुझे सबसे अलग कर गया, उसकी माँ-बहन उसकी ज्यादा सगी थी, लेकिन उसे तैयार करने का काम मुझ पर सौंपा गया क्योंकि मैं ब्राह्मण हूँ। अचानक मुझे लगा कि इतने साल जो मैं उसे अपनी दोस्ती का प्यार समझती थी कहीं उसकी ओर से भी वह प्यार, वह मान मेरे ब्राह्मण होने को लेकर तो नहीं था? अब उसकी मृत काया के पास केवल मैं थी, बाकी सब बहुत दूर से मुझे देख रहे थे, तौल रहे थे कि मैं ब्राह्मण हूँ, मैं जो भी करूँगी सही ही करूँगी इस श्रद्धा भाव के साथ। मैं उसकी सहेली थी, मतलब मैं तो खुद को यही मान रही थी…आज भी जब यह घटना याद करती हूँ तो मुझे लगता है, वह भी मुझे अपनी सहेली ही मानती होगी न या किसी और दुनिया से आया कोई अजूबा ब्राह्मण समझती होगी?

पर मैं इतना तो समझ गई कि एक दुनिया में कई छोटी-छोटी अलग दुनिया बसती हैं और बहुत छोटी मानसिकताओं के साथ भी, ब्राह्‌मणों में भी और श्रेष्ठ होने की होड़ है। हम सब समान हैं, इसे सिद्ध करने की होड़ क्यों नहीं लगती कभी?